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समाधानः- ... अन्दरसे जल्दी मिल जाय तो। कितनी बार समयसार पढा, सभाके बीच। सब शास्त्र, बहुत शास्त्र सभामें पढे। कितने साल।
मुमुक्षुः- समयसार देखो न, १९ बार।
समाधानः- प्रचार गुरुदेवसे ही हुआ है। इतने सालमें गुरुदेव जितना अध्यात्म (प्रसिद्ध नहीं हुआ)। एक-एक पंक्तिके अर्थ करना। स्वयं ही एकदम उल्लास एवं आनन्दसे पढते थे न। उनको स्वयंको आश्चर्य लगता था। अतः सब श्रोता उसमें रंग जाते थे। उनको स्वयंको ऐसा लगता था कि अमृत बरसा!
.. क्या बोलना और क्या नहीं बोलना, ऐसा होता है। ऐसा सदभाग्य मिला कि गुरुदेव यहाँ पधारे, कितने जीवोंको लाभ मिला। यह महाभाग्यकी बात है। गुरुदेवने सबको आत्म-भगवान दिखाया कि आत्मा भगवान है। नहीं आत्मा भगवान, कौन पहचानता था? आत्मा भगवान है तू। कर्ताबुद्धि छोड, ज्ञाताको प्रगट कर। शास्त्रमें तो आता है, परन्तु उसे सूलझाया किसने? तू परको कर नहीं सकता, पर तेरा नहीं कर सकता। तू ज्ञायक-ज्ञाता है, ये सब शास्त्रमें आता है। उसे किसने सुलझाया? गुरुदेवने सब सुलझाया।
सबकी स्थूल बाह्य दृष्टि थी। अंतर दृष्टि करनेका गुरुदेवने कहा। सच्चा मुनिपना बताया, भगवानका स्वरूप बताया, सम्यग्दर्शनका बताया, पूरा मुक्तिका मार्ग बताया। मुनिपना कौन समझता था? केवलज्ञान अंतरमें भगवानको प्रगट होता है और भगवान वीतराग दशारूप आत्मामें (परिणमित हुए)। भगवानका स्वरूप कौन पहचानता था? सब ऐसा मानते थे कि सिद्ध हो उन्हें जन्म नहीं है, मरण नहीं है। सिद्ध शिलामें विराजते थे। ऐसा सब स्थूल समझते थे।
... सब आत्मा समान हैं। आत्मा द्रव्यसे सब समान हैं, पर्यायमें भेद है। उपादानसे सब होता है, निमित्तसे होता नहीं। निमित्त बीचमें होता है। ये सब गुरुदेवने स्पष्ट किया। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। कोई किसीका कर नहीं सकता। गुारुदेवने स्वतंत्रता बतायी। .. मार्ग बताया। तू आत्मा है, तू आत्माको देख।
... बहुत अभ्यास करवाया है। अंतरका अभ्यास बाकी रह गया है। देव-गुरु-
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शास्त्रका तू जैसे स्मरण करता है, उन्हें हृदयमें (रखता है), वैसे ज्ञायकको तू हृदयमें रखना। उसका सान्निध्य तो रखना। उसका अंतरमें अभ्यास हो तो ज्यादा अच्छी बात है। उसे हृदयमें तो रखना। देव-गुरु-शास्त्रकी जैसे महिमा रखता है, वैसे ज्ञायकको तू हृदयमें रखना। तो होता है। शास्त्र मेरे (हृदयमें है), वैसे ज्ञायक भी मेरे हृदयमें आओ। अंतरमें तो अभी (दूसरी बात है), ये तो धोखनेरूप है।
जिनेन्द्र देव भगवान.. गुरु कहते हैं न? तेरा आत्मा भी भगवान है। देव-गुरु- शास्त्र भगवान, वैसे ज्ञायक भी भगवान है। स्वयं भगवान है। चतुर्थ काल हमेशा होता है, इस भरतक्षेत्रमें ही ऐसा होता है। पंचमकाल आता है। वहाँ हमेशा तीर्थंकर एवं मुनि आदि विचरते हैैं। इस पंचमकालमें ही ऐसा होता है, इस भरतक्षेत्रमें।
.. अनेक नयोंके पहलूसे जानना है। नयपक्ष पहले आता है, लेकिन फिर छूट जाता है। आत्मा बद्ध है और आत्मा अबद्ध है, आत्मा एक है और आत्मा अनेक है, वह सब विकल्प आते हैं। स्वभावसे एक है और गुणसे अनेक है। जाननेमें नयपक्ष (आता है)। लेकिन फिर अतिक्रांत हो जाता है। दृष्टि एक भी नयपक्षका स्वीकार नहीं करती। वह तो अभेद है। लेकिन विकल्प छूटे तब सब नयपक्ष छूट जाते हैं। तू तुझे पहचान। .. इतना स्पष्ट कर-करके गुरुदेवने मार्ग स्पष्ट कर दिया है।
... हर जगह आत्मा ही मुख्य है। प्रशस्त कायामें ... चलता ही रहता है। सबमें आत्मा। आत्माका आश्रय। सब प्रशस्त कायामें आत्मा ... संयममें, नियममें मेरा आत्मा। आत्मामें ही बसना है। मेरा आत्मा ही समीप है। ... आश्रय ले तो ऐसा हो जाय कि कैसे आश्रय लूँ? यह आश्रय छूटता नहीं और वह आश्रय होता नहीं। अनादिसे विभावका आश्रय हो गया है। आत्माका आश्रय लेना उसे अत्यंत दुष्कर हो गया है। स्वयं स्वयंसे दूर हो गया हो, ऐसा उसे भ्रम हो गया है। स्वयं होने पर भी।
.. आत्मा समयसार.. आत्मा ही उसका प्रयोजन है। आत्माको साधे। .. स्वरूप आत्मा, ज्ञायकभावरूप आत्मा। संयम, तप, नियम सब आत्मा स्वयं ही है। आत्मा स्वभावरूप है। शुभ विकल्प आये वह अलग, वह तो पुण्यबन्धका कारण है। ... खोज लेना, कहींसे भी आत्माको खोज लेना। .. आत्मार्थी हो वह आत्माका प्रयोजन साधे। आत्माको खोज ले। आत्माका प्रयोजन और आत्मवस्तुको खोजे। वह उसका कार्य है।
प्रथम भूमिका विकट होती है। .. प्रसंगोंमें जो लाभ मिला, वह सब भाग्यशाली है। ऐसे गुरुदेव मिले और उनका इतना सान्निध्य, वाणी एवं ये सब मिला। इस पंचमकालमें ये सब मिलना बहुत मुश्किल था। महाभाग्यकी बात है कि गरुदेव पधारे। ... प्रतापसे सबको मिले। सबको मिले हैं। उनका जितना करें उतना कम है। उनकी जितनी सेवा करें और जितना लाभ मिले, सब कम है। उसमें आता है, "अर्पणता पूरी नव अमने
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आवडे, ...' चाहे जितना किया, लेकिन सब कम ही है।
समाधानः- ज्ञायक सो ज्ञायक है, आता है न। प्रमत्त भी नहीं और अप्रमत्त भी नहीं है। उसमें क्या पूछना है, कि आत्मा ज्ञायक ही है?
मुमुक्षुः- किसी भी अवस्थाके बिना ... एकरूप है, ऐसा बताना है?
समाधानः- कोई भी अवस्थामें ज्ञायक सो ज्ञायक ही है। साधक अवस्थाकी कोई भी पर्याय हो, प्रमत्त दशा या अप्रमत्त दशा, आचार्यदेव कहते हैं, छठ्ठवे-सातवें गुणस्थानमें मुनिराज कहते हैं। छठ्ठवा-सातवाँ गुणस्थान, अप्रमत्त अवस्था या प्रमत्त अवस्था, कोई भी दशामें आत्मा तो ज्ञायक सो ज्ञायक ही है। जो आत्मा अनादिअनन्त जो ज्ञायक, ज्ञायकरूप ज्ञात हुआ वह तो ज्ञायक ही है। दोनों दशामें ज्ञायक है। उसे अप्रमत्त दशा, साधक दशाकी वृद्धि हो, अप्रमत्त दशा हो या प्रमत्त दशा हो, अवस्था कोई भी बढती जाय, तो भी उसमें ज्ञायक तो ज्ञायक ही है।
मुमुक्षुः- शुभभावमें थकान लगे तो अन्दर जाना हो सकता है। शुभभावमें भी थकान लगे। आचार्य भगवान कहते हैं, "तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि ही श्रुता', इसमें कैसे (मेल है)?
समाधानः- आचार्यदेवकी वह अपेक्षा अलग है और वह अपेक्षा अलग है। "तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि ही श्रुता' अर्थात उतनी प्रीतिसे बात भी सुनी है अर्थात जिसे उतनी अंतरमें रुचि है, आत्माकी ओर इतनी प्रीति है कि मुझे आत्मा कैसे समझमें आये? इसलिये उसे आत्मा भी अपूर्व लगे। ये आत्मा कैसा अपूर्व होगा! ऐसी आत्माकी ओरकी रुचि प्रगट हो तो उस ओर उसकी परिणति जाती है। यथार्थ रुचिरूप कारण प्रगट हो तो कार्य होता है। ऐसा आचार्यदेव कहते हैं। यथार्थ कारण हो, यथार्थ प्रीति हो अंतरसे, सुननेकी प्रीति ऐसी अंतरसे लगे कि अन्दर आत्माकी ओर चला जाय, ऐसी प्रीति लगे।
इसलिये उसे यथार्थ रुचि हो तो यथार्थ कार्य आता है। परन्तु जो शुभभावमें अटका है कि शुभभावसे मुझे धर्म होता है, शुभके साथ जिसकी एकत्वबुद्धि है तो आत्मा तो शुद्धात्मा तो शुद्धात्म स्वरूप ही है। शुभभाव उसका स्वभाव नहीं है। इसलिये शुभभावमें यदि एकत्वबुद्धि हो जाय तो वह आगे नहीं चल सकता। और शुभाशुभ दोनों भावोंमें उसे थकान लगनी चाहिये, उसे आकुलता लगनी चाहिये, दुःख लगना चाहिये। क्योंकि वह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसी उसे यथार्थ प्रतीत हो, ऐसा उसे अन्दरसे दुःख लगे, थकान लगे तो ही वह आगे जाता है।
परन्तु बीचमें यह रुचि आये, उस रुचिमें वह शुभभावमें ग्रहण नहीं करता है, परन्तु आत्माकी अपूर्वताको ग्रहण करता है। शुभभाव तो बीचमें आते हैं। जब तक
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केवलज्ञान नहीं होता, तब तक उसे बीचमें शुभभाव (आते हैं), जब तक उसकी वह दशा है तब तक आते हैं। मुनिओंको भी शुभभाव तो आते हैं, परन्तु हेयबुद्धिसे आते हैैं कि वह अपना स्वभाव नहीं है। इसलिये उससे भेदज्ञान-भिन्न-न्यारे रहते हैं। सम्यग्दृष्टि भी उससे न्यारा रहता है। उसका भेदज्ञान वर्तता है कि शुभभाव अपना स्वभाव नही ंहै। ऐसी प्रतीत न हो तब तक आगे नहीं बढता। उसमें थकान नहीं लगे तो आगे नहीं बढता।
परन्तु "तत्प्रति प्रीतिचित्तेन' अर्थात तू शुभभाव कर, ऐसा अर्थ नहीं है। उसे अपूर्वता लगती है। उस बातकी अपूर्वताके साथ आत्मवस्तुकी अपूर्वता लगती है। अर्थात अपूर्वता लगनेसे वह स्वयंकी ओर जाता है। शुभभावसे वह आगे बढता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। परन्तु उसे अपूर्वता (लगती है)। शुभभाव तो साथ-साथ आते हैं, परन्तु वह आदरणीय नहीं है, लेकिन उसे शुभभाव साथमें आते हैं। परन्तु उसकी परिणति तो अपूर्वताकी ओर जाती है। ऐसी अपूर्वता लगती है इसलिये आगे जाता है। अंतरसे ऐसी यथार्थ रुचि जागृत होती है। शुभभावसे आगे बढा ऐसा उसका अर्थ नहीं है, अपूर्वतासे आगे जाता है।
(शुभभाव) बहुत बार किये, लेकिन उसमें सर्वस्व मान लिया, इसलिये वहाँ रुक गया है। आचार्य ऐसा कहते हैं कि शुभभाव तेरा स्वभाव नहीं है। लेकिन तेरा आत्मा कोई अपूर्व है, उसे पहिचान। अतः अपूर्वता लगे तो आगे बढता है। ऊँची दशा प्रगट हो, अपूर्वकरण आये कि केवलज्ञान (प्रगट हो), कोई भी ऊँची-ऊँची दशा प्रगट हो तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। वह सब पर्यायें, शुद्धिकी पर्यायें प्रगट होती है। इसलिये ज्ञायक अनादिअनन्त है, उस पर दृष्टि कर। कहनेका तात्पर्य यह है। ज्ञायक ज्ञायकरूप ही रहता है। ज्ञायककी दृष्टिकी डोर ज्ञायककी ओर ही है, तो उसमें शुद्धिकी पर्यायें प्रगट होती जाती है। (शुद्धि) बढती जाय तो भी उसकी दृष्टि तो ज्ञायक पर ही है।
मुमुक्षुः- शुद्धभाव अधिकारमें भी वही बात कही है? कि जिवादि सात तत्त्व हेय है, आत्मा ग्राह्य है?
समाधानः- सब भाव हेय हैं, एक आत्मा ग्राह्य है। बाकी सब भाव-क्षयोपशमभाव, उपशमभाव, उदयभाव, क्षायिकभाव। एक पारिणामिकभाव ही ग्रहण करने योग्य है। बाकी सब हेय है। बीचमें आते हैं। उपशमभावकी पर्याय प्रगट होती है, क्षायिकभाव तो आत्माकी शुद्ध निर्मल पर्याय प्रगट होती है, क्षयोपशमभाव अधूरी पर्याय है, सब पर्याय पर दृष्टि करके अनादिअनन्त पारिणामिकभाव है, उसे ग्रहण करे। आत्माको ग्रहता है। पारिणामिकभाव अर्थात पूरा आत्मा, अखण्ड आत्मा अनादिअनन्त है उसे ग्रहण कर। वह सब भाव तो बीचमें पर्यायें हैं।
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अनादिअनन्त जो आत्मा है, उसे ग्रहण कर। वह सब तो प्रगट होती है। उपशमभाव, क्षायिकभावको ग्रहण नहीं करके एक पारिणामिकभावको ग्रहण कर। तो तत्त्वका मूल असली स्वरूप उसने ग्रहण किया है। वह तो ऊपरका है, असल स्वरूप नहीं है, वह तो प्रगट होता है। अनादिअनन्त स्वरूप पारिणामिकभाव है, उसे ग्रहण करना। उसे ग्रहण करनेसे उसका मूल चैतन्यतत्त्वका असली मूल उसने ग्रहण किया। असली स्वभाव ग्रहण किया। असली स्वभाव ग्रहण करे तो उसमेंसे निर्मलता प्रगट होती है। असली स्वभाव यदि ग्रहण न करे तो उसमेंसे निर्मलता प्रगट नहीं होती। (नियमसारमें) पारिणामिकभावको बहुत ही गाया है।
मुमुक्षुः- .. ३२० गाथामें कहा है। समाधानः- परमपारिणामिक? अनादिअनन्त परमपारिणामिक कहनेमें आता है। .. अपेक्षा लागू नहीं पडती। निरपेक्ष भाव है, अनादिअनन्त। उपशमभाव, कर्मके क्षयकी अपेक्षा, उपशमकी अपेक्षा, उपशमभावकी या कर्मके क्षयकी और उदयकी अपेक्षा, कोई अपेक्षा नहीं है। जो निरपेक्ष भाव है, अनादिअनन्त है, वह परमपारिणामिकभाव है।