चैत्र २४९४ : आत्मधर्म : ३५
वांच्ाको साथे वातच्ाीत अने तत्त्वच्ाच्ार्
(सर्वे जिज्ञासुओनो प्रिय विभाग)
(चार–पांच वर्ष अगाउना केटलाक प्रश्नो अमारी पासे पड्या हता,
तेनो पण आ विभागमां समावेश करीए छीए.)
प्रश्न :– अमने आत्मानुं ज्ञान करवानुं मन थाय छे पण बाह्य आकर्षणो
भूलाता नथी, तेनुं शुं कारण? –अने जेओ सिद्ध थया तेओने बाह्य आकर्षण नहि
होय? –होय तो तेने केवी रीते दूर कर्या हशे? ( M.k. JAIN. वेडच, भरूच)
उत्तर :– भाई, सामान्यपणे आत्माने जाणवानुं मन तो बधाने थाय; शुं कोई
एम कहे के मारे आत्माने नथी जाणवो?– परंतु आत्माने जाणवानी अंतरथी खरेखरी
जिज्ञासा अने लगनी थाय ते कोई जुदी ज चीज छे. अने एवी लगनी जेने थाय ते
जीव बाह्य आकर्षणोमां रोकाय नहि. बाह्य आकर्षणमां रोकाईने आत्माने भूली जाय
तो तेनो अर्थ ए थयो के तेने बाह्यचीज जेटली वहाली छे तेटलो आत्मा वहालो नथी.
जेने आत्मानी महत्ता लागे तेने बहारनी चीजनी महत्ता छूटी जाय, ने महत्ता छूटे
एटले आकर्षण पण छूटे. तेनो एक दाखलो –बाळकने पोतानी माताप्रत्ये खरेखरुं
आकर्षण छे; तेनी माताना विरहमां ते माताने एवो झंखे छे के तमे गमे ते चीजनुं
आकर्षण आपशो तोपण ते बाळक तेना प्रत्ये आकर्षाशे नहीं. अने माताने दूरथी
देखतां ज बधा आकर्षणो पडता मुकीने माताना भेटवा स्नेहथी दोडशे. तेम जेना
अंतरमां चैतन्यनुं खरुं वहाल जाग्युं–ते जगतना कोई पदार्थना आकर्षणमां रोकाशे
नहीं. ‘मारुं सुख तो मारा आत्मामां छे, बाह्य कोई आकर्षणोमां (सोनामां–महेलमां
स्त्रीमां–मोटरमां– फील्ममां के जगतना कोई पदार्थमां) मारुं सुख छे ज नहि’ –एम
जेने खरेखरुं लक्षमां लीधुं होय ते बहारना आकर्षणोमां केम रोकाय? तेनुं ज्ञान
अंतरमां आत्मा तरफ वळे ज. – आ माटे धर्मात्माओना सत्संगमां रहीने घणो ज
प्रयास करवो जोईए. आपणे चैतन्यनो खरेखरो रस लगाडीने तेना श्रद्धा–ज्ञान–
एकाग्रता करीए तो कांई बाह्य आकर्षणो आपणने रोकता नथी. ध्यानस्थ मुनिवरो
उपर घोर उपद्रव आवे के देवीओ आवीने आकर्षण करे–तोपण तेओ ध्यानथी चलित
थता नथी. ए ज रीते जे सिद्धभगवंतो थया तेओए पण चैतन्यस्वभावनी उत्तम
आराधना करीने, पोतानो उपयोग बहारना आकर्षणोथी पाछो हठावी लीधो ने
निजस्वरूपमां उपयोगने