उत्तर:– त्रिदोष रोगवाळो रोगने लीधे खूब हसे अने पोते सुख माने पण खरेखर तेने दुःख ज छे,
रोग छे. थोडा काळमां मिथ्यात्वने लीधे निगोदमां जईने ढीम थई जशे–जड जेवा थई जशे. जेणे आत्मामां थता
दयादि भावोने ठीक मान्या तेणे मिथ्यात्वरूपी शत्रुनो संग कर्यो. भगवान आत्मा–जेनुं लक्षण जाणवुं, देखवुं छे
तेनो संग करे नहि अने रागादि भावोनी होंश करे ते जीव आत्मानो शत्रु छे.
उत्तर:– हा, पण पाप क्यारे खरेखर छूटे? बधा पापोमां सौथी मोटुं पाप मिथ्यात्व छे. पहेलांं ते पाप
नथी, ने धर्म थतो नथी.
उत्तर:– वीतरागने न मानवा ते मिथ्यात्व ए वात साची; पण एनो अर्थ शुं? वीतराग एटले
मानतो नथी. रागरहित पोताना ज्ञानस्वरूपनी श्रद्धा, ज्ञान अने स्थिरता करवी तेने ज वीतरागे धर्म कह्यो छे
ए सिवाय रागादिमां धर्म माने ते जीव वीतरागनी आज्ञाने मानतो नथी तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे.
परमात्मपद छे. पोतानो आत्मा जाणवा, देखवारूप स्वभाववाळो छे; निश्चयथी ते ज शिव छे. व्यवहारथी सिद्ध
भगवान शिव छे. पण ए सिवाय बीजो कोई शिव नथी.
ते जीव संसारमां रखडे छे. अहीं ग्रंथकार कहे छे के हे जीव! तुं तारा कल्याणस्वरूप आत्मानी अंदर लीन रहे,
बहारमां न भटक.
कर्यो नथी. आत्माए अनंतकाळमां बधुं कर्युं छे पण पोते ज्ञानानंद मूर्ति छे अने परलक्षे थतां भाव ज
दुःखदायक छे एवी साची आत्मभावना कदी करी नथी. तेथी अनादिकाळथी मिथ्याद्रष्टि रह्यो छे. आत्मज्ञान
सिवाय बीजी बधी भावना करी छे. आत्मस्वभावना भान विना स्वर्ग–नरकादिमां अनंतकाळथी रखडयो, पण
पोतानो आत्मा परमानंद मूर्ति छे तेनी प्रतीति न करी अने जिनराजने धणी तरीके स्वीकार्या नहि. जिनराजने
धणी क्यारे स्वीकार्या कहेवाय? जे रागथी धर्म माने ते जीव वीतरागनो दास नथी अने तेणे खरेखर
वीतरागने धणी स्वीकार्या नथी. भगवान आत्मा दया, पूजा वगेरे पुण्य अने हिंसादि पाप भावोथी जुदो
ज्ञायकस्वरूप छे तेने जे नथी मानता ते खरेखर वीतरागना दास नथी पण कुदेवना दास छे. धर्मात्मा सम्यग्द्रष्टि
ज खरेखर जिनराजना भक्त छे.
जिनवरदेवना स्तवन गायां ने तेमनी भक्ति करी.
आज्ञा यथार्थ मानी नथी, अने रागने ज धर्म मान्यो छे. रागरहित चैतन्य स्वभाव समजे नहि अने रागने
धर्म मानीने भक्ति वगेरे शुभराग करे तेनी अहीं गणतरी नथी, माटे हे जीव! रागरहित पोतानुं चैतन्य
स्वरूप शुं छे तेने तुं जाण अने सम्यग्दर्शन प्रगट कर ए ज संसार समुद्रथी छूटवानो उपाय छे.