Tattvagyan Tarangini-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१०२ ][ तत्त्वज्ञान-तरंगिणी
संगं मुक्त्वा जिनाकारं धृत्वा साम्यं दृशं धियं
यः स्मरेत् शुद्धचिद्रूपं वृत्तं तस्य किलोत्तमं ।।१६।।
संग तजी जिनमुद्रा धाारी, समता दर्शन ज्ञाने;
चिद्रूप शुद्ध स्मरे त्यां तेने, चारित्र उत्तम धयाने रे,
भविका रत्नत्रय आदरिये. १६.
अर्थ :जे जीव संग (परिग्रह) छोडीने, वीतराग मुद्रा धारण
करी, समताभाव (चारित्र), दर्शन, ज्ञान धारण करीने शुद्ध चिद्रूपनुं
चिंतवन करे छे तेनुं चारित्र खरेखर उत्तम छे. १६.
ज्ञप्त्या दृष्टया युतं सम्यक् चारित्रं तन्निरुच्यते
सतां सेव्यं जगत्पूज्यं स्वर्गादिसुखसाधनं ।।१७।।
दर्शन ज्ञान संयुत ते सम्यक् चारित्र ज्ञानी वखाणे;
सेव्य संतने जगत पूज्य ए स्वर्ग मोक्ष सुख आणे रे.
भविका रत्नत्रय आदरिये. १७.
अर्थ :जे ज्ञान अने दर्शन सहित होय ते सम्यक्चारित्र
कहेवाय छे. ते संतोए सेववा योग्य, जगतमां पूज्य अने स्वर्गादि
सुखनुं साधन छे. १७.
शुद्ध स्वे चित्स्वरूपे या स्थितिरत्यंतनिश्चला
तच्चारित्रं परं विद्धि निश्चयात् कर्मनाशकृत् ।।१८।।
निज सहजात्म स्वरुपे अति जे निश्चल स्थिति पमाय;
निश्चयथी चारित्र परम ते कर्मनाश त्यां थाय रे.
भविका रत्नत्रय आदरिये. १८.
अर्थ :पोताना सहज चैतन्यस्वरूपमां जे अत्यंत निश्चळ
स्थिति, तेने निश्चयनयथी श्रेष्ठ चारित्र, कर्मनो नाश करनार तुं
जाण. १८.