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समाधानः- .. चालू रहे। स्वरूप मन्दिर देखने जैसा है। वह सब अलग-अलग भाषामें बहुत आता था। विभावके देशमेंसे अंतरमें जाना है। ... मैं तो स्वरूपमें जा रहा हूँ। कोई विभाव वहाँ तुम्हारी कुछ नहीं चलेगी। उन दिनोंमें ऐसा आता था। निर्णय पूरा है, वांचन उतना, चिंतवन उतना करते हैं, गुरुदेवने कहा बराबर है, उसका चिंतवन भी उतना करते हैं, तो भी क्यों नहीं होता है? जो निर्णय है उस अनुसार कार्य नहीं करता है तो नहीं होता है। क्यों नहीं होता है?
उतना निर्णय है, चिंतवन उतना करते हैं। एकान्तमें ऊपर बैठते हो न। इसलिये ये करते हैं, वह करते हैं, तो भी क्यों नहीं हो रहा है? तो भी उपयोग क्यों बाहर जाता है? उपयोग तो बाहर जाये। उपयोग तो अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें बदल जाता है। वहाँ स्कूलमें पढने जाता है, यह ज्ञायककी स्कूल अलग प्रकारकी है। बाहर एक, दो आदि, यहाँ अंतरमें जाकर इस स्कूलमें पढने जैसा है। शास्त्र अभ्यास करे वह अलग, परन्तु अंतरमें ज्ञायकका अभ्यास करना वह अलग है।
उसमें सब स्टेज आते हैं। एक, दो, फिर ऊपर, प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पाँचवी आदि। उसमें भाषा अलग, अंग्रेजी आदि। इसमें भी ऐसा है। जिज्ञासाकी भूमिका, सम्यग्दर्शनकी, मुनिदशा। उस स्कूलमें पढने जैसा है। तो वास्तवमें पढा कहनेमें आये। जो भी भाई आये, कोई भी आये, कैसे करना? हो नहीं रहा है। अरे..! स्वयंकी क्षति है। नहीं हो रहा है उसका कारण क्या? कारण स्वयंका है। इस स्कूलका अभ्यास कर। लौकिकमें तो एक अंकको बार-बार घोंटता रहता है। वैसे ज्ञायकका घूंटन करता रह न। स्वभावका घूंटन करना नहीं है और विभावको रखना है, विभावको खडा रखना है। निज स्वभावका अभ्यास कर।
गुरुदेवने एक अंकका घूंटन करवाया। गुरुदेवने बारंबार उसका अभ्यास करवाया है। गुरुदेवने अभ्यास करवाया, परन्तु अंतरमें स्वयं अभ्यास नहीं करता है। ऊपर-ऊपरसे समझ लेता है। .. आये नहीं तो कितना अभ्यास करता है। इसके अभ्यासमें थक जाता है। उसे कुछ मालूम नहीं पडता है कि अन्दर अरूपी भावमें क्या हो रहा है। इतना करते हैं, इतना करते हैं, तो भी कुछ फल नहीं आता है, ऐसा कहते हैं।
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इतना निर्णय पूरा है, इतना चिंतवन करते हैं तो भी कुछ नहीं होता है। सूक्ष्म परिणति प्रगट कर तो होता है।
कार्य करता नहीं है। जो जाना है उस रूप परिणतिको पलटता नहीं है, एकत्वबुद्धि तोडता नहीं है, कहाँ-से हो? रोज जो भी आये वह ऐसा ही कहता है। स्वयं करे तब ही होनेवाला है। स्वभाव था वह प्रगट हुआ, स्वभावरूप परिणमन प्रगट हुआ। इसलिये स्थिरता बढ गयी है। अन्दर ज्ञायकका अभ्यास कर और उसमेंसे जो फल आये तो तेरी परीक्षा सच्ची होगी। .. अंतरमें जा तो उसमेंसे फल आये वह सच्चा है। उपयोग तो बाहर आ जाय।
गुरुदेव कहते थे न? कि भक्तिमें आता है, आप तो समय-सयमें बदल जाते हों और मैं तो अंतर्मुहूर्तमें बदलता हूँ। भगवानको उलहना देते हैं। भक्तिमें आता है, ऐसा गुरुदेव कहते थे। अभी टेपमें आया था। प्रभु! मेरा मन तो चपल स्वभावी तो अंतर्मुहूर्तमें पलटता है और आप तो स्थिर कहलाते हो और समय-समयमें बदल जाते हो, ऐसा कहते हैं। चैतन्यकी परिणतिमें स्थिर हो गये तो हम तो एक अंतर्मुहूर्त भी टिकते हैं, जो भाव आये उसमें अंतर्मुहूर्त स्थिर रहते हैं और आप तो अंतर्मुहूर्त भी स्थिर नहीं रहते हो, एक समयमें बदल जाते हो। ऐसा उलहना देते हैं।
हमारी परिणति तो चपल और अस्थिर है, वह तो अंतर्मुहूर्तमें बदलती है। आप तो एक समयमें बदल जाते हो। उसका क्या हो? भगवान तो स्थिर है। भगवानने तो स्वभाव प्रगट किया है। वे बदलते नहीं है, एकरूप है। उसकी परिणतिका स्वभाव है, समय-समयमें बदल जाती है। कैसे मेल करना? मैं आपका भक्त। आपके साथ क्या...? भगवान बदलते नहीं है, भगवान तो एकरूप द्रव्यको ग्रहण करके ज्ञानकी परिणति लोकालोक जानती है। उत्पाद-व्यय और ध्रुव। ध्रुव तो ग्रहण कर लिया, ज्ञायक ग्रहण कर लिया और समय-समयकी परिणति आत्माका स्वभाव है। वह पलटती रही है। और ये तो अज्ञानदशामें उसका क्षयोपशमज्ञान अधूरा ज्ञान है, पूरा नहीं है। वह तो टिकता भी नहीं है। अंतर्मुहूर्तमें भागता है, पूरा स्थिर भी नहीं है। उसकी स्थिरता है ही कहाँ?
भगवान तो स्थिर बिंब आत्मामें हो गये हैं। स्वरूप परिणतिमें लीन हो गये हैं। उसमेंसे स्वभावपर्याय उनको प्रगट हुयी है। समय-समयमें बदलते नहीं है भगवान। एकरूप रहकर व्यय होता है। एकरूप परिणति रहे उसमें उनको पारिणामिकभावकी परिणति बदलती है। बदलते नहीं है, भगवान तीन कालका जानते हैं। एक परिणति आयी तो दूसरी पर्यायको वे चुकते नहीं, भूलते नहीं। इसका तो क्षयोपशमज्ञान है, वह तो भूल जाता है। एक क्षणमें जो जाना हो, वह दूसरी क्षण भूल जाता है। उसका बदलना तो अलग
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जातका ही है। क्षयोपशमज्ञान तो धारणाज्ञान है, बदल जाता है। भगवान तो भूलते नहीं है।
तीन कालका ज्ञान है। भगवान भूलते भी नहीं और भगवान बदलते भी नहीं हैं। सेवक बदलता है। भगवानको उलहना देते हैं। तीन काल तीन लोकका सब जानते हैं। भूतकालमें क्या हुआ, वर्तमानमें क्या है, भगवान सब जानते हैं। ये तो कुछ जानता नहीं है। अंतर्मुहूर्त टिके तो भी नहीं टिकनेके बराबर है। पर-ओर टिकता है। भगवान तो स्वरूप परिणमनमें लीन हैं। उसमेंसे स्वभावपर्यायको प्रगट करते हैं। स्वभावमें गहरे ऊतर गये हैं। निर्मलता बढ गयी है, इसलिये समय-समयकी पर्याय प्रगट हुई है। इसकी तो स्थूल पर्याय है। इसलिये अंतर्मुहूर्त उपयोग टिकता है। ... भगवान विराजते हैं। भगवानका सूक्ष्म परिणमन हो गया है। वह तो स्थूलतामें है।
सर्वज्ञ स्वभाव ही आत्माका है। गुरुदेवने कहा, सहजात्म स्वरूप सर्वज्ञदेव परमगुरु। आत्मा सर्वज्ञ है। प्रगट हो तब प्रगटरूपसे सर्वज्ञ। शक्तिरूप सर्वज्ञ (है)। ज्ञेयोंमें एकत्वबुद्धि करनी नहीं, ज्ञेयकी ओर राग नहीं करना। परन्तु वह सहज ज्ञात हो जाते हैं। ऐसा उसका स्वभाव ही है। सिद्ध भगवानको प्रतिच्छन्दके स्थानमें लिये। सब आत्मा सिद्ध भगवान। स्वयं सिद्ध है। और ऐसे कहे कि भगवान सिद्ध हैं। प्रतिच्छन्दके स्थानमें स्वयं सिद्ध है। आचार्यदेव स्थापना करते हैं कि तू सिद्ध है। तू सिद्ध है।
ध्रुव, अचल और अनुपम गति। गुरुदेवने सबको कह दिया, तू ज्ञायक है, तू सिद्ध है। ज्ञायक और सिद्धका जो मन्त्र दिया है, उस मार्ग पर जाना है। .. सिद्ध है, ज्ञायक है। पूर्ण, परिपूर्णतासे भरा। विभावके कारण न्यूनता दिखती है। शक्तियाँ अनन्त, सब अनन्त, धर्म अनन्त, सब अनन्त।
... बिना जाने खीँचातानी। जानता है... स्वयं स्वयंको जानता है। परको नहीं जानता है, वह एक अपेक्षासे, निश्चयसे ऐसा कहनेमें आये कि स्वयंको जानता है। इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि परको जानता नहीं है, ऐसा उसमें नहीं आता है। उसका स्वभाव जाननेका है, वह कहाँ जाय? अनन्त-अनन्ततासे भरा। एक भागको नहीं जानता है तो उसकी परिपूर्णता नहीं होती है। तो ज्ञान अधूरा रहा। ज्ञान परिपूर्ण नहीं होता है। उसकी अनन्त शक्ति है। उसका माप नहीं है। अपार है। एक भाग वह नहीं जानता है तो उसके ज्ञानकी परिपूर्णता नहीं होती है।
परिणति है, पर ओर नहीं जाता है इसलिये ज्ञान ज्ञानको जानता है, ऐसा कहनेमें आता है। परन्तु ज्ञेयका भाग उसमेंसे निकल गया है और जानता ही नहीं है, ऐसा नहीं है। एक भागको नहीं जानता है तो पूर्ण ज्ञान कैसे कहें? ज्ञान परिपूर्ण सबको जानता है, परन्तु अपनेमें रहकर जानता है। उसमें एकत्वबुद्धि करके जानने नहीं जाता
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है। सहज ही ज्ञात होता है। लेकिन ज्ञात होता ही नहीं, ऐसा नहीं है।
परद्रव्यके द्रव्य, गुण, पर्याय, उसकी पूर्व पर्याय, भविष्य पर्याय, वर्तमान पर्याय, अनन्त आत्माके, अनन्त सिद्धोंके, अनन्त नरक, स्वर्गमें उसमें रहे हुए जो-जो जीव हैं, उन सबकी पर्याय, सर्व साधकोंकी, निगोदकी सबकी पर्यायको जाने, सिद्धकी। उसमें सब ज्ञात होता है। उसमें क्या बाकी है? स्वयं स्वयंको जानता है। अपनी अनन्त पर्यायें भविष्यकी, वर्तमानकी अनन्त पर्यायरूप स्वयं परिणमता है। तो भी वह कहे कि, ज्ञानरूप परिणमता है, इसलिये ज्ञान ज्ञानको जानता है, उसे नहीं जानता है। ऐसा कैसे कहें? ज्ञान ज्ञानको जाने वह स्व-ओरकी अपेक्षाकी बात है। इसलिये उसमें पर ज्ञात नहीं होता है, ऐसा उसमें नहीं आता है। परका पूरा भाग उसमेंसे निकल जाता है, (ऐसा नहीं है)।
उसकी परिणति स्वकी ओर है, पर-ओर परिणति नहीं है। इस अपेक्षासे उसे नहीं जानता है, ऐसा कहें। स्वकी परिणतिसे। ज्ञात नहीं होता है अर्थात उसमें ज्ञात होता ही नहीं, ऐसा नहीं है। .. मुख्य करके कहें कि द्रव्यदृष्टिमें गुणभेद, पर्यायभेद नहीं आते हैं। द्रव्यदृष्टिमें नहीं आते हैं, इसलिये उसमें गुण नहीं है, चैतन्यमें अनन्त गुण नहीं है ऐसा नहीं है। दृष्टिकी अपेक्षासे एसा कहें कि दृष्टिमें गुणके भेद, पर्यायके भेद आत्मामें नहीं है। उसका मतलब उसमें अनन्त गुण है नहीं और पर्यायें नहीं हैं, ऐसा नहीं है। स्वरूप है उसमें, वह ज्ञानमें ज्ञात होता है। वैसे ज्ञानकी परिणति स्वकी ओर मुड गयी, उसकी दिशा पलट गयी, परसन्मुखसे अपनी ओर दिशा आ गयी, इसलिये स्वयं स्वयंको जानता है, ऐसा कहनेमें आता है। इसलिये उसमें परज्ञेय ज्ञात ही नहीं होता, ऐसा उसमें नहीं आता है। गुण है ही नहीं, ऐसा नहीं। ज्ञेय उसमें ज्ञात होतेही नहीं, ऐसा नहीं आता है।
ज्ञानका ऐसा स्वभाव है, उसमें ज्ञात होता है। परन्तु उसकी परिणतिकी दिशा स्वकी ओर हो गयी है। दृष्टि गुणके भेद नहीं करती। एक ज्ञायक अभेदको ग्रहण करती है। इसलिये उसमें अनन्त गुण नहीं है, उसका लक्षणभेद, संख्याभेद कुछ नहीं है? उसमें पर्याय नहीं है? पर्याय-परिणतिका स्वभाव नहीं है? सब है। वैसे इसमें, वह परद्रव्य है। परद्रव्य है, लेकिन इसमें ज्ञात ही नहीं होता है, ऐसा नहीं आता है। अपेक्षा समझनी चाहिये। उसकी अपेक्षा तो बराबर समझमें आये ऐसी है। एक ही बातको खीँचता रहे तो उसमें खीँचातानी हो जाय।
.. दृष्टि प्रगट कर। पूरी दिशा इस ओर हो जाय, पूरी दिशा बदल जाय। विभावदशामेंसे स्वभावदशा हो जाय। पूरा पलटा, जात्यांतर हो गया। कहाँ विभाव, कहाँ आकुलता और कहाँ शान्ति और कहाँ ज्ञानधारा, सब अलग हो जाता है। जगतसे अलग हो
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जाता है। अनादि कालसे... स्वयंका है, ... तो स्वयं अपनी ओर कर्तापना अपनेमें, कर्म अपना, क्रिया अपनी वह नहीं करता है, और बाहरमें मानों मैं दूसरेका कर सकता हूँ। मैं दूसरेका सब कर सकता हूँ। दूसरेका सब कर सकता हूँ। कर नहीं सकता है और सकता हूँ ऐसा मानता है। स्वयं स्वयंका कर सकता है, परन्तु पूरा ऊलटा (हो गया है)। जूठी मान्यता, भ्रम बुद्धि हो गयी है।
बहुभाग तो क्रियामें रुकता है। कुछ धर्म करने जाय और क्रियामें (अटके)। उससे आगे जाय तो शुभभावमें अटकता है। परन्तु अंतरमें आना जीवको अत्यंत दुर्लभ हो जाता है। और कुछ रुचि हो तो पुरुषार्थ करना कठिन पडता है। ऐसा है। अभ्यास करता रहे। ऐसे करते-करते उसे अंतरमेंसे ज्ञाताधाराका कोई उग्र वेग आये तो पलटे। उग्रताके बिना होता नहीं। मन्द-मन्द पुरुषार्थसे (नहीं होता)। जोर करने जाय तो भी नहीं हो सकता। वह तो स्वयं अंतरसे पलटे तो हो ऐसा है। क्यों नहीं होता है? ऐसे हठ करने जाय तो भी हो सके ऐसा नहीं है। उपवास करना हो तो भोजन छोड दे। यह ऐसा नहीं है।
कहीं चैन पडे नहीं, तब स्वयंको खोजे न। चैन कहीं और पडता है, अतः स्वयंको खोजता नहीं। विचार कर-करके छोड देता है। आत्माका करना है। ऐसा विचार, विकल्प करके छोड देता है। छोड देता है, जैसा था वैसा करने लगता है। आत्माका करना है, ऐसा विचार आकर, भावना आकर छूट जाता है। अन्दर भावना रहा करे, परन्तु कहीं और चैन पड जाता है, अनादिका अभ्यास है इसलिये। उसीका आश्रय ले लेता है।
वह कहते हैं न? किसके आश्रयसे मुनिपना पालेंगे? शास्त्रमें आता है। आत्माके आश्रयसे पालते हैं। उसे स्वयंको स्वयंका आश्रय है, अन्यका आश्रय नहीं है। ऐसे स्वयं स्वयंका आश्रय लेना अन्दरमें सीखे। निराश्रय हो गये, अब कहाँ जायेंगे? आप शुभभाव, पंच महाव्रत सबके आश्रयकी ना कहो तो मुनिओंको शरण किसका? पंच महाव्रत आदि सबको आपने शुभभाव कहा। मुनि किसके आश्रयसे मुनिपना पालेंगे? मुनिने ये सब व्रत धारण किये हैं। तो कहते हैं, स्वयं स्वयंके आश्रयसे (हैं)। मुनि अशरण नहीं है। स्वयं स्वयंमें निरत रहते हैं। स्वयं स्वयं, चैतन्य चैतन्यका आश्रय लेता है।
आचार्यदेव कहते हैं, एक बार तू भिन्न होकर देख तो सही। उसका कौतूहली होकर अंतर्मुहूर्त भी अंतरमें देख तो सही। आत्माका आश्रय लेनेमें, दूसरा आश्रय छोडनेमें ही उसे ऐसा हो जाता है कि निराश्रय हो जाऊँगा, किसके आश्रयमें जाऊँ? अपना आश्रय लेनेमें भी उसे दिक्कत होती है। स्वयं स्वयंके आश्रये मुनिपना (पालते हैं)। मुनि किसके आश्रयसे मुनिपना पालेंगे? शुभभाव तो बीचमें आते हैं। आश्रय किसका? मुनिपना
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तो लिया। तो उन्हें पंच महाव्रत है, उसका आश्रय है। उसका आश्रय वह नहीं है, उनका आत्मा शुद्धात्मा है। इसलिये स्वानुभूतिके आश्रयसे स्वयं मुनिपना पालते हैं। क्षण- क्षणमें, क्षण-क्षणमें स्वानुभूतिमें लीन होते हैं। वह उनका आश्रय है। बस, अंतर्मुहूर्त- अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूतिमें ही मुनि लीन होते हैं। वह उनका आश्रय है। उसमें लीन होते- होते उन्हें वीतरागदशा प्रगट होती है।
उनकी परिणति इतनी स्वरूपकी ओर चल गयी है, विभावसे इतनी हठ गयी है, विभावसे इतनी विरक्ति आ गयी है कि स्वयं स्वयंमें ही समा जाते हैं। ऐसी विरक्ति आयी है इसलिये तो मुनिपना अंगीकार किया है। गृहस्थाश्रममें रह नहीं सके ऐसी दशा आ गयी इसलिये मुनिपना अंगीकार कर लिया। स्वयं स्वयंमें ही लीन होते हैं, अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूार्तमें।
.. ऐसा हो जाता है कि अब गृहस्थाश्रममें रह नहीं सकूँगा। इतनी लीनतामें परिणति वर्धमान हो जाती है कि रह नहीं सकूँगा। अभी प्रमत्त-अप्रमत्त दशा साक्षातरूपसे नहीं आती है, परन्तु उसकी भावनाकी परिणति ऐसी हो जाती है कि स्वयं बाहर विकल्पमें ज्यादा रह नहीं सकता है, ऐसा उसे हो जाता है। इसलिये मुनिपना अंगीकार करता है। फिर छठ्ठा-सातवाँ गुणस्थान तो मुनिपना अंगीकार करता है, तब आता है साक्षातरूपसे। परन्तु उसकी भावनारूपसे विरक्तिकी परिणति ऐसी हो जाती है। शास्त्र लिखे, सब लिखे तो भी क्षण-क्षणमें अंतरमें चले जाते हैं। क्षण-क्षणमें अंतरमें चले जाते हैं।
(सम्यग्दृष्टि, श्रावक) निराले हो गये हैं। स्वानुभूतिमें उसकी दशा अनुसार जाते हैं। परन्तु मुनि तो क्षण-क्षणमें जाते हैं। ऐसा करते-करते आत्मामें जो पूर्ण ज्ञान है, वह प्रगट होता है। आत्माकी अनन्त शक्तियाँ प्रगट होती है। भगवान अपने पास है। स्वयं ही है चैतन्य भगवान। एकत्वबुद्धि और भेदज्ञानकी धारा, बस, वही उसका मार्ग है। एकत्वबुद्धि अपनेमें, परसे विभक्त-भेदज्ञानकी धारा। स्वमें अभेद दृष्टि है और परसे भेदज्ञान। वह उसका मार्ग क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें सहज धारा बढते-बढते स्वानुभूतिको प्रगट करके फिर पहुँचता है। दृष्टिमें गुणका भेद नहीं आता, परन्तु ज्ञानमें गुणभेद, पर्यायभेद सब जानता है। वस्तुका स्वरूप ज्ञान (जानता है)। परिणति दृष्टिके बलसे आगे जाती है।