Tattvagyan Tarangini-Gujarati (Devanagari transliteration).

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अध्याय-१३ ][ १०९
ज्यारे शरीरनुं, कर्मनुं, कर्मना कारणोनुं चिंतन होय छे, त्यारे
क्लेश थाय छे अने ज्यारे शुद्ध आत्मानुं चिंतन थाय छे, त्यारे विशुद्धि
थाय छे. ११.
गृही यतिर्न यो वेत्ति शुद्धचिद्रूप लक्षणं
तस्य पंचनमस्कारप्रमुखस्मरणं वरं ।।१२।।
गृहस्थ के मुनि जो जाणे नहि निर्मल चिद्रूप लक्षण सार,
पंच नमस्कृति आदि तेने स्मरण श्रेÌ तो गण्युं हितकार. १२.
अर्थ :जे गृहस्थ के मुनि शुद्ध चिद्रूपनुं लक्षण जाणता नथी,
तेने पंचनमस्कार आदिनुं स्मरण श्रेष्ठ छे. १२.
संक्लेशस्य विशुद्धेश्च फलं ज्ञात्वा परीक्षणं
तं त्यतेत्तां भजत्यंगी योऽत्रामुत्र सुखी स हि ।।१३।।
आ संकलेश अने शुद्धिफळ जाणे करी परीक्षा सार,
तजी संकलेश विशुद्धि भजे ते उभय लोकमां सुख अपार. १३.
अर्थ :जे जीव संक्लेश अने विशुद्धिनुं फळ परीक्षापूर्वक
जाणीने संक्लेशने तजे छे अने विशुद्धिने भजे छे, ते (जीव) आ लोकमां
तथा परलोकमां सुखी थाय छे. १३.
संक्लेशे कर्मणां बंधोऽशुभानां दुःखदायिनां
विशुद्धौ मोचनं तेषां बंधो वा शुभकर्मणां ।।१४।।
अशुभकर्म अतिशय दुःखदायी बांधो ज्यां संकलेश भजाय;
विशुद्धि भजतां कर्म छूटे सौ अथवा मात्र शुभ बंधााय. १४.
अर्थ :संक्लेशमां दुःखदायक अशुभकर्मनो बंध थाय छे,
विशुद्धिमां ते कर्मनुं छूटवुं थाय छे अथवा शुभकर्मनो बंध थाय छे. १४.
विशुद्धेः शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानं मुख्यकारणं
संक्लेशस्तद्विघाताय जिनेनेदं निरूपितं ।।१५।।