Atmadharma magazine - Ank 130
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: २००: आत्मधर्म–१३० : श्रावण: २०१०:
करे तो कृतकृत्यता थाय ने आनंद प्रगटे. अहो! हुं ज्ञान–दर्शनमय छुं. शांतिनो पिंड छुं,
परचीजनां कार्यो मारे आधीन छे ज नहि–आवुं यथार्थ भान करीने अंतरमां एकाग्र थतां
कृतकृत्य थई जाय छे. आ सिवाय परचीजना कार्यो करवा मांगे के परमांथी सुख लेवा मांगे तो
ते वात अशक्य छे एटले तेमां कदी कृतकृत्यता थती नथी. माटे हे भाई! एकवार तो
सत्समागमे एवो निर्णय कर के, “हुं चैतन्यस्वरूप छुं, आनंद मारा स्वभावमां ज छे एवी
यथार्थ प्रतीति अने बोध करीने हुं मारा आत्मानो आनंद प्राप्त करी शकुं छुं, पण पर चीज
कदी पण मारी थई शकती नथी.” आवी अंतरस्वभावनी प्रतीति करतां अतीन्द्रिय आनंदना
अंशनो जेटलो अनुभव थाय छे तेटलुं कृतकृत्यपणुं छे. आ सिवाय बहारमां घणा संयोगो
भेगा थाय के घणां कार्यो थाय तेमां आत्मानी कृतकृत्यता नथी. जेम लींडी पीपरना एकेक
दाणामां परिपूर्ण तीखाशनी ताकात भरी छे तेम एकेक आत्मामां ज्ञान अने आनंदनी परिपूर्ण
ताकात भरी छे, तेनो भरोसो करीने तेनुं अवलंबन करतां कृतकृत्यपणुं प्रगटे छे. आ सिवाय
बहारनां कार्यो पूरा करवा मांगे, तो ते अशक्य छे, केमके परचीजनां कार्य आत्माने आधीन
नथी.
स्वभावमांथी पूर्णता प्रगट करीने कृतकृत्य थई शके, पण परना कार्यो पूरा करीने
कृतकृत्यपणुं थाय एम बनी शकतुं नथी. जे चीज पोतानी नथी तेना कार्यनुं अभिमान करे ते
तो व्यर्थ छे. जीवने ईच्छा थाय, पण ते ईच्छाने लीधे परनां कार्य थई जाय एम बनतुं नथी.
वहालामां वहालो पुत्र मरवानी तैयारीमां होय त्यां तेने बचाववानी घणी ईच्छा होवा छतां
तेने तुं बचावी शकतो नथी; माटे भाई! तारी ईच्छा परमां काम आवती नथी, एटले ते
ईच्छा वडे पण कृतकृत्यपणुं थतुं नथी. तारा आत्मामां सर्वज्ञ थवानी ताकात पडी छे,
तारामांथी केवळज्ञान अने परिपूर्ण आनंद प्रगटे एवी ताकात तारामां छे. पण परचीजना
कार्यने करी दे एवी ताकात तारामां नथी पहेलांं यथार्थ निर्णय करीने आत्माना आवा
स्वभावने प्रतीतमां ल्ये तो श्रद्धामां कृतकृत्यपणुं थई जाय. परनां काम हुं करुं ने परमां मारुं
सुख एम मानीने अनादिथी अकृतकृत्यपणे वर्ते छे एटले आकुळताथी संसारमां रखडे छे
अनादिकाळमां एक क्षण पण ज्ञानानंद स्वभावनो निर्णय कर्यो नथी. कृतकृत्य तो त्यारे कहेवाय
के अंतरना स्वभावनो निर्णय करीने आनंदना अनुभवरूप कार्यने व्यक्त करे. ते कार्यनुं कारण
कोण? अंतरमां शुद्ध चिदानंद सर्वज्ञशक्तिनो पिंड आत्मा छे ते ज ध्रुवकारण छे, ते कारणमांथी
आत्माना आनंदनुं कार्य प्रगटे छे. ए सिवाय बहारना संयोगो के पुण्य–पाप ते आत्माना
आनंदनुं कारण नथी. आत्माना ज्ञानानंद स्वभावनी सन्मुख थईने जेणे सम्यक्प्रतीत करी
तेणे अनंत काळमां नहि करेल एवुं अपूर्व कांईक कार्य कर्युं. जेणे आत्माना स्वभावनी प्रतीत
न करी, आत्मामां ज आनंद छे एवो निर्णय न कर्यो, ते भले पुण्य करीने स्वर्गमां जाय तोपण
ते अकृतकृत्य छे, करवायोग्य खरुं कार्य तेणे कर्युं नथी. “अहो! संयोगोमां के पुण्य–पापमां मारुं
सुख नथी, मारो आत्मा ज ज्ञान–दर्शनने आनंदस्वरूप छे, तेमां ज मारुं सुख छे” आवो जेणे
स्वसन्मुख निर्णय कर्यो तेणे अपूर्व कार्य कर्युं, ते सम्यग्दर्शनमां कृतकृत्य थयो; स्वभावरूप कारण
परमात्मा छे तेना अवलंबने धर्मरूपी कार्य प्रगट्युं. अहो, जेणे आवो आनंदस्वभावनो
निर्णय कर्यो छे, ते