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मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! भेदज्ञान जो होता है वह सामान्यतः राग परिणतिसे होता है अथवा जो विकल्प उत्पन्न होते हैं, उससे होता है? राग परिणतिसे होता है या जो विकल्प उठते हैं उससे होता है?
समाधानः- विभावभाव पूरा ले लेना। विभावसे भिन्न। प्रत्येक विकल्प उसमें आ गये। जितने विभाविक भाव है, उन सबसे भेदज्ञान हो गया। मैं ज्ञायक भिन्न हूँ और ये विभाव भिन्न है। विभावसे मेरा स्वभाव भिन्न है। उससे भेदज्ञान होता है। मैं ज्ञायक हूँ। पूरि दिशा पलट गयी। दृष्टिकी दिशा पलट गयी। दृष्टिकी दिशा ही पलट गयी कि मैं ज्ञायक हूँ और यह विभाव है। पूरा भिन्न हो गया। भिन्न हो गया इसलिये जो- जो विकल्प आये उसमें भिन्न ही है, वह सदा ही भिन्न है। उसे फिर क्षण-क्षणमें ज्ञायककी धारा चलती है। इसलिये प्रतिक्षण वह प्रत्येक कार्यमें भिन्न ही रहता है।
प्रत्येक विकल्पसे भिन्न ही है, लेकिन प्रत्येक विकल्पके समय उसे विकल्प कर- करके भिन्न नहीं होना पडता। प्रत्येक विकल्प आये उससे भिन्न ही है, भिन्न ही रहता है। लेकिन उसे विकल्प कर-करके, प्रत्येक विकल्पके समय विकल्प करके भिन्न नहीं रहना पडता। भिन्न हो गया। प्रशस्त और अप्रशस्त प्रत्येक भावोंसे भिन्न ही है। भिन्न हो गया, भिन्नताकी परिणति चालू हो गयी इसलिये भिन्न ही रहता है। चाहे जो भी प्रसंग हो, भिन्न ही रहता है।
मुमुक्षुः- सहज भिन्न रहता है।
समाधानः- सहज भिन्न ही रहता है।
मुमुक्षुः- वह भी उसका सहज पुरुषार्थ है?
समाधानः- वह सहज पुरुषार्थ है। प्रत्येकमें भिन्न ही रहता है।
मुमुक्षुः- ये जो विकल्प या राग होता है, उसी वक्त सहजरूपसे भिन्न रहता है?
समाधानः- भिन्न ही रहता है। प्रत्येक समय भिन्न ही रहता है। उसे हर वक्त भिन्न-भिन्न प्रयत्न नहीं करना पडता। लौकिकमें किसीको वैराग्य हुआ, संसारसे लौकिक वैराग्य हुआ तो प्रत्येक कार्यमें उसे विकल्प कर-करके वैराग्य नहीं (लाना पडता),
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प्रत्येक प्रसंगमें उसे विरक्ति ही वर्तती है।
उसी प्रकार यहाँ भिन्न हो गया, ज्ञायककी धारा प्रगट हो गयी तो किसी भी विभावके विकल्पमें यथार्थरूपसे भिन्न हो गया। फिर भिन्न ही रहता है। पुरुषार्थ तो उसका चालू ही है, परन्तु वह ज्ञायकधाराका पुरुषार्थ है। उदयधारा और ज्ञानधारा। प्रत्येक उदयके समय उसकी ज्ञानधारा चालू है, उसकी ज्ञायकधारा चालू रहती है। अस्तित्वकी ज्ञायकधारा चालू है और नास्तिमें दूसरोंसे भिन्न पडता है। भेदज्ञानकी धारा चालू है, विकल्प आते हैं उससे भिन्नताकी उसकी परिणति चालू है और उसे इस ओरसे ज्ञायककी उग्रता, ज्ञानधारा चालू है। उसे पुरुषार्थमें ज्ञानकी धारा है।
मुमुक्षुः- ज्ञानधाराका पुरुषार्थ माने क्या?
समाधानः- ज्ञानधारा-ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायककी परिणति चालू है। ज्ञायककी परिणति चालू है।
मुमुक्षुः- हर वक्त उसे ज्ञायककी परिणति है?
समाधानः- प्रत्येक समय ज्ञायककी परिणति भूलता नहीं। ज्ञायककी परिणति, ज्ञायकका वेदन, उसे ज्ञायककी ही परिणति चालू है। विकल्पके साथ आकूलतामें एकमेक होता नहीं। चाहे कोई भी भाव हो, चाहे कोई ऊँचेसे ऊँचे भाव हो, शुभभाव हो, कोई भी (भाव) हो, उसमें वह एकत्व नहीं होता। बाहरमें उसे दिखाई दे, बहुत उल्लास दिखाई दे तो भी वह कोई भी भावमें एकत्व नहीं होता। उसकी ज्ञायककी परिणति चालू ही रहती है। प्रत्येक समय भिन्न (रहती है)। उसकी दिशा ही बदल गयी है। विभावकी ओर जो दृष्टि थी, वह पलटकर उसकी दिशा ही बदलकर ज्ञायककी ओर गयी है।
मुमुक्षुः- अर्थात वहाँ ज्ञायकका एकत्व चालू है?
समाधानः- हाँ, ज्ञायकका एकत्व चालू है। ज्ञायकमें एकत्व और अन्यसे विभक्त। एक पुरुषार्थमें दोनों आ जाते हैं। भेदज्ञानकी धारा चालू है और यहाँ ज्ञायकका एकत्व चालू है। क्षण-क्षणमें विकल्प करके जुदा नहीं होना पडता, परन्तु प्रत्येक उदयमें वह जुदा ही रहता है।
मुमुक्षुः- एक पर्यायमें दो भाग हो गये?
समाधानः- एक पर्यायमें दो भाग नहीं होते, परन्तु अस्तित्वकी ओरसे लो तो ज्ञायककी धारा है और इस ओर देखो तो उसे भेदज्ञानकी धारा है। उसे दो भाव भिन्न पडते हैं। दो पर्याय नहीं होती, लेकिन दो भाव भिन्न पडते हैं।
मुमुक्षुः- एक पर्यायमें दो भाव हो जाते हैं?
समाधानः- दो भाव होते हैं। अस्तित्वके साथ नास्तित्व आ ही जाता है। अपना
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अस्तित्व आया उसमें नास्तित्व आ जाता है। विभावसे विरक्ति और स्वभावकी ओरका अस्तित्व ग्रहण कर लिया है।
मुमुक्षुः- उसके लिये कोई दृष्टान्त? जिससे ज्ञानीका स्वरूप ख्यालमें आये कि यह विरक्ति किस प्रकारसे है? ज्ञानीका सहज पुरुषार्थ जो चलता है, उस सहज पुरुषार्थका कोई दृष्टान्त?
समाधानः- उसका पुरुषार्थ चालू ही है। ज्ञान-वैराग्यकी शक्ति, अचिंत्य शक्ति, ज्ञान-वैराग्यकी ऐसी शक्ति है कि कहीं एकत्व नहीं होता, भिन्न ही भिन्न सदा रहता है। सदा भेदज्ञानकी भावना, अविच्छिन्नरूपसे भेदज्ञान भाता है। अर्थात अन्दरमें अविच्छिन्न धारासे स्वरूपमें स्थिर नहीं हो जाये, वहाँ भेदज्ञान यानी इस ओर भेदज्ञान लेना और अंतरमें ज्ञायकधाराकी उग्रता करता जाता है, लीनता बढाता जाता है। सम्यग्दर्शनमेंसे पाँचवा, छठ्ठा मुनिदशा पर्यंत उसकी ज्ञायकधारा (बढती जाती है), ज्ञायककी लीनता बढती जाती है। इस ओरका यह पुरुषार्थ है। ज्ञायकमें लीनता बढती जाती है। इस ओर भेदज्ञानकी धारा (चलती है), विकल्पसे भिन्न पडता जाता है। दृष्टि अपेक्षासे सब प्रकारसे भिन्न हो गया। और आचरणमें जो बाकी है, वह स्वयं ज्ञायककी ज्ञाताधाराकी उग्रता करता जाता है, लीनता बढाता जाता है और विभावसे भिन्न पडता जाता है।
मुमुक्षुः- इसलिये विभाव कटता जाता है।
समाधानः- हाँ, विभावसे भिन्न (होता जाता है)। उसका रस था वह नहीं है। प्रत्याख्या, अप्रत्याख्यान आदिका जो कषाय है, वह छूटकर ... होते जाते हैं। अन्दर लीनता बढती जाती है, इसलिये सब विभावका रस, स्थिति, रस सब टूटते जाते हैं।
मुमुक्षुः- ज्ञायकधाराकी जो शुरुआत है वह तो प्रयत्नपूर्वकके विकल्पोंसे ही होती है न?
समाधानः- शुरूआतमें विकल्प होते हैं, लेकिन जो सहज धारा हो गयी, फिर उसे विकल्प साथमें नहीं रहता। सहज हो गया, उसके बाद विकल्प साथमें नहीं है।
मुमुक्षुः- शुरूआत तो प्रयत्नपूर्वकके विकल्पसे ही होती है?
समाधानः- शुरूआत, जब सम्यग्दर्शन नहीं हुआ है, तब तो वह अभ्यास करता है उस वक्त विकल्प साथमें आते हैं कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। ऐसे विकल्प आये। लेकिन ज्ञायक हो गया, ज्ञायककी धारा चालू हो गयी, निर्विकल्प दशा हो गयी, फिर बाहर आनेके बाद उसे विकल्प करके भिन्न नहीं रहना पडता। उसकी ज्ञायककी धाराकी परिणति सहज (चलती है)। अपनी डोर अपने हाथमें ही है। विकल्प किये बिना, भिन्न ही भिन्न रहता है। विकल्प किये बिना पुरुषार्थकी गति ऐसी चालू रहती है। विकल्प किये बिना, है पुरुषार्थकी गति परन्तु चालू रहती है। विकल्प बिना पुरुषार्थकी गति
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उसकी चालू रहती है। कोई भी प्रसंगमें वह भिन्न (रहता है)। मैं तो यह हूँ, मैं यह नहीं, मैं तो यह हूँ, मैं यह नहीं हूँ। उससे विशेष भिन्न होता जाता है। लीनता करता जाये तो ज्ञायकधाराकी उग्रता करके विशेष भिन्न होता जाता है। ऐसी उसकी सहज पुरुषार्थकी डोर विकल्प बिना रहती है, ऐसी उसकी पुरुषार्थकी डोर चालू रहती है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! उपयोग बाहर हो तो भी लीनता बढती जाती है?
समाधानः- उपयोग बाहर हो तब लीनता बढती है... उपयोग बाहर तो भी वह स्वयं रागके साथ जुडता था, वह रागके साथ कम जुडता जाये तो उसमें लीनता ज्यादा है। रागके साथ कम जुडे तो। उपयोगको बाहर जाननेके साथ सम्बन्ध नहीं है, लेकिन रागके साथ सम्बन्ध है। बाहर जुडे उसमें उसे राग किस प्रकारका है। भेदज्ञानकी धारा तो उसे होती है। राग और ज्ञायक, दोनों भिन्न है वह तो भिन्न ही है। बाहर उपयोग हो तो कुछ जानता हो तो उसे रागके साथ भेदज्ञानकी धारा तो चालू ही है। लेकिन उसमें कितना जुडता है, उसके आचरण अपेक्षासे कितना जुडता है, वह उसके चारित्रगुणकी बात है। उसका आचरण कितना अपनी ओर है। उतना वह जुडता है। उसमें जाननेके साथ सम्बन्ध नहीं है।
आचार्यदेव उपयोगमें श्रुतज्ञानका चिंतवन करते हैं, लेकिन उनको बाहर उपयोगमें राग तो मात्र संज्वलनका ही होता है। इसलिये उसे जाननेके साथ सम्बन्ध नहीं है। रागके साथ सम्बन्ध है। संज्वलनका ही (राग ही)। थोडी क्षण बाहर जाता है, फिर तुरन्त स्वानुभूतिमें जाता है। अभी तो विचार चलते हो, तुरन्त स्वानुभूतिमें जाते हैं, फिरसे बाहर आते हैं। उतना ही राग है कि उसमें थोडी देर टिकते हैं और पुनः अन्दर जाते हैं। अन्दर जाकर फिरसे बाहर आये तो जो विचार चलते थे, वह चालू होते हैं, वापस अन्दर जाते हैं। इसलिये उनका राग कितना है, उस पर आधार है।
मुमुक्षुः- माताजी! एक श्लोकमें ऐसा आता है, तबतक भेदविज्ञान भाओ कि जबतक ज्ञान ज्ञानमें स्थिर न हो जाये।
समाधानः- भेदज्ञान वहाँ तक भाना कि ज्ञान ज्ञानमें स्थिर न हो जाये। पूरा मोक्षमार्ग ही उसपर है। तेरेमें एकत्व और विभावसे विरक्त हो जा। वहाँसे सम्यग्दर्शनमें शुरूआत हुयी। स्वानुभूतिमें तो उसे बाहरका कोई विकल्प ही नहीं है। किसी भी प्रकारका। अन्दर स्थिर हो गया। लेकिन बाहर आये तो भेदज्ञानकी धारा चालू है। भेदज्ञानकी धारा चालू है, वह भेदज्ञानकी धारा तुजे कबतक भानी है? जबतक वीतराग नहीं हो जाये, स्वरूपमें स्थिर नहीं हो जाये और विकल्प पूरा टूट जाये, अन्दर ऐसे स्थिर हो जाये कि फिर बाहर ही नहीं आये। ऐसी भेदज्ञानकी धारा भानी। भेदज्ञानकी धारा भानी
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अर्थात भेदज्ञानके साथ तुजे ज्ञायककी धारा अन्दरसे ऐसी भानी कि तू स्वरूपमें स्थिर हो जा। फिर बाहरका विकल्प ही नहीं आये।
ऐसे भेदज्ञान-परसे विभक्त और स्वरूपमें एकत्व, ऐसा उसका अर्थ है। स्वरूपमें तू एकत्व हुआ, उसमें ऐसे स्थिर हो जा, ऐसी तेरी ज्ञायककी ज्ञाताधाराकी उग्रता कर, उसके साथ भेदज्ञानकी धारा, ऐसे लेना। भेदज्ञानकी धारा यानी जो-जो उदय आते हैं उससे वह भिन्न होता जाता है और ज्ञायककी धारा उग्र होती जाती है। इस ओर लो तो भेदज्ञानकी धारा यानी विकल्पसे भिन्न हुआ। जो-जो विकल्प आये उसमें टिकता नहीं और स्वरूपमें लीन होता है। जो विकल्प आये उसमें स्वरूपमें लीन होता है, तो उसमें टिकता नहीं। भिन्न तो हुआ है, विशेष भिन्न होकर स्वरूपमें लीन होता है। उसमें उग्रता ज्ञायककी उग्रता, स्वरूपकी लीनताकी उग्रता तू ऐसी कर, ऐसी चारित्रदशा प्रगट कर कि फिर बाहर ही नहीं आना पडे। इस ओर लेना भेदज्ञानकी धाराकी उग्रता।
अपने अस्तित्वमें क्या प्रगट हुआ? विकल्पसे भिन्न हुआ तो यहाँ क्या प्रगट हुआ? यहाँ ज्ञायककी ज्ञायकधारा प्रगट हुयी। शांतिकी धारा, समाधिकी धारा, लीनताकी धारा इस ओर प्रगट हुई। तो तू ऐसी लीनता कर, ऐसी ज्ञायककी उग्रता कर कि स्वरूपमें स्थिर हो जा और फिर बाहर ही नहीं आये। और इस ओर भेदज्ञानकी धारा ऐसी कर कि विकल्प मैं नहीं हूँ, विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। मुनिओंको ऐसी उग्रता हो गयी कि विकल्प आये वह टिकते ही नहीं। पानीके बहावकी भाँति पानी आकर चला जाये, वैसे तुरंत स्वरूपमें लीन होते हैं। ऐसी उन्हें भेदज्ञानकी धारा कहो या स्वरूपकी लीनता कहो, ऐसी उनकी ज्ञायककी उग्रता है। टिकते ही नहीं। जो भी उदय आये खिसक जाते है, तुरंत खिसक जाते हैं। भेदज्ञानकी धारा इतनी उग्र हो गयी। इस ओर विकल्पमें टिकते नहीं, उतनी भेदज्ञानकी धारा उग्र (है), इस ओर ज्ञायककी उग्र धारा, लीनताकी उग्र धारा हो गयी। स्वानुभूतिकी धारा उग्र हो गयी है। तुरंत स्वानुभूतिमें जाते हैं।
मुमुक्षुः- पूज्य भगवती माताजी! रुचिका पोषण और तत्त्वका घूटन हमेशा होनेके लिये आपने वचनामृतमें बताया है। वह तत्त्वका घूटन तो बहुत करते हैं, फिर भी हमेशा नहीं होता है, कहाँ क्षति रह जाती है? पूज्य भगवती माताजी!
समाधानः- घूटन करते हैं, लेकिन तत्त्वकी पहचानकर तत्त्वका घूटन यथार्थ होवे तो होवे। तत्त्व जो है उसका स्वभाव बराबर पहचाने। उसको जाने, तत्त्वका स्वभाव पहचाने और अंतरमें जाये। पुरुषार्थकी कमी है। स्वभावको पहचानता नहीं। ऊपर-ऊपरसे (चलता है)। ज्यादा तो एकत्वबुद्धि (चलती है)। अभ्यास तो विभावका (है)।