Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 283.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 280 of 286

 

PDF/HTML Page 1864 of 1906
single page version

ट्रेक-२८३ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- पर्यायका कारण पर्याय है, द्रव्य-गुण नहीं। इस कथनका आशय क्या समझना?

समाधानः- पर्यायका कारण पर्याय है और द्रव्य-गुण नहीं है। द्रव्य जैसे अनादिअनन्त स्वतःसिद्ध है, जैसे द्रव्य अनादिअनन्त स्वतः है, जगतके अन्दर जो वस्तु है वह स्वतःसिद्ध है, ऐसे द्रव्य-गुण स्वतःसिद्ध है। वैसे पर्याय है वह भी स्वतःसिद्ध है। वह किसीसे बनायी गयी, किसीके द्वारा उत्पन्न नहीं की गयी है। जो द्रव्यमें पर्याय है वह स्वतःसिद्ध है। द्रव्यके कारण पर्याय है, ऐसा नहीं। पर्याय स्वतःसिद्ध है।

अकारण पारिणामिक द्रव्य है। जैसे द्रव्य स्वतःसिद्ध है, वैसे पर्याय भी स्वतःसिद्ध है। उस पर्यायको परिणमनेमें आसपासकी पर्यायका कारण लागू पडे, इसलिये वह प्रगट होती है, ऐसा नहीं है। वस्तुस्थिति-से वह पर्याय स्वतःसिद्ध है। इसलिये पर्यायका कारण पर्याय कहनेमें आता है।

पर्याय है वह स्वतःसिद्ध है। जैसे द्रव्य-गुण स्वतःसिद्ध है, वैसे पर्याय स्वतःसिद्ध है। परन्तु उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि कोई द्रव्य पर्याय रहित है और पर्यायको कोई द्रव्यका आश्रय नहीं है, और पर्याय निराधार होती है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। परन्तु पर्याय है वह स्वतःसिद्ध है। वह स्वतःसिद्ध परिणमती है, वह अकारण है। जैसे द्रव्य-गुण अकारण है, वैसे पर्याय भी स्वतःसिद्ध अकारण है। ऐसा उसका अर्थ है। लेकिन पर्याय निराधार है, द्रव्य बिलकूल कूटस्थ है, द्रव्यमें कोई परिणाम नहीं है और पर्याय कोई द्रव्य रहित है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है।

उसका स्वतःसिद्धपना और वह स्वयं स्वतंत्र है, उसके सर्व कारक स्वतंत्र, वह स्वतंत्र परिणमता है, ऐसा उसका समझनेका अर्थ है। पर्याय भी एक वस्तु अकारण है, ऐसा कहना है। परन्तु जो द्रव्यदृष्टि करे, उस द्रव्यदृष्टिके अन्दर द्रव्य जैसे स्वतःसिद्ध है, वैसे पर्याय स्वतःसिद्ध है। तो भी द्रव्यदृष्टिमें वह पर्याय आती नहीं है। द्रव्यदृष्टिमें पर्याय नहीं आती है। अर्थात पर्याय द्रव्यदृष्टिके विषयमें नहीं आती। इसलिये पर्याय द्रव्य- से एकदम भिन्न हो गयी और निराधार है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। तो भी पर्याय परिणमती है, जैसा द्रव्य हो उस जातकी पर्याय परिणमती है। जड द्रव्य हो और चेतनकी


PDF/HTML Page 1865 of 1906
single page version

पर्याय परिणमे अथवा दूसरे द्रव्यकी पर्याय दूसरे द्रव्यमें परिणमे ऐसा नहीं है। जिस द्रव्यकी जो पर्याय हो, उस द्रव्यके आश्रय-से ही पर्याय परिणमती है। ऐसा उसका सम्बन्ध उसमें-से टूटता नहीं। वह स्वतः होने पर भी, वह स्वतंत्र होने पर भी, उसका सम्बन्ध जो द्रव्यके साथ है, वह पर्यायका द्रव्यके साथका सम्बन्ध छूटता नहीं।

द्रव्यदृष्टिके विषयमें वह भेद आता नहीं। द्रव्यदृष्टिका विषय अखण्ड है। इसलिये उसमें वह भेद आते नहीं। तो भी वह पर्याय कोई अपेक्षा-से,... द्रव्यमें गुणका भेद, पर्यायका भेद है, और उस भेदके कारण पर्यायको द्रव्यका आश्रय होता है। और द्रव्य कोई पर्याय रहित नहीं होता। (यदि सर्वथा) कूटस्थ हो तो उसे साधना नहीं हो, कोई वेदन नहीं हो, संसार-मोक्षकी कोई अवस्था नहीं। अतः स्वतंत्र कहनेका अर्थ यह है कि वह स्वतःसिद्ध अकारण पारिणामिक है। इसलिये उसका स्वरूप स्वतंत्र बतानेके लिये है। परन्तु जहाँ द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी, उसमें वह नहीं होती। तो भी साधनामें वह दोनों साथमें होते हैं। द्रव्यदृष्टि मुख्य होती है और जिसे द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी है, उसे उस साधनाके साथ पर्यायकी शुद्धि होती है।

वस्तुका स्वरूप ही ऐसा है कि जिसकी द्रव्य पर दृष्टि हो, यथार्थपने दृष्टि हो उसे ही वह पर्याय शुद्धरूप साथमें परिणमती है। और जिसे यथार्थ ज्ञान साथमें हो वह अंशी और अंशका करवाता है। अंशी स्वयं अखण्ड है। उसमें अनन्त गुण और अनन्त पर्याय है। परन्तु वह एक अंश है। उस अंशका सामर्थ्य कहीं अंशी जितना नहीं है। तो भी वह स्वतः है। वह स्वतः परिणमती है और स्वतंत्र है। ऐसा कहनेका आशय है।

द्रव्यके विषयमें आता नहीं है, इसलिये उसे भिन्न करके उसे ऐसा कहनेमें आता है कि वह स्वतंत्र परिणमती है। द्रव्यदृष्टिका विषय नहीं है और वह स्वतः है इसलिये। और उसे स्वतंत्र कहनेमें एक पर्याय भी है और द्रव्यके साथ पर्याय होती है। ऐसा भी साबित होता है। पर्यायको स्वतंत्र कहनेमें पर्याय है और पर्याय द्रव्यका एक भाग है, ऐसा उसमेंसे साबित होता है। पर्यायकी स्वतंत्रता बतानेमें पर्याय नहीं है ऐसा साबित नहीं होता। परन्तु पर्याय है और पर्याय द्रव्यका एक भाग है। परन्तु वह स्वतंत्र स्वतःसिद्ध है। पर्याय भिन्न है ऐसा उसका अर्थ उसमें नहीं है। उसमेंसे पर्याय साबित होती है।

पर्यायको स्वतंत्र बतानेमें कोई ऐसा मानता हो कि पर्याय है ही नहीं (तो ऐसा नहीं है)। पर्यायको स्वतंत्र बतानेमें पर्याय है और पर्याय द्रव्यका एक भाग है और वह स्वतंत्र परिणमती है। और द्रव्यदृष्टिकी मुख्यतामें उसे गौण करनेमें आता है। परन्तु पर्याय, जिस जातिका द्रव्य हो, उस जातिकी पर्याय द्रव्यके आश्रय-से परिणमती है। उसमें बिलकूट टूकडे नहीं हो जाते, वह अपेक्षा साथमें समझनी है। यथार्थ समझे तो


PDF/HTML Page 1866 of 1906
single page version

ही साधनाका प्रारंभ होता है।

मुमुक्षुः- ... ज्ञानीको इच्छा नहीं होने-से परिग्रह नहीं है। इसलिये आहारको ग्रहते नहीं। और साथमें दर्पणमें उठ रहे प्रतिबिंबकी भाँति आहारको जानते हैं। यहाँ दर्पणका दृष्टान्त देकर कहा, उसमें क्या आशय समझना?

समाधानः- द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से वह मात्र जानता है। आहारको ग्रहण नहीं करता है, आहारको छोडता नहीं। ज्ञायकमें कोई आहार नहीं है। ज्ञायक उसे ग्रहण नहीं करता है, मात्र जानता है। जैसे प्रतिबिंबमें कुछ ग्रहण करना या छोडना ऐसा प्रतिबिंबमें होता नहीं, वैसे ज्ञायकको कुछ ग्रहण नहीं करता और कुछ छोडता नहीं है। द्रव्यदृष्टिमें वह ज्ञायक ज्ञायक ही रहता है।

ज्ञातामें कुछ आता नहीं। और जो आहार है वह, उसकी चारित्रकी अल्पता है, इसलिये पुरुषार्थकी कमजोरी-से होता है, वह उसके ज्ञानमें है। परन्तु ज्ञायककी दृष्टिमें, द्रव्यदृष्टिमें वह मात्र उसे प्रतिबिंबकी भाँति जानता ही है। प्रतिबिंब अर्थात उसे ग्रहता नहीं और छोडता नहीं। ऐसा उसका आशय है, उसमें दूसरा कोई आशय नहीं है।

द्रव्यदृष्टिमें तो, द्रव्यदृष्टिका स्वरूप या द्रव्यका स्वरूप आप जितना कहो उतना ऊँचे- से ऊँचा होता है। तो भी उसमें-से पर्याय निकल नहीं जाती। उसमें पुरुषार्थकी मन्दता, साधनाकी पर्याय आदि सब साथमें होता है। द्रव्यदृष्टिका जितना ऊँचा कहो, उतना स्वरूप द्रव्यदृष्टिमें आता है। और वस्तुका स्वरूप ऐसा है। तो भी उसमें-से पर्याय जाती नहीं। पुरुषार्थकी मन्दता होती है। चारित्रकी दशा अधूरी है, वह ज्ञानीके ज्ञानमें है। उसे पामर जानता है। ज्ञायककी अपेक्षा-से प्रभु होने पर भी पर्यायमें वह पामर जानता है। इसलिये वह प्रतिबिंब होने पर भी उसमें कुछ है ही नहीं, ऐसा द्रव्यकी अपेक्षा- से उसका अर्थ है। बाकी उसकी चारित्रकी मन्दता है, वह उसे बराबर जानता है। ऐसा उसका अर्थ है।

समाधानः- ... जो निर्णय किया कि ये शरीर भिन्न है, विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ। ऐसा निर्णय किया। सच्ची समझमात्र नहीं, परन्तु अन्दर ज्ञायककी परिणति होनी चाहिये, अन्दर भेदज्ञान होना चाहिये। स्वयं अन्दर-से भेदज्ञानरूप परिणमे और वह भेदज्ञानकी परिणति ज्ञाताकी उग्रता करके उसमें लीनता करे तो उसमें वह प्रयत्न आ जाता है।

स्वयं प्रतीति करके अन्दर लीनताका प्रयत्न करनेका रहता है। अलग जातका नहीं रहता है, लीनताका करनेका प्रयत्न रहता है। समझन यानी मात्र समझन करे उतना ही नहीं, उसके साथ भेदज्ञान हो। भेदज्ञानकी उग्रता हो, उसमें लीनताकी उग्रता हो वह प्रयत्न रहता है। भिन्न प्रयत्न नहीं, भेदज्ञानकी उग्रताका प्रयत्न, उसमें लीनताका


PDF/HTML Page 1867 of 1906
single page version

प्रयत्न रहता है।

मुमुक्षुः- भेदज्ञानकी उग्रता माने क्या?

समाधानः- स्वयं चैतन्य भिन्न ही है, मैं ज्ञायक भिन्न हूँ, ऐसा सहज भेदज्ञान होकर अन्दर लीनता, उग्रताके साथ लीनताका प्रयत्न होता है। विकल्प तरफ जो उपयोग जाता है, परिणति अस्थिर होती है, वह उपयोग अपने स्वरूप तरफलीन हो, उस लीनताका प्रयत्न होना चाहिये।

एक चारित्रदशा-लीनता वह अलग है, परन्तु ये तो अभी एक समझा नहीं है और स्वरूपाचरण चारित्र मात्र है, वह प्रगट होनेके लिये उसे लीनताका प्रयत्न (होता है)। भेदज्ञानपूर्वक लीनताका (प्रयत्न)। अकेली लीनता करे, समझे बिना विकल्प छोडे ऐसे नहीं। अपना अस्तित्व ग्रहण करके भेदज्ञानपूर्वक लीनताका प्रयत्न।

मुमुक्षुः- भेदज्ञानके साथ-साथ लीनता सहज बनती जाती है या प्रयत्न करना पडता है?

समाधानः- जिसे भेदज्ञानकी धारा वर्तती है, उसे साथमें लीनता (होती है)। परन्तु जिसे सच्ची परिणति प्रगट हुयी, उसे लीनता हुये बिना रहती ही नहीं। वह उसमें अटकता नहीं, उसमें आगे जाता है। कितनोंको निर्णय, प्रतीत होनेके बाद अभी भेदज्ञान सहज नहीं होता, तबतक उसे निर्विकल्प दशा होती नहीं। भेदज्ञान सहज परिणमें उसमें लीनता हो तो निर्विकल्प दशा होती है। सच्चे ज्ञानपूर्वक सच्चा ध्यान होना चाहिये तो होता है।

वह ध्यान, जो चारित्रदशाका ध्यान है, फिर पाँचवे, छठ्ठो (होता है), वह ध्यान नहीं है। ये तो अभी सम्यग्दर्शनमें होता है, वह ध्यान। सच्चे ज्ञानपूर्वक सच्चा ध्यान होना चाहिये। उसे भेदज्ञानकी उग्रता कहो, उसे ध्यान कहो, उसे लीनता कहो।

मुमुक्षुः- भेदज्ञानकी उग्रताका ..

समाधानः- ज्ञान तो है, परन्तु वह सहज है। बुद्धिमें मैं भिन्न हूँ, भिन्न हूँ, भिन्न हूँ, ऐसे विकल्पमात्र नहीं, अपना अस्तित्व ग्रहण करता है। और अस्तित्व ग्रहण करे उसे सहज होता है। विकल्पपूर्वक अभ्यास करता है, अभ्यास मात्र ऊपर-ऊपर नहीं, अंतरमें-से सहज अभ्यास, अभ्यासकी परिणति सहजरूप हो जाय और उसकी भेदज्ञानकी धारा सहज हो और सहज लीनता हो। भेदज्ञानकी धाराके साथ उसकी उग्रताके साथ सहज लीनता होती है। दोनों साथ होते हैं। वह उग्रता है वह सम्यग्दर्शनपूर्वक उग्रता है।

.. सहज दशा कहो, सहज होना चाहिये। विकल्पपूर्वक अभ्यास करता है (उतना ही नहीं)। अंतरमें अस्तित्व ग्रहण करके सहजरूप परिणमित हो जाय, सहज भेदज्ञानरूप


PDF/HTML Page 1868 of 1906
single page version

और सहज उसमें लीनता-स्वयं उसमें स्थिर हो जाय। दूसरी भाषामें कहो तो स्थिर हो जाना, ज्ञायकमें स्थिर हो जाना। बाहर उपयोग है, वह उपयोग स्वरूपमें लीन हो जाना, स्थिर हो जाना। ऐसी सहज दशा हो तो निर्विकल्प दशा होती है।

... अटकना नहीं है, परन्तु सहज दशा प्रगट करके, सहज उसकी लीनता सहज ध्यान करता है। उस जातका एकाग्र होता है। सम्यग्दर्शन होता है, वहाँ श्रद्धाका बल और आंशिक एकाग्रता अर्थात स्वरूपाचरण चारित्र साथमें प्रगट होता है। वह चारित्र अलग है। उस जातकी एकाग्रता, उस जातका ध्यान प्रगट होता है तो निर्विकल्प दशा होती है। श्रद्धाके बल द्वारा एकाग्रता होती है। और वह श्रद्धा ऐसी सहज दशावाली होती है। अंतरमें-से ज्ञायकको ग्रहण करके स्वरूपका आश्रय, अस्तित्व ग्रहण करके अंतरमें होता है।

समाधानः- ... परप्रकाशक तो मात्र ये सब बाहरका जानता है। और जहाँ वीतराग होता है, वहाँ स्वयंको तो जानता है, परन्तु दूसरेमें उसे जाना नहीं पडता, वह तो अपनेमें रहकर, अपने क्षेत्रमें रहकर अपने आत्माका अनुभव करे और लोकालोक सहज ज्ञात होता है। ज्ञान निर्मल है। निर्मल ज्ञान हुआ इसलिये ज्यादा जानता है। जैसे निर्मल ज्ञान हो, वैसे ज्यादा जाने। आता है न? अवधिज्ञानी, केवलज्ञानी वे सब ज्यादा जानते हैं। और अज्ञानी तो गृहादि स्थूल (जानते हैं)। जितना दिखाई दे, नेत्र- से दिखाई दे उतना ही देखते हैं। ज्ञान अन्दर-से आत्माको उघाड हुआ है जानते हैं ऐसा नहीं है। ऊलटा ज्यादा जानते हैं।

कितने जीवको तो, आता है न? उस भवका जाने, इस भवका जाने, वह सब तो परप्रकाशक हुआ तो अंतर-से जानता है न? केवलज्ञानीको तो एकदम निर्मलता हो गयी। इसलिये वे तो अनन्त भवोंका, सबके द्रव्य-गुण-पर्याय, नर्क, स्वर्ग, सर्व द्रव्य- गुण-पर्याय केवलज्ञानी वीतराग हुए इसलिये ज्यादा ज्ञात होता है। वे वहाँ जाते नहीं है, वहाँ उपयोग भी नहीं देते। परन्तु ज्ञात होता है। परन्तु उन्हें राग-द्वेष नहीं होते। मात्र जानते हैं, वीतराग रहते हैं।

केवलज्ञान हो तो ज्यादा जानते हैं। अन्दर स्वरूपकी अनुभूति करे और सहज ज्ञात हो जाता है। जैसे दर्पण निर्मल है, उसमें सहज झलकता है, वैसे उनको सहज ज्ञात होता है, केवलज्ञानीको। केवलज्ञानीको पूर्ण ज्ञात होता है। अज्ञानी तो मात्र जूठा जानता है। एकत्व होकर जानता है। गृहादि सब मानों एकमेक मिश्र होकर जानता है। शरीरादि मैं हूँ, ऐसा हो गया है। कुछ भिन्न ज्ञात नहीं होता।

ज्ञान हो तब भिन्न जानता है कि मैं भिन्न, ये शरीर भिन्न, ये सब भिन्न है। सच्चा तो अंतर आत्माको पहचाने वह सब जानता है। स्वको जाने वह सब जानता


PDF/HTML Page 1869 of 1906
single page version

है। स्वयंको जो नहीं जानता है, वह कुछ यथार्थ नहीं जानता। उसे भेदज्ञान कैसे हो? उसकी स्वानुभूति कैसे हो? आत्माको पहचानना वही जीवनमें करना है।

.. भगवानके द्रव्य-गुण-पर्याय जाने, वह अपना जाने। जो अपना जाने वह भगवानके जाने।

मुमुक्षुः- एकको जाने। समाधानः- एकको जाने वह सर्वको जाने। मुमुक्षुः- .. समाधानः- हाँ।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!