Atmadharma magazine - Ank 303
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : पोष : २४९प
–* गणित *–
तमने गणितनो शोख होय तो
नीचेना दाखला गणो–
(१) एक करोडने एक करोडथी गुणतां
जे आवे तेने एक कोडाकोडी कहेवाय छे. तो
१० करोडने १० करोडथी गुणतां दश
कोडाकोडी थाय.–ए बराबर छे?
(२) एक जीव एक पदार्थने एक
समयमां जाणे छे, तो लाख पदार्थने केटला
समयमां जाणशे?
(३) एक जीवे मोहकर्मनो क्षय कर्यो तो
हवे आठ कर्मोमांथी तेनी पासे वधुमां वधु
केटला कर्मो बाकी रहेशे?
(४) एक जीवे ज्ञानावरण कर्मनो क्षय
कर्यो, तो हवे तेनी पासे वधुमां वधु केटला
कर्मो बाकी रहेशे?
(प) आ जगतमां जेटला अनाजना
दाणा छे ते बधा भेगा करीए ने जगतना
बधा जीवोनी वच्चे वहेंचीए, तो दरेकना
भागे शुं आवशे? (जवाब माटे जुओ
पानुं ३०)
म...ध (मीठुं नहीं पण कडवुं)
मध ए मनुष्यनो खोराक नथी, मध ए
तो मांखीनो खोराक छे. मधनी अंदर
मांखीना ईंडानो रस छे तेथी ते सर्वथा
अभक्ष्य छे. आपणा जैनधर्ममां मांस
जेटलो मधनो पण सख्त निषेध छे. दवा
खातर पण मध वपराय नहि. मांस–मधुने
मद्य (दारू) नो जे त्यागी होय तेने ज
‘श्रावक’ अथवा जैन कही शकाय. जैन कदी
मध–मांस–दारूनुं सेवन करे नहि. (ईंडां के
माछलांनुं भक्षण ते पण मांसाहार ज छे.)
मध खावामां एटलुं पाप छे के तेनुं फळ
पण नरक कह्युं छे. माटे मध खरेखर मीठुं
नथी पण अत्यंत कडवुं छे...ते झेरथी पण
वधु कडवा दुःख देनार छे.
– * साधननी परंपरा *–
* मोक्षनुं साधन वीतरागता.
* वीतरागतानुं साधन ज्ञान.
* ज्ञाननुं साधन विचार.
* विचारनुं साधन सत्य उपदेशनुं ग्रहण.
* * *
सत्पुरुषना उपदेशनुं ग्रहण करतां
विचारदशा जागे.
अंतर्मुख विचारदशा वडे ज्ञानदशा प्रगटे.
ज्ञानना बळे वीतरागता थाय.
वीतराग थतां केवळज्ञान ने मोक्ष थाय.
उपदेशनुं ग्रहण, विचारदशा, ज्ञान,
वीतरागता ने केवळज्ञान ए बधाय भावो
आत्मानी पर्यायो ज छे, बहारनी वस्तु
नथी. आ रीते आत्मानुं साधन आत्मामां
ज छे, बहार नथी.
जिज्ञासु थईने सत्पुरुषना उपदेशनुं
ग्रहण पण जे न करे तेने विचारदशा
क्यांथी जागे? अंतरनी विचारणा वगर
साचुं ज्ञान क्यांथी प्रगटे. सम्यग्ज्ञान वगर
वीतरागता क्यांथी थाय? ने वीतरागता
वगर केवळज्ञान के मोक्ष क्यांथी थाय?
माटे हे जीव! तुं जिज्ञासु थई, ज्ञानीना
उपदेशनुं ग्रहण करी अंतरनी विचारणा
वडे स्व–परनुं यथार्थ भेदज्ञान करी तेना
बळे वीतरागता कर, जेथी तने केवळज्ञान
अने मोक्षदशा थशे.
जिन परम पैनी सुबुधि छैनी डार अंतर भेदिया,
वरणादि अरू रागादितें निज भावको न्यारा किया;
निजमांहि निजके हेतु निजकर आपको आपे गह्यो,
गुणगुणी ज्ञाता–ज्ञान–ज्ञेय मंझार कछु भेद न रह्यो.