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मुमुक्षुः- स्वरूपको पहचानकर जो महिमा आनी चाहिये, सहज महिमा, ऐसी महिमा नहीं आनेमें ज्ञान लंबाता नहीं होगा या परकी रुचिमें ....
समाधानः- बाहरकी रुचिमें अटक जाता है, इसलिये महिमा नहीं आती है। उसके स्वभावकी महिमा (नहीं आती है)। स्वभाव ही महिमारूप है, परन्तु रुचि बाहरकी लगी है इसलिये वह रुचि मन्द पड जाती है। रुचिका कारण है। ज्ञान लंबाये, उसके विचार लंबाये, परन्तु रुचि जो ज्ञायककी महिमा आये, उग्र महिमा आये तो वह रुचि कम हो जाय। अपनी ओर अधिक झुकता जाय, अधिक महिमा आये तो। फिर पुरुषार्थ कम है। निज ज्ञायक स्वभावका आलम्बन नहीं है। सब साथमें है।
लौकिक परिणाम है वह, गुरुदेव कहते थे न? वह शामकी संध्या है। सुबहकी संध्या देव-गुरु-शास्त्रकी (है)। परन्तु उसमें भी ज्ञायकको पहचानना बाकी रहता है। सुबह सूर्य ऊगे.. ज्ञायकको ग्रहण करे तो। लौकिक विचार हैं, वह शामकी संध्या है। देव- गुरु-शास्त्रके विकल्प सुबहकी संध्या है। उसमें भी ज्ञायकको ग्रहण करे तो अंतर चैतन्यसूर्य ऊगे।
मुमुक्षुः- अपने आपसे तो स्वयंको ऐसा लगे कि मुझे सत्समागम हुआ है और मैं सब समझ गया हूँ। लेकिन उसके बाद कितना समझने जैसा है वह तो जब विशेष ज्ञानीका परिचय करे तब उसे ख्याल आये कि अपने तो अभी बहुत (बाकी है)।
समाधानः- परिचय हो, चर्चा-प्रश्न हो उसमें आपको स्वयंको ग्रहण (होता है)। जैसे यह ग्रहण होता है, वैसे ग्रहण हो जाता है। दूसरा कुछ सीधी तरहसे कुछ कहनेका बाकी नहीं रहता है।
मुमुक्षुः- समयसार, नियमसार.... गाथा-२०४। कर्मके क्षयोपशमके निमित्त-से ज्ञानमें ... होने पर भी, स्वरूपसे देखनेमें आये तो ज्ञान ... और वही मुख्य उपाय है। गाथा इस तरह है। ... उसमें पर्यायकी बात ली है। कर्मका क्षयोपशम अर्थात पर्यायमें जो पाँच भेद पडते हैं, वह भेद होनेके बावजूद ज्ञानको उसके स्वरूप-से देखनमें आये तो ज्ञान एक ही है। और वही मोक्षका उपाय है, ऐसा कहा है। तो उसमें क्या कहना चाहते हैं?