Atmadharma magazine - Ank 057
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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(अनुसंधान मुखपृष्ठथी चालु)
प्रश्न:– जो सामग्रीमां सुख न होय तो तेमां बधा सुख केम मानता हशे?
उत्तर:– त्रिदोष रोगवाळो रोगने लीधे खूब हसे अने पोते सुख माने पण खरेखर तेने दुःख ज छे,
थोडीवारमां ते मरी जशे. तेम अज्ञानी जीवो आ बधा परभावोमां सुख माने छे ते अज्ञानरूपी हर्षसन्निपात
रोग छे. थोडा काळमां मिथ्यात्वने लीधे निगोदमां जईने ढीम थई जशे–जड जेवा थई जशे. जेणे आत्मामां थता
दयादि भावोने ठीक मान्या तेणे मिथ्यात्वरूपी शत्रुनो संग कर्यो. भगवान आत्मा–जेनुं लक्षण जाणवुं, देखवुं छे
तेनो संग करे नहि अने रागादि भावोनी होंश करे ते जीव आत्मानो शत्रु छे.
प्रश्न:– पाप टळे ते धर्म कहेवायने?
उत्तर:– हा, पण पाप क्यारे खरेखर छूटे? बधा पापोमां सौथी मोटुं पाप मिथ्यात्व छे. पहेलांं ते पाप
छोडे तो धर्म थाय. आत्मा चैतन्यधन छे तेने छोडीने पर संगथी लाभ मानवो ते ज मिथ्यात्व छे. आवुं
मिथ्यात्वरूप पाप छोडे तेने सम्यकत्वरूप धर्म थाय. पुण्यमां जेओ धर्म माने छे तेने मिथ्यात्वरूपी पाप छूटतुं
नथी, ने धर्म थतो नथी.
प्रश्न:– वीतरागने न माने ते मिथ्यात्व; एवी मिथ्यात्वनी व्याख्या छे ने?
उत्तर:– वीतरागने न मानवा ते मिथ्यात्व ए वात साची; पण एनो अर्थ शुं? वीतराग एटले
रागरहित आत्मस्वरूप छे, तेना सिवाय रागादिने आत्मानुं स्वरूप जे माने छे ते खरेखर वीतरागदेवने
मानतो नथी. रागरहित पोताना ज्ञानस्वरूपनी श्रद्धा, ज्ञान अने स्थिरता करवी तेने ज वीतरागे धर्म कह्यो छे
ए सिवाय रागादिमां धर्म माने ते जीव वीतरागनी आज्ञाने मानतो नथी तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे.
कंजुसनी लक्ष्मी जेम ठरीने एक ठाम रहे छे अने हेरफेर बहु थती नथी तेम शरीर तथा विकारने पोतानुं
स्वरूप माननारा मूढात्माओ शरीरनी ममताने लीधे निगोद जाय छे अने त्यां क्षणे क्षणे शरीर फेरव्या करे छे–
जन्म–मरण कर्या करे छे. आत्मानो जे परम पारिणामिक भाव छे ते ओळखीने तेमां स्थिरता करवी ए ज
परमात्मपद छे. पोतानो आत्मा जाणवा, देखवारूप स्वभाववाळो छे; निश्चयथी ते ज शिव छे. व्यवहारथी सिद्ध
भगवान शिव छे. पण ए सिवाय बीजो कोई शिव नथी.
भगवान वीतरागनी आज्ञा छे के तारुं चैतन्यस्वरूप छे, राग तारुं स्वरूप नथी, –आवी श्रद्धा कर अने
तारा स्वरूपमांथी खसीने बहार न जा, एवी आज्ञा जे न माने ते वीतराग देवनी आज्ञानो विराधक छे. अने
ते जीव संसारमां रखडे छे. अहीं ग्रंथकार कहे छे के हे जीव! तुं तारा कल्याणस्वरूप आत्मानी अंदर लीन रहे,
बहारमां न भटक.
जीव अनादि छे, काळ अनादि छे. जीवनो संसार पण अनादि छे. अनंतकाळमां आ जीवे निश्चयथी
पोतानो आश्रय कर्यो नथी तेमज वीतरागदेवने यथार्थ स्वरूपे ओळखीने तेमनो पण कदी सेकंड मात्र आश्रय
कर्यो नथी. आत्माए अनंतकाळमां बधुं कर्युं छे पण पोते ज्ञानानंद मूर्ति छे अने परलक्षे थतां भाव ज
दुःखदायक छे एवी साची आत्मभावना कदी करी नथी. तेथी अनादिकाळथी मिथ्याद्रष्टि रह्यो छे. आत्मज्ञान
सिवाय बीजी बधी भावना करी छे. आत्मस्वभावना भान विना स्वर्ग–नरकादिमां अनंतकाळथी रखडयो, पण
पोतानो आत्मा परमानंद मूर्ति छे तेनी प्रतीति न करी अने जिनराजने धणी तरीके स्वीकार्या नहि. जिनराजने
धणी क्यारे स्वीकार्या कहेवाय? जे रागथी धर्म माने ते जीव वीतरागनो दास नथी अने तेणे खरेखर
वीतरागने धणी स्वीकार्या नथी. भगवान आत्मा दया, पूजा वगेरे पुण्य अने हिंसादि पाप भावोथी जुदो
ज्ञायकस्वरूप छे तेने जे नथी मानता ते खरेखर वीतरागना दास नथी पण कुदेवना दास छे. धर्मात्मा सम्यग्द्रष्टि
ज खरेखर जिनराजना भक्त छे.
प्रश्न:– अनंतकाळमां आत्मानी ओळखाण न थई तेथी समकित तो न पाम्यो ए वात साची पण
जिनराजनो दास न थयो एम कई रीते कह्युं? शास्त्रमां तो वचन छे के अनंतभवमां द्रव्यलिंगी मुनि थईने
जिनवरदेवना स्तवन गायां ने तेमनी भक्ति करी.
उत्तर:– सम्यग्दर्शन नहि होवाथी जीवे कदी जिनराजनी भाव भक्ति करी नथी अने भावभक्ति विना ते
जिनराजनो साचो भक्त थई शके नहि. भावभक्ति ए तो सम्यग्दर्शन छे. एणे एक समय पण वीतरागदेवनी
आज्ञा यथार्थ मानी नथी, अने रागने ज धर्म मान्यो छे. रागरहित चैतन्य स्वभाव समजे नहि अने रागने
धर्म मानीने भक्ति वगेरे शुभराग करे तेनी अहीं गणतरी नथी, माटे हे जीव! रागरहित पोतानुं चैतन्य
स्वरूप शुं छे तेने तुं जाण अने सम्यग्दर्शन प्रगट कर ए ज संसार समुद्रथी छूटवानो उपाय छे.