PDF/HTML Page 21 of 25
single page version
हे दिव्य–संदेश वाहक!
हे तीर्थ आराधक!
हे अविचलित चेतना विलासि!
हे लोकोत्तर मानव!
वैशाख कृष्ण ८ वी० सं० २४८५
PDF/HTML Page 22 of 25
single page version
विदुषी माताओ!
यह हमारा परम सौभाग्य है कि पृथुल–प्रतीक्षा के उपरांत अनमोल निधियों सी
के संयोग के समान जीवन के ये स्वर्णिम–क्षण कितने अनमोल है! इस पावन अवसर
को चीरती हुई रवि–रश्मि के समान विवेक की निर्मल आभा प्रस्फुटि हुई और पूज्य
कान्ह गुरुदेव की शीतल छाया में आपने अन्तरतत्त्व का अनुसंधान आरंभ किया।
विराग की पावन प्रतिमाओं–सी आप! आज भी चरम–शांति के उसी एक लक्ष्य को
PDF/HTML Page 23 of 25
single page version
में प्रचार पा सके तो जीवन की कितनी ही विषमताएं बिना प्रयास समाप्त हो जायें।
मशीन की भांति नियमित सहज ही चलती रहती है। न केवल ब्रह्मचर्याश्रम वरन् वहां
के प्रत्येक ही धार्मिक क्रिया कलाप को मानों आप ही के अदम्य धार्मिक उत्साह से
आपके बिना वहां सभी कुछ श्री–विहीन है। स्वर्णपुरी का विशाल भव्य जिनालय और
ऐसी ही भव्य रचना आपही के अथक श्रम के मधुर प्रसाद है। अंतरंग जीवन के
परिष्कार के साथ बाह्य अवस्था का यह विधान अन्यत्र सुलभ नहीं है।
का प्रतिभास हुआ भक्ति के माध्यम से भगवान के अमित वीतराग–सौंदर्य की आभा भी
उसे ही मिली। जैन–भक्ति का यह सिद्धांत आपके जीवन में पूर्णतः चरितार्थ हुआ है।
प्रवाहित होती रहे यही हमारी कामना है।
और समग्र भारतीय महिला समाज का तमसावृत्तजीवन–पथ आपके अन्तर–आलोक से
आलोकित होता रहे।
PDF/HTML Page 24 of 25
single page version
PDF/HTML Page 25 of 25
single page version