Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 197.

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ट्रेक-१९७ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- विधि-उपाय बताओ? ऐसा सूक्ष्म विकल्प जो रह जाता है।

समाधानः- विकल्पसे भेदज्ञान करना। विकल्प सो मैं नहीं हूँ, मेरा स्वरूप विकल्प नहीं है। विकल्प भिन्न है और मैं भी भिन्न हूँ। मैं स्वभाव निर्विकल्प तत्त्व हूँ, मैं ज्ञायक हूँ। विकल्पसे भेदज्ञान करे, पहले यथार्थ श्रद्धा-प्रतीत करे कि मैं ज्ञायक हूँ। उस ज्ञायककी दृढ प्रतीत। ज्ञायकको भीतरमेंसे पहचानकर, ज्ञायकका स्वभाव पीछानकर ज्ञायकको भिन्न करे कि यह ज्ञायक मैं हूँ, यह विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है। मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, परन्तु वह मेरा स्वभाव नहीं है। मैं उससे भिन्न हूँ। उस विकल्पसे पहले भेदज्ञान करे कि मैं ज्ञायक निर्विकल्प तत्त्व हूँ। ऐसे विकल्पका भेदज्ञान करे। फिर ज्ञायकमें लीनता करे तो विकल्प टूटे।

पहले ऐसे विकल्पसे भेदज्ञान करे। विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि हो रही है। विकल्पके साथ जो एकत्वबुद्धि हो रही है, उस एकत्वबुद्धिको तोड देना। ये विकल्प मैं नहीं हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, जाननेवाला हूँ। मैं मेरे स्वभावका कर्ता, ज्ञानका कर्ता मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा भेदज्ञान करना। विकल्प तोडनेका यही उपाय है कि विकल्प विकल्पसे टूटता नहीं। विकल्प तोडूँ-तोडूँ, वह भी विकल्प होता है। विकल्पसे भेदज्ञान करना कि मैं ज्ञायक हूँ। विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी ज्ञायककी परिणति दृढ करे। ज्ञायककी परिणति दृढ करनेसे जो भेदज्ञान होता है, वह भेदज्ञान करनेसे, ज्ञायकमें लीनताकी उग्रता करे तो विकल्प टूटे।

मुमुक्षुः- ऐसा बहुत सोचता हूँ, ज्ञायक ही हूँ, ज्ञायक हूँ।

समाधानः- ऐसा भीतरमेंसे (होना चाहिये)। धोखनेसे तो वह भावनारूप होता है कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। परन्तु भीतरमेंसे मैं ज्ञायक (हूँ)। मैं ज्ञायक हूँ, विकल्प मैं नहीं हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, विकल्प मैं नहीं हूँ, विकल्प स्वरूप मेरा नहीं है। मैं ज्ञायक निर्विकल्प तत्त्व हूँ। मैं ज्ञायक। ऐसे ज्ञायकका बल प्रगट करना। विकल्पसे भेदज्ञान करना।

मुमुक्षुः- ... प्रयास करता हूँ, प्रगट नहीं होता है। खूब प्रयास करता हूँ, वह नहीं आता है। ऐसा आता है कि ज्ञायककी खूब महिमा आनी चाहिये, वह नहीं आ पाती।


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समाधानः- ज्ञायककी महिमा नहीं आती है। ज्ञायकमें.. सबकुछ ज्ञायकमें है। विकल्पमें कुछ महिमा नहीं है। ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये। ज्ञायकमें शान्ति लगनी चाहिये। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे भीतरमेंसे ज्ञायकमें सुख-शान्ति ज्ञायकमें लगनी चाहिये। ऐसे ज्ञायक.. ज्ञायक। विकल्पसे भेदज्ञान करना और ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करके मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा बारंबार अभ्यास करे तो विकल्प टूटता है। विकल्पका भेदज्ञान करे और ज्ञायकका अभ्यास करे, भीतरमेंसे महिमापूर्वक ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करके, ऐसा बारंबार अभ्यास करे तो विकल्प टूटे।

मुमुक्षुः- ज्ञायकके अस्तित्वका जोरदार महिमाका संक्षेपमें उपाय.. शास्त्रसे स्वीकार होकर.. जबतक परिणति न हटे, तो ज्ञायकके अस्तित्वको किस विधिसे ख्यालमें लेंगे? ... जम जाय, उसमें...

समाधानः- ऐसा पुरुषार्थसे होता है। ज्ञायकके स्वभावका लक्षण, वह ज्ञायक। यह मैं नहीं हूँ, ये विभाव-आकुलता मैं नहीं हूँ। मैं निराकूल तत्त्व ज्ञायक हूँ। भीतमेंसे ग्रहण करना चाहिये। सूक्ष्म उपयोग करके धीरा होकर भीतरमें-से सूक्ष्म उपयोग करके, ऐसे धैर्यसे अपना स्वभाव ग्रहण करना चाहिये। ग्रहण करनेके लिये उसका अभ्यास करना चाहिये। एक बार ग्रहण किया कि मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे नहीं। बारंबार उसका अभ्यास करना (कि) मैं ज्ञायक हूँ। भीतरमें-से धीरा होकर ऐसे शान्तिसे उसको ग्रहण करना चाहिये तो होता है।

मुमुक्षुः- सूक्ष्म उपयोग करके।

समाधानः- हाँ, सूक्ष्म उपयोग करके।

मुमुक्षुः- फिर भावभासन (होता है)?

समाधानः- विकल्प टूटकर अन्दर स्थिर होनेके बाद। परन्तु पहले तो अस्तित्वको दृढतासे ग्रहण करे, भेदज्ञान करके कि मैं भिन्न ही हूँ। जैसे स्फटिक निर्मल उसके लाल, पीले फूलसे भिन्न उसका अस्तित्व स्फटिकका भिन्न है, ये सब तो ऊपरके हैं। वैसे जो विभावपर्यायें होती हैं, वह निमित्तका कारण है, उसमें उपादान स्वयंका है कि स्वयं उसमें जुडता है, निमित्त नहीं करवाता है, स्वयं जुडता है। परन्तु वह स्वभाव मेरा नहीं है। मेरा अस्तित्व उससे भिन्न नहीं है। त्रिकाल अस्तित्व शाश्वत अनादिअनन्त हूँ, ऐसे अपने अस्तित्वको ग्रहण करे।

मुमुक्षुः- अस्तित्व पर ही चला जाता है आखिर तक?

समाधानः- अस्तित्व-ज्ञायक अस्तित्व। मैं हूँ ज्ञायक।

मुमुक्षुः- लेकिन फिर उसे धीरे-धीरे जैसे अभ्यास बढता जाय, वैसे उसे शक्ति भी विशेष-विशेष आती जाय?


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समाधानः- उसका अभ्यास होना चाहिये। अंतरमेंसे हो तो उसे ज्यादा बल प्रगट हो। उसे अपनेआप ही दृढता आ जाय कि मार्ग यही है। अपना अस्तित्व ग्रहण करे। विकल्प, चाहे जैसे ऊँचे विकल्प हो, तो भी विकल्प ही है, मेरा स्वभाव उससे भिन्न है। विकल्प सब आकुलतारूप है, मेरा स्वभाव भिन्न है। ऐसे भेदज्ञान करके स्वयंको ग्रहण करे और उसमें लीनता करे तो वह आगे जाता है। उसमें स्थिर हो, उसके अस्तित्वको ग्रहण करके। शुभ विचार तो बीचमें आते हैं, परन्तु मेरा अस्तित्व जो निराला अस्तित्व है वह तो भिन्न ही है, ऐसे स्वयंको ग्रहण करे।

मुमुक्षुः- सामान्यतः तो ऐसे आ ही जाता है..

समाधानः- मैं हूँ, ऐसे सामान्यरूपे (आ जाय), परन्तु उसका स्वभाव ग्रहण होना चाहिये न। सामान्यरूपसे तो मैं हूँ। मैं हूँ तो कौन हूँ? किस स्वभावसे हूँ? मेरा स्वभाव क्या है? ऐसे तो विकल्पमें अपना अस्तित्व अनादिसे माना है, शरीरमें अस्तित्व (माना है)। शरीर तो स्थूल है, उससे भिन्न। विकल्पमें अपना अस्तित्व मानता है। तो ज्ञान और ज्ञेय एकाकार हो गये, उसमें अपना अस्तित्व मानता है। मेरी ज्ञायकता भिन्न ही है।

क्षण-क्षणमें पर्याय होती है उसमें अपना अस्तित्व माना है। परन्तु मेरा अस्तित्व तो शाश्वत है। ऐसे तो सामान्यरूपसे तो मैं हूँ, ऐसा ग्रहण किया, लेकिन उसका स्वभाव ग्रहण होना चाहिये। वह तो उतनी उसकी लगन हो, उतनी महिमा लगे तो, अंतरमें उतना गहराईमें जाकर पुरुषार्थ करे तो ग्रहण हो।

.. धीरे करे या जल्दी करे, लेकिन उसे करनेका एक ही है। उसकी जिज्ञासा, उसकी महिमा, तत्त्वके विचार वही करनेका है। वह न हो तबतक देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, श्रुतका चिंतवन करता रहे, तत्त्वविचार (करे)। करनेका एक ही है। दूसरे लौकिक जीव कहाँ पडे होते हैं। गुरुदेवने यह मार्ग बताया है। क्रियामें पडे होते हैं। अभी यात्रामें, पैदल यात्रा करनेका कितना चला है। सबको उसीमें महत्ता लगी है। पैदल यात्रा, पैदल यात्रा। यात्रा माने मानो क्या... परन्तु अंतरमें करनेका है। गुरुदेवने यह बताया है।

मुमुक्षुः- .. दूसरा-दूसरा करता रहता है।

समाधानः- हाँ, दूसरा-दूसरा करता रहता है। स्वयंमें सुख है, बाहर सुख है ही नहीं। बाहर तो सब आकुलता है। कोई भी विकल्प लो, सब विकल्प ही है। सब विकल्प आकुलतारूप है। सब विकल्प आकुलता है। निराकुल स्वभाव आत्मामें ही आनन्द भरा है।

आनन्द स्वरूप आत्माका, ज्ञायक स्वरूप आत्माका प्रगट न हो, तबतक देव- गुरु-शास्त्रने जो प्रगट किया, उसकी जिसने साधना की उसकी महिमा आये कि ये स्वरूप जिसने प्रगट किया, वह करना है। उसका उसे आदर आये। करनेका स्वयंको


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ही है। ग्रहण तो स्वयंको ही करना है।

मुमुक्षुः- पूरा समय उसके लिये देना पडे।

समाधानः- समय देना पडे और उसीके पीछे लगना पडे तो होता है।

मुमुक्षुः- अनन्त काल स्वयंने क्यों ध्यान नहीं रखा? उसमें फिर माताजी! ऐसा लगता है कि...

समाधानः- बाहर ही बाहर भटका है। स्वयंकी वस्तुको स्वयंने पहचाना नहीं, पुरुषार्थकी मन्दता करता है।

मुमुक्षुः- जब द्रव्यलिंगी साधु हुआ होगा, तब भावलिंगी मुनिओंके समूहमें गया होगा, कदाचित।

समाधानः- बना हो।

मुमुक्षुः- वह जब होता है, तब बहुत दुःख हो जाता है कि ये..?

समाधानः- स्वयंको अपूर्वता नहीं लगी हो।

मुमुक्षुः- नुकसान.. नुकसान.. नुकसानीका ही धंधा किया।

समाधानः- भावलिंगीकी महिमा स्वयंको नहीं आयी हो। इसलिये मैंने बहुत किया है, ऐसे संतोष माना। .. न करता हो, बाकी अन्दरसे कुछ-कुछ स्वयंको ठीक लगे वह करता हो।

मुमुक्षुः-..

समाधानः- स्वयंको ग्रहण नहीं करता है। वैराग्य तो उसने किया है, ऐसा तो उसमें है। वह कोई कपटी मनुष्य है, ऐसा तो नहीं कह सकते। सरलता आदि अमुक तो होता है। विशालबुद्धि। विशालबुद्धिका अर्थ तत्त्व पकडनेकी शक्ति कितनी है, वह देखना है। बाकी तो अमुक वैराग्य धारण किया हो, सब छोड दिया हो, अमुक प्रकार तो होता है। अमुक साधारण तो होता है। सरलता आदि तो होता है। अमुक मध्यस्थता, कोई माथापच्चीमें पडता नहीं।

विशालबुद्धि अर्थात तत्त्व ग्रहण करनेकी शक्ति होनी चाहिये न। सब बोल (- गुण) अन्दर न हो, कोई-कोई तो होते हैं। अमुक प्रकारकी भूमिका.. परन्तु जिस जातिका होना चाहिये उस जातका होना चाहिये न। अमुक भूमिका तो वैराग्य धारण किया हो तो कुछ तो ऐसा होता है। अंतरमें-से जो होना चाहिये वह नहीं हुआ हो। स्वयंको तत्त्व ग्रहण करनेकी शक्ति, विशालबुद्धि, सरलता, तत्त्व ग्रहण करे ऐसी शक्ति, ऐसी भिन्नता, अंतरमें तत्त्व ग्रहण हो, ऐसी शक्ति होनी चाहिये। ऐसा बाहरसे तो जीव अनेक बार करता है।

मुमुक्षुः- वह तो हमें कैसे मालूम पडे?


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समाधानः- क्या मालूम पडे? वह तो उसकी योग्यता। वह तो स्वयं ही जाने, दूसरा कौन जान सके?

मुमुक्षुः- गुरुदेव भी नहीं है कि गुरुदेवको कुछ पूछें? ...

समाधानः- .. कुछ पूछना होता नहीं, इसलिये उसे स्वयंको लगे वैराग्य आ गया।

मुमुक्षुः- हमें ख्याल आवे कि ये महाराजसाहब अर्थात कानजी महाराजने ऐसी सब बातें की है?

समाधानः- ज्ञान कर, लेकिन दृष्टि एक आत्मा पर कर। गुरुदेवने एकदम सूक्ष्म बात करी। और चारों ओरसे सूक्ष्म करके बता दिया है। युक्तिसे, दलीलसे बताकर सबको (सरल कर दिया)।

मुमुक्षुः- आत्माको ऐसे हथेलीमें दे दिया है।

समाधानः- हथेलीमें दिखा दिया है।

मुमुक्षुः- एक प्रश्न, दूसरे लोग-अभ्यासी लोग, दूसरे जो सामान्य.. हम लोग ऐसा कहते हैं कि चतुर्थ गुणस्थानमें जो अनुभव होता है, वह प्रत्यक्ष अनुभव होता है। हम लोग प्रत्यक्षवत भी कहते हैं। ये लोग अभी ऐसी बात करते हैं, दिगंबर संतों, कि चौथे गुणस्थानमें अनुभव है ही नहीं। जबकि ये सब तो खाणिया चर्चामें भी..

समाधानः- (चौथे गुणस्थानसे) स्वानुभूति शुरू होती है। सातवेंकी तो कहाँ बात करनी? सातवेंमें तो अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें होती है। छठवें-सातवें मुनिओंको तो अंतर्मुहूर्त- अंतर्मुहूर्तमें होती है। ... मालूम ही नहीं होता। बाह्य क्रियाएँ और त्यागमें, क्रिया और त्यागमें माननेवाले होते हैं। त्याग कर दिया और शास्त्र पढ लिये, इसलिये क्रिया और शास्त्र पढ लिये इसलिये सब आ गया। अन्दरमें अनुभूतिको कुछ समझते नहीं।

... कहते हैं उसका विश्वास नहीं है। वर्तमान जो सत्पुरुष गुरुदेव जैसे हुए, उनका विश्वास नहीं है। आचार्य जो शास्त्रमें कह गये, समयसारमें आदिमें, उसे गहराईसे पढते नहीं।

समयसारमें जगह-जगह आता है, गहराईसे पढते नहीं। स्वानुभूतिकी बात समयसारमें कुन्दकुन्दाचार्य और अमृतचन्द्राचार्य, दोनोंने लिखी है। (रहस्य) खोले, समयसारके रहस्य भी गुरुदेवने खोले हैं। समयसार कोई समझता नहीं था। उसके रहस्य भी गुरुदेवने खोले हैं।

मुमुक्षुः- अभी तो जो लोग..

समाधानः- हम कुछ जानते हैं, कुछ जानते हैं उसमें रह गये। .. गुरुदेवने कहा, यह शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है। अन्दर चैतन्यतत्त्व अनन्त


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शक्तिसे भरपूर है। उसमें अनन्त ज्ञान भरा है, अनन्त आनन्द भरा है। अनन्त-अनन्त शक्तियोंसे भरा आत्मा है। उस पर दृष्टि जाय तो उसमें जो अनन्त शक्तियाँ हैं, वह प्रगट होती हैं। वह अपना स्वभाव ही है। सहज ज्ञानसे भरा आत्मा है। उस पर दृष्टि करके उसमें लीनता करे तो उसमेंसे सब प्रगट होता है। .. ग्रहण करना वह वास्तविक है। उसीमें अनन्त शक्तियाँ भरी हैं। आनन्द कहीं बाहरसे प्रगट नहीं होता, अपनेमें- ही प्रगट होता है।

मुमुक्षुः- ... दिन-प्रतिदिन वर्धमान होती जाती है, वैसे बाह्य ज्ञान भी दिन- प्रतिदिन .. होगी न?

समाधानः- बाह्य ज्ञान.. अन्दरकी ज्ञायककी उग्रता। ज्ञायककी निर्मलता, ज्ञायककी धारा, अंतरमें-से निर्मल स्वानुभूतिकी धारा, ज्ञायककी निर्मल धारा,... बाहरका ज्ञान यानी...

मुमुक्षुः- बाहरका ज्ञान तो क्षयोपशमिक ज्ञान है।

समाधानः- वह तो क्षयोपशमज्ञान है। बाहरका मति और श्रुत, वह भी उसका उपयोग बाहर आये तो वह भी निर्मल होता है। बाहर उपयोग हो तो वह भी निर्मल हो, अंतरमें उपयोग हो तो अंतरकी निर्मलता होती है। बहुत ज्यादा जाने ऐसा नहीं, परन्तु निर्मलता बढती जाती है।

मुमुक्षुः- .. दोषित हो जाय ऐसा नहीं? समाधानः- उपयोग बाहर जाय तो ज्ञान दोषित नहीं होता। उसमें राग आवे तो दिक्कत है। उसमें एकत्वबुद्धि हो उसकी दिक्कत है। दोषित नहीं होता, ज्ञानका जाननेका स्वभाव है। ज्ञान सब जान सकता है। ज्ञानमें ऐसी मर्यादा बांधनेकी कोई आवश्यकता नहीं है कि ज्ञान इतना जाने और इतना ज्ञान नहीं जानता। ज्ञान तो अनन्त महिमासे भरपूर है। जानना उसका नाम कि जो सब जाने। ज्ञानमें ऐसी मर्यादा न होती कि इतना जाने और इतना न जाने। ज्ञान अनन्त शक्तिसे भरा है। सब जाननेकी ज्ञानमें शक्ति है। लेकिन उसका उपयोग बाहर जाय, उसमें राग आवे, वह रागका दोष है। उसमें ज्ञानका दोष नहीं है। राग तोडनेको कहा जाता है। तू वीतरागता प्रगट कर, तेरी दिशा बदल। सहज ज्ञान अंतरमें है, वह अंतरमेंसे सब प्रगट होता है। उसमें तू लीनता कर।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!