Atmadharma magazine - Ank 130
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण: २०१०: आत्मधर्म–१३० : १९९:
कृतकृत्यपणुं
[वैशाख वद दसमना रोज वींछीयामां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन]
जेणे पोताना ज्ञानानंद स्वभावनी सन्मुख थईने तेनी सम्यक्
प्रतीति करी–ज्ञान कर्युं ने तेमां एकाग्रता करी तेणे करवा योग्य अपूर्व
कार्य कर्युं, तेथी ते कृतकृत्य थयो. भाई! आत्माना स्वभावनी प्रतीति
करीने तेमां ठर–ए ज तारुं खरुं कार्य छे, आ सिवाय परनां कार्य तारां
नथी. स्वभावमांथी पूर्णता प्रगट करीने कृतकृत्य थई शके, पण परनां
कार्यो पूरा करीने कृतकृत्यपणुं थाय–एम बनी शकतुं नथी. आत्मामां ज
आनंद छे एवो जेणे निर्णय न कर्यो ते भले पुण्य करीने स्वर्गमां जाय–तो
पण अकृतकृत्य ज छे.
आ पद्मनंदीपंचविंशतिने ‘अमृत’ कहे छे; वनजंगलमां वसनाराने आत्माना आनंदमां
झूलनारा पद्मनंदी मुनिराजे आ शास्त्र रच्युं छे, तेथी श्रीमद् राजचंद्र आ शास्त्रने वनशास्त्र
कहे छे अने तेनुं फळ अमृत छे एटले के तेमां कहेला यथार्थ भावोनो बोध करतां अमर एवा
मोक्षपदनी प्राप्ति थाय छे. अहीं तेनो निश्चय–पंचाशत अधिकार वंचाय छे; तेनी तेरमी
गाथामां कहे छे के–
सम्यक् सुखबोधदशां त्रितयमखंड परात्मनोरूपम्।
तत्तत्र तत्परो यः स एव तल्लब्धि कृतकृत्यः।।
सम्यक दर्शन, ज्ञान अने सुख ए त्रणेय आत्मानुं अखंड स्वरूप छे. आत्माथी ते जुदा
नथी; तेथी जे जीव परम आत्मस्वरूपमां लीन थईने तेनी आराधना करे छे तेने सम्यग्दर्शन
आदि रत्नत्रयनी प्राप्ति थाय छे अने ते कृतकृत्य थई जाय छे.
भाई! सुख आत्मामां छे; तारा आत्मा सिवाय बहारमां स्त्री–शरीर–लक्ष्मी–मकान
वगेरे कोई संयोगोमां तारुं सुख नथी. सुख तो आत्मानो अनादिअनंत स्वभाव छे. आत्माना
ज्ञान–आनंदस्वभावनी प्रतीति जीवे पूर्वे कदी करी नथी. जेम कोई माणसना एक हाथमां
चिंतामणि होय ने बीजा हाथमां पथ्थरो होय, त्यां चिंतामणि पासे जे चिंतवे ते मळे, तेनी
प्रतीत तो करे नहि, ने पथ्थरथी मने सुख छे एम मानीने तेने पकडी राखे तो लोकमां तेने
मूर्ख कहेवाय छे. तेम आत्मानो ज्ञानानंद स्वभाव चैतन्यचिंतामणि छे, ते स्वभावमां अंतर्मुख
द्रष्टि करे तो आत्माने आनंदनो अनुभव थाय ने ते कृतकृत्य थई जाय. पण आवा पोताना
स्वभावनी तो प्रतीत जीव करतो नथी, ने बहारना पदार्थोमां मारुं सुख छे एम मानीने परनी
ममता करीने दुःखी थाय छे. परचीज तो पोतानी थई शकती नथी, छतां अनादिथी परने
पोतानुं करवा मथी रह्यो छे. त्यां तो तेनो प्रयत्न व्यर्थ छे अने आत्मा ज्ञानानंद–स्वभावथी
भरेलो छे तेनी सन्मुख थईने एकाग्रता