PDF/HTML Page 978 of 1906
single page version
समाधानः- गुरुदेवका अभी हमलोग चित्र करके कहते थे कि, यह भव, उसके बाद यह भव, यह भव। इस भवमेंसे वह स्वर्गका भव देखते हैं। वहाँ अटकते थे, उसके बदले दूसरा हो गया। काल क्या काम करता है। काल तो ऐसे ही चला जाता है, चला ही जाता है। उसमें आत्माकी ओर परिणति हो, वह अपने हाथमें रहता है। बाकी काल चला जाता है। कितने बरसोंके बरसों चले ही जाते हैं। उसमें जितनी स्वरूपकी साधना है, वह अपनेमें रहती है। बाकी पूरा काल ऐसे ही चला जा रहा है। पूर्वभवका स्मरण करते-करते इस भवका स्मरण हो गया।
जीवन इसमें गुँथा था, वैसा उसमें गुँथ लेना। तो आत्मा अन्दरसे जवाब दे, स्वभाव जवाब दे। स्वभाव स्वभावरूप परिणमे। जीवनको उसमें गुँथ लेना चाहिये। ऐसा तो कुछ होता नहीं। फिर कैसे करना, कैसे करना? (पूछते हैं)। कारण कम हो तो कार कहाँसे हो? किसीको अंतर्मुहूर्तमें होता है, वह दृष्टान्त नहीं लिया जाता। बहुभाग तो पुरुषार्थ करके अभ्यास करते-करते होता है।
मुमुक्षुः- ऐसा सुनते हैं तो उस अनुसार होता नहीं है, तो फिर अन्दरकी तो बात ही कहाँ रही?
समाधानः- शुभभाव तक जीव पहुँचता है। देव, गुरु, शास्त्र इत्यादि। अंतरमें उसे ... चाहिये। ... दूसरा अभ्यास है। उसके सामने इतना इसका अभ्यास चाहिये, वह तो करता नहीं। जितना बल इसका हो, उतना बल तो सामने स्वयंका होना चाहिये न। उतना अनादिका अभ्यास है। स्वयं बलवान (हो), स्वयंका स्वभाव है। वह उसे रोकता नहीं है। राजा आये तो राजाके ऊपर किसीने हमला किया हो तो जितना शत्रु बलवान हो, उतना स्वयंको तैयार तो रहना चाहिये न। उसे जीतनेके लिये। ऐसी तैयारी तो है न। उसी अभ्यासमें, अनादिके अभ्यासमें खीँचा जाता है। स्वयंकी इतनी तैयारी (होनी चाहिये)।
सामनेवाला तैयार हो तो उसके सामने, मैं स्वयं भिन्न हूँ, इतनी स्वयंकी तैयारी तो होनी चाहिये न। वह तो क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें विभाव तो तैयार ही होता है। स्वयं तो उतना तैयारी होता नहीं। कितना काल निकल जाय उसके बाद उसे याद
PDF/HTML Page 979 of 1906
single page version
करे। ... अनादिका अभ्यास ... अपने प्रमादसे अटका है। स्वयं स्वयंका स्वभाव पहचाने तो स्वयं ही है। वह कहते हैं न कि, देवलोकमें सब अहमिन्द्र हैं। ऐसे स्वयं अहमिन्द्र है। सिद्धशिलामें सब सिद्ध भगवान अहं-स्वयं स्वयंमें परिणमते हैं। स्वयं। वह तो क्षेत्र है। सब स्वयं अपनेमें परिणमते हैं। स्वयं चैतन्य है, मैं ज्ञायक हूँ, मैं चैतन्य हूँ। सत्तासे सब एकसमान भगवान आत्मा ही हैं। व्यक्ति हो तब व्यक्तिमें सब समान होते हैं। केवलज्ञान प्रगट करे तब। अपना चैतन्यनगर देखनेकी, आनन्दनगर (देखनेकी) अपनी तैयारी स्वयंको करनी चाहिये। स्वयं तैयारी करे तो उसमें कोई शत्रु प्रवेश नहीं कर सकता। सब भगवान आत्मा है।
फिर सब टेढेमेढे प्रश्न पूछते रहे। ... वीतराग ही है। समयसारमें आता है उसे गिनना ही नहीं। उसकी क्या गिनती है? अल्पकी। शास्त्र कहता है कि जो मुख्य हो ज्ञायक, उसे ही गिनना। वह तो गौण है, उसे नहीं गिनना। वीतरागी परिणति प्रगट हुयी वह वीतराग ही है। ... जो देखे वह उसकी क्षति है। उनका गुरुपद है उस दृष्टिसे देखना चाहिये। .. हो उसे गुरुकी कृपा हुए बिना नहीं रहती और वह आगे बढे बिना रहे नहीं। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। जो नहीं हो रहा है उसमें स्वयंकी क्षति है। उसमें गुरुका कोई कारण नहीं है। गुरुकी वाणी एकरूप बरसती है। एकरूप वाणी बरसे, अपूर्व वाणी, उसमें कौन कैसे ग्रहण करे वह अपने उपादानका कारण है, उसमें गुरुका कोई कारण नहीं है। स्वयंकी पात्रताकी क्षति है। जो तैयार हो उस पर गुरुकी कृपा होती ही है। वाणी तो एकसमान बरसती थी। उसमें जिसका उपादान तैयार हो वह ग्रहण करता है। जो तैयार हो उस पर गुरुदेवकी कृपा होती ही है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध ही है।
.. रह सकूँ ऐसा था ही नहीं। इतने साल निकल गये, इतने साल निकल गये ऐसा होता था। चार-पाँच साल रह सकूँ ऐसा तो था ही कहाँ। इतने साल हो गये, १८ साल हुए, २० साल हो जायेंगे, यह होगा ऐसा विकल्प आता था, उसमें पाँच साल तो कहाँ रह सकू ऐसा था? एकसमान उग्रता ... विचार करनेमें साल, डेढ साल निकल गया। वह उग्रताकी अपेक्षासे। इतने साल हो गये, बाकीके जानेमें कहाँ देर लगेगी? अभी क्यों कँपकँपी होती नहीं? अभी क्यों अन्दर काँपता नहीं है? ऐसा सब आता था, उसमें पाँच साल कहाँ निकलनेवाले थे?
ऐसे विकल्पमें जीव अटकता नहीं। पक्षातिक्रांत निर्विकल्प स्वरूप, आत्माकी ओर जिसकी परिणति गयी, उसकी वाणी दूसरोंको चैतन्यकी ओर ले जानेवाली होती है। अन्दरसे जो बद्ध हूँ या अबद्ध हूँ, ऐसे रागके विकल्पमें जो नहीं है, उसे वीतरागी परिणति हुयी, उसे राग है ऐसा कहना वह तो एक प्रकारका अस्थिरताकी ओर पक्ष
PDF/HTML Page 980 of 1906
single page version
लेना वह तो बिलकूल निरर्थक है। उसकी वाणी, निराली परिणतिमेंसे जो उपदेश निकलता है, वह दूसरोंको हितरूप ही होता है। उसका प्रत्येक कार्य दूसरोंको हितरूप होते हैं।
कहते हैं न? सत्पुरुषकी वाणी दूसरोंको हितरूप ही होती है। उसके सर्व कार्य दूसरेको हितरूप होते हैं। क्योंकि वह स्वयं भिन्न परिणतिरूप परिणमे हैं इसलिये। ... उसके सर्व कार्य दूसरोंको हितरूप होते हैं। इसलिये कहते हैं न? सत्पुरुषके प्रत्येक कार्य दूसरोंको हितरूप होते हैं। उसके योग्य ही होते हैं। सत स्वरूपरूप परिणमित हुआ आत्मा, उसके सर्व कार्य, जिसने सत ग्रहण किया उसके सर्व कार्य योग्य और सतरूप ही होते हैं। ग्रहण करने योग्य और आदर करने योग्य ऐसा आत्मा जिसने ग्रहण किया, आदरने योग्य आत्मा जिसने ग्रहण किया उसके सर्व कार्य ऐसे ही होते हैं। अंतरमें जिसकी परिणति ऐसी है, उसका बाहरमें सब योग्य ही होता है। छोडनेयोग्य सब छूट गया। उसके सब कार्य ऐसे योग्य ही होते हैं। मुख्य ज्ञाता पर दृष्टि। मुख्यको ग्रहण करना, गौणताको ग्रहण नहीं करना।
.... आचाया और मुनिओंकी तो क्या बात करनी? लेकिन यह मुक्तिका एक अंश जो प्रगट हुआ, वहाँ भी ऐसा ही होता है। उसमें भी गुरुदेवका जीवन तो कैसा था। पहले तो गुरुदेव संप्रदायमें थे (उस वक्त) कोई सेठ आये या राजा आये, किसीके सामने भी नहीं देखते थे। सामने यानी उनका प्रवचन चलता हो उसमें वह ऐसा कहे कि आप थोडा देरसे शुरू करिये। वे तो उनके समय पर ही, राजा आये तो भी क्या और कोई भी आये तो भी क्या। गुरुदेव पहलेसे ही ऐसे निस्पृह थे। और उनकी वह निस्पृह आखिर तक चलती रही। बाहरमें भले दिखाई न दे। बाहरमें दूसरेने पहलेका कुछ नहीं देखा हो न इसलिये। परन्तु ऐसा ही था। जीवन भी ऐसा ही था। देव- गुरु-शास्त्रको सान्निध्यमें रखकर टहेल मारनी।
... स्वभावपर्याय प्रगट होती है। उसमें जिज्ञासुको तो पुरुषार्थ पर लक्ष्य जाना चाहिये। क्योंकि पुरुषार्थ करना उसके हाथकी बात है। उसको खटक रहनी चाहिये। पुरुषार्थकी ओर उसका लक्ष्य जाना चाहिये। क्रमबद्ध आदिको वह गौण कर देता है। बाह्य कायामें क्रमबद्ध बराबर है, परन्तु अंतरमें स्वयं स्वभावकी ओर मुडनेमें क्रमबद्ध उसके ख्यालमें हो तो उसे खटक रहा करे कि मैं पुरुषार्थ कैसे करुँ? कैसे आगे बढूँ? अपनी ओर आता है।
गुरुदेव तो ऐसा ही कहते थे, बीचकी कोई बात ही नहीं। जो स्वभावको समझा और ज्ञायक हुआ उसे ही क्रमबद्ध है। दूसरोंको क्रमबद्ध है ही नहीं। बीचमें जिज्ञासा आदिकी कोई बात ही नहीं। जो स्वभाव प्रगट हुआ और ज्ञायककी ओर गया, उसे ही क्रमबद्ध (है)।
PDF/HTML Page 981 of 1906
single page version
मुमुक्षुः- जी हाँ, वही शैली थी।
समाधानः- वही शैली।
मुमुक्षुः- स्वभाव परिणति ही ली है।
समाधानः- स्वभाव परिणति प्रगट हुयी तो क्रमबद्ध। नहीं तो तून क्रमबद्ध जाना ही नहीं।
मुमुक्षुः- गुरुदेवकी शैली ऐसी ही आयी है।
समाधानः- जिज्ञासुकी बीचकी कोई बात ही नहीं। दो भाग।
मुमुक्षुः- आपने तो बहुत अच्छा स्पष्टीकरण किया, जिज्ञासाका। आपके वचनामृतमें भी बहुत बात जिज्ञासुकी स्वभाव परिणतिसे ही प्रवचनमें आयी है, बहुत बातें। भावना आदिकी बात है तो ज्ञानीकी भावना, ऐसे आयी है।
समाधानः- वे विभाग कर देते थे। बीचमें यहाँसे यहाँ, यहाँसे वहाँ प्रश्नोत्तर, वह बात ही नहीं। दो विभाग कर देते थे।
मुमुक्षुः- शुद्ध परिणतिका क्रम शुरू होता है, वही बात लेते थे।
समाधानः- बस, वही बात। यहाँ सब जिज्ञासाके प्रश्न करे इसलिये जिज्ञासुकी बात बीचमें (करते हैं)। ऐसा होता है। आचार्य, गुरुदेव सब शास्त्रमें समयसारमें दो भाग-एक पुदगल और एक आत्मा। बस। रागको यहाँ डाल दिया, स्वभावको इसमें डाल दिया।
मुमुक्षुः- रागको जडमें और पुदगलमें डाल देते थे। वहाँ तक कि उसके षटकारक उसकी पर्यायमें। पर्यायके षटकारक। आत्मा शुद्ध है। ... वह क्या आता है? पर्यायके षटकारक पर्यायमें? ऐसे तो वस्तुको छः कारकोंकी शक्ति है। उस प्रकारसे तो पूरा वस्तु दर्शन बराबर है। उसके छः गुण हैं, छः शक्ति है।
समाधानः- दो द्रव्य स्वतंत्र। इस द्रव्यके षटकारक इसमें और इस द्रव्यके इसमें। दो द्रव्यके षटकारक तो एकदम भिन्न स्वतंत्र हैं। फिर पर्याय एक अंश है। पर्याय अंशरूपसे भी स्वतंत्र है, ऐसा दर्शानेको उसके षटकारक कहे। परन्तु जितना द्रव्य स्वतंत्र है, उतनी पर्याय स्वतंत्र है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। उसी द्रव्यकी पर्याय है और उस द्रव्यके आश्रयसे वह पर्याय होती है। चेतनद्रव्यकी चेतन पर्याय। वह जो स्वभावपर्याय हो, वह उसकी पर्याय है। इसलिये दो द्रव्य जितने षटकारक रूपसे स्वतंत्र हैं, उसी द्रव्यकी पर्याय, वह द्रव्य और पर्याय उतने स्वतंत्र नहीं है। फिर भी एक अंश है और वह त्रिकाली द्रव्य शाश्वत है। अनादिअनन्त द्रव्य है और वह क्षणिक पर्याय है। परन्तु एक अंश है, इसलिये उसकी स्वतंता बतानेके लिये उसके षटकारक कहे। बाकी उसका अर्थ ऐसा नहीं है, वह द्रव्य जितना स्वतंत्र है, वैसी पर्याय (स्वतंत्र है)। पर्याय उतनी स्वतंत्र
PDF/HTML Page 982 of 1906
single page version
हो तो दो द्रव्य हो गये।
मुमुक्षुः- वह भी द्रव्य हो जाय। समाधानः- हाँ, वह भी द्रव्य हो गया और यह भी द्रव्य हो गया। ऐसा उसका अर्थ नहीं है। उसकी स्वतंत्रता बताते हैं कि पर्याय भी एक अंश रूपसे स्वतंत्र है। लेकिन जैसा यह द्रव्य (स्वतंत्र) है, वैसी उसकी स्वतंत्रता नहीं है। क्योंकि वह पर्याय द्रव्यके आश्रयसे है। पर्यायका वेदन द्रव्यको होता है। वह द्रव्यकी पर्याय है। ऐसी स्वतंत्रता उसमें नहीं है। लेकिन उसकी स्वतंत्रता बतायी है। परन्तु पर्याय भी एक सत है। द्रव्य सत, गुण सत, पर्याय सत। उसका सतपना दिखाते हैं। परन्तु उसकी स्वतंत्रता, जैसी द्रव्यकी है वैसी नहीं है।