PDF/HTML Page 1080 of 1906
single page version
मुमुक्षुः- कर्म कारणभूत हो सकते हैं? पूर्व कर्म इस वस्तुमें आगे बढनेके लिये कारणभूत हो सकते हैं?
समाधानः- कारण तो निमित्तमात्र है। अपने पुरुषार्थका कारण है। पुरुषार्थके अभावसे आगे नहीं बढ सकता है।
समाधानः- .. वहाँ साक्षात तो जा नहीं सकते, ये तो सामनेसे पधारे। तीनों बार अष्टाह्निका यहाँ होती है इसलिये.. उसका अर्थ ऐसा होता है। भावसे ऐसा ही अर्थ लिया जाता है। भगवान पधारे इसलिये उसी मन्दिरमें अष्टाह्निका हो जाय न। एक फाल्गुन महिनेके जो आठ दिन हो उसमें परमागमका दिन आता है, फाल्गुन शुक्ल- १३. यहाँ मांडला होता है। नंदीश्वर और मेरुमें देव वहाँ खास नंदिश्वरमें जाते हैं न। फाल्गुन और... भगवान सामनेसे पधारते हैं।
समाधानः- .. आत्मा पर दृष्टि रखे तो उसमेंसे, जिसमें है उसमेंसे प्रगट होता है। उसमें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है। जिसमें है उसमेंसे आता है। बाहरसे नहीं आता है। बाहर तो सब शुभ परिणाम है। शुभ परिणाम भी आत्माका स्वभाव नहीं है। वह आगे बढे उसमें बीचमें शुभ परिणाम आते हैं। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, पंच महाव्रत, अणुव्रत आदि परिणाम होते हैं, परन्तु मुक्तिका मार्ग तो अंतरमें है। निर्विकल्प स्वभावमें निर्विकल्प स्वानुभूति वही मुक्तिका मार्ग है।
जैसे सिद्ध भगवान हैं वैसा आत्माका स्वरूप है। स्वानुभूतिका अंश सम्यग्दृष्टिको प्रगट होता है और उसमें आगे बढते-बढते उसमें चारित्रदशा आती है। मुनिओं अंतर्मुहूर्त- अंतर्मुहूर्तमें आत्मस्वरूपमें झुलते हैं, ऐसा करते-करते केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। आत्मामेंसे ही धर्म प्रगट होता है। बाह्य दृष्टि और बाह्य क्रियाओंमें धर्म उसमें नहीं है। शुभ परिणाम हैं, उससे पुण्य बन्ध होता है और शुद्धात्माका स्वरूप पहिचाने तो ही मुक्ति मिलती है। तो ही मुक्ति अंतरमेंसे ही प्रगट होती है।
वह निर्णय स्वयं ही विचार करके करनेका है। वह कोई नहीं कर देता। स्वयंको ही करना है। गुरुदेवने स्वतंत्रताका मार्ग बताया है कि तू स्वयं ही अन्दर निर्णय कर। कोई नहीं कर देता, स्वयंको करना है। इस पंचमकालमें गुरुदेव पधारे, उन्होंने अपूर्व
PDF/HTML Page 1081 of 1906
single page version
मार्ग बताया। कितने जीवोंको तैयार किया है।
मुमुक्षुः- यहीं सुना और आत्माकी स्वतंत्रताका ढिंढोरा गुरुदेवके सिवा किसीने पीटा नहीं है।
समाधानः- कोई नहीं। वह तो नक्की है। गुरुदेवने ही स्वतंत्रता बतायी। मुक्तिका मार्ग उन्होंने ही बताया है। कोई आत्मा समझता ही नहीं थे। क्रियामें ही धर्म मानते थे। स्वतंत्र अपनेआप होता है। गुरुदेवने स्वयंने कहा है। स्वतंत्र है फिर निमित्त उपादानका ऐसा सम्बन्ध है कि गुरुकी वाणी, देवकी वाणी मिले तब जीव अंतरमें अपने उपादानसे तैयार होता है।
मुमुक्षुः- ..आपकी देशना आज हमें मिली, हमारा अहोभाग्य!
समाधानः- नक्की स्वयंको करना है। स्वयंको नक्की करना बाकी रहता है। अन्दरमें ज्ञायक हूँ, यह नक्की करना, प्रतीत करना स्वयंको है। अभी तो पहले सत्य क्या है, यह नक्की करे। फिर मैं यह ज्ञायक ही हूँ, यह विभाव मैं नहीं हूँ, स्वभावको ग्रहण करना और उसकी प्रतीति करना अलग बाकी रहता है। पुनः अंतरमें ऊतरकर स्वानुभूति करनी, वह उससे भी विशेष करना बाकी रहता है।
मुमुक्षुः- अनन्त-अनन्त आपका उपकार है।
समाधानः- ऋद्धि आत्मामें भरी है, बाहर कहीं नहीं है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- पंचमकालमें पधारे और ऐसी वाणी बरसायी, सबको मार्ग मिला। प्रभु सुवर्णपुरी मांही, अचिंत्य ज्ञान खीलवे, सूक्ष्म न्यायो प्रकाशे, ज्ञानज्योति ... राग भूल जाते हैं। मुखथी छूटे छे ध्वनि, अमृत समी...
मुमुक्षुः- वर्तमानमें तो संयोग है, ज्ञानीका योग है। शास्त्र, देव-गुरु-शास्त्रका योग है और उससे हो। ये जो विचारना है, ऐसा विचार तो सूझता है। लेकिन उस विचारमें, ज्ञायकका अभ्यास करना चाहिये, ऐसा जो आप कहते हो, तो उसकी पूर्वतैयारी कैसी- कैसी होती है?
समाधानः- पूर्वतैयारी, उसीकी महिमा, उसकी लगन लगनी चाहिये न। उसे रस ऊतर जाय, विभावका रस ऊतर जाय। ये सब जो है, विभाव है वह सारभूत नहीं है। सारभूत और सर्वस्व हो तो आत्मा ही है। ऐसी रुचि, महिमा, लगन ऐसा होना चाहिये। अपना स्वभाव कैसे पहचानमें आये? उसका गहरा मंथन, ऐसा सब पहले होना चाहिये।
PDF/HTML Page 1082 of 1906
single page version
वर्तमानमें तो गुरुदेवके प्रतापसे सब संयोग मिले और कैसे आत्माका कल्याण करना, वह सब उसे योग बना है। तो उसमें ज्ञायक कैसे भिन्न है? ज्ञायक तत्त्व भिन्न है वह कैसे पहचानमें आये? उसका बारंबार प्रयत्न करना चाहिये। उसकी महिमा, उसकी लगन सब उसका लगना चाहिये। विभाव-ओरका रस टूट जाना चाहिये।
बाहरमें वह एकमेक-एकमेक हो रहा है। उससे भिन्न होकर, मैं चैतन्यतत्त्व भिन्न ही हूँ, किसीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। इस शरीरके साथ सम्बन्ध नहीं है तो फिर बाह्य संयोगके साथ कहाँ सम्बन्ध ही है? आचार्यदेव कहते हैं, तुझे किसीके साथ नाता या सम्बन्ध नहीं है। तू तो अत्यन्त भिन्न है। इसलिये ऐसे भिन्न आत्माको जाननेका प्रयत्न करना चाहिये। शरीर भी अपनी इच्छानुसार परिणमता नहीं, तो फिर बाह्य संयोग तो कहाँ उसकी इच्छानुसार परिणमेंगे? सर्व द्रव्य स्वतंत्र हैं। इसलिये अपनी स्वतंत्रता पहिचानकर उस ओरका प्रयास करना चाहिये।
मुमुक्षुः- पहिचाननेके लिये जो अन्दरका प्रयास, कि मेेरेमें यह ज्ञान है। वह ज्ञान कैसे हो रहा है? ऐसे उसका अवलोकन करके उसकी स्वतंत्रता, उस परसे आगे विचार लंगाता होगा? या कैसे होता है?
समाधानः- लंबे विचार तो अनेक प्रकारसे हो सकता है कि मैं यह ज्ञायक स्वभाव स्वतंत्र ही हूँ। मेरे सब स्वभाव स्वतंत्र हैं। किसीके आधारसे मेरे स्वभाव नहीं हैं। जो पर्याय प्रगट होती है वह भी किसीके आधारसे नहीं है। प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपने गुण-पर्यायसे स्वतंत्र हैं। इसलिये उसके विचार उस ओर (चलने चाहिये)। उस ओर विचार, मंथन, अपनी ओर खरी लगन लगे तो विचार लंबाये। उसकी स्वतंत्रता पहिचानकर।
.. कुछ कर नहीं सकता। स्वयं अपने कार्य कर सकता है। परद्रव्यके कर्ता, क्रिया और कर्म उसके अपने स्वतंत्र हैं। स्वयं अपने स्वभावका कर्ता, स्वभावकी क्रिया, स्वभावका कर्म, सब स्वयं स्वतंत्र होकर कर सकता है। लेकिन उतनी लगन अन्दर लगे तो स्वयं उसमें गहराईमें जाकर अपनी स्वतंत्रताको अपनी बुद्धिसे जाने, लेकिन उस रूप परिणति करनी वह अपने विशेष पुरुषार्थका कार्य है।
मुमुक्षुः- मतलब उसमें उसे जातकी लगन, जोश, अथवा तो गरज जिसे कहें...
समाधानः- हाँ, उसकी गरज लगनी चाहिये। उसकी लगन, वही सर्वस्व सारभूत है, ऐसा लगना चाहिये।
मुमुक्षुः- भावनामें भी उसे तुलना हो जानी चाहिये कि इस जगतके पदार्थकी ओर जो झुकना होता है, उसके बजाय मेरी ओर झुकना हो, वही मुझे साररूप है।
समाधानः- साररूप है, सुखरूप है। बाह्य पदार्थकी ओर लंबाता है-विचार लंबाते
PDF/HTML Page 1083 of 1906
single page version
हैं, कुछ साररूप नहीं है। वह तो वृथा है। वह कोई अपनी इच्छानुसार होता नहीं है, फिर भी उस ओर दोडा जाता है। उसकी मेहनत करनेमें, उसकी व्यवस्था करनेमें वह बाह्यमें (दोडता है)। लेकिन स्वयं अपना कर सकता है। और वही साररूप, सुखरूप, आनन्दरूप और शान्तिरूप (है)। जो अंतरसे शान्ति प्रगट होती है वह सदाके लिये प्रगट होती है।
ये बाहरका तो सब क्षणिक है। अपनी इच्छाकी बात भी नहीं है, वह तो परद्रव्य है। इसलिये अपनेमें ही सुख और शान्ति है, ऐसा निर्णय करके अपनी ओर जाय तो जा सकता है। लेकिन वह अपनी लगनसे जा सकता है। एक दिशा बाह्यकी और एक दिशा अंतरमें है। पलटना अपने हाथकी बात है। ज्ञायककी ज्ञायकरूप परिणति कैसे करनी वह अपने पुरुषार्थकी-हाथकी बात है। परद्रव्यकी ओर जाय वह तो अनादिका अभ्यास है इसलिये जाता है।
मुमुक्षुः- वास्तवमें उसे पर-ओर जानेकी कोई आवश्यकता नहीं है, कोई कारण भी नहीं है।
समाधानः- अनादि अभ्यासके कारण उस जातका राग है, अतः रागके कारण जाता है। .. हो कि मेरेमें ही सब सर्वस्व है, तो अपनी ओर आ जाय। और नक्की किया उस अनुसार पुरुषार्थ प्रगट हो तो ही वह अपनी ओर आता है।
मुमुक्षुः- विश्वास आना चाहिये।
समाधानः- अपनी स्वभाव जातिमें ही सब है। ये विभावकी जात है, किसी भी जातका मेरा स्वभाव उसमेंसे नहीं प्रगट होगा, वह तो विभावजात है, विलक्षण है। मेरे स्वभावकी जात नहीं है, दुःखरूप है। उसमेंसे नहीं प्रगट होगा, लेकिन मेरे स्वभावकी जो जात है, उस जातमेंसे ही मेरी जो जात है वह प्रगट होनेवाली है। उसमेंसेही-स्वभावमेंसे ही स्वभाव आयेगा। विभावमेंसे नहीं आयेगा। इतनी उसे प्रतीति आये तो ही अपनी ओर पुरुषार्थ करता है।
... अपने स्वभावमेंसे आता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब अपनेमें ही है, अपनेमें से प्रगट होता है। बाहरके साधन होते हैं, लेकिन वह स्वयं प्रगट होता है अन्दर स्वभावमेंसे अभ्यास करनेसे प्रगट होता है। निश्चय साधन स्वयं अपना ही होता है।
.. अंतरमें जो तत्त्व है उसमेंसे प्रगट होगा। अनादिका अनजाना मार्ग है, गुरु मार्ग दर्शाते हैं। वह मार्ग गुरुदेवने बताया है कि तेरा तत्त्व भिन्न है, तेरे द्रव्य-गुण-पर्याय तेरेमें, बाहरमें नहीं है। तेरे कर्ता, क्रिया, कर्म तेरेमें, सब तेरेमें है। गुरुदेवने यह मार्ग बताया। अनादिका परका अभ्यास हो रहा है। मार्ग गुरु दर्शाते हैं, लेकिन करना तो स्वयंको पडता है। समझना, प्रतीत करना सब स्वयंको करना है। अनजाना मार्ग अपने
PDF/HTML Page 1084 of 1906
single page version
आप अपना स्वभाव पहिचानना सब कठिन पडता है। मार्ग बतानेवाले गुरु मिले तब अंतरमेंसे स्वयंको ग्रहण होता है, ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- गुरुकी ओरसे नजर वापस मोडनी, ऐसा गुरु कहना चाहते हैं?
समाधानः- गुरु ऐसा कहते हैं कि तू स्वतंत्र तुझमें देख, ऐसा कहते हैं। तेरी दृष्टि बदल। तू स्वतंत्र है। तू अपनेआप तेरी ओर दृष्टि कर। गुरु ऐसा कहते हैं। लेकिन आगे जानेवालेको ऐसा भक्तिभाव आता है कि गुरु आपने ही मार्ग दर्शाया है। दृष्टि अपनी ओर करता है, उपादान अपना है, लेकिन उसे ऐसी भक्ति आये बिना नहीं रहती।
(गुरुने) दिशा बतायी, गुरुने आत्मा बताया, गुरुने सब स्वतंत्रता (बतायी), सब गुरुदेवने बताया। स्वानुभूतिका मार्ग बताया, निर्विकल्प दशा प्रगट हो तब मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। ऐसे इस आत्माकी स्वानुभूति हो, वेदन हो, सब गुरुने बताया। करना स्वयंको पडता है। होता है उपादानसे, मार्ग गुरु बताते हैं। ऐसे पंचमकालमें गुरुदेव मिले तो उन्होंने ऐसा मार्ग बताया।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें आता है कि गुरु बताते हैं, लेकिन दे नहीं देते।
समाधानः- करना स्वयंको है। उसका बारंबार अभ्यास, दृष्टिको पलटनी, दृष्टि चैतन्य पर स्थिर करनी कि यह मैं चैतन्य ही हूँ, यह विभाव मैं नहीं हूँ। बीचमें जो अल्प अस्थिरता रहती है, वह खडी रहती है, एकत्वबुद्धि टूट जाती है। भेदज्ञान हो जाय और चैतन्य पर दृष्टि होती है।
न्यूनता है इसलिये देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि सब साथमें रहता है। दृष्टि पलट जाती है। उसकी परिणतिकी पूरी दिशा पलट जाती है। जो परिणति एकत्वबुद्धिमें जाती थी, वह परिणति-भेदज्ञानकी परिणति चैतन्य पर एकत्वरूप दृष्टि करके परिणति पलट जाती है।
मुमुक्षुः- मैं चैतन्य हूँ, ऐसे जीने लगता है।
समाधानः- उसका पूरा जीवन पलट जाता है। विभाव पर दृष्टि मत करना, विभावको मत देखना, शरीरको मत देखना, एक चैतन्यकी ओर दृष्टि (करके) चैतन्यको देखता है। ज्ञान सब होता है कि यह शरीर, विभाव आदि जब तक खडा है, तो उसे ख्यालमें है। लेकिन वह कहीं नजर करके अपने स्वभावको-चैतन्यको दृष्टि देखती है। चैतन्य पर दृष्टिको स्थापित करता है। उसकी जीवनकी पूरी गति बदल जाती है।
मुमुक्षुः- अकेले चैतन्यको देखनेका उसे उल्लास है।
समाधानः- परिणति बस, चैतन्यकी ओर चली जाती है।
मुमुक्षुः- अनुभवमें आता है, ऐसा कहनेमें आता है। पीछली बार अपनी बात
PDF/HTML Page 1085 of 1906
single page version
हुयी थी कि स्वभाव तो ऐसा है कि गुप्त नहीं है। अपनी जातको..
समाधानः- उसे वास्तविक वेदन हो गया है ऐसा तो नहीं है। लेकिन उसका स्वरूप है, उसके ज्ञानस्वभावरूप वह स्वयं परिणमन कर रहा है। ज्ञानस्वभावरूप। वह जैसा है वैसा अनुभूतिमें आ रहा है और उस रूप हो रहा है। उस रूप परिणमन कर रहा है। उसके स्वभावरूप अर्थात उसे प्रगट वेदन है ऐसा अर्थ नहीं है। उस रूप स्वयं परिणमन कर रहा है, उसका जो स्वभाव है उस रूप। क्योंकि बादमें तो ऐसा कहते हैं न कि ऐसा होने पर भी उसे प्रतीतमें आता नहीं, नहीं जाने हुएका श्रद्धान गधेके सींगके बराबर है। आचार्यको वहाँ प्रगट अनुभूति तो कहना नहीं है। लेकिन जो अपने स्वभावका अस्तित्व है, ज्ञायक स्वभाव है उस रूप स्वयं हो रहा है। उस रूप परिणमन कर रहा है। जैसा है वैसा। लेकिन स्वयं उसकी प्रतीत करता नहीं, ज्ञान करता नहीं। तू अपने रूप है, आचार्यदेव करुणा करते हैं कि तू तेरे रूप है। तू तेरे रूप हो रहा है, लेकिन तू तुझे देखता नहीं, उसका वेदन नहीं करता है। तू तेरे रूप परिणमन कर रहा है। लेकिन तू तुझे देखता नहीं। ऐसा अनादिअनन्त जैसा है वैसा तू अनुभवमें आ रहा है। अनुभूतिका अर्थ प्रगट वेदन नहीं है। लेकिन उस रूप हो रहा है, अपने स्वभावरूप।
मुमुक्षुः- अस्तित्व मात्र उतना ही या दशाके दृष्टिकोणसे दशामें गुप्त संवेदन है, ऐसा कुछ कहना है?
समाधानः- नहीं, नहीं। गुप्त संवेदन नहीं है। वेदन नहीं है, संवेदन नहीं है। लेकिन उसका स्वभाव उस रूप परिणमन कर रहा है। उस रूप जो स्वभाव है, उस रूप वह है, उसका अस्तित्व है। वेदन हो रहा है, ऐसे वेदनके अर्थमें नहीं है। उस रूप परिणमता है। वेदन प्रगट वेदनके अर्थमें नहीं है। वह कोई जड नहीं है। उस रूप, तेरे स्वभावरूप, तेरे ज्ञानस्वभावरूप तू अनुभवमें आ रहा है और उस रूप तू हो रहा है। उस रूप तू है, ऐसे।
अनुभूतिका अर्थ ही ऐसा है कि उस रूप होना, उस रूप परिणमना, जैसा स्वभाव है वैसे। प्रगट वेदन (नहीं है)। उसका अस्तित्व उस रूप परिणमन कर रहा है। ज्ञायक स्वभावका अस्तित्व है, ऐसा कहनेका आशय है। अस्तित्व उस रूप परिणमन कर रहा है। प्रतिभास, उसे प्रतिभास नहीं है। ज्ञान ज्ञानरूप है, ज्ञान ज्ञानरूप है, लेकिन उसे उसकी प्रतीत नहीं है, अनुभूति नहीं है। अनुभूति, प्रगट अनुभूति-वेदन नहीं है उस अपेक्षासे। वेदनकी अनुभूति नहीं है, लेकिन उसका स्वभाव स्वभावरूप अनादिअनन्त है, जैसा है वैसा अनादिअनन्त है। ज्ञानस्वभाव है, ज्ञानस्वभाव ज्ञानस्वभावरूप परिणमन कर रहा है। उसकी उसे महिमा नहीं आती है। ज्ञान ज्ञानस्वभावरूप (परिणमता है)।
PDF/HTML Page 1086 of 1906
single page version
उसकी महिमा आये तो-तो अपनी ओर मुड जाता है। वास्तविक महिमा आये तो- तो झुक जाता है। ज्ञान ज्ञानस्वभावरूप है। ज्ञान ज्ञान है, यह जड है, यह ज्ञान है, ऐसे। उसकी महिमा आये तो अपनी ओर मुड जाय।