Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 199.

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ट्रेक-१९९ (audio) (View topics)

समाधानः- ... शरीर भिन्न, भिन्न तत्त्व, अन्दर विभावपर्याय वह अपना स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न आत्माका स्वभाव है, उसका भेदज्ञान करके ज्ञायकको पहचानना वही है।

मुमुक्षुः- ... बहुत कम टिकता है न? वह टिकनेके लिये क्या करना? ज्ञायकको ही ज्ञेय बना दे, वह कैसे करना? वह चाबी बताईये आप।

समाधानः- उसकी लगन लगे, उसकी जिज्ञासा जागे, पुरुषार्थ बारंबार-बारंबार उसकी ओर जाय। विचार करे अन्दर की ये जो ज्ञायक जाननेवाला है वही मैं हूँ। अन्दर जो विचार आते हैं कि यह ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, ऐसे गुणभेदके विचार भी आये। परन्तु मैं तो एक अखण्ड ज्ञायक हूँ। उसमें टिकनेके लिये, न टिके तो बारंबार उसका विचार करे, बारंबार अभ्यास करे। अभ्यास करते-करते अन्दर जो स्वभाव है वह ग्रहण होता है कि ये ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ। ज्ञायक स्वभाव जो दिखे, रागके साथ मिश्रता दिखती है, लेकिन वह ज्ञान भिन्न है। ज्ञान जो दिखता है वह द्रव्यके आधारसे है। द्रव्यके आधारसे वह स्वभाव है। वहाँ उसकी दृष्टि जाय तो वह ग्रहण हो।

मुमुक्षुः- भावक, भावकरूपसे टिकता नहीं।

समाधानः- भावक स्वयं टिकता नहीं है, पुरुषार्थसे टिके। छाछमें मक्खन मिश्र होता है। लेकिन उसका मन्थन करते-करते भिन्न पडता है। वैसे अनादिसे भ्रान्ति ऐसी हो रही है कि मानो मैं विभावके मिश्र हो गया। परन्तु अनादिसे तत्त्व तो भिन्न ही है। लेकिन भ्रान्तिके कारण मिश्र भासता है। बारबार स्वभावको ग्रहण करके, मैं भिन्न हूँ, ऐसी दृष्टि करे, ऐसी प्रतीत करे तो उस ओर परिणति-लीनता प्रगट हो। ऐसा स्वयंको पुरुषार्थ करना चाहिये। वह न हो तबतक, मक्खन भिन्न न पड जाय तब तक बारंबार- बारंबार उसका अभ्यास, मंथन करते ही रहना है।

मुमुक्षुः- इसलिये ऐसा ही करता रहता हूँ कि प्रमत्त नहीं हूँ, अप्रमत्त नहीं हूँ। मैं एक ज्ञायकभाव हूँ।

समाधानः- प्रमत्त भी नहीं है, अप्रमत्त भी नहीं है, एक ज्ञायकभाव है। दृष्टि


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तो आचार्यदेवने बतायी कि छठवें-सातवें गुणस्थानमें मुनिराज कुन्दकुन्दाचार्य झुलते थे। तो भी कहते हैं कि ये प्रमत्तदशा या अप्रमत्तदशा, दोनों दशासे भिन्न मैं तो एक ज्ञायक हूँ। दोनों पर्यायके भेद हैं। दृष्टि तो वहाँ करनी है।

आचार्यदेव सम्यग्दर्शनकी भूमिकासे आगे गये। चारित्रकी भूमिका, मुनिकी दशामें हैं। छठवें-सातवें गुणस्थानमें उन्हें बारंबार स्वानुभूति प्रगट होती है। निर्विकल्प दशा मुनिराजको, कुन्दकुन्दाचार्यको, जो मुनिराजोंको छठवे-सातवें गुणस्थानमें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तके कालमें क्षण-क्षणमें स्वानुभूति प्रगट होती है। क्षणमें अंतरमें आये, क्षणमें बाहर आये। क्षणमें अंतरमें जाय, क्षणमें बाहर आते हैं। बाहर आये तब शुभके विचार आते हैं, या शास्त्र लिखनेका, या देवका, या गुरुका।

मुमुक्षुः- उन सबको विकल्प कहते हैं?

समाधानः- वह विकल्प हैं। बाहर आये वह विकल्प है। हाँ। जो शुभभाव आये वह विकल्प हैं। और अंतरमें विकल्प छूटकर निर्विकल्प दशा (होती है), विकल्प छूट जाय और अंतरमें निर्विकल्प दशा होती है तब कोई विकल्प नहीं रहते।

मुमुक्षुः- विकल्प है वही कर्ता है, विकल्प ही कर्म है। अमृतचन्द्राचार्यदेवने कहा है न? विकल्प कर्ता, विकल्प कर्म, एक श्लोक है।

समाधानः- विकल्प कर्ता, विकल्प कर्म, सब विकल्प है। परन्तु उस विकल्पसे छूटकर अंतरमें जाय, वहाँ उन्हें स्वानुभूति होती है। तो वह निर्विकल्प दशा है। वह निर्विकल्प दशा शून्य नहीं है। परन्तु वह अन्दर स्वभावसे लबालब भरा है।

मुमुक्षुः- वह टिकती है?

समाधानः- हाँ। वह टिके। उन्हें अंतर्मुहूर्त दशा टिकती है। फिर बाहर आते हैं। अंतर्मुहूर्त यानी अमुक क्षण टिकती है। फिर बाहर आते हैं। विकल्पमें फिर बाहर आये वहाँ शास्त्रके, गुरुके, देवके ऐसे विकल्प (आते हैं)। मुनिराजको तो ऐसे विकल्प (होते हैैं)। गृहस्थाश्रममें हो, उसे अनेक जातके विकल्प (आते हैं)। मुनिराजको तो देव-गुरु-शास्त्रका (विकल्प आता है)।

मुमुक्षुः- मुनिराजसे आगे...?

समाधानः- मुनिदशासे आगे जाय तो उसे केवलज्ञान हो जाय।

मुमुक्षुः- वह निर्विकल्प दशा।

समाधानः- बस। मुनिदशामें क्षण-क्षणमें निर्विकल्प दशा होती है। स्वानुभूति। और उस निर्विकल्प दशामें यदि टिक जाय, निर्विकल्प दशा क्षणमात्र होती है, क्षणमें बाहर आते हैं। स्वानुभूति क्षणमें हो और क्षणमें बाहर आये। तो यदि वे स्वानुभूतिमें ऐसे ही शाश्वत टिक जाय तो केवलज्ञान हो जाता है। तो पूर्ण-पूर्ण दशा पराकाष्टा (हो


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जाती है)। फिर उससे आगे (कोई दशा) नहीं है। पूर्ण आनन्दसागरमें डोले और केवलज्ञान प्रगट हो जाय कि जो लोकालोकका ज्ञान (करता है)। वहाँ जानने नहीं जाता, परन्तु सहज जाननेमें आ जाता है। वह दशा प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- जो क्षण-क्षणमें विकल्पमें आये, निर्विकल्पमें चले जाय, उसे केवलज्ञान क्षणमें... जिस क्षण निर्विकल्प दशामें हो उस वक्त केवलज्ञान होता है?

समाधानः- नहीं, उस समय केवलज्ञान नहीं होता है। निर्विकल्प दशाके समय (नहीं होता)। केवलज्ञान तो जो पूर्ण वीतराग हो उसे केवलज्ञान होता है। जिसकी दशा बाहर आनेकी होती है, उसे केवलज्ञान नहीं होता। उसे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान होता है। किसीको अवधिज्ञान, किसीको मनःपर्ययज्ञान ऐसा होता है। परन्तु केवलज्ञान तो जो वीतरागी होते हैं, उनको ही केवलज्ञान होता है।

मुमुक्षुः- तो फिर वह तो बारहवेंके बाद ही आये न?

समाधानः- बारहवें गुणस्थानके बाद केवलज्ञान होता है। परन्तु छठवें-सातवें गुणस्थानमें मुनिदशामें झुलते हों, उसमें श्रेणि लगा दे। लेकिन वह श्रेणी ऐसी होती है कि अंतर्मुहूर्तमें दो घडीमें उसे पूर्ण अनुभव हो जाता है। ये आंशिक है। मुनिको विशेष अनुभव (है)। और गृहस्थाश्रममें जो सम्यग्दृष्टि हो, जिसे सम्यग्दर्शन हो, उसे स्वानुभूति कोई-कोई बार होती है। और मुनिको क्षण-क्षणमें स्वानुभूति होती है। मुनिको जल्दी-जल्दी होती है। और गृहस्थाश्रममें सम्यग्दृष्टि हो, उसे आत्माकी स्वानुभूति होती है। जिसे सम्यग्दर्शन हो (उसे)। परन्तु उसे स्वानुभूति कभी-कभी होती है। और जो मुनि होते हैं, उनको जल्दी- जल्दी होती है। और जिसे केवलज्ञान होता है, उसे टिक जाता है।

मुमुक्षुः- गृहस्थीको जो सम्यग्दर्शन होता है, वह प्रत्यक्ष होता है कि परोक्ष होता है?

समाधानः- सम्यग्दृष्टिको? केवलज्ञानकी अपेक्षासे वह परोक्ष है, परन्तु उसका वेदन जो स्वानुभूति है, उसे वेदन तो प्रत्यक्ष है। उसे स्वानुभूति ऐसी होती है कि किसीको पूछना न पडे। उसे आत्मामें ऐसा ही होता है कि, यही स्वानुभूति है। उसे आंशिक, जो सिद्ध भगवानको पूर्ण आत्माका स्वाद, आत्माका अनुभव पूर्ण होता है, उसका अंश उसे प्रगट होता है, पूर्ण नहीं है। जैसे दूजका चन्द्रमा होता है वह पूरा होता है, परन्तु उसकी दूज उगती है। वैसे सम्यग्दृष्टिको एक अंश प्रगट होता है। आंशिक स्वानुभूति होती है। पूर्ण स्वानुभूति नहीं है। आनन्दका सागर पूर्ण हो उसमें-से उसे अंश प्रगट होता है, गृहस्थाश्रममें।

मुमुक्षुः- उस अंशको पूर्ण बनाना हो तो..

समाधानः- हाँ, तो बारंबार-बारंबार उसकी स्वानुभूति (करता है)।


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मुमुक्षुः- गृहस्थाश्रममें गिर जाय, सम्यग्दर्शनमें-से मिथ्यादर्शनी हो जाय, हो सकता है?

समाधानः- कोई हो जाता है। कोई पलट जाय, पुरुषार्थ मन्द हो जाय तो पुनः मिथ्यादर्शन हो जाय। परन्तु जिसे पुरुषार्थ एकदम तीव्र हो, उसे पलटता नहीं।

मुमुक्षुः- राजचन्द्रजीने कहा है कि एक बार यदि सम्यग्दर्शन हुआ तो वह गिरता नहीं।

समाधानः- हाँ, बहुभाग नहीं गिरता। गिरता नहीं है उसका अर्थ क्या?

मुमुक्षुः- उसे पंद्रह भवमें जाना ही पडे।

समाधानः- एकबार जिसे सम्यग्दर्शन होता है, वह पंद्रह भवमें अवश्य मोक्ष जाता है। वह गिरता नहीं है, उसके लिये। और उससे ज्यादा बार गिर जाय तो अर्ध पुदगल परावर्तन कालमें तो अवश्य मोक्षमें जाता है। एक बार जिसे सम्यग्दर्शन होता है वह। इसलिये वह तो अर्ध पुदगल परावर्तन। और जो नहीं गिरता है, वह पंद्रह भवमें जाता है। और जो गिर जाता है अर्ध पुद्गलपरावर्तनें, फिरसे उसे प्रगट होता है।

मुमुक्षुः- पंद्रह भव करना ही पडे, ऐसा है? दो-तीन भवमें...

समाधानः- नहीं, करना ही पडे ऐसा नहीं। उसे ज्यादा-से ज्यादा पंद्रह भव होते हैं। और उससे पुरुषार्थ अधिक चल जाय तो तीन भवमें जाय, कोई एक भवमें जाय।

मुमुक्षुः- एक भवमें जा सकता है?

समाधानः- हाँ, जा सकता है, जा सकता है। यह पंचमकाल है, इसलिये यहाँ केवलज्ञान अभी नहीं है। इसलिये एक भव देवका करके, फिर मनुष्यका भव होकर फिर मोक्षमें जाय। और यहाँ जब महावीर भगवानके समयका चतुर्थ काल था, उस वक्त तो उसी भवमें भी होता था। लेकिन अभी यह ऐसा दुषमकाल है। स्वयं पुरुषार्थ उतना उत्पन्न नहीं कर सकता है।

मुमुक्षुः- दुषमकालमें धर्मध्यान या शुक्लध्यान नहीं हो सकता।

समाधानः- नहीं, धर्मध्यान हो सकता है, शुक्लध्यान नहीं होता।

मुमुक्षुः- नहीं होता?

समाधानः- शुक्लध्यान नहीं होता। धर्मध्यान होता है। सम्यग्दर्शन हो, मुनिदशा हो, परन्तु केवलज्ञान नहीं होता। अभी शुक्लध्यान नहीं है।

मुमुक्षुः- शुक्लध्यान केवलज्ञानीको ही होता है?

समाधानः- हाँ, जिसे केवलज्ञान प्रगट हो...

मुमुक्षुः- मुनिको नहीं होता?


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समाधानः- मुनिको धर्मध्यान होता है। शुक्लध्यानके दो भाग हैं-एक प्रथम भाग और एक दूसरा भाग। दूसरा भाग शुक्लध्यानका एकदम उज्जवल होता है। जिसे केवलज्ञान होता है उसीको शुक्लध्यान होता है। और ये सम्यग्दर्शन तो गृहस्थाश्रममें होता है। और उसकी स्वानुभूति, सम्यग्दर्शन वह गिरता नहीं है तो पंद्रह भवमें, तीसरे भवमें ऐसे जाता है।

मुमुक्षुः- गुरुदेव कहते हैं न कि सम्यग्दर्शनके बाद ही धर्म शुरू होता है। जैन किसे कहते हैं? जिसे सम्यग्दर्शन हुआ हो वह।

समाधानः- सम्यग्दर्शन हुआ हो वही सच्चा जैन कहलाता है। सच्चा जैनत्व तब कहनेमें आता है। सम्यग्दर्शन न हो तबतक भावना करे, विचार करे कि मैं ज्ञायक हूँ, ये स्वरूप मेरा नहीं है। उसका भेदज्ञान करे। यह शरीर मैं नहीं हूँ, ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। यह ज्ञान, दर्शन, चारित्र ऐसे विकल्प बीचमें आये, लेकिन ये सब बीचमें राग है। उस रागसे भी मैं भिन्न चैतन्य अखण्ड द्रव्य हूँ। इस प्रकार अपने ज्ञायकका अस्तित्व भिन्न विचारे। ज्ञायकके अन्दर अनन्त गुण हैं। उसकी पर्यायें परिणमती है। ऐसा उसका स्वभाव (है)। उसका विचार करे, उसका निर्णय करे। जबतक प्रगट न हो, तबतक उसका विचार, वांचन, महिमा, लगन करता रहे। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, जबतक न हो तबतक करता रहे।

मुमुक्षुः- समयसार तो मुझे निश्चितरूपसे लगा कि, सम्यग्दर्शन न हो तबतक वह समझमें आये ऐसा नहीं है।

समाधानः- अपनी परिणति प्रगट हो, भेदज्ञान, स्वानुभूति उसे सम्यग्दर्शन कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- मिथ्यादर्शनको निकालना वह सम्यग्दर्शन।

समाधानः- सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, इसलिये मिथ्यादर्शन चला जाता है। वह तो आमनेसामने है। ... अलग वस्तु है। शास्त्रसे विचार करे वह अलग बात है। अंतरमें परिणति प्रगट करनी, वह अलग वस्तु है।

मुमुक्षुः- ज्ञानका अर्थ ही गुरुदेवने इतना सुन्दर समझाया है। ज्ञान माने क्या? शास्त्रोंका ज्ञान वह ज्ञान ही नहीं है। आत्माका परिणमन वह ज्ञान है। उस ज्ञानमें परिणमे वह..

समाधानः- ... ज्ञान तो अंतरमें (होता है वह है)। .. उसके सब क्रम आते हैं। गुणकी भूमिका। सम्यग्दर्शन, उसके बाद उसमें अधिक लीनता हो तो पाँचवी भूमिका आये, फिर छठ्ठीस-सातवीं भूमिका मुनिओंकी आये, ऐसे-ऐसे अन्दर श्रेणि बढती जाय, सम्यग्दर्शनके बाद उसकी चारित्रदशा अंतरकी स्वानुभूति


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बढती जाती है, ऐसे।

मुमुक्षुः- फिर भी उन सबको जडमें डाल दिया।

समाधानः- हाँ, वह आता है। वह जडमें (कहा), परन्तु...

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- दृष्यि यथार्थ कर, ज्ञान यथार्थ कर। परन्तु बीचमें पुरुषार्थ करनेका तो आता है। अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य है, उस द्रव्यके अन्दर कुछ मलिनता नहीं हुयी है या अपूर्ण-पूर्णकी अपेक्षा नहीं है। गुणस्थान सब जड है, ऐसा आचार्यदेव कहते हैं। परन्तु तेरी साधनामें बीचमें आये बिना नहीं रहते।

निश्चय और व्यवहारकी सन्धि ऐसी है कि उसे सुलझाना, वह तो उसकी यथार्थ दृष्टि हो तो सुलझा सकता है। उसे जड कहा और तेरे चैतन्यमें अन्दरकी अनुभूति होती है। तेरे अन्दर चारित्रदशा आती है, ऐसा कहा। चारित्रका विकल्प आये वह सब विभाव है, ऐसा कहा। मति-श्रुतज्ञान, अवधि, मनःपर्यय वह सब ज्ञानके भेद हैं। वह भेद भी तेरा पूर्ण स्वरूप नहीं है। तू तो ज्ञायक है। फिर बीचमें भेद तो आते हैं। मतिज्ञान हो, श्रुतज्ञान हो, केवलज्ञान हो, सब होता है। फिर कहते हैं कि तू केवलज्ञान पर दृष्टि मत करना। केवलज्ञान तो एक पर्याय है। इसलिये तू अखण्ड पर दृष्टि कर। लेकिन वह प्रगट हुए बिना रहता नहीं। निश्चय-व्यवहारकी ऐसी सन्धि है। दृष्टि तो अखण्ड द्रव्य पर कर, परन्तु बीचमें ज्ञानकी पराकाष्टा तो प्रगट होती है। उसका ज्ञान कर। प्रतीति यथार्थ कर, उसका ज्ञान कर कि ऐसे पर्यायके भेद अन्दर प्रगट होते हैं।

मुमुक्षुः- क्योंकि आत्मा अनन्त धर्मात्मक है। इसलिये व्यवहारनय और द्रव्यनय, वह तो साथमें रहेंगे ही।

समाधानः- हाँ, व्यवहार तो पर्यायका भेद है, वह साथमें होता है, उसका ज्ञान कर। पर्यायके जो भेद है,.. क्या द्रव्य अनन्त कहा?

मुमुक्षुः- धर्मात्मक। आत्मा अनन्त धर्मात्मक..।

समाधानः- हाँ, हाँ, अनन्त धर्मात्मक। अनन्त धर्म आत्मामें हैं, उसका ज्ञान कर। परन्तु तू ऐसे विकल्प करता रह कि ये ज्ञान है, ये दर्शन है, ये चारित्र है, यह है, यह है। ऐसे तू उसका ज्ञान कर, परन्तु विकल्पमें रुकनेसे तो राग होता है। इसलिये तू दृष्टि निर्विकल्प पर कर। परन्तु निर्विकल्प दशा प्रगट नहीं हुयी है इसलिये विकल्प तो बीचमें आते हैं, इसलिये उसका ज्ञान बराबर कर। इसलिये उसमें गुण नहीं है, ऐसा नहीं है। उसमें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, सब है। परन्तु वह अभेद है, ऐसे। उसमें कोई टूकडे नहीं हैं।

मुमुक्षुः- जीवनमें ये दो वस्तु तो रहेगी।


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समाधानः- वह है। परन्तु उसके टूकडे, उसके भेद-टूकडे नहीं करना। है तो सही, लेकिन टूकडा नहीं करना।

मुमुक्षुः- परन्तु दृष्टि उस पर..

समाधानः- दृष्टि अखण्ड पर रखनी। एक आम हो, वह हरा है, पीला है या खट्टा है, या मीठा है, उन सबका तू ज्ञान कर, परन्तु वह तो एक अखण्ड वस्तु है। उसमें कोई टूकडे नहीं है। रसका या रंगका टूकडा नहीं होता। वह सब तो अखण्ड है। ऐसे तू गुणका ज्ञान कर। उसमें भेद करके उसमें रुकना मत। रुकनेसे तो राग होगा। ... मीठा है, दूध ऐसा है। वैसे आत्मा ज्ञान है, आत्मामें दर्शन है, आत्मामें चारित्र है। ऐसे सब विचार कर, लेकिन वह सब तो एकमें है। रागको जड कह दिया। और एक बार कहा, तेरी अपनी पर्यायमें होता है। दोनों अपेक्षा (समझनी चाहिये)।

मुमुक्षुः- समयसारमें बहुत बार उलझ जाते हैं। एक बार जडमें रखा, एक बार (कहा) जीवका ही भाव है वह। शान्तिसे उसे... न बैठे तो उसे पकड नहीं पाते।

समाधानः- वैसे स्फटिक निर्मल है। उसमें प्रतिबिंब उठते हैं। वैसे आत्मा निर्मल है, उसमें प्रतिबिंब लाल-पीले उठते हैं, वह निमित्त ओरसे है। निमित्त-ओरसे विभाव हो वह तेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे (होता है)। द्रव्य आत्मा तो निर्मल है। ऐसे आत्मामें गुणके भेद पडे कि आत्मा ज्ञान है। वह तो विभावका भेद पडा। लेकिन जैसे स्फटिक श्वेत है, स्फटिक प्रकाशवाला है। ऐसे आत्मा निर्मल है, आत्मा ज्ञानमय है। द्रव्यमें ही, तेरी वस्तुमें भेद पडा। उसमें तू अखण्ड दृष्टि कर। वह तो रागका भेद पडा। रागको जड कहा, ये तो गुणका भेद पडा। उसमें भी तेरी दृष्टि तो अखण्ड पर कर।

ऐसे गुणस्थानका भेद पडा। केवलज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान वह सब ज्ञान तो आत्मामें प्रगट होते हैं। तो उसमें भेद पर दृष्टि नहीं करना, दृष्टि अखण्ड पर तू कर। लेकिन ज्ञान सबका कर। वह निश्चय-व्यवहारकी सन्धि ऐसी है कि उसमें बराबर समझे तो (समझमें आये)। ऐसा है।

मुमुक्षुः- बहुत उलझ जाय ऐसा है। हमारे जैसे उसमें बहुत उलझ जाते हैं। परन्तु जाननेवाला उसे उसके गुणसे जानता नहीं, यहाँ रखा हो तो काला लगे, यहाँ रखो तो अलग लगे।

समाधानः- अलग लगे, काला लगे, लाल लगे। उसकी दृष्टि स्थूल है। जिसकी दृष्टि आत्मा पर है, उसे आत्मा स्फटिक जैसा लगता है। दूसरोंको रागी, द्वेषी, क्रोधी लगता है। भेदज्ञान करे वह तो कहे, मैं तो भिन्न हूँ। लेकिन वह होता है, वह सिर्फ जड नहीं है, मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। परन्तु मेरा स्वभाव नहीं है। मेरा स्वभाव उससे भिन्न है। उसे जानता है कि यह होता है। मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है, उसे तोडनेका


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प्रयत्न करता है। यदि बिलकूल जडमें डाल दे तो फिर पुरुषार्थ किस बातका? जडमें डाल दो तो ऐसा हो।

मैं स्फटिककी भाँति भिन्न हूँ। परन्तु ये जो राग खडा है वह मेरेमें नहीं है। लेकिन मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे खडा रहता है। इसलिये मेरी परिणित पुरुषार्थ करनेका बाकी रहता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!