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मुमुक्षुः- हमे आता है, लेकिन उस प्रकारका नहीं है। जब भी आपको देखते हैं, तब आपके मुखसे गुरुदेवकी जो महिमा आपके श्रीमुखसे सुनते हैं, कोई गजब ही आती है!
समाधानः- इस पंचमकालमें गुरुदेव ही कोई अदभुत थे। उन्होंने अपूर्व वाणीकी वर्षा करके सबको जागृत किया। सब मुमुक्षुओंके, साधकोंके वे अदभुत आधार निमित्त थे। निमित्त-उपादानका ऐसा सम्बन्ध है कि जहाँ ऐसे गुरु हो, वहाँ सब जागृत हो जाय।
जगतमें सर्वोत्कृष्ट चैतन्यदेव और गुरुदेव (हैं)। गुरुदेवने जो साधना करके सबको बतायी, ऐसे सर्वोत्कृष्ट महिमावंत इस पंचमकालमें गुरु शाश्वत ही रहें, ऐसी भावना है। अंतरमें आत्मा और बाहरमें शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्र ही होते हैं, दूसरा कुछ नहीं होता। गुरुदेव विराजते थे, चैतन्य... सबको जागृत करते थे।
.. देशनालब्धि होती है। अनादि कालका अनजाना मार्ग है, एक बार सच्चे देव- गुरुका, साक्षात चैतन्यका वाणी उसे श्रवण करने मिले, तब उसे देशना ग्रहण होती है। शास्त्रमेंसे वह बादमें समझता है, परन्तु पहले तो साक्षात वाणी सुनकर देशनालब्धि होती है। ऐसा उपादान-निमित्तका सम्बन्ध होता है।
मुमुक्षुः- अभी जो हमको अपूर्वता लगती है तो समवसरणमें वह बात समझमें नहीं आयी होगी? क्योंकि वर्तमानमें हमें ज्यादा लगती है। ऐसा लगता है कि समवसरणमें यह बात नहीं समझे होंगे। अनन्त बार समवसरणमें गये।
समाधानः- समवसरणमें गया, लेकिन जीव स्वयं जागृत नहीं हुआ। कोई बार ऐसा भी होता है कि इस पंचमकालमें कोई महापुरुषका जन्म हो और जीव जागृत हो जाय, ऐसा भी बने। समवसरणमें गया, भगवानको अनन्त कालमें देखे, परन्तु अपूर्वता लगी नहीं तो ऐसे ही वापस आ गया। बाह्य दृष्टिसे भगवानको देखे, लेकिन अंतरसे नहीं देखा।
मुमुक्षुः- .. कहा तो शास्त्र नहीं पढना? शास्त्र अभिनिवेश हो जाता है? ज्ञानीके आश्रयमें...
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समाधानः- शास्त्रमें ही अटक जाय और आत्माकी स्वानुभूति न करे, उस अपेक्षासे। बाकी अधूरापन हो उसे बीचमें श्रुतका चिंतवन, शास्त्र अभ्यास आदि सब होता है। परन्तु शास्त्रमें ही अटक जाय और स्वानुभूति न करे और उसीमें अटक जाय तो उस अपेक्षासे उसे .. कहनेमें आता है। उसका हेतु जो स्वानुभूतिका था वह उसने नहीं किया तो फिर शास्त्रका प्रयोजन उसने सिद्ध नहीं किया।
प्रयोजनभूत आत्माको साध लिया, स्वानुभूति प्राप्त करनी, यह शास्त्र स्वाध्यायका हेतु है। पद्मनन्दी आचार्यदेवने कहा है, व्यभिचारीणी बुद्धि बाहर घुमती है। अंतरमें न जाय तो वह किस कामका है? लेकिन कहीं और अटकता हो, उसके बदले शास्त्रका अभ्यास मुमुक्षुओंको होता है। क्योंकि उसे दूसरा आधार नहीं है, वहाँ श्रुतका चिंतवन (होता है)। लेकिन ध्यये नहीं चुकना चाहिये। गुरुदेव भी श्रुतका चिंतवन (करते थे)। उनका श्रुत कोई अपूर्व था। परन्तु गुरुदेव कहते थे कि स्वानुभूति मुख्य है।
मुमुक्षुः- ज्ञानीके आश्रयमें शास्त्र पढने चाहिये, नहीं तो गम पडे बिना आगम अनर्थकारक हो जाय, ऐसा नहीं बन सकता?
समाधानः- ज्ञानीने जो अर्थ किया हो, उस अर्थको स्वयं ग्रहण करे। और फिर जो ज्ञानीने अर्थ किया हो उस अनुसार अर्थ करे तो उसमें दिक्कत नहीं है। लेकिन अपनी मति कल्पनासे अर्थ करे तो उसे नुकसानका कारण होता है। अपनी बुद्धि अनुसार करे तो। ज्ञानीने क्या अर्थ किया है, उसका वह मिलान करके करे तो वह यथार्थ मार्गको प्राप्त करे।
मुमुक्षुः- सामान्य मनुष्यको तो क्षयोपशमका अभिमान सहज हो जाता है। ज्ञानीको क्यों नहीं होता? क्षयोपशमका थोडा उघाड हो तो सहज ही अभिमान हो जाता है।
समाधानः- सच्चा यथार्थ मुमुक्षु हो तो उसे भी नहीं होता। क्षयोपशम मात्र वह कोई साधनाका कारण नहीं बनता। साधना तो अन्दर स्वयं द्रव्य पर दृष्टि करके उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे तो साधना होती है। क्षयोपशम मात्र वह साधना (नहीं है)। क्षयोपशम मात्र नहीं, वह तो एक सच्चा ज्ञान करनेका कारण बनता है। वह कोई आत्माकी साधना करनेका कारण नहीं बनता। इसलिये यथार्थ मार्गसे जिसे स्वानुभव प्रगट हुआ, उसे कोई अभिमान होनेका कारण नहीं बनता।
बारह अंग और चौदह पूर्वकी लब्धि मुनिओंको प्रगट होती है। तो भी भगवानको कहते हैं, हे भगवान! मैं तो अल्प मात्र हूँ। मैं आपकी वाणीको पहुँच नही सकता हूँ। ऐसा कहते हैं। स्वानुभूतिमें क्षण-क्षणमें जाते हैं, ऐसे मुनिओंको भी देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आती है। कोई ऐसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव न हो कि जहाँ ज्ञानिओं विराजते न हो। जहाँ देव-गुरु-शास्त्र न हो, ऐसा किसीको न हो। जिसे आत्माकी साधना करनी
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है, उसे देव-गुरु-शास्त्रका इतना आदर होता है।
अनन्त कालमें इस जीवको थोडा जाने तो (लगता है कि) मैंने बहुत जाना, मुझे बहुत आता है। इस तरह मुमुक्षुदशामें अटकनेके अनेक प्रसंग बनते हैं। अतः कहीं अटकना नहीं। एक आत्मार्थका प्रयोजन रखना, एक आत्मार्थताको मुख्य रखना। जो ज्ञानिओंने कहा है, जो महापुरुषोंने कहा है उस मार्ग पर चल। भेदज्ञानकी दशा, जो स्वानुभूतिकी दशा किस मार्गसे प्रगट हो, उसका लक्ष्य रखना। वह मार्ग कौन-सा है? ज्ञाताकी धारा, स्वानुभूतिकी दशा कैसे प्रगट हो? इस लक्ष्यसे चलना है। चलेगा तो कहीं नहीं अटकेगा।
मुमुक्षुः- हमें तो यहाँ सोनगढमें सुनने मिली। नहीं तो दिगंबर तत्त्वमें भी हमने ऐसी बात तो नहीं सुनी।
समाधानः- शास्त्रके अर्थ ही कौन सूलझा सकता था? गुरुदेवने सब अर्थ किये, गुरुदेवकी वाणीसे सब जागृत हो गये। समयसारके अर्थ कौन सुलझा सकता था? प्रवचनसार और दूसरे अध्यात्म शास्त्र, सब शास्त्रके अर्थ कोई सूलझा नहीं सकता था। गुरुदेवने ही सब अर्थ किये। भेदज्ञानकी दशा, ज्ञाताधारा, कर्ताबुद्धि छोड, सब अर्थ गुरुदेवने ही सुलझाये हैं। वस्तुका मूल रहस्य उन्होंने ही बताया है। कोई समझता नहीं था। अमुक संप्रदायमें सब क्रियामें पडे थे। क्रियासे धर्म होता है, इतना कर लें तो धर्म होगा, इतना शुभभाव करें तो ऐसा होगा, इतना करुँगा तो पुण्य बन्धेगा। इतनी सामायिक कर लें और इतने प्रतिक्रमण करें, उसीमें सब पडे थे।
गुरुदेवने (प्रकाशित किया कि), अंतरमें मार्ग है, भेदज्ञानकी ऐसी दशा प्रगट होती है, यह कर्ताबुद्धि तोड, ज्ञाताधार प्रगट कर, स्वानुभूति अंतरमें होती है। मन-वचन- कायासे सबसे अतीत, विकल्पसे अतीत, निर्विकल्प दशाकी प्राप्ति हो, स्वानुभूति प्रगट हो और वह बढते-बढते मुनिदशा आये तो अंतरमें क्षण-क्षणमें झुलते हो। मुनिकी दशा, केवलज्ञानकी दशा सब गुरुदेवने बताया। भगवान कैसे होते हैं? गुरु कैसे होते हैं? शास्त्र कैसे होते हैं? सब गुरुदेवने बताया। कोई नहीं जानता था, इतने साल पहले। अब सब जानने लगे हैं। स्थानकवासी और देरावासीमें सामायिक कर लो, प्रतिक्रमण कर लो, उपवास कर लो, उसमें धर्म मानते थे। दिगम्बरमें इतनी शुद्ध और इतनी अशुद्धि, उसमें सब अटक गये थे। अंतरमें मार्ग है, गुरुदेवने इतना प्रचार किया, सबको जागृत किये हैं।
मुमुक्षुः- छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें विचरते महामुनिको शास्त्र लिखनेका भाव कैसे आता है? आत्माके आनन्दमें झुलते हो एकदम।
समाधानः- आत्माके आनन्दमें क्षण-क्षणमें झुलते हैं, परन्तु बाहर आते हैं। क्योंकि
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अभी केवलज्ञान नहीं हुआ है। केवलज्ञान हो तो अन्दर शाश्वत विराजते हों। आत्माका आनन्द और ज्ञानादि अनन्त गुणोंमें विराजते हों। परन्तु बाहर आते हैं तब विकल्प उत्पन्न होता है। विकल्पमें मुनिओंको एक देव-गुरु-शास्त्रका विकल्प (उत्पन्न होता है)। दूसरे विकल्प तो उन्हें (होते नहीं), कोई बार आहारका विकल्प आता है। दूसरे कोई विकल्प उन्हें (नहीं आते)। एकदम अल्प अस्थिरता है, संज्वलनका अल्प कषाय है, दूसरा कुछ नहीं है। विकल्प आता है तो उन्हें शुभ आता है, इसलिये शास्त्र लिखनेका विकल्प (आता है), मुनिओं जंगलमें बैठे हों, शास्त्रका विकल्प आता है। विकल्प आये तो लिखते हैं, वापस अन्दर स्थिर हो जाते हैं। स्थिर होनेके बाद बाहर आकर तो लिखते हैं। बाहर आते हैं उतना अधूरापन है।
केवलज्ञान हुआ हो तो कोई विकल्प नहीं है। केवलज्ञान नहीं है इसलिये बाहर आते हैं, विकल्प आता है इसलिये लिखते हैं। अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं, "मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते' मेरी विशुद्धके लिये मैं यह शास्त्र लिखता हूँ। ऐसा प्रशस्त विकल्प आता है।
मुमुक्षुः- महाविदेह क्षेत्रका भी मुझे आपके कारण ही विश्वास हुआ। नहीं तो इस जमानेमें कौन मानता है? पृथ्वी ऐसी है। आपने, पूज्य गुरुदेवने जो बातें कही, बहुत अद्भूत बातें लगती हैं। अद्भूत-अद्भूत बातें लगती है।
समाधानः- अभी तो सब मतिकल्पनासे कुछ है ही नहीं, ऐसा कहते हैं। महाविदेह है, भगवान है, सब है। सीमंधर भगवान विराजते हैं, दिव्यध्वनि छूटती है, समवसरण है, सब है।
मुमुक्षुः- देवके भवमें आपने अवधिज्ञानसे नर्कके भी दुःख देखे होंगे, यह आपको याद है? उसे देखें तो हार्ट फेईल हो जाय, ऐसी बात है।
समाधानः- सब है, नर्क-स्वर्ग सब है। ज्ञान ऐसा है कि उसमें सब आ जाता है। सब आ सकता है। और वह सब यथार्थ है और इस जगतमें सब है। नर्क है, स्वर्ग है, महाविदेह है, सीमंधर भगवान हैं, दिव्यध्वनि छूटती है, सब है।
मुमुक्षुः- बहुत गजब है! आनन्द.. आनन्द.. आनन्द हो जाता है। स्वसंवेदनकी पर्याय भी स्वयंका लक्ष्य नहीं करती और मैं ध्रुव हूँ, ऐसा... पर्याय स्वयं अपना निषेध करे ऐसी अटपटी बातें तो गजब बातें लगती है। ध्रुव तो कूटस्थ ध्रुव है।
समाधानः- स्वयं ज्ञायकरूप ध्रुव है। ज्ञानमें सब जानता है, वेदनमें उसे सब आता है। स्वानुभूतिका वेदन होता है, ज्ञानमें आता है और ध्रुव एक स्वयं पारिणामिकभावस्वरूप पर दृष्टि है। सब साथमें वर्तता है। प्रत्येक गुण आत्माके... दृष्टि द्रव्य पर है, ज्ञानमें ज्ञात हो रहा है, सबका वेदन हो रहा है। अनन्त गुणोंका वेदन,
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आनन्दगुण आदि सबका, द्रव्य-गुण-पर्याय सबको जानता है। और दृष्टि शाश्वत ध्रुवरूप द्रव्य (पर है)। चैतन्यकी सब बातें कोई अद्भूत है। गुरुदेवने अद्भूत मार्ग प्रकाशित किया है। बाकी नर्क, स्वर्गका मैं कुछ विस्तारसे नहीं कहती हूँ। परन्तु जगतमें सब यथार्थ है। वह सब क्षेत्र है, सब है।
मुमुक्षुः- बचपनमें कहती थी कि मैं वहाँ बकरी थी। मैंने देखा है, .. था, ऐसे देव थे, ऐसा चँवर ढालते थे, ऐसी आवाज आती थी। दूसरा कुछ ज्यादा याद नहीं है, परन्तु समवसरणका वर्णन किया।
समाधानः- समवसरणका?
मुमुक्षुः- हाँ, मैं समवसरणको गप समझता था, इतना सब वर्णन जैनियोंने अधिकताके लिये ही किया होगा। फिर विश्वास आ गया। यहाँ आनेसे भी सभी बातों पर बहुत विश्वास हो गया। कोई इन्द्र ऊतरकर समझाये तो भी समझे नहीं, कहाँ अटकते हैं, यह समझमें नहीं आता है। या फिर धारणाज्ञानमें..
समाधानः- समवसरणमें भगवान विराजते हैं। समवसरणमें दिव्यध्वनि छूटती है। मुनिओं, गणधर सब सभामें (आते हैं)। बकरी थी?
मुमुक्षुः- हाँ, स्पष्ट बात की और बहुत सुन्दर रूपसे वर्णन किया। मुमुक्षुः- सात सालकी छोटी थी। ... श्रीमद राजचंद्रका मन्दिर है, वहाँ १५- १५ दिन रहते थे। वह भक्ति करती थी, वहाँ ऐसा फोटो था, तो कहा, यह तो मैंने देखा है। मैं बडे जंगलमें रहती थी। मैं बकरी थी। दूसरे बच्चे उसे चिठाने लगे कि बकरी.. बकरी। तब हमें मालूम पडा कि यह बकरी-बकरी क्यों कहते हैं? तब उसने कहा कि, मैंने यह सब देखा है। घुमा-घुमाकर डाक्टर टी. वी. शाह थे उस वक्त पूछा था।
मुमुक्षुः- बकरीका भव था इसलिये ज्यादा... वह छोटी थी, ऐसा कहती है, मेरे बगलमें बडी बकरी थी। फिर ऐसी बात कही कि, बाघ, सिंह, हाथी भी देखा, सब बोलने लगी। इसलिये मुझे आश्चर्य हुआ कि यह बकरीके बगलमें बाघ, यह क्या कहती है? लेकिन सब वर्णन किया। तबसे एकदम विश्वास आ गया कि, यह बा सत्य है। समवसरणमें सब जीव जाते हैं, बाघ, बकरी आदि। सब गजब बातें की। लेकिन इतना समवसरण ही, फिर कहाँ गयी, क्या हुआ, वह कोई बात नहीं।
समाधानः- कहीं भी अटक जाता है। आत्माकी ओरका पुरुषार्थ चलता नहीं। उसे जहाँ रुचि होती है, वहाँ अटक जाता है। आत्माकी रुचि करने जैसी है। आत्मार्थताकी मुख्यता रखने जैसी है। बाकी कहीं भी अटक जाता है, उसे जहाँ रुचि होती है वहाँ। कोई प्रमादमें, अनेक जातके विकल्पोंमें, अनेक जातके विचारोंमें कहीं भी अटक जाता
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है। किसीको कहाँ रुचि लगती है, किसीको कहाँ रुचि लगती है। ... चढ जाय और आत्मार्थीता गौण हो जाय।
मुमुक्षुः- यहाँ आनेसे सामान्य पाप भी पुण्यमें परिणमित हो जाते हैं, तो आपका स्वास्थ्य... आप तो ज्ञानी हैं। आपको तकलीफ रहे, आश्चर्य लगता है। हमें ऐसा लगता है, हमें बहुत लाभका कारण है। गुरुदेवकी अनुपस्थितिमें हमें (आपके समागमसे) कितना आनन्द होता है। वह कोई हाथकी बात नहीं है, गुरुदेव कहते थे न, वह हाथकी बात नहीं है। शरीरके कार्य शरीर (करता है)। स्वतंत्र होते हैं, अपने हाथकी बात नहीं है।
मुमुक्षुः- सबको आपकी वाणी पाँच-पाँच मिनिट मिले तो भी बहुत... बहुत विरह लगता है।
समाधानः- उनकी तो बात अलग थी, मैं तो उनका दास हूँ। अपने हाथकी बात नहीं है। शरीरकी क्रियाएँ स्वतंत्र हैं।