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समाधानः- आत्मा और आस्रवका भेद करना है, वह करनेका है। आस्रव सब आकुलतारूप है। सबको यह करनेका है। निराकूल स्वभाव आत्मा भगवान है। भगवान आत्मा विज्ञानघन है, उसे भिन्न करना। यह करना है। यह विभावभाव तो विपरीत स्वभाव है। स्वयं चैतन्य है, जाणक ज्ञायक स्वभाव है। भिन्न है। वह दुःखरूप है, दुःखका कारण है, दुःखका कार्य उसमेंसे आता है। दुःखका फल आता है। सब उसमेंसे आता है। आत्मा सुखका धाम है, सुखका कारण है, सुखका कार्य उसमेेंसे आता है। सब आत्मामेंसे आता है। आत्मा स्वयंको जानता है, स्वपरप्रकाशक है। वह कुछ नहीं जानता है- विभाव स्वयं स्वयंको जानता नहीं, परको जानता नहीं, आत्माको जानता नहीं। आत्मा सबको जाननेवाला है, ऐसा ज्ञायक स्वभाव आत्मा है। उसका भेदज्ञान करना, वही जीवनका कर्तव्य है।
अरु दुःखकारण जानके, इनसे निवर्तन जीव करे।।७२।।अरु दुःखकारण जानके, इनसे निवर्तन जीव करे।।७२।।
उससे निवृत्ति हो। ज्ञायक आत्माको जाना कब कहा जाय? कि उससे निवृत्त हो। विभावसे निवृत्त और स्वभावमें परिणति प्रगट हो। समयसारमें आता है न, वह कहती हूँ। वह सबको करने जैसा है।
आनन्दघन आत्मा, उसे प्रगट करना है। आनन्दका घन है, ज्ञानका घन है। आनन्दसे भरा है, ज्ञानसे भरा है। अनन्ततासे भरा है। अनन्त गुणोंसे भरा है। उसकी परिणति प्रगट करे और विभावसे निवृत्ति हो, यह करना है। अन्दरकी प्रवृत्ति प्रगट हुयी-पर्याय प्रगट हुयी कब कहा जाय? विभावकी निवृत्ति हो। विभावकी निवृत्ति हुयी कब कहा जाय? कि स्वभावमें प्रवृत्ति हो, स्वभावका वेदन हो तो विभावकी निवृत्ति हुयी। तो विभावसे भेदज्ञान हुआ ऐसा कहा जाय।
आस्रव सब मलिन हैं, आत्मा पवित्र उज्जवल है। उज्जवलतासे भरा, पावनतासे भरा हुआ आत्मा है। उसे प्रगट करने जैसा है। वही ध्येय रखने जैसा है। उसका लक्ष्य, उस ओर परिणति। आत्माका स्वभाव पहचाने, विभावका स्वभाव पहचानकर उसका भेद करके स्वमें एकत्वबुद्धिकी परिणति (और) परसे विभक्तबुद्धि करने जैसा है। कर्ता-कर्मकी
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प्रवृत्तिमें जीव अनादि कालसे अटक गया है। परको मैं कर सकता हूँ और पर मेरा कार्य है। स्वभावरूप परिणमन करनेवाला मैं और स्वभाव मेरा कार्य, वह परिणति प्रगट हो तो वह मुक्तिका कार्य है। आत्मा ज्ञानका धाम है, सुखका धाम है, सब उसमेंसे प्रगट होता है। वह सत्य आश्रय है, आत्मा द्रव्यका आश्रय।
आस्रव है वह अपना पराश्रय भाव है। शुभभाव बीचमें आते हैं। उसमें देव- गुरु-शास्त्रका आश्रय होता है। परन्तु चैतन्यके आश्रयपूर्वक, चैतन्यका आश्रय प्रगट हो, उस पूर्वक होना चाहिये, उसके ध्येयपूर्वक। स्वयंका आश्रय वह सत्य आश्रय है। यह स्वाधीनता है, वह पराधीनता है। उसका सान्निध्य कैसे प्रगट हो? वह परिणति प्रगट करने जैसी है। यह सान्निध्यता तो उसे मिली, लेकिन अंतरका सान्निध्य कैसे प्रगट हो? वह करने जैसा है। उसकी समीपता कैसे प्रगट हो? सुखका धाम, ज्ञानका धाम कैसे प्रगट हो? उसकी परिणति प्रगट कर। प्रथम वह करने जैसा है, सबको यह करना है। ये तो बैठे हैं, उनको ... ऐसा नहीं है, सबको करने जैसा है।
... और उसे स्वभावपरिणति प्रगट हो उसमेंसे अनन्त गुण-पर्याय प्रगट हो। ऐसे उसमें अनन्त गुण-पर्याय कोई अपूर्व है। सिद्धदशामें उसके गुणकी पर्यायें कोई अपूर्व प्रगट होती हैं। स्वानुभूतिमें भी उसकी गुण-पर्यायें प्रगट होती हैं। ऐसे अनन्त-अनन्त गुणोंसे भरा, जिसका पार नहीं है और अदभूत आश्चर्यकारी तत्त्व है। उसीका आश्चर्य करने जैसा है, उसीकी अदभूतता करने जैसी है। परपदार्थ कोई अदभूतरूप नहीं है या आश्चर्यरूप नहीं है या सुखरूप नहीं है या सुखका कारण भी नहीं है।
आत्मा ही सुखका कारण और अदभूत एवं आश्चर्यकारी तत्त्व है। उसीका आश्चर्य करने जैसा है। और उस आश्चर्यके ध्येयसे, बस, जीवन वह जीवन है। बाकी सब तो बाहरका विषय है। उसके ध्येयपूर्वकका जीवन वह वास्तविक जीवन है।
द्रव्यदृष्टि करके उसका ज्ञान करे। नहीं तो परिणति कैसे जाय? स्वसे एकत्व और परसे विभक्त, ऐसी भेदज्ञानकी परिणति क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें प्रगट करता हुआ, अपने समीप होकर स्वानुभूति प्रगट करे, वही करने जैसा है।
(गुरुदेवने) भेदज्ञानका मार्ग बताया है। कोई जानता नहीं था। सब क्रियामें धर्म मानते थे। शुभभावसे धर्म होता है, ऐसा मानते थे। शुभभाव तो पुण्यबन्धका कारण है, आकुलतारूप है, पराधीन है। आत्मा स्वयं शुद्धात्मा वही सुखरूप है, वह स्वाधीन है, वही आत्माका स्वयंका स्वभावभूत भाव है। वह तो विभावभाव है, ये तो स्वभावभूत भाव है। वह करने जैसा है। गुरुदेवने यही बताया है। निर्विकल्प-विकल्प तोडकर निर्विकल्प दशा, ज्ञाताकी धारा उग्र करके विकल्प तोडकर निर्विकल्प दशामें जो स्वानुभूति हो, वही करने जैसा है और वही स्वानुभूतिका मार्ग गुरुदेवने बताया है, ऐसी निर्विकल्प
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दशाका।
गुरुदेव इस पंचमकालमें कोई अदभूत, कोई अदभूत प्रगट हुए थे। पंचमकालका यह महाभाग्य कि उनकी वाणी कोई अदभूत और वह आत्मा भी अदभूत (थे)। पंचमकालका ऐसा ही कोई भाग्य कि सबको गुरुदेव मिले। ... जीवनका ध्येय यह (होना चाहिये)।
.. दशा प्रगट हो तो वही मुक्तिका मार्ग है। उसीमें मुनिदशा, केवलज्ञान, स्वानुभूतिके मार्गमें ही प्रगट होता है। ज्ञाताधाराकी उग्रता हो, उसीमें त्याग समाविष्ट है। वास्तविक त्यागकी परिणतिमें उसमेंसे प्रगट होती है। वही करने जैसा है। क्षण-क्षणमें मुनिओं तो स्वानुभूतिमें, बारंबार स्वानुभूतिमें लीन होते हैं। बाहर आना भी, आये तो भी टिक नहीं सकते। तुरन्त अंतरमें चले जाते हैं। ऐसा करते-करते केवलज्ञानकी प्राप्ति करते हैं। शाश्वत अंतर आत्मामें, कोई आश्चर्यकारी आत्मामें जम जाते हैं। आनन्दके धाममें अनन्त गुणका जो खजाना है, उसमें जम जाते हैं। सादिअनन्त काल। गुरुदेव...
.. मानों गुरुदेव मन्त्र ही देते हों। जो उन्होंने मन्त्र दिये, वह मन्त्र हृदयमें उत्कीर्ण कर लेने जैसे हैं। ज्ञायक तो स्वयंके पास है। उनके द्वारा दिये गये मन्त्र अन्दर उत्कीर्ण कर लेना। ज्ञायकके साथ गुरुदेवके मन्त्र उत्कीर्ण हो जाय तो ज्ञायक स्वयं स्वयंके रूपमें परिणमित हो जाय। गुरुदेवने ज्ञायकका ही मन्त्र दिया है।
.. जो मन्त्र दिये हैं, उसे ग्रहण कर लेना। .. प्रवृत्ति छूट जाय और ज्ञाताकी धारा प्रगट हो। ... ज्ञायक स्वभावमें रह तो... उस दिन कहा। अन्दर ज्ञायकको पहचानो, द्रव्य पर दृष्टि करो, अर्थात उसमें भेदज्ञान करो, स्वकी एकत्वबुद्धि, परसे विभक्त और भेदज्ञान करो। स्वभाव है, उसमें पूरा स्वभाव ज्ञात हो जायगा।
स्वभावभूत क्रिया आता है न? विभावकी क्रिया,... कर्ता-कर्मकी प्रवृत्ति है तबतक विभावकी क्रिया है। यह तो स्वभावभूत क्रिया है। स्वभावभूत क्रियाके साथ आत्माको तादात्म्य सम्बन्ध है। ... वह सम्बन्ध तो मूल है। आत्माकी स्वभावभूत क्रियाके साथ तो ज्ञानका तादात्म्य सम्बन्ध है। उसमें बन्धका अभाव होता है। वह कर्ता, कर्म, क्रियाकी प्रवृत्ति है। विभावके साथ सम्बन्ध है।
क्राधादिमें क्रोधादि परिणमते हैं। उसमें क्रोधादिमेंसे क्रोधादि आते हैं। क्रोध कहकर सब विभाव ले लेना। क्रोधादिमेंसे क्रोधादि पर्याय आती है। उसीका वेदन होता है, वही दिखे। और ज्ञानमें ज्ञानका दर्शन होता है, ज्ञान मालूम पडता है, ऐसा शब्द शास्त्रमें आता है। इसमेंसे कोई-कोई शब्द कर्ता-कर्म अधिकारके बोलती हूँ। कोई-कोई गाथा परसे उसका अर्थ आये और कोई शब्द टीकाके आये।
आस्रव है वह दुःखरूप है, आकुलतारूप है, विपरीत है। आत्मा स्वयं सुखका धाम है। आत्माका स्वयंका स्वभाव है। वह तो विपरीत स्वभाव है। वह दुःखके कारण
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है। आत्मा सुखका कारण है। ऐसा निश्चय करके, ऐसा जानकर उससे जीव निवर्तन करता है। निवृत्त होता है।
अन्दसे वास्तविक ज्ञान दशा प्रगट हुई कह कहनेमें आये? कि आस्रवकी निवृत्ति हो तो। आस्रवकी निवृत्ति न हो तो उसे ज्ञानदशा प्रगट ही नहीं हुयी। एकत्वबुद्धि टले नहीं तो उसे ज्ञानदशा प्रगट ही नहीं हुयी है। यदि स्वयंकी स्वभावकी प्रवृत्ति हो और विभावकी निवृत्ति हो अर्थात उसका भेदज्ञान हो, आंशिक निवृत्ति हो, अल्प अस्थिरता रहती है, तो उसे वास्तविक आस्रवोंकी निवृत्ति आयी (और) स्वभावकी प्रवृत्ति हुयी। तो उसे ज्ञानका अंश प्रगट हुआ, ज्ञानदशा प्रगट हुयी।
अज्ञानदशामें तो कर्ता-कर्मकी प्रवृत्ति, एकत्वबुद्धि है उसमें कर्ता-कर्मकी प्रवृत्ति है। स्वभावभूत क्रिया प्रगट हुयी। स्वभावका कर्ता, स्वभावकी क्रिया। वह तो विभावकी क्रिया है। कर्ता और विभावकी क्रिया थी। आचार्य तो इतना गंभीर शब्द रखते हैं..। ... प्रगट होती है। क्षयोपशमज्ञानका जो खण्ड पडे, उसके जो विशेष हो, उसे भी तोडकर अखण्ड पर दृष्टि करता है। अखण्ड ज्ञान प्रगट होता है। मैं अखण्ड ज्ञायक ही हूँ। उसमें मति, श्रुतका भेद, क्षयोपशमके विशेष उसमें गौण है। उस पर दृष्टि नहीं रहती।
वह आता है-परपरिणतिको तोड देता है, भेदके कथन जिसमें छूट जाते हैं। क्षयोपशमके विशेष, उस परसे दृष्टि छूटकर स्वभावकी ओर जाती है। अखण्ड एक आत्मा प्रचण्ड ज्ञान प्रगट होता है। बलवान, स्वयं पुरुषार्थ करके... उसमें था... आत्मामें प्रचण्ड ज्ञान प्रगट होता है-उदय होता है। परपरिणतिको तोड देता है। राग-ओर जो परिणति जाती थी, वह टूट जाती है। स्वभावकी परिणति प्रगट होती है। भेद.. भेद.. भेद.. पर जो दृष्टि जाती थी, वह दृष्टि टूटकर स्वभावकी अनुभूति हुयी। स्वभावकी ओर परिणति दौड गयी। इसलिये उसमें विशेष खण्ड पडते थे, वह खण्ड खण्ड रहा नहीं और अखण्ड ज्ञान प्रगट हुआ।
अभी पूर्ण होनेमें तो देर है। ऐसा ... पहले प्रगट हो, तब उसे सच्चा ज्ञान प्रगट हो। स्वानुभूतियुक्त। उसमें ज्ञानकी परिणति प्रगट हो, अखण्ड उद्योरूप अखण्ड एक प्रचण्ड ज्ञान प्रगट होता है अभेद, जिसमें भेदके कथन भी नहीं है। भेद पर दृष्टि भी नहीं है। ऐसा ज्ञान प्रगट हुआ। उसमें कर्ता, क्रिया, कर्मकी प्रवृत्ति कहाँ खडी रहे? स्वभावकी प्रवृत्तिके आगे विभावकी प्रवृत्ति तो कहीं दूर भाग जाती है। विभाव प्रवृत्ति तो अल्प हो जाती है। उसकी एकत्वबुद्धि टूट गयी इसलिये विभावकी प्रवृत्ति भी टूट गयी। उसमें आखीरमें ऐसा कहते हैं। आस्रवसे निवृत्त हो गया। अनन्त गया इसलिये निवृत्त ही हो गया, ऐसा कहते हैं। दृष्टि-सम्यग्दर्शनके हिसाबसे निवृत्त हो गया। अल्प रहता है,
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उसे वहाँ समयसारमें गौण कर दिया है। परपरिणति तोड दी। अल्प है तो तोड दी। जो मूल था, उसका मूल एकत्वबुद्धि टूट गयी तो सब टूट गया। स्वभावकी ओर परिणति दौडी जाती है। स्वभावका मूल ग्रहण हुआ तो सब आत्मामेंसे, उसके अनेक जातके अंकूर आत्मामेंसे (प्रगट होते हैं)। अनन्त गुणकी फसल उसमेंसे आने लगी। विभावकी फसल अल्प हो गया और वह फसल होने लगी, चैतन्यकी ओर। चैतन्यमेंसे ग्रहण किया, ुउसके मूलमें दृष्टि और ज्ञानका सिंचन हुआ तो अब चैतन्यमेंसे सब फसल होती है।
चैतन्यकी शुद्ध निर्मल पर्याय, उसके गुणमेंसे सब प्रगट होती है। वह फसल शुरू हो गयी। उसमेंसे नयी-नयी फसल ऊगती है। वह फसल टूट गयी, वह तो अब सूख जायेगी। थोडे-थोडे हरे पत्ते रहेंगे तो थोडे काल बाद सूख जायेंगे। क्योंकि अब उसे पानीका सिंचन नहीं मिल रहा है। उस ओर परिणति टूट गयी, अब अल्प परिणति रही। पहले तो विभावको सिंचन मिलता था। उसकी पर-ओर दृष्टि बलवान थी। इसलिये वह विभावकी ओर एकत्वबुद्धिसे दौडता था। उसमें उसका रस और सिंचन करता था। एकत्वबुद्धिका बल था उसका सिंचन करता था। उसका ज्ञान उस ओर जाय, उसकी दृष्टि उस ओर जाय, उसकी परिणति अस्थिरताकी, श्रद्धा उस ओर जाय। इसलिये उसे सब सिंचन मिलता था, इसलिये विभावकी फसल ऊगती थी। एकके बाद एक जन्म धारण करे और एकके बाद एक विभाव, अन्दरसे अनेक जातकी विभावकी परिणति प्रगट होती ही रहे, विभावकी ही फसल अनन्त कालसे ऊगती थी।
अब दृष्टि बदल गयी। दृष्टि, ज्ञानकी परिणति सब आत्माकी ओर गयी इसलिये सब सिंचन आत्माके मूलमें होने लगा, इसलिये आत्मामेंसे फसल ऊगी। अब आत्मामेंसे नयी-नयी फसल आत्मामेंसे आने लगी। वह तो आत्मामें सब भरा था। परन्तु वह सिंचन नहीं करता था, इसलिये वह प्रगट नहीं होता था। उसके मूलमें तो सब था ही। स्वभाव सुखधाम, आनन्दधाम आत्मा ज्ञानधाम आत्मा था, परन्तु उस ओर जाता नहीं था, इसलिये उसकी फसल नहीं होती थी।
विभावमें तो कुछ नहीं था। तो भी उस ओर जाकर स्वयं दुःखकी फसल बोता था। दुःखके पर्वत खडे करता था, उस ओर दृष्टि करके। इसमें तो अनन्तता भरी है। सुखधाम, आनन्दधाम अनन्त-अनन्त भरा है। इसलिये अनन्त फसल आयेगी। क्रम-क्रमसे वह फसल ऐसी आयेगी कि उसमेंसे अब सूखेगा ही नहीं। उसमें तो (-विभावमें तो) वह फसल ऊगे और पुनः उसमें सिंचन करता ही रहे। ये तो ऐसा फसली है कि हरभरी फसल रहेगी। उसका सिंचन करता रहे। फिर तो उसे सिंचन भी नहीं करना पडेगा। उसकी फसल ऐसे ही रहेगी। जो फसल ऊगी वह ऊगी, सादिअनन्त (रहेगी)। कहते हैं न, वृक्षको मूलमेंसे पानी मिलता रहे, तो फिर पानी डालना ही नहीं पडे।
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ये तो चैतन्य स्वयं शक्तिओंसे भरपूर है। इसलिये उसकी साधना अमुक समय रहती है, फिर साधना पूरी हो जाती है। तो वह तो जो प्रगट हुआ सो हुआ, सादिअनन्त (रहेगा)। जो हराभरा हो गया सो हो गाय, अब सूखनेवाला नहीं है। उसके मूलमेंसे ही उसे सब मिलता रहता है। मूलमेंसे चैतन्य स्वयं उस रूप परिणमित हो गया। हरियाली छा गयी, अब सूखनेवाली नहीं है। अपूर्ण हो तबतक साधना करता रहे। पूर्ण हो गया, फिर सूखेगा नहीं। वह बादमें सूख जायगा। धीरे-धीरे उसका क्षय हो जायगा।
अनन्त काल पर्यंत उसकी फसल आती ही रहेगी। सूखेगा नहीं और अनन्त फसल आयेगी उसमेंसे। ... फिर नये होते हैं, विभावमें तो ऐसा होता है। अनन्त काल तक, सुखका धाम, सुख ही उसमेंसे प्राप्त होता रहेगा।
.. वहाँ उसे अब इच्छा भी कहाँ रही है। परिपूर्ण हो गया है। (साधनामें तो) सिंचन भी करता है, फिर तो सिंचन भी नहीं करना पडेगा। फसल ऊगती ही रहेगी। साधनका सिंचन करता है। फसल ऊगती ही रहेगी।