अध्याय-१३ ][ १०७
मोहवशे विपरीतमति हुं, मळे न मुजमां कांइ विवेक,
हुं रोगी, निर्धान, मतिहीणो, बलविहीन, सद्गुण नहि एक;
सदा दोषयुकत हीन आचारी, निंद्य, प्रमादी, हुं दीनमात्र,
एम भावना भावे जगमां, विशुद्धि सुखनो ते सत्पात्र. ६.
अर्थ : — हुं संसारमां मोहथी विपरीत मतिने पामेलो छुं,
विवेकरहित छुं, भवरोगयुक्त छुं, धनरहित छुं, चिद्रूपनी प्राप्ति वगरनो
छुं अथवा विपरीत बुद्धिवाळो छुं, गुणरहित छुं, शक्तिरहित छुं, सदा
दोषवाळो, निंद्य, तुच्छ कार्य करनारो, प्रमादी छुं. आवी भावना करनारो
जीव जगतमां विशुद्धिथी प्रगटता सुखनो भागी (पात्र) थाय छे. ६.
राज्ञो ज्ञातेश्च दस्योर्ज्वलनजलरिपोरीतितो मृत्युरोगात्
दोषोद्भूतेरकीर्त्तेः सततमतिभयं रैनृगोमंदिरस्य ।
चिंता तन्नाशशोको भवति च गृहीणां तेन तेषां विशुद्धं
चिद्रूपध्यानरत्नं श्रुतिजलधिभवं प्रायशो दुर्लभंस्यात् ।।७।।
(सवैया)
राजा ज्ञाति चोर अग्नि जल अरि मृत्यु व्याधिा दुःखदाय,
दोषजनित अपयश आदिथी ग्हस्थने भय सतत सदाय;
ज्यां पशु नर धान धाामनी चिंता तेना नाशे शोक अपार,
त्यां बोधााब्धिा ज शुद्ध रत्न सम चिद्रूपधयान सुलभ नहि धाार. ७
अर्थ : — गृहस्थोने राजा तरफथी, ज्ञाति तरफथी तथा चोरथी,
अग्नि, पाणी अने शत्रुथी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, तीडनो उपद्रव,
उंदरनो उपद्रव, पोपट आदि पक्षीओनो उपद्रव, स्वसैन्यनो उपद्रव,
परसैन्यनो उपद्रव वगेरेथी, मृत्युथी, रोगथी, दोषनी उत्पत्तिथी,
अपयशथी, निरंतर अत्यंत भय, धन, मनुष्य, पशु, मकान आदिनी
चिंता तेना नाशमां शोक थाय छे; तेथी तेमने श्रुतसागरमांथी जन्मेलुं,
निर्मळ आत्मध्यानरूप (विशुद्ध) रत्न घणुं करीने दुर्लभ होय छे. ७.