Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 198.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 195 of 286

 

PDF/HTML Page 1280 of 1906
single page version

ट्रेक-१९८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- .. मैं ज्ञायक हूँ और ज्ञानके भेदमें इस प्रकार विचार करे कि मैं मेरे द्वारा, मुझे जानता हूँ। प्रथम भूमिकामें ऐसे विचार अंतर सन्मुख होनेके लिये ऐसे भेद बीचमें आते हैं, और उसके बाद ही उसे अनुभव या निर्णय..

समाधानः- बीचमें विचार आये। ज्ञेय निमग्नताको छोड दे और स्वयं ज्ञायककी ओर जाय। इसलिये उसमें स्वपरप्रकाशक मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसा नहीं है। उसका राग तोडता है। ज्ञेयकी जो निमग्नता है, उस निमग्नताको तोडकर उसका भेदज्ञान करता है कि मेरा ज्ञान बाहर नहीं जाता है अथवा मेरा ज्ञान मुझे छोडकर ज्ञेयमें छिन्न- भिन्न, खण्ड-खण्ड नहीं हो जाता है। मैं तो मेरे ज्ञानसे, स्वयं मेरा अस्तित्व मेरेसे जीवित हूँ, मेरे अस्तित्वसे रहनेवाला हूँ। इसलिये मेरा ज्ञान मुझे स्वयंको अपनी ओर ही मेरे अस्तित्वमें रहनेवाला मेरा ज्ञान है। ऐसे।

मुमुक्षुः- जिसमें एकत्वपना किया है, उस एकत्वको..

समाधानः- हाँ, एकत्वपनेको तोडता है। ज्ञायक ही मेरा स्वभाव है। तोडकर फिर बाहरका ज्ञान हो, शास्त्रमें आता है न? इसे निकाल दो, निकाल दो, ऐसा उसे नहीं होता। क्योंकि उसमें एकत्वबुद्धिको तोडनी है। एकत्वबुद्धि तोडनी है। एकत्वबुद्धि तोडकर भेदज्ञान करता है कि मैं मेरे ज्ञानको प्रकाशित करनेवाला स्वयं, मैं स्वयं ज्योति ज्ञान प्रकाशमान हूँ। ऐसे अपनी ओर मुडता है। फिर जो सहज उसमें आता है उसका ज्ञान करता है।

मुमुक्षुः- ज्ञानकी परिणति रागके साथ एकमेक हो गयी, ... तो वह कैसे भिन्न पडे? उसमें शुरूआत कैसे करनी? बीचमें क्या आये? उसके बाद क्या होता है? ....

समाधानः- क्या? बीचमें क्या आये..?

मुमुक्षुः- भेदज्ञान करनेकी शुरूआत कैसे करनी? बादमें कैसे आगे बढना?

समाधानः- ज्ञान है उसे पहचान लेना कि यह ज्ञान है और यह राग है। राग और ज्ञानका लक्षण पहचान लेना कि यह लक्षण ज्ञानका है, यह लक्षण रागका है। परन्तु परिणति एक हो रही है, उसे भिन्न करनेके लिये, यह ज्ञानलक्षण है वही मेरा स्वभाव है और वही मुझे सुखरूप है। जो ज्ञान है वही सुखरूप है, राग है वह


PDF/HTML Page 1281 of 1906
single page version

सुखरूप नहीं है, वह तो विभाव है। ऐसी अपनी प्रतीत यथार्थ हो, उसकी महिमा आये तो उसमेंसे भिन्न होनेका स्वयं प्रयत्न करे। ऐसा विश्वास आना चाहिये कि यह लक्षण ज्ञानका ही है और ज्ञानलक्षण जो है वही मैं हूँ। और उसीमें शान्ति है, उसीमें सुख है। और बाहर इस रागमें सुख और शान्ति नहीं है। ऐसा यदि उसे विश्वास आये, प्रतीत आये तो वह भिन्न पडनेका प्रयत्न करता है।

यह स्व सो मैं, यह पर है। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। और उसे उसमें सुखका सुखका विश्वास आना चाहिये, उसे अपने स्वभावका विश्वास आना चाहिये तो भिन्न पडे।

मुमुक्षुः- विश्वासमें समझसे विश्वास आये ऐसे?

समाधानः- समझपूर्वक ही आये न कि यह ज्ञान जो है वही सुखका कारण है, मेरा स्वभाव हो वही सुखरूप हो। ये राग कोई सुखरूप नहीं है। उसका वेदन भी आकुलतारूप होता है। और ज्ञानका विचार करे तो उसका वेदन आकुलतारूहप नहीं है। (राग) आकुलतारूप है। ऐसे पहले तो विचारसे नक्की करे। शुरूआतमें तो उसे अनुभव या वेदन होता नहीं। इसलिये विचारसे ही उसे नक्की करनेका रहता है।

लक्षण पहचानकर विचार करनेका, विचारसे नक्की करनेका रहता है। ... वह लक्षण पूरा अखण्ड द्रव्य है। वह लक्षण मात्र पर्याय तक सीमित नहीं, परन्तु पूरा द्रव्य स्वतःसिद्ध अखण्ड तत्त्व हूँ। ऐसे उसे निर्णय करनेका अंतरमें रहता है। जो दिखता है वह मात्र पर्याय दिखती है, उसके ख्यालमें आती है। परन्तु उस परसे पूरे द्रव्य पर दृष्टि करनी है।

मुमुक्षुः- लक्षणको भिन्न करनेमें ही तकलीफ पडती है। लक्षणको भिन्न करनेमें ही दिक्कत होती है। राग और ज्ञान, ये दोनों..

समाधानः- दोनों एकमेक दिखते हैं।

मुमुक्षुः- जानपना वह ज्ञान। ऐसे विचारमें तो ले सकते हैं। परन्तु उससे आगे कुछ भावभासन जैसा हो, ऐसा कुछ नहीं बनता।

समाधानः- जानपना वह ज्ञान। लेकिन जानपना मात्र नहीं, जो जाणकस्वभाव ही है, जो जाणकस्वभाव है वह मैं हूँ। ऐसे स्वयं अंतरमें गहराईमें दृष्टि करे तो जाणकस्वभाव है वह मैं हूँ। ये जडस्वभाव कुछ जानता नहीं। जाननेवाला स्वभाव है वह मैं हूँ। स्वभाव पर जाना रहता है। मात्र जानपना नहीं। जाननेवाला है, उस पर दृष्टि करनी है।

मुमुक्षुः- ऐसा विचार करनेपर राग छूटकर परज्ञेयसे भिन्न...

समाधानः- सहज ही भिन्न पड जाता है। ज्ञायक, जाननेवाला ज्ञायक ही ज्ञानरूप परिणमता है। अपने स्वभावरूप, ज्ञायक ही ज्ञानस्वभावरूप परिणमित हुआ है। ऐसा उसे लक्ष्यमें आये, ऐसी प्रतीत हो, ज्ञानमें लक्षणसे बराबर पहचाने तो रागसे और ज्ञेयोंसे


PDF/HTML Page 1282 of 1906
single page version

सहज ही भिन्न पड जाता है। अपना अस्तित्व ज्ञायकरूपमें अस्तित्व ग्रहण हो तो उसमें दूसरा जो है वह सहज ही भिन्न पड जाता है। यह मैं हूँ, इसलिये ये मैं नहीं हूँ, उसमें साथमें आ जाता है।

मुमुक्षुः- विकल्पात्मक दशामें जबतक ऐसी प्रतीति न हो, तबतक ऐसा घोलन अर्थात ऐसे विचार, यथार्थ विचारमें लेना?

समाधानः- ऐसे विचार उसे घोलनमें चलते रहे, जबतक उसे ज्ञायकका अस्तित्व अंतरमें-से ग्रहण न हो, तबतक विचार चलते रहे कि ये राग मैं नहीं हूँ। मेरा स्वभाव ज्ञेय नहीं है, मैं तो ज्ञानस्वभाव हूँ। ऐसे विचार चलते रहे। परन्तु भिन्न कब पडे? अपना ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण हो तो उसका भेदज्ञान उसमें सहज आ जाता है।

मुमुक्षुः- ज्ञायक ही ज्ञानमें ज्ञात हो रहा है, अर्थात ज्ञानकी पर्याय जाननेरूप परिणमती है। वह जो आपने कहा न कि, उससे परज्ञेयसे और रागसे भिन्न पडे और अपना .. अस्तित्व उसके ख्यालमें आवे, उसके बाद उत्पाद-व्ययको गौण करके सामान्यको..

समाधानः- सामान्यको लक्ष्यमें ले। .. परिणमनेवाला हूँ, पर स्वभावरूप नहीं। ऐसे लक्ष्यमें लिया। मैं सामान्य ध्रुव अनादिअनन्त ज्ञायक हूँ, उसमें साथमें आ जाता है। उसमें उसे कालकी ओर दृष्टि नहीं करनी पडती। कालको खोजने नहीं पडता। परन्तु ये जो अस्तित्व है, वह अस्तित्व त्रिकाल है, ऐसी प्रतीति उसे उसमें साथ आ जाती है।

सहज स्वतःसिद्ध अस्तित्व ऐसा ही होता है कि जो त्रिकाल होता ही है। सहज अस्तित्व ज्ञायकका है। वह किसीने बनाया हुआ कृत्रिम नहीं है, सहज अस्तित्व है, अनादिअनन्त है।

मुमुक्षुः- मैं ज्ञायक ही हूँ, ऐसे तो विभाग करके परसे भिन्न पडनेका प्रयत्न..

समाधानः- ज्ञायक ज्ञानरूप परिणमता है। उसकी विचारकी विधिमें कुछ भी आये, परन्तु उसे एक ज्ञायक ग्रहण करना है। विचार-विधिमें उसे क्रम पडे कि ये ज्ञेय मैं नहीं हूँ। ये राग मैं नहीं हूँ। फिर प्रशस्त भावका गुणभेद, उसमें विकल्प साथमें रहते है। यह ज्ञान, यह दर्शन, यह चारित्र। अथवा मेरा ज्ञान है वह परिणमता है, ये पररूप नहीं परिणमता। ऐसे उसे गुण-गुणीका भेद पडे, विचारकी विधिमें वह आये, उसका क्रम पडे, लेकिन ग्रहण एकको करना है। किसीको द्रव्य-गुण-पर्यायरूपसे आते हैं, किसीको उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूपसे आये, किसीको ये ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय ऐसा भेद करके आये, ऐसे किसी भी प्रकारसे, कोई भी शब्द भाषामें हो, परन्तु उसे मूल एकको ग्रहण करनेका है।

ज्ञेयसे भिन्न करना, विभावसे भिन्न करना, और गुणभेद, पर्यायके भेद वह भी विकल्प है। उसमें वास्तविक गुणभेद या पर्यायभेद मूल वस्तुमें नहीं है। ग्रहण एकको करना है। क्रम उसे विचारकी विधिमें उस तरह आगे-आगे क्रम पडते हैं। पहले स्थूल होते-


PDF/HTML Page 1283 of 1906
single page version

होते, सूक्ष्म-सूक्ष्म होता जाता है। ज्ञेयसे भिन्न पडा, वह स्थूल। फिर रागसे भिन्न पडा, थोडा आगे चला तो गुणभेद, पर्यायभेद, उससे उपयोग सूक्ष्म किया। उससे सूक्ष्म एक द्रव्यको ग्रहण करना वह है।

मुमुक्षुः- पहले द्रव्य-पर्यायरूप वस्तुका यथार्थ स्वरूप सविकल्प दशामें प्रतीतिरूप आये और फिर मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा प्रतीतिमें आवे, ऐसा कोई क्रम है?

समाधानः- उसे विचारकी विधिमें ऐसा क्रम पडता है। ज्ञायक हूँ, ऐसे ग्रहण हो वह अलग है। वास्तवमें तो वह ग्रहण करनेका है। उसके विचारकी विधिमें ऐसा नक्की करे। शास्त्रमें भी आता है न कि प्रथम सुदृष्टि सो विचार किजे भिन्न। सूक्ष्म शरीर भिन्न जाने और विकल्पकी उपाधि भिन्न जाने। सुबुद्धिका विलास भिन्न जाने। वह क्रम आता है, लेकिन ग्रहण तो एकको करनेका है।

सच्चा ग्रहण किया उसे कहें कि जो एकको ग्रहण किया वह। उपयोग धीरे-धीरे सूक्ष्म-सूक्ष्म होता जाता है, आगे जाता है तब। ज्ञायक ग्रहण हो तो सब क्रम उसे एकसाथ आ जाता है। स्थूल और सूक्ष्म। एकदम हो जाय, एकदम ज्ञायक ग्रहण हो जाय, जल्दी हो जाय..

मुमुक्षुः- ऐसा भी बने?

समाधानः- हाँ।

मुमुक्षुः- सीधा ज्ञायकको ग्रहण करे और दूसरा ज्ञान यथार्थ हो जाय।

समाधानः- हाँ, ... हो जाय। उसे साथमें आ जाता है।

मुमुक्षुः- किसीको कम विचारणा चले।

समाधानः- कम विचारणा चले। मैं कौन हूँ? ऐसा विचार करते-करते मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे ग्रहण हो जाय। तो उसमें उसे विकल्पके भेद, रागसे भेद सब एकसाथ आ जाता है। भेद सो मैं नहीं हूँ, परन्तु मैं एक अखण्ड द्रव्य हूँ।

मुमुक्षुः- पूर्व संस्कारका कारण बनता होगा?

समाधानः- नहीं, पूर्व संस्कार नहीं बनता। किसीकी वर्तमान तैयारी हो तो बने। चौथे कालमें ऐसा बन जाता। एकदम ग्रहण हो जाय। इस पंचमकालमें तो दुर्लभ है। जिसे अंतर्मुहूर्तमें हो जाता है, उसे एकदम ग्रहण हो जाता है।

मुमुक्षुः- आपको सहज लगता है, और हमें बहुत उलझन होती है। कोई बार विचार करते समय उलझनका अनुभव हो, कोई बार ऐसा लगे कि नहीं, ये तो सहज है। बारंबार वही प्रश्न कैसे पूछे?

समाधानः- ऐसी निराशा होनेका कोई कारण नहीं है। भावना हो, इसलिये वह विचार चलते रहे। भावना हो इसलिये प्रश्न भी आते रहे। जबतक अंतरमें स्वयंको जिज्ञासा


PDF/HTML Page 1284 of 1906
single page version

हो और कैसे प्रयत्न करना, इसलिये प्रश्न आते रहे।

मुमुक्षुः- भावनाके प्रकरणसे ही अनजाने हैं। कितना सुन्दर प्रकरण खुल गया है।

समाधानः- तबतक वह सब आता ही रहे, विचार, प्रयत्न सब चलता ही रहे। उस दिन बोला गया होगा, इसलिये उसमें सब आ गया। गुरुदेवके प्रतापसे...

मुमुक्षुः- प्रवचनमें बोला गया?

समाधानः- वांचनमें बोल गया हो, किसीने प्रश्न पूछा हो, उसमें बोला गया हो।

मुमुक्षुः- रागके अतिरिक्त दूसरा ऐसा क्या है कि .. होने नहीं देता? राग तो स्पष्ट समझमें आता है। दूसरी कोई दशामें ग्रन्थिभेदकी कोई निर्मलता नहीं है, उसके पहले तो रागकी प्रधानता तो है ही, ऐसा कौन-सा दूसरा तत्त्व भावनामें है कि जो भावनाको सफल करता है?

समाधानः- भावनाके साथ राग जुडा होता है। परन्तु परिणति अपनी ओर जोरदार (होती है कि) एक आत्मा ही चाहिये, दूसरा कुछ मुझे नहीं चाहिये। वह भावना अन्दरसे जोर (करती है)। परिणति, ऐसी योग्यता अंतरमेंसे जीवकी प्रगट होती है। अपने पुरुषार्थ, रुचि उस ओरकी जागृत होती है कि मुझे ये कुछ नहीं चाहिये। उसकी रुचि कहीं टिकती नहीं। रुचि एक आत्माकी ओर ही जाती है कि अन्दर आत्मामेंसे कोई अपूर्वता, अंतरमेंसे अपूर्व शान्ति या अपूर्व आनन्द आ जाय। आत्मामेंसे कुछ अंतरमें- से प्रगट हो। ऐसी अपनी रुचि आत्माकी ओर जाती है। राग है, परन्तु रागके साथ अपनी भावनाकी ऐसी परिणति जोरदार होती है।

मुमुक्षुः- आत्मा चाहिये, ऐसे?

समाधानः- आत्मा ही चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। अंतरमें-से आत्माकी कोई अपूर्वता प्राप्त हो, कि जिसके बिना उसे कहीं शान्ति नहीं होती। उसे प्राप्त हुए बिना रहे ही नहीं। अंतरमें-से ऐसी भावना जागृत हुयी हो तो।

मुमुक्षुः- खास पात्रतामें... बहुत सुन्दर विषय आया है।

समाधानः- अपनी अंतरमें-से ऐसी पात्रता हो कि स्वयंको आत्मा प्राप्त होकर ही छूटकारा हो। ऐसी परिणति अपनी ओर, रुचिकी परिणति ऐसे मुडती है। परिणति ही स्वयंको जोरसे खीँचकर आत्माकी ओर लाती है। रुचि ही स्वयंकी (ऐसी हो जाती है कि) उसे बाहर कहीं शान्ति नहीं होती। उसकी परिणति ही जोरदार स्वयंको प्रगट हुए बिना रहती ही नहीं।

.. उसमें आ गया है न कि तो जगतको शून्य होना पडे। अपनी परिणति ही स्वयंको प्रगट हुए बिना रहे ही नहीं। ऐसा कुदरतका स्वभाव है। परिणति ही स्वयंकी


PDF/HTML Page 1285 of 1906
single page version

ओर लाती ही है। जगतको शून्य (होना पडे अर्थात) अपना स्वभाव कार्य किये बिना रहे ही नहीं। जगतको शून्य (होना पडे)। तो वस्तु ही न रहे, यदि स्वयं अपनी परिणति प्रगट न करे तो।

मुमुक्षुः- राग है, फिर भी राग तो वहाँ देखता नहीं। समाधानः- राग देखता नहीं। राग साथमें आये लेकिन राग देखता नहीं। राग रहित वस्तु मुजे चाहिये। ऐसी भावना है। अपनी परिणति अंतरमें-से स्वयं ही प्रगट किये बिना रहे नहीं। जगतको शून्य होना पडे। द्रव्यका नाश हो जाय। लेकिन द्रव्यका नाश तो होता ही नहीं। स्वयं अपनी परिणति प्रगट किये बिना नहीं रहता।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!