Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 284.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 281 of 286

 

PDF/HTML Page 1870 of 1906
single page version

ट्रेक-२८४ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- मुमुक्षुओंको रुचि क्यों नहीं होती? यह समझमें नहीं आता।

समाधानः- जिसे अपना करना है, लगी है कि मनुष्यजीवनमें कुछ करना है, उसे रुचि होती है। जिसे कुछ करना नहीं है, जिसे बाहरकी-संसारकी रुचि है, उसे कुछ लगता नहीं।

मुमुक्षुः- उसका क्या कारण? चक्रवर्ती हो, तो फिर वे लडाईमें क्यों भाग लेते हैं? उसमें-से बाहर निकलकर मुझे यह करना ही नहीं, मुझे यह लडाई नहीं चाहिये, ऐसा करके स्वयं वापस क्यों नहीं मुड सकते?

समाधानः- जिसने अन्दर-से ज्ञायक आत्माको पहिचाना है कि आत्मा भिन्न ज्ञायक है। वह अन्दर-से विभाव-से छूट गया है और थोडी अस्थिरता है। उसे जो विभावके परिणाम आते हैं, वह वस्तु स्वभाव-से मेरा स्वभाव नहीं है, वह स्वभाव नहीं है ऐसा परिणति अंतरमें-से हो गयी है। क्षण-क्षणमें ज्ञायककी धारा रहती है कि मैं ज्ञायक हूँ। जो परिणाम आये उसका ज्ञायक रहता है। परन्तु पुरुषार्थकी मन्दता (है)। पूर्ण नहीं है, वीतरागता नहीं है इसलिये थोडी अस्थिरता है। उस कारण उसमें जुडता है। परन्तु उसकी स्वामीत्व बुद्धि नहीं है। मैं तो ज्ञायक जाननेवाला हूँ। ऐसा बोलनेमात्र नहीं, परन्तु अंतरमें ऐसी परिणति ही हो गयी है। क्षण-क्षणमें ऐसी भेदज्ञानकी धारा ही वर्तती है।

परन्तु वे राजमें खडे हैं, राजको छोड नहीं सकते हैं। अंतरमें-से कोई भी विभावका भाव आदरणीय नहीं है, ऐसी अंतरमें-से परिणति हो गयी है। अंतरमें परिणति भिन्न पड गयी है। तो भी पुरुषार्थकी मन्दता-से राजमें खडे हैं, इसलिये राजके जो कार्य हैं, उस कार्यमें वे खडे रहते हैं। उसमें-से छूट नहीं सकते। यदि पुरुषार्थ करे तो छूट जाय ऐसा है। परन्तु उनकी पुरुषार्थकी मन्दताके कारण उसमें जो-जो राजाके हिसाब- से फर्ज हो, वह सब फर्जमें वे खडे रहते हैं।

राजमें खडे हैं इसलिये लडाई आदि सब कार्यमें जुडते हैं। अंतरमें-से वैराग्य आवे तो सब छोडकर निकल जाते हैं। चक्रवर्तीका छः खण्डका राज होता है। परन्तु वैराग्य आता है तो एक क्षणमें छोडकर मुनि बन जाते हैं। मुझे ये कुछ नहीं चाहिये। ऐसा


PDF/HTML Page 1871 of 1906
single page version

पुरुषार्थ उत्पन्न हो तो सब छोड देते हैं। अंतरमें-से छूट जाता है, मुनि बन जाते हैं। फिर तो क्षण-क्षणमें आत्मामें स्वरूपमें लीन रहते हैं। क्षण-क्षणमें बाहर आये, अन्दर जाय ऐसी अंतर्मुहूर्तकी दशा हो जाती है।

परन्तु गृहस्थाश्रममें है इसलिये उसे उस जातका राग पुरुषार्थकी मन्दताके कारण छूटा नहीं है। अंतरमें-से छूट गया है कि ये विभाव मुझे किसी भी प्रकार-से आदरणीय नहीं है। ऊँचे-से ऊँचा शुभभाव भी मेरा स्वरूप नहीं है। उससे भी भिन्न रहते हैं। परन्तु वे राजके राग-से छूटे नहीं है। इसलिये उसमें खडे रहते हैं। वे छोडना चाहे, पुरुषार्थ करे तो क्षणमें छूट जाय ऐसा है।

कुछ राजा लडाईमें होते हैं और ऐसा होता है कि ये क्या? लडाईमें खडे हो, वहीं वैराग्य आता है, वहीं मुनि बन जाते हैं। ऐसी भी कोई राजा होते हैं। शास्त्रमें दृष्टान्त आता है। लडाई करते हो, वैराग्य आता है। हार-जीत ये सब क्या है? वहाँ लडाईमें ही लोंच करके मुनि बन जाते हैं, सब छोड देते हैं। ऐसा भी पुरुषार्थ उत्पन्न होता है। और किसीका ऐसा पुरुषार्थ उत्पन्न नहीं होता है, इसलिये लडाईमें, राजकी व्यवस्थामें सबमें जुडते हैं।

सम्यग्दृष्टिकी अंतरकी गति कुछ अलग होती है, बाहरकी अलग होती है। हाथीके दिखानेके दाँत अलग और अंतरके अलग होते हैं। वैसे उसकी अंतरकी परिणति एकदम न्यारी होती है। परन्तु बाहर ऐसे सब कार्यमें जुडता है। इसलिये परीक्षा करनी मुश्किल है। लडाईमें खडे हो और उसकी परीक्षा करनी, गृहस्थाश्रममें खडे हो उसकी परीक्ष करनी बहुत मुश्किल है। परन्तु वह अंतर-से कैसे न्यारे हैं, वह उनका परिचय हो तो ख्यालमें आये ऐसा है।

मुमुक्षुः- तभी उसकी ज्ञानधारा चालू ही होती है? और कर्मधारा चलती है?

समाधानः- कर्मधारा भिन्न, ज्ञानधारा भिन्न। दोनों भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। ये शरीर भिन्न, उसके हथियार भिन्न, राग आवे वह भिन्न। सबसे भिन्न धारा वर्तती है। प्रतिक्षण धारा वर्तती है। वह सब कार्य उसके न्यायपूर्वक होते हैं। कोई अन्यायमें नहीं जुडते। मर्यादित होते हैं। परन्तु उसमें वे खडे होते हैं, लडाईके कायामें।

पहलेके राजा, चक्रवर्ती, भरत चक्रवर्ती, रामचन्द्रजी सब लडाईके कायामें खडे थे। वैराग्य आया तब मुनि बनकर चल दिये। भरत चक्रवर्ती तो अरीसा भुवनमें एकदम वैराग्यको प्राप्त हुए हैं।

मुमुक्षुः- गुरुदेवकी एक टेपमें सुना कि ज्ञानमें ऐसी ताकत है कि भूत, भविष्य और वर्तमान सब पर्यायोंको जान सके। ऐसा भगवानके लिये ही है?

समाधानः- भगवानको प्रत्यक्ष ज्ञान है, इसलिये तीनों कालका प्रत्यक्ष जानते हैं।


PDF/HTML Page 1872 of 1906
single page version

और जो मति-श्रुतज्ञानी है वह प्रत्यक्ष नहीं जानता। इसलिये भूत, वर्तमान, भविष्यका प्रत्यक्ष नहीं जानता। वह भगवानके लिये है-भूत, वर्तमान, भावि। सम्यग्दृष्टि हो अथवा मति-श्रुतज्ञानी हो, वह भी थोडा जान सकता है। उसे भूतका अनन्त, भविष्यका अनन्त और वर्तमान वह सब अनन्त कालका नहीं जानता। किसीको ऐसा ज्ञान प्रगट हो तो मर्यादित ज्ञान जान सकता है।

बचपन-से बडा हुआ तो बचपनका हो उतना याद कर सके। भविष्यमें ऐसा होनेवाला है, ऐसा अनुमान प्रमाण-से जान सकता है। ऐसे भूत, वर्तमान, भविष्यको जाने। वर्तमानका जान सके, ऐसे जान सकता है। परन्तु केवलज्ञानी तो प्रत्यक्ष ऐसा ही होगा, ऐसा निश्चित जान सकते हैं। बाकी मति-श्रुत जिसे है, वह बचपन-से अब तक बडा हुआ, बचपनमें क्या बना वह सब जानता है, जो उसकी स्मरण शक्ति हो उस अनुसार। और अनुमान-से भविष्यमें ऐसा होगा, ऐसा अनुमान-से जानता है। कितनोंको ऐसा ज्ञान होता है कि भविष्यमें ऐसा होनेवाला है। ऐसा भी किसीको होता है कि थोडे समय बाद ऐसा होनेवाला है। ऐसा ज्ञान उसका सच्चा भी हो। ऐसा भी किसीको होता है। परन्तु वह सब मर्यादित होता है और परोक्ष होता है। केवलज्ञानीको प्रत्यक्ष होता है।

केवलज्ञानी तो जहाँ वीतराग दशा हुयी तो उसका ज्ञान निर्मल हो जाता है। भूतका अनन्त और भविष्यका अनन्त काल पर्यंतका अनन्त द्रव्योंका, उसके द्रव्य-गुण-पर्याय, चैतन्य, जड, जगतमें जितनी वस्तु है, उसके द्रव्य-गुण-पर्याय, समय-समयमें क्या परिणमन चल रहा है, वह सब एक समयमें केवलज्ञानी जानते हैं। अपना जानते हैं। स्वयं भूतकालमें कैसे परिणमे? वर्तमानमें कैसे परिणमते हैं, भविष्यमें क्या परिणति होनेवाली है? अपने द्रव्यकी। अनन्त गुण और पर्याय कैसे परिणमेंगे, ऐसा भविष्यमका अपना जाने। और अन्य अनन्त द्रव्य। यह जीव इतने समय बाद मोक्ष जायगा। नर्कका, स्वर्गका सब जीवोंके भाव, उसके भव, अनन्त-अनन्त कालका केवलज्ञानी जानते हैं। उन्हें ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान है। इच्छा नहीं करते हैं, इच्छा बिना जानते हैं। ऐसा उनका स्वपरप्रकाशक ज्ञान है।

मुमुक्षुः- उस ज्ञानका माहात्म्य बताईये।

समाधानः- ज्ञानकी ऐसी महिमा और ज्ञानका ऐसा स्वभाव है। मात्र महिमा नहीं बतानी है, परन्तु उसका स्वभाव ही ऐसा है। उसका नाम कहें कि उसमें मर्यादा नहीं होती। ज्ञानस्वभाव आत्माका है, उसकी मर्यादा नहीं है कि इतना ही जाने और उतना न जाने। वह जब निर्मल हो, तब पूर्ण जाने। अनन्त द्रव्य, अनन्त गुण, अनन्त पर्याय, अनन्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सब अनन्त जाने। उसका नाम ज्ञान कहनेमें आता है।


PDF/HTML Page 1873 of 1906
single page version

वस्तुका स्वभाव जिसमें ज्ञान है, उसमें नहीं जानना ऐसा नहीं आता कि इतना ही जाने और इतना न जाने। पूर्ण जाने। अपना पूर्ण, दूसरेका, सबका जाने। परन्तु वीतराग दशा-से जानते हैं। अज्ञानदशामें तो ऐसा थोडा अनुमान-से जाने। मति-श्रुतज्ञानी स्वानुभूतिमें जाने। बाकी परोक्ष जाने, परन्तु वह थोडे कालका जानता है। अवधिज्ञानी अमुक प्रत्यक्ष जानता है, मनःपर्ययज्ञानी अमुक प्रत्यक्ष जानता है, परन्तु केवलज्ञानी तो पूर्ण जानते हैं। ऐसा ज्ञानका स्वभाव ही है। ज्ञानको मर्यादा नहीं होती।

आत्मा ज्ञानस्वभावी है। तो उसमें नहीं जानना ऐसा आता ही नहीं। पूर्ण जाने। उसमें ऐसी मर्यादा नहीं बँध सकती कि इतना जाने और उतना न जाने। पूर्ण जाने। स्वको जाने, परको जाने। परन्तु इच्छा बिना। उसमें एकत्वबुद्धि किया बिना जानता है।

समाधानः- .. यथार्थ भावना भावे, वह भावना उसकी फलवान होकर ही छूटकारा हो। यदि वह भावना अंतर-से उत्पन्न हुयी भावना हो कि मुझे आत्मा ही चाहिये। ऐसी भावना यदि हुयी और चैतन्यकी परिणति प्रगट न हो तो जगतको शून्य होना पडे। अर्थात भावना फलती ही है। तो द्रव्यका स्वभाव नाश हो जाय अथवा द्रव्यका नाश हो जाय। जगतको शून्य होना पडे। द्रव्यका नाश हो अर्थात जगतको शून्य होना पडे।

जो भावना अंतर-से प्रगट हुयी हो, जो भावना अंतरमें-से प्रगट हो, वह भावना अपनी परिणतिको लाये बिना रहती ही नहीं। यदि परिणति न आवे तो उस द्रव्यका नाश हो जाय। जो द्रव्य स्वयं अन्दर-से परिणतिको इच्छता है, जो उसे चाहिये, वह अंतर-से न आये तो जगतको शून्य होना पडे अर्थात द्रव्यका नाश हो जाय। अपने द्रव्यका नाश हो, अपनी भावना सफल न हो, किसीकी न हो, इसलिये जगतको शून्य होना पडे।

अपनी भावना सफल नहीं होती है तो अपने द्रव्यका नाश होता है। वैसे किसीकी भावना सफल नहीं हो तो जगतको शून्य होना पडे। इसलिये स्वयंकी भावना अंतर- से उत्पन्न हुयी हो, वह अंतर-से प्रगट होकर ही छूटकारा है। यदि स्वयंको अन्दर- से आत्मा प्रगट होनेकी इच्छा हो, अंतर-से, तो वह अन्दर प्रगट हो ही। ऐसा नियम है। जो अंतरकी उत्पन्न हुयी भावना हो, वह भावना सफल हुए बिना रहती ही नहीं।

शुभ-अशुभ सब भावनाओंका फल आता है। ऐसे चैतन्य तरफकी भावना अंतरमें- से हुयी, वह भावना अंतर-से हुयी, उस रूप द्रव्यको परिणमना ही पडे। यदि द्रव्य परिणमे नहीं तो जगतको शून्य होना पडे, द्रव्यका नाश हो। द्रव्यका नाश होता ही नहीं। इसलिये द्रव्य उस रूप परिणति किये बिना रहता ही नहीं।


PDF/HTML Page 1874 of 1906
single page version

मुमुक्षुः- अंतरकी भावना कैसे उत्पन्न हो?

समाधानः- उसे उत्पन्न करनेके लिये स्वयंको उतनी लगन हो, जरूरत लगे कि बस, कोई वस्तुमें उसे रस नहीं है, एक चैतन्य तरफका रस लगे। चैतन्यमें अन्दर अपूर्वता लगे। ऐसी अपूर्वता लगे। उसके बिना स्वयंको चले ही नहीं। चैतन्यकी परिणतिके बिना कैसे चले? ऐसा यदि अंतरमें-से हो तो अंतरमें-से परिणति प्रगट हुए बिना रहे ही नहीं।

समाधानः- .. जो मार्ग बताया, उस मार्गके बिना अंतरमें कहीं संतोष हो सके ऐसा नहीं है। ध्यान करे तो समझ बिनाका ध्यान (करे तो) अन्दर-से कुछ प्रगट नहीं होता। ज्ञानपूर्वकका ध्यान हो तो वह सच्चा ध्यान हो, अपना स्वभाव पहिचानकर। श्रीमद कहते हैं न, तरंगरूप हो जाता है। ज्ञान बिनाका ध्यान तो।

जो जान रहा है वह स्वयं ही है। स्वयं अपनेको जान नहीं सकता है। विभावमें जो सबको जाननेवाला है, उस जाननेवालेका अस्तित्व ग्रहण करना। जाननेवालेका असाधारण गुण ज्ञात होता है। बाकी अनन्त अनुपम शक्तियों-से भरा (है)। परन्तु ज्ञानस्वभाव उसका ऐसा असाधारण है कि वह ग्रहण हो सके ऐसा है। परन्तु स्वयंकी उतनी तैयारी हो तो वह ग्रहण कर सकता है। परन्तु वह जबतक न हो तबतक उसकी अपूर्वता लगे और उस तरफ परिणति जाय तो भी अच्छा है। उसकी भावना हो तो भी।

मुमुक्षुः- ऐसा होता है कि ऐसा कैसा अनुभव? ऐसा कैसा आनन्द? क्या होता है? उस वक्त अपनेको क्या दिखाई देता है? ऐसा होता है कि जाननेवालेको जानना है, वह सब बात बराबर। तो फिर उसमें आनन्द आता है तो कैसा आनन्द है? उसका क्या स्वरूप है?

समाधानः- जबतक विकल्पमें खडा है, तबतक आनन्द प्रगट नहीं होता। विकल्प- से भिन्न पडे तो प्रगट होता है। परन्तु पहले भेदज्ञान हो तो विकल्प-से भिन्न पडे। और वह भेदज्ञान भी यथार्थ परिणतियुक्त होना चाहिये। पहले तो अभ्यासरूप होता है, फिर उसकी परिणति प्रगट होती है। विकल्पमें खडा है तबतक आनन्द होता नहीं। उसकी श्रद्धा करे, अपूर्वता करे तो हो। ऐसा पहले हो, बादमें हो। पहले तो यथार्थ प्रतीत करे कि आत्मामें आनन्द है। शास्त्रमें आता है, तुझ-से न हो सके तो श्रद्धा तो करना।

समाधानः- .. शाश्वत मन्दिर है। शाश्वत रत्नके मन्दिर और शाश्वत प्रतिमाएँ पाँचसौ- पाँचसौ धनुषकी। जैसे समवसरणमें भगवान बैठे हों, वैसे रत्नकी प्रतिमाएँ। नासाग्र दृष्टि है। एक दिव्यध्वनि नहीं है, बाकी जैसे भगवान हों, वैसा पद्मासन और ऐसे पाँचसौ धनुषकी, ऐसी १०८ प्रतिमाएँ। ५२ जिनालय है। वह पूरा द्वीप मानों भगवानके मन्दरोंका


PDF/HTML Page 1875 of 1906
single page version

ही हो ऐसा द्वीप है।

मुमुक्षुः- ऐसी कुदरती रचना होती है?

समाधानः- कुदरती रचना। ये सब पुदगलकी रचना भगवानरूप ही परिणमित हो गयी है। वहाँ सब भगवान ही हैं।

मुमुक्षुः- विहरमान तीर्थंकर?

समाधानः- नहीं, तीर्थंकर नहीं, प्रतिमाएँ हैं। (तीर्थंकर) तो विदेहक्षेत्रमें हैैं।

मुमुक्षुः- विहरमान तीर्थंकरकी प्रतिमाएँ या (दूसरी)?

समाधानः- कोई विहरमानकी या चौबीस तीर्थंकरकी प्रतिमाएँ ऐसा कुछ नहीं, बस, भगवान ही। नाम नहीं। जैसे भगवान समवसरणमें बैठे हों, वैसे भगवान। समवसरणमें बैठे होें वैसे। कौन-से भगवान ऐसा कुछ नहीं, तीर्थंकर भगवान। चौबीस भगवान या बीस विहरमान भगवान, ऐसा नहीं। तीर्थंकर भगवान। पद्मासनमें (बैठे हों), अशोकवृक्ष होता है, सिंहासन होता है, समवसरण जैसी रचना होती है। नाम नहीं है। किसीकी प्रतिष्ठा नहीं की है, कुदरती है। कुदरती, पुदगलके परमाणु जैसे पहाड आदि कुदरती होते हैं, दुनियामें जैसे पहाड आदि होता है, वैसे कुदरती प्रतिमाएँ, रत्नमय प्रतिमाएँ होती हैं। किसीके द्वारा निर्मित नहीं होती।

मुमुक्षुः- कैलास पर्वत पर भी है न?

समाधानः- भरत चक्रवर्तीने वहाँ प्रतिओंकी स्थापना की है। भूतकालकी चौबीसी, वर्तमान चौबीसी और भविष्यकी चौबीसी, ऐसे बहत्तर बिंबकी स्थापना भरत चक्रवर्तीने कैलास पर्वत पर की है। कैलास पर्वत अभी किसीको हाथ नहीं लगता है। वह रत्नमय प्रतिमाएँ भरत चक्रवर्तीने करवायी हैं।

समाधानः- ..विभावभाव-से अपना स्वभाव भिन्न है। उसका अस्तित्व ग्रहण करके उस रूप अंतरमें-से परिणति करे तो होता है, तो स्वानुभूति होती है। जो भाव-विकल्प आये उससे भिन्न आत्मा ज्ञायक है, उसे पहचानना।

... केवलज्ञान हो तब वह क्षय होता है। बाकी पहले भेदज्ञान है। उसका भेदज्ञान करना। तो विकल्प छूटकर अन्दर समा जाय तो स्वानुभूति होती है। तो स्वानुभूति होती है। .. तो विकल्प छूट जाय।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!