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मुमुक्षुः- प्रशममूर्ति पूज्य भगवती माताको अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार। शास्त्रमें आता है कि श्रुतज्ञान अर्थात अपरिणामी ध्रुव ज्ञान बन्ध-मोक्षको करता नहीं। यह बात तो समझमें आती है। परन्तु फिर ऐसा आता है कि श्रुतज्ञान परिणत जीव भी बन्ध- मोक्ष नहीं करता है। यह बात समझमें नहीं आती है। परिणत अर्थात परिणमनयुक्त कहना और पुनः बन्ध-मोक्षको करता नहीं है ऐसा कहना, वह कैसे है?
समाधानः- गुरुदेवने तो बहुत विस्तार किया है। गुरुदेवने समझानेमें कुछ बाकी नहीं रखा है। सूक्ष्म-सूक्ष्म करके शास्त्रका रहस्य गुरुदेवने खोला है। गुरुदेवका अनन्त- अनन्त उपकार है। यदि उसे समझकर अन्दर पुरुषार्थ करे तो प्रगट हो ऐसा है।
गुरुदेवने इसका तो कितना विस्तार किया है। परिणत ज्ञान तो... अनादिअनन्त जो वस्तु है, वह वस्तु तो स्वयं बन्ध-मोक्षको करती नहीं है। वह वस्तु स्वभाव है और परिणत अर्थात जो साधक अवस्थारूप जो जीव परिणमित हुआ है, वह बन्ध-मोक्षको नहीं करता है। जिसे द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी है, वह बन्ध-मोक्षको नहीं करता है। जिसने वस्तुका स्वरूप जाना है, वही वास्तवमें बन्ध-मोक्षको करता नहीं है। क्योंकि उसने द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से द्रव्यको बराबर ग्रहण किया है। द्रव्य पर दृष्टि की है। इसलिये वह द्रव्य अपेक्षा-से बन्ध-मोक्षको करता नहीं है।
परिणत कहकर आचार्यदेव ऐसा कहते हैं कि जो परिणामी है, परिणामी और अपरिणामी दोनों साथमें होते हैं। अपरिणामी द्रव्य है और परिणत वह पर्याय है। वह पर्याय वस्तुको ग्रहण करती है। साधक अवस्थारूप परिणमित हुआ जीव है, वही वास्तविकरूप-से वस्तु स्वरूपको जानता है और वही बन्ध-मोक्षको करता नहीं है और बन्ध-मोक्षकी साधना, मोक्षकी साधना भी वही करता है। वास्तविकरूप-से जो जीव परिणमित हुआ है, वही वस्तु स्वरूपको जानता है और द्रव्य अपेक्षा-से वह बन्ध-मोक्षको करता नहीं है।
वस्तु स्वरूप अनादिअनन्त जैसा है वैसा, परिणतिवाले जीवने ही जाना है कि मेरा स्वरूप जो है, वस्तु है वह बँधती नहीं है और बन्धन नहीं है तो मुक्ति किस अपेक्षा-से? इसलिये वस्तु स्वभाव-से बन्ध और मुक्ति, वह वस्तु स्वभाव-से नहीं है। और वह नहीं है, जो ज्ञान परिणतवाला जीव है, उसीने जाना है। और जाननेके बावजूद
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उसकी पर्यायमें साधनाकी पर्याय तो चालू ही रहती है। ऐसा कोई वस्तुका स्वरूप है कि अपरिणामी और परिणत दोनों साथमें ही रहते हैं।
उसमें आगे आता है कि द्रव्य और पर्याय दोनों युग्म है। वह दोनों साथमें ही रहते हैं। परिणामी और अपरिणामी दोनों साथमें होते हैं और उसमें साधना होती है। बन्ध-मोक्षको नहीं करता है, वह साधक अवस्थावाले जीवने ही बराबर जाना है। बुद्धि- से जाना वह अलग बात है। ये तो अंतर परिणतिरूप-से जाना है। द्रव्य अपेक्षा- से उसका आत्मा, उसे द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी, द्रव्य पर जो दृष्टि स्थापित की इसलिये वह वास्तविक रूप-से वह बन्ध-मोक्षका कर्ता नहीं है। तो भी साधनाकी पर्याय तो उसे चालू है।
इसलये आचार्यदेव ऐसा कहते हैं, परिणत, परिणत अर्थात जीवका एक स्वभाव परिणामी भी है और अपरिणामी भी है। दोनों वस्तु स्वभावको आचार्यदेव साबित करते हैं। जो अपरिणामी है उसे परिणतवाले जीवने ही जाना है। और उसने ही साधनाकी पर्याय शुरू की है। वास्तविक रूप-से परिणत और अपरिणतके बीच जो साधक जीव है वही उसे बराबर जानता है। और द्रव्यदृष्टिमें तो मति-श्रुत ज्ञानके भेद नहीं है, या उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक आदिके भेद भी उसमें नहीं है। द्रव्यदृष्टि तो ऐसी अखण्ड अभेद है। फिर भी वह अखण्डको ग्रहण करे तो भी भेद उसमें होते हैं। उस भेदको ज्ञान जानता है। भेद और अभेद साथमें रहते हैं। फिर भी द्रव्य अपेक्षा-से वस्तु अखण्ड और गुण अपेक्षा-से उसमें भेद, पर्याय अपेक्षा-से भेद (है)। वह दोनों अपेक्षाएँ भिन्न- भिन्न हैं।
परिणामी, अपरिणामी विरुद्ध होने पर भी दोनों साथमें रहते हैं। और उन दोनोंकी अपेक्षाएँ अलग-अलग है। मुक्तिके मार्गमें वह दोनों साथमें ही होते हैं। अपरिणामी पर जोर और उस पर उस जातकी दृष्टि स्थापित की है तो भी साधना भी वैसे ही होते हैं। साधनाका जो परिणामीपना है वह भी अपरिणामी तरफकी मुख्यता-से ही परिणामी साधना होती है। ऐसा उसका सम्बन्ध है। और ज्ञान उसे बराबर ग्रहण करता है।
द्रव्य और पर्याय दोनों साथमें ही होते हैं। इसलिये आचार्यदेवने कहा है कि जो परिणतवाला जीव है, वही बन्ध-मोक्षको नहीं करता है। जो परिणामी है, जो साधनारूप परिणमा है, उसे द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी है। और वही ज्ञायक है। वह वास्तवमें ज्ञायक है और परिणामी जीव है, जिसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र है, वह परिणामीपना जिसे है, उसे द्रव्यदृष्टि साथमें ही रहती है। उसे द्रव्यदृष्टिपूर्वक साधनाकी पर्याय साथमें होती है। वह द्रव्यमें-से सर्व भेदको निकाल देता है तो भी, वह निकाल देता है उसीमें
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साधना शुरू होती है। ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है।
जिस अपेक्षा-से वस्तु अपरिणामी है और जो परिणामी है, उसकी अपेक्षा अलग है। परन्तु द्रव्य और पर्यायका युग्म साथमें ही होता है। उसमें-से एक भी निकल नहीं सकता। दोनोंकी अपेक्षा अलग है। और साधनामें वह दोनों साथमें ही होते हैं। एक मुख्यपने होता है, एक गौणपने होता है।
मुमुक्षुः- दोनों बात उसे अपने लक्ष्यमें रखनी चाहिये?
समाधानः- एक मुख्य होती है। द्रव्यदृष्टि अनादि-से जीवने की नहीं है, इसलिये द्रव्यदृष्टि मुख्य है। तो भी पर्याय तो उसके साथ होती है। वह द्रव्य पर्याय रहित नहीं होता और पर्यायको द्रव्यका आश्रय होता है। ऐसा सम्बन्ध तो द्रव्य और पर्यायका होता है। वह उसे साथमें होता है। उसकी दृष्टि अनादि-से पर्याय पर है। दृष्टि पलटकर द्रव्य पर दृष्टि मुख्य करके उसके साथ पर्याय गौण होती है। पर्याय निकल नहीं जाती। पर्याय साथमें होती है। साधनामें दोनों साथमें होते हैं। द्रव्यदृष्टि मुख्य और साधना पर्यायमें होती है। दोनों साथमें होते हैं।
मुमुक्षुः- छठ्ठी गाथामें प्रमत्त-अप्रमत्त रहित ध्रुव ज्ञायक कहा, वह तो समझमें आता है। परन्तु दूसरे पैरेग्राफमें कहते हैं कि ज्ञेयाकार अवस्थामें जो ज्ञायकपने ज्ञात हुआ वह स्वरूप प्रकाशनकी अवस्थामें भी कर्ता-कर्मका अनन्यपना होने-से ज्ञायक ही है। तो यहाँ ध्रुव ज्ञायककी बात चलती है, फिर भी दूसरे पैरेग्राफमें अवस्थाकी बात क्यों ली? क्या अवस्था समझानी है या त्रिकाली ज्ञायक समझाना है? इसमें पहले और दूसरे पैरेग्राफका ज्ञायक एक ही है या भिन्न-भिन्न है?
समाधानः- ज्ञायक एक ही है। आचार्यदेवको ज्ञायक ही साबित करना है। ज्ञायक जो अनादि-से ज्ञायक है, वह अनादिका ज्ञायक है। विभाव अवस्थामें जो ज्ञायक है और प्रमत्त-अप्रमत्त अवस्थामें जो ज्ञायक है, वही ज्ञायक, स्वरूप प्रकाशनकी अवस्थामें वही ज्ञायक है।
आचार्यदेव कहते हैं कि अनादि-से जो विभावकी पर्याय है, उसमें अनादि-से वह ज्ञायक ही रहा है। ज्ञायकपना उसका बदला नहीं। स्वतःसिद्ध ज्ञायक है। वह ज्ञायक ही रहा है। प्रमत्त-अप्रमत्तकी जो उसकी चारित्रकी दशा है, वह चारित्रकी जो दशा है, उसमें भी वह ज्ञायक ही रहा है। चारित्रमें जो छठवें-सातवें गुणस्थानमेंं मुनि झुलते हैं, क्षणमें स्वानुभूति और क्षणमें बाहर आते हैं, ऐसी पर्यायोंकी जो साधनाकी दशा है, जो मुनिकी चारित्रकी दशा है, उसमें भी ज्ञायक तो द्रव्यरूप, द्रव्य ज्ञायकरूप ही रहा है। वह द्रव्य रहा है।
उसमें तो ज्ञायक अशुद्ध नहीं हुआ है। अनादि-से अशुद्ध नहीं हुआ है। ज्ञानकी
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अपेक्षा-से। दूसरा चारित्रकी अपेक्षा-से है। इस तरह शुद्ध उपासित होता हुआ शुद्ध ही है। वह दर्शनकी अपेक्षा-से-द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से ज्ञायक है। वह द्रव्य अनादि- से स्वभाव-से भी ज्ञायक है। द्रव्यदृष्टि प्रगट की इसलिये वह ज्ञायक है। चारित्रकी अवस्थामें भी वह ज्ञायक है। ज्ञानकी अवस्थामें ज्ञेयाकार हुआ तो भी वह ज्ञायक है। वह ज्ञेयोंको जानता है तो भी वह ज्ञायक ज्ञायकरूप-से पलटता नहीं।
स्वरूपमें निर्विकल्प दशामें जाय तो भी वह ज्ञायक है और ज्ञेयोंको जाने तो भी वह ज्ञायक है। उन ज्ञेयोंको जाननेमें उसे अशुद्धता नहीं आती है। जैसे विभाव अवस्थामें अथवा प्रमत्त-अप्रमत्तमें हो तो भी ज्ञायकको कोई अशुद्धता नहीं है। वह भेद पडा तो पर्यायका भेद होता है, द्रव्यमें नहीं होता। ऐसे वह स्वतःसिद्ध ज्ञायक है। बाहर जानने गया इसलिये उसका ज्ञान वृद्धिगत हो गया या ज्ञानमें कुछ अशुद्धता आ गयी ऐसा नहीं है। और अंतरमें गया, स्वरूप प्रकाशनकी स्वानुभूतिकी दशामें गया तो भी वह ज्ञायक द्रव्य अपेक्षा-से ज्ञायक ही है।
एक पर्यायकी शुद्धता-लीनता हो, वह एक अलग बात है। बाकी ज्ञायक तो ज्ञायक है। ज्ञेयको जाने तो भी ज्ञायक है। कर्ता-कर्म पर्याय प्रगट हुयी, स्वरूप प्रकाशनकी, इसलिये उसमें पर्याय नहीं साबित करनी है, ज्ञायकको साबित करना है। उसकी स्वरूप प्रकाशनकी निर्विकल्प दशामें गया, तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक है। भले उसकी साधनाकी पर्याय, वेदनकी पर्याय स्वानुभूतिरूप हुयी तो भी वह ज्ञायक तो ज्ञायक ही है।
ज्ञान बाहर ज्ञेयोंको जानता है तो वह तो भिन्न रहकर जानता है। उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता उसे नहीं आती है। तो भी वह ज्ञायक ही है। शुद्धि-अशुद्धि तो उसकी पर्यायमें चारित्रकी अपेक्षा-से होती है। जाननेकी अपेक्षा-से कहीं ज्ञानमें शुद्धता-अशुद्धता आती नहीं। वह बाहर भिन्न रहकर ज्ञायक अपनी तरफ ज्ञायककी धारा रखकर जानता है। उसमें अशुद्धता आती नहीं।
परन्तु अनादि-से ज्ञेयको एकमेक होकर जानता था। तो भी द्रव्यमें कहीं अशुद्धता आ नहीं जाती। वह जाने तो भी ज्ञायक है। प्रमत्त-अप्रमत्त अवस्थामें भी ज्ञायक है। विभाव अवस्थामें अनादि-से है तो भी ज्ञायक है। द्रव्य अपेक्षा-से वह सर्व अपेक्षा- से ज्ञायक है। दर्शन, ज्ञान, चारित्रका भेद पडे तो भी वह ज्ञायक ही है।
कर्ता-कर्ममें पर्यायकी बात नहीं करनी है। पर्याय कहकर ज्ञायकको बताना है। ज्ञायक स्वानुभूतिमें गया, स्वरूपका निर्विकल्प दशामें वेदन करे तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। ज्ञायक जो अनादिका वस्तु स्वरूप-से है, वह ज्ञायक है। उसमें जो मूल वस्तु है, द्रव्य और पर्याय ऐसे दो प्रकार (जरूर है), फिर भी मूल वस्तु जो है, वह ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। पर्याय पलटे वह एक अलग बात है। ज्ञायक ज्ञायक ही है। ज्ञानमें
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बाहरका जाना इसलिये कुछ कम हो गया और अन्दर गया तो बढ गया अथवा बाहर ज्यादा जाना तो बढ गया और अन्दर कम हो गया, ऐसा कुछ नहीं है। अथवा ज्ञेयाकार अशुद्ध हो गया ऐसा नहीं है। द्रव्य अपेक्षा-से ज्ञायक सो ज्ञायक ही है।
उसकी जो द्रव्यदृष्टि हुयी और द्रव्यकी परिणति जो प्रगट की, द्रव्य तो अनादिका है, उसमें जो दृष्टि स्थापित की, वह ज्ञानकी पर्यायमें हो या चारित्रकी पर्यायमें हो, कोई भी पर्यायमें हो, दर्शनकी पर्यायमें तो द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी है। तो सर्व अवस्थामें ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। अनादि-से ज्ञायक है। वह ज्ञायकरूप परिणमित अनन्त-अनन्त शक्तियों-से भरा है। वह ज्ञायक सदाके लिये ज्ञायक ही रहता है। वह अंश है, यह अंशी है। सदाके लिये ज्ञायक सो ज्ञायक ही है। पर्याय कोई भी परिणमे तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक है। ऐसा आचार्यदेवको कहना है।
कर्ता-कर्म कहकर पर्याय नहीं बतानी है। ज्ञायक ही बताना है। स्वरूप प्रकाशनमें ज्ञायक और ज्ञेयाकारमें ज्ञायक, प्रमत्तमें ज्ञायक और अप्रमत्तमें ज्ञायक, विभावकी कोई भी अवस्था हो, उसमें ज्ञायक सो ज्ञायक है। अनादि-से ज्ञायक सो ज्ञायक है। उसकी साधनाकी पर्याय प्रगट हुयी तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक है। ऐसा आचार्यदेवको कहना है।
कर्ता-कर्मका अनन्यपना अर्थात कर्ता स्वयं और कर्म उसकी पर्याय है। अनन्यपना अर्थात पर्यायकी अपेक्षा-से उसे अनन्यपना है। पर्याय उसमें नहीं है ऐसा नहीं है, पर्याय प्रगट हुयी है। स्वरूप प्रकाशनकी भले पर्याय प्रगट हुयी है, स्वानुभूतिकी पर्याय प्रगट हुयी है। कर्ता-कर्मका अनन्यपना है, तो भी ज्ञायक है। क्योंकि कर्ता-कर्ममें स्वरूप प्रकाशनकी पर्याय कर्मपने प्रगट की, वह कर्म पर्याय उससे बिलकूल भिन्न नहीं है। कोई अपेक्षा-से उसका अनन्यपना है। अमुक अपेक्षा-से अनन्यपना है। तो भी पर्यायका अनन्यपना हो तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक है। पर्यायका वेदन स्वयंको होता है। तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक है, ऐसा कहना है।
अपेक्षा समझनी चाहिये। मूल वस्तु है। पर्यायको कोई अपेक्षा-से अनन्य कहनेमें आती है, कोई अपेक्षा-से उसे भिन्न कहनेमें आती है, कोई अपेक्षा-से अभिन्न कहनेमें आती है, उसकी अपेक्षाएँ भिन्न-भिन्न हैं।
मुमुक्षुः- इसमें जो प्रमत्त-अप्रमत्त कहा वह चारित्र विवक्षा-से कहा। और कर्ता- कर्म कहा वह ज्ञान-ज्ञेय विवक्षा-से कहा। उसमें ज्ञान-ज्ञेय विवक्षाकी अपेक्षा-से भले स्वको जानता होने पर भी वह अनन्यपना हुआ तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक ही है, ऐसा कहना है?
समाधानः- हाँ, ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। कर्ता-कर्म अपेक्षा-से स्वयं जाननेवाला और वह उसका कर्म हुआ। तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक है। क्योंकि कर्म वह परिणति
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प्रगट हुयी। तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक है। पर्याय प्रगट हुयी, उस पर्यायमें भी ज्ञायक तो ज्ञायक है। स्वयंको जानता हुआ ज्ञायक तो ज्ञायक है। जो अनादिका ज्ञायक है वह ज्ञायक ही है।
स्वरूप प्रकाशनकी (बात कही तो) वहाँ पर्यायकी बात हो गयी और प्रमत्त-अप्रमत्तमें लो तो वहाँ भी साधनाकी ही पर्याय आयी। प्रमत्त-अप्रमत्तमें। अप्रमत्त दशा है वह भी साधनाकी पर्याय है। प्रमत्त-अप्रमत्तमें मुनि झुलते हैं। मुनिको द्रव्यदृष्टि तो मुख्य होती है। उसमें भी दृव्यदृष्टि-से ज्ञायक भिन्न रहता है। वैसे ज्ञानकी जो पर्याय प्रगट हुयी उसमें भी वह ज्ञायक वैसे ही रहता है। ज्ञायक जो द्रव्य अपेक्षा-से ज्ञायक है, वह ज्ञायक ही है। स्वतः ज्ञायक है। ज्ञानकी पर्याय परिणमे वह भी पर्याय है। प्रमत्त-अप्रमत्तकी पर्याय है, वह भी पर्याय है। सब पर्यायमें ज्ञायक ज्ञायक रहता है। भले कर्ता-कर्मका अनन्यपना हो। अप्रमत्त दशा है वह साधनाकी पर्याय है। साधनाकी पर्यायका उसे वेदन है। उसमें वह परिणमता है, तो भी वह ज्ञायक है। ज्ञानकी पर्यायमें परिणमे तो भी ज्ञायक है। ज्ञानकी पर्यायमें परिणमे तो भी ज्ञायक है।
मुमुक्षुः- प्रमत्त-अप्रमत्त-से तो रहित कहा और कर्ता-कर्मका अनन्यपना (कहा)। उसमें रहित शब्दप्रयोग नहीं किया। तो वह दोनों कैसे?
समाधानः- कर्ता-कर्म स्वरूप प्रकाशनमें ज्ञान स्वयं प्रकाश करता है-ज्ञान जानता है, जाननेकी अपेक्षा ली न, इसलिये जानता है। जाननेकी अपेक्षा-से अनन्य है तो भी ज्ञायक है, ऐसे। ज्ञायकको जाननेको कहा। ज्ञायक तो जाननेवाला है। इसलिये जाननेवाला जानता है। जानता है तो भी उसके साथ, उस पर्यायके साथ द्रव्य तो द्रव्य ही रहता है। जाननेकी अपेक्षा आयी तो उसे ज्ञायक कहते हैं, जाननेकी अपेक्षाके कारण उसे अनन्य कहा। परन्तु वह अप्रमत्तकी साधनाकी पर्याय है, इसलिये उससे भिन्न उपासित होता हुआ कहा। अनन्य (कहा), क्योंकि वह जाननेकी पर्याय है, इसलिये उसे अनन्य कहा। दृष्टान्त देकर भी सिद्धान्त साबित करते हैं।
ज्ञायकमें जाननेकी मुख्यता आयी। ज्ञायक जाननेका कार्य करे इसलिये ज्ञायक जानता हो तो? ज्ञायक जो जाननेका काम करे, वह जानने-से उसे भिन्न कैसे मानना? प्रमत्त- अप्रमत्त तो एक साधनाकी पर्याय हुयी। परन्तु ये जाननेकी पर्याय तो उसका स्वभाव है, ज्ञायक स्वतः (है), वह जाननेकी पर्याय तो उसका स्वभाव है। जाननेकी पर्याय- से अशुद्ध नहीं होता, ऐसा कैसे मानना? जाननेवाला है और जानता है। परन्तु जाननेवालेकी पर्याय जानती है तो उतनी पर्याय जितना नहीं हो जाता। वह अखण्ड ही रहता है। उसमें अनन्य हो तो भी उतनी पर्याय जितना नहीं हो जाता।