११० ][ तत्त्वज्ञान-तरंगिणी
उत्तम धयान विमल चिद्रूपनुं, विशुद्धिनुं ए कारण मुख्य,
तेना घाात बने संकलेशे, भाखे एम जिनेन्द्र प्रमुख. १५.
अर्थ : — शुद्ध चिद्रूपनुं उत्तमध्यान विशुद्धिनुं मुख्य कारण छे तेना
घात माटे संक्लेश कारण थाय छे, जिन भगवाने आम कह्युं छे. १५.
अमृतं च विशुद्धिः स्यान्नान्यल्लोकप्रभाषितं ।
अत्यंतसेवने कष्टमन्यस्यास्य परं सुखं ।।१६।।
लोक कहे अमृत ते तो नहि, विशुद्धि ए अमृत प्रधाान,
लौकिक अति सेवन दुःखदायी, विशुद्धि अमृत सुखद महान. १६.
अर्थ : — लोकमां जे अमृत कहेवाय छे ते कोई अमृत नथी,
आत्मविशुद्धि ज अमृत छे. अन्य (अमृत)ना अत्यंत सेवनमां कष्ट थाय
छे, ज्यारे आ विशुद्धिना सेवनथी परम सुख थाय छे. १६.
विशुद्धिसेवनासक्ता वसंति गिरिगह्वरे ।
विमुच्यानुपमं राज्यं खसुखानि धनानि च ।।१७।।
अनुपम राज्य विषय सुख वैभव धान आदि तजी थया विरकत,
गिरि गुफामां जइ ते वसता, विशुद्धि सेवनमां आसकत. १७.
अर्थ : — विशुद्धिना सेवनमां आसक्त थयेला जीवो अनुपम
राज्य, इन्द्रिय सुख तथा धन तजीने पर्वतनी गुफाओमां वसे छे. १७.
विशुद्धेश्चित्स्वरूपे स्यात् स्थितिस्तस्या विशुद्धता ।
तयोरन्योन्यहेतुत्वमनुभूय प्रतीयतां ।।१८।।
विशुद्धिः परमो धर्मः पुंसि सैव सुखाकरः ।
परमाचरण सैव मुक्तेः पंथाश्च सैव हि ।।१९।।
विशुद्धिथी चिद्रूपमां स्थिरता स्थिरताथी वळी शुद्धि सधााय,
एम परस्पर कारणतानो अनुभव करी धार श्रद्धामांय. १८.