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समाधानः- ... दृष्टि उठाकर और दृष्टि एक चैतन्य पर स्थापित करने जैसा है। उसे स्थापित करके उसकी दृष्टि की, उस ओर ज्ञान और परिणति सब उस ओर मोडकर वह करना है। बुद्धिमें ग्रहण करके भी अंतर परिणति पलटनेकी जरूरत है। गुरुदेवने यह कहा है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! आप कहते हो कि सबसे भिन्न आत्मा है, दृष्टि उस पर करनी, वह सब तो थियरी हुयी, बात हुयी, परन्तु दृष्टि अन्दर ले जाते हैं, परन्तु पकडमें क्यों नहीं आता है? आप, ग्रहण करना ऐसा कहते हो, परन्तु ग्रहण क्यों नहीं होता है? उसे कैसे ग्रहण करना?
समाधानः- बुद्धिमें ग्रहण किया, परन्तु अंतरमें उसका स्वभाव पहचानकर ग्रहण करना।
मुमुक्षुः- स्वभावको पहिचाना कि तेरा स्वभाव तो शुद्ध है, परिपूर्ण है, एक है, अखण्ड है, नित्य है। और द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मसे तू तो त्रिकाल रहित है, ऐसा शुद्ध परमात्मतत्त्व अंतरमें विराजमान है। उसे विचारधारामें लेते हैं, ज्ञानधारामें लेते हैं, श्रद्धाकी धारा भी मोडकर हम उसी तत्त्वको पकडनेकी महेनत करते हैं। एकान्तमें बैठकर, ध्यानमें बैठकर उस चीजको पकडनेके लिये (प्रयास करते हैं), फिर भी वह चीज पकडमें नहीं आये और एक विकल्प, पर्याय और द्रव्यके बीच अवरोधरूप रहा करता है, उस विकल्पको छेदकर पर्याय द्रव्यको कैसे और कब ग्रहण करे? उस विकल्पको कैसे चिर दे, ये बताइये।
समाधानः- विकल्पका भेद करना। चैतन्यकी ओर उसकी परिणतिका जोर आये, दृष्टिका जोर आये और उसीकी ओर उसीकी तमन्ना लगे, उसकी लगन लगे, विकल्पमें आकुलता लगे, चैन पडे नहीं और उस ओर दृष्टिका जोर हो, परिणतिकी दौड लगे, पुरुषार्थका बल हो तो उस ओर जाय। जबतक बाहरमें एकत्वबुद्धिमें अकटता है, भले बुद्धिमें ग्रहण करे परन्तु एकत्वबुद्धिमें अटके तबतक वह टूटता नहीं। अपने स्वभावका जोर हो तो वह टूटे ऐसा है।
मुमुक्षुः- जोर प्रगट करनेकी कोशिष, उसकी महेनत करते हैं, एकत्वबुद्धि तोडकर
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जहाँ कभी एकत्वबुद्धि हुयी नहीं, वहाँ एकत्वबुद्धि करनेका प्रयत्न करते है। यही रीत है, यही मार्ग है, इसी दिशामें तेरी ज्ञानकी परिणतिको अन्दरमें जोर दे। परिणति पर लक्ष्य मत रख, परिणतिके विषय पर लक्ष्य रखकर आगे बढे, सब थियरी तो ऐसी पक्की समझमें आ गयी है। उस दिशामें महेनत..
समाधानः- वह थियरी तो गुरुदेवने इतनी स्पष्ट कर दी है कि कहीं भूल न हो। बाहरसे छुडाकर सबको अंतरमें पहुँचाया है।
मुमुक्षुः- बराबर है, सबको पहुँचाया है। उस स्थितिमें तो सबको ले आये हैं। लेकिन सब जीव एक जगह अटके हैं। कहाँ.. वह विकल्पका परदा, विकल्प भी करे कि मैं तो ज्ञायकमात्र हूँ, दूसरा कोई विकल्प नहीं। रंग, राग, भेदसे मैं तो सदा भिन्न हूँ। परन्तु मैं तो एक ज्ञायकभाव हूँ। ऐसा विकल्प, मैं ज्ञायकभाव हूँ, ऐसा निश्चयनयका पक्ष, ऐसा निश्चयनयका विकल्प, उस विकल्पको तोडकर निर्विकल्प अनुभूतिमें जाना, उतनी ही देर है, लेकिन बहुत समय लगता है। क्यों जाया नहीं जाता, यह प्रश्न होता है।
समाधानः- वह स्वयंके पुरुषार्थकी कमजोरी है। दूसरा कोई कारण नहीं है। प्रज्ञाछैनी जोरसे वहाँ पटकनी वही करना है। भेदज्ञानकी धाराका बल, ज्ञाताधाराकी उग्रता करनी कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, उस ज्ञाताधाराकी उग्रता हो, क्षण-क्षणमें उसकी उग्रता, एक बार करनेसे नहीं होता। क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें चलते-फिरते, खाते-पीते, उठते- बैठते, निद्रामें, स्वप्नमें मैं ज्ञायक हूँ, उतनी भेदज्ञानकी ज्ञाताधाराकी अंतरमें उग्रता करे तो उसे विकल्प टूटता है। जिसे होता है उसे अंतर्मुहूर्तमें होता है, न हो वह ऐसा अभ्यास निरंतर करे तो उसे विकल्प टूटनेका प्रसंग आये। एक-दो बार करे और विकल्प टूटे (ऐसी अपेक्षा रखे तो) ऐसे तो होता नहीं, उसे निरंतर उसका अभ्यास करना चाहिये। यह मेरा स्वघर, मेरे घरकी प्रीति, ज्ञायक ज्ञाता.. ज्ञाता.. ज्ञाता... वह ज्ञाता ही अपनी परिणतिमें गूँथ जाना चाहिये। शरीर और विकल्पकी जैसे एकमेक घटमाल हो गयी है, वैसे अन्दर आत्माका घुटन हो जाना चाहिये।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! आपने यह कितने साल घुटन करके प्राप्त किया? सामान्य समय (पूछता हूँ), मिलान हो सके इसलिये।
समाधानः- वह तो अंतरकी उग्रता हो तो थोडा समय भी लगे।
मुमुक्षुः- आपको तो उग्र है। तो उग्रतामें आपको कितना समय लगा था?
समाधानः- वह तो छः महिनेमें भी हो जाता है।
मुमुक्षुः- ऐसे नहीं, आपकी बात कीजिये। दो-पाँच साल ऐसा खूब अभ्यास किया था?
समाधानः- दो-पाँच साल लगे ही नहीं है।
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मुमुक्षुः- वही पूछता हूँ। बहुत अल्प समयमें...
समाधानः- बहुत अल्प समयमें छः-आठ महिनेमें ही हो गया था।
मुमुक्षुः- हम तो तीस-तीस सालसे (लगे हैं), आप कहते हो पूरा दिन उसका अभ्यास चाहिये, पूरा दिन उसीका घुटन होना चाहिये। जीवनमें वर्तमानमें ध्येय यह एक ही किया है। फिर भी अभी आत्मा सामने दिखे, उसे पकडने जाय तो छटक जाता है। सामने दिखे, पकडने जाय तो छटक जाता है। ज्ञानके अन्दर उसका प्रतिभास दिखे कि यह ज्ञायक है, यह तू है। ऐसा ज्ञान स्वीकार करे, ज्ञान कबूल करे, फिर भी उसे ग्रहण करके यह पकडा, पकडने जाय तो छटक जाता है। ऐसे थोडा-थोडा दूर हो जाता है। उसका जवाब तो आप कहोगे कि पुरुषार्थकी परिणति अभी जितनी चाहिये उतनी नहीं है, भेदज्ञानका बल जितना चाहिये उतना नहीं है। वह तो बराबर है।
समाधानः- मुझे तो विचारकी धारा कुछ एक साल, डेढ साल चली। छः- आठ महिनेमें उग्रता हो गयी। वह तो अंतरमें..
मुमुक्षुः- तो वह कोई पूर्व संस्कारका बल, पुरुषार्थका बल था, ऐसा ले सकते हैं?
समाधानः- पूर्वका संस्कार कह सकते हो, लेकिन पुरुषार्थ तो अभी करना है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ तो वर्तमानमें करनेका है। परन्तु पुरुषार्थके संस्कारका बल हो, तो वह पुरुषार्थ उस संस्कार पर जल्दी काम कर लेता है, ऐसा तो बनता होगा न?
समाधानः- जल्दी हो, लेकिन तैयारी तो स्वयंकी (होनी चाहिये)।
मुमुक्षुः- हाँ, उतनी तैयारी हो..
समाधानः- यहाँ इन लोगोंको कितने संस्कार पडे? यहाँ गुरुदेवके कितने सालके संस्कार सबको तैयार हो गये हैं। संस्कार अन्दर डाले तो कितने साल (हो गये)। वह सब पूर्वका गिन लेना। गुरुदेवने जो प्रवचन किये, वह सबने सुना, अंतरमें वह पूर्व ही था न। पूर्व संस्कार मान लेना।
मुमुक्षुः- हाँ, वह तो है। जरूर है। जो संस्कारका सिंचन हुआ उसका अमुक बल तो होता है।
समाधानः- उसका बल (है तो) सबको अन्दर आसान हो जाता है न।
मुमुक्षुः- हाँ, उतना आसान हो जाता है।
समाधानः- कोई ऐसा कहे कि पूर्वके संस्कार (थे)। तो संस्कार तो अभी गुरुदेवने बहुत दिये हैं।
मुमुक्षुः- दिये-दिये। चालीस-चालीस सालके संस्कार तो गुरुदेवने दिये ही हैं। उसका सिंचन भी हुआ है। वह पूर्व संस्कार ही है। पूर्व अर्थात पूर्व भवके ही संस्कार
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हो, ऐसा नहीं है।
समाधानः- इसलिये पुरुषार्थकी तैयारी तो स्वयंको ही करनी है।
मुमुक्षुः- स्वयंको ही करनी है। वह पूर्वके संस्कार भी व्यवहारका कथन है कि उस संस्कारके बलसे प्राप्त हुआ। निश्चयसे तो जब पुरुषार्थ करके प्राप्त करे तब पूर्व संस्कारके बलसे (प्राप्त हुआ), ऐसा व्यवहारसे कहा जाय।
समाधानः- हाँ, ऐसे व्यवहारसे कह सकते हैं, उस पर आरोप देकर। पूर्वके संस्कार तो व्यवहारसे (कहनेमें आता है)।
मुमुक्षुः- पूर्वके संस्कारको जागृत करनेमें भी वर्तमान पुरुषार्थ चाहिये।
समाधानः- वह स्वयंका वर्तमान पुरुषार्थ है। आत्मामें आनन्द भरा है, आत्मामें ज्ञान भरा है, परन्तु स्वयं अन्दरसे विकल्पको छेदकर पुरुषार्थ करे तो होता है।
मुमुक्षुः- विकल्पका छेद नहीं हुआ है, फिर भी आत्मा ज्ञानानन्दमय है, ऐसा स्वीकार, उसकी हकार तो अन्दरसे ऐसा आता है कि तू ही शान्तिका पिण्ड, आनन्दका पिण्ड, ज्ञानमूर्ति आत्मा है। उसमें तो थोडी भी शंका नहीं होती। अनुभव बिना। अनुभवपूर्वककी वाणी तो कोई और होती है।
समाधानः- वह तो उसकी दशा ही अलग है।
मुमुक्षुः- परन्तु अनुभव पूर्व भी ऐसा स्वीकार तो ऐसे जोरशोरसे आता है कि अहो! तू ज्ञानान्दमय है। परन्तु उसे पकडनेके लिये...
समाधानः- उसका अभ्यास क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें चलना चाहिये।
मुमुक्षुः- बोलो, वजुभाई! कितने दूर हो? वजुभाईको तो बहुत बार लिखता हूँ। तू स्वयं डाक्टर, तू स्वयं दर्दी और तू दर्दीका दर्द मिटानेवाला भी तू स्वयं है। बराबर है?
समाधानः- सब स्वयं ही है। गुरुदेवने अपूर्व वाणी बरसा दी। सबको कहीं भूल न रहे ऐसा कर दिया है।
मुमुक्षुः- बराबर है, उसमें तो.. इतना परोसकर गये हैं कि अहो! हमारे अहोभाग्य कि ऐसा साक्षात सुनने मिला।
समाधानः- सब कहाँ पडे थे, क्रियामें और शुभभावमें धर्म मानते थे। वहाँसे तो दृष्टि उठा दी, परन्तु अंतरमें द्रव्य-गुण-पर्यायके भेदमें भी तू मत अटक, एक द्रव्यदृष्टि कर। ज्ञान सब कर लेकिन दृष्टि एक आत्मा पर स्थापित कर।
मुमुक्षुः- ज्ञान भी दृष्टि करनेके लिये करनेका है न।
समाधानः- कितना सूक्ष्म गुरुदेवने दे दिया है।
मुमुक्षुः- ओहो..! क्या अन्दर सूक्ष्मतामें ले गये हैं! छेद-भेदकर कितनी सूक्ष्मतामें!
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कहाँ तुझे जाना है, तेरा धाम तुझे बता दिया, विश्रान्तिका स्थान बता दिया। यहाँ विश्रान्ति है, कहीं और नहीं है।
समाधानः- बता दिया। यहाँ शान्ति, यहाँ सुखका धाम, विश्रान्ति आनन्दका घर है। कृपा हो, वह तो स्वयं तैयार हो तो कृपा कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- तैयार भी ज्ञानी कर दे, दे भी दे ज्ञानी।
समाधानः- वह तो उसमें समा जाता है। उपादान-निमित्तका ऐसा सम्बन्ध ही होता है। उपादान जिसका तैयार हो उस पर गुरुदेवकी कृपा होती है।
मुमुक्षुः- बराबर है, बात तो ऐसी ही है।
समाधानः- वह तो ऐसा ही कहे कि गुरुदेव! आपने ही सब दिया है।
मुमुक्षुः- आत्मा दिया।
समाधानः- आत्मा दिया।
मुमुक्षुः- ऐसा कुछ नहीं, साक्षात प्रत्यक्ष देखे ऐसा कुछ नहीं?
समाधानः- जो तैयार हो उस पर कृपा होती है। वह तो ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- उसमें तो ऐसा ही है। परन्तु गुरुदेवकी अमुक कृपा हो, भले निमित्त, परन्तु उपादानको ऐसे उठा लिया, तू तैयार हो जा।
समाधानः- गुरुदेव तो वीतराग थे। उनकी कृपा कुदरती जिस पर कृपा हो..
मुमुक्षुः- तो भी वीतराग सर्वथा नहीं थे, किसी-किसी पर तो बहुत राग था।
समाधानः- वह तो देखनेवालेकी दृष्टि वैसी थी।
मुमुक्षुः- तो आप रागका पूरा इन्कार करोगे? गुरुदेवको राग था ही नहीं? गुरुदेवको पर्यायार्थिकनयसे राग नहीं था? अशुद्धनिश्चयनयसे राग नहीं था?
समाधानः- गुरुदेव तो वीतरागताके पंथ पर चलनेवाले वीतरागी ही कहेंगे न।
मुमुक्षुः- वीतरागताके पंथ पर थे, थोडा रागका भी पंथ था तो वीतरागताके पंथ पर कहें, नहीं तो वीतराग साक्षात हो गये कहलायेंगे।
समाधानः- ऐसा कहना ही नहीं चाहिये। शिष्य हो वह गुरुदेवको वीतराग..
मुमुक्षुः- मेरे गुरुको कोढ था ही नहीं।
समाधानः- शिष्य ऐसा ही कहे कि गुरुकी जिस पर कृपा हो, वह शिष्य तिर जाय। वीतरागी गुरु।
मुमुक्षुः- गुरुदेव तरणतारण कहलाते हैैं। तिर गये और तिरा दिया। तरणतारणका आरोप उन पर आये। हे गुरु! आप तिर गये। और आपके अनेक शिष्योंको आपने तारे।
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समाधानः- तार दिये। वह ऐसा नहीं कहेगा कि पुरुषार्थसे तिरा। गुरुदेवने तार दिया। पूरे हिन्दुस्तानके जीवोंको गुरुदेवने ही जागृत किये हैैं। पूरे भारतको। सबकी दृष्टि क्रियामें और शुभभावमें पडी थी। सबकी दृष्टि (वहाँ पडी थी)। गुरुदेवने दृष्टि दी ऐसा ही कहेनेमें आये न।
मुमुक्षुः- गुरुदेवने मुर्देको खडा कर दिया, हम तो ऐसा कहते हैैं। सब मुरदे थे, मुरदेके खडा कर दिया, जागृत किया।
समाधानः- मैं स्वयंसे खडा हो गया, ऐसा थोडे ही कहनेमें आये? गुरुदेवने दृष्टि दी और गुरुदेवने जागृत किये। गुरुदेवने जीवन दिया।
मुमुक्षुः- आप भले कहो, वे निमित्त थे। परन्तु हमको तो ऐसा लगता है, उन्होंने हमको खडा कर दिया, हाथ पकडकर हमें खडा कर दिया।
समाधानः- वह तो खडी ही किया है न। निमित्त-उपादानकी बात हो तब ऐसा कहनेमें आये, बाकी गुरुदेवने ही खडे किये हैं।
मुमुक्षुः- आपको निद्रामें, स्वप्नमें कई बार दर्शन हुए होंगे?
समाधानः- स्वप्नमें तो आते ही हैं गुरुदेव। यहाँ वषासे जीवन उस प्रकारका हो गया है, इसलिये स्वप्नमें तो आते हैं.
मुमुक्षुः- ऐसे कुछ बात कर जाते हैं?
समाधानः- उसमें क्या बात करें? कहा न, गुरुदेव तो वीतरागी थे।
मुमुक्षुः- वीतरागी थे, परन्तु कुछ बात तो करते होंगे।
मुमुक्षुः- स्वप्नमें तो आये, परन्तु ऐसे आये हैं कि नहीं? आये तो कहना, मुझे कहना, ऐसा रामजीभाई कहते थे। मुझे बुलाना।
मुमुक्षुः- सुना है, परन्तु बहिनश्री ऐसा कहे कि आज सुबह ही आये थे, गुरुदेव यहाँ पधारे थे, आपको देर हो गयी, गुरुदेव पधार गये।
समाधानः- गुरुदेव तो देवमें विराजते हैं। क्षेत्रसे दूर हो गये। बाकी साक्षात विराजते हैं। वे तो सीमंधर भगवानके पास जाते हैैं। बीचमें यह भरतक्षेत्र आ जाय और वे देखे भी, परन्तु हमको दिखाई नहीं दे।
मुमुक्षुः- भरतक्षेत्रकी याद आ जाय।
समाधानः- वे तो ज्ञानमें सब देखते हों।
मुमुक्षुः- सीमंधर भगवानके पाससे वापस मुडते समय मेरे शिष्यकी खबर ले लूँ, ऐसा उनको भी मन हो, थोडा राग अभी है, देवगतिमें ऐसा राग होता है। और देवगतिके जीवको क्रियावर्ती शक्ति हों, उसे यहाँ आनेमें कहाँ देर लगती है।
समाधानः- परन्तु भरतक्षेत्रके पुण्य हो तो यहाँ आये। बाकी उनको तो महाविदेहकी
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ओर सीमंधर भगवानके पास (जाते हैं)।
मुमुक्षुः- हमारे पुण्य थे इसीलिये तो पधारे थे, पुण्य खत्म नहीं हो गये हैं, ऐसा विचार क्यों न करें।
समाधानः- आते हों तो कोई देख भी नहीं सके। ... अपनी ओर एकत्वबुद्धिको दृढ करनी।
मुमुक्षुः- बाहरकी एकत्वबुद्धिको ढीली की है, इसलिये तो पुरुषार्थ और ज्ञानका व्यापार अंतरमें जाकर..
समाधानः- उसे तोड देना चाहिये।
मुमुक्षुः- तोड दे तो यहाँ आत्माका स्पर्श हो जाय। यहाँ एकत्वबुद्धि टूट जाय तो आत्माका स्पर्श हो जाय। यहाँ एकताबुद्धि टूट जाय तो आत्माकी एकताबुद्धि हो जाय।
समाधानः- तो उसका अभ्यास करे, अभ्यास करना चाहिये न। अभ्यास करे तो अपनी एकत्वबुद्धि हो।
मुमुक्षुः- अभ्यास करें कि मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ।
समाधानः- उस अभ्यासमें क्षति है।
मुमुक्षुः- कौन-सी क्षति है?
समाधानः- क्षति ही है, उसकी दृढताकी क्षति है। वह क्षति है।
मुमुक्षुः- आपने तो एक ही जवाब, दृढताकी क्षति है, पुरुषार्थकी कचास है, ज्ञानका जोर नहीं है।
समाधानः- लेकिन एक ही जवाब हो न। दूसरा क्या जवाब हो?
मुमुक्षुः- उसे कैसे प्राप्त करना? कि तू स्वयं कर तो हो। वह जवाब दोगे।
समाधानः- उसका एक ही जवाब है, दूसरा जवाब क्या हो? स्वयंको ही करना है।
मुमुक्षुः- कुछ विधि-विधान होगा न?
समाधानः- उसकी विधि एक ही है, ज्ञाताका भेदज्ञान करना, ज्ञाताको पहचानना, उसका पुरुषार्थ करना, एक ही उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। कोई कर नहीं देगा, कहींसे आनेवाला नहीं है। अपनेमें सब भरा है, अपनेमेंसे सब आयेगा और स्वयंको प्रगट करना है। कैसे करना? वह तो स्वयंको ही करना है।
मुमुक्षुः- जैसे-जैसे ज्ञानीका उपदेश सुनें, ज्ञानी जैसे-जैसे इस प्रकारकी विधि बताये, वैसे-वैसे यहाँ पुरुषार्थ उठता हुआ दिखे,..
समाधानः- विधि बताये बादमें करना स्वयंको बाकी रहता है। वे करवा नहीं
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देते।
मुमुक्षुः- हाँ, बताते हैं, तो करते हैं न?
समाधानः- वे बताते तो हैं कि तू तेरे ज्ञायकको पहिचान।
मुमुक्षुः- हाँ, परन्तु ज्ञायकको पहिचाननेकी इतनी महेनत करनेके बावजूद अभी दूर-दूर क्यों है?
समाधानः- महेनत करनेके बावजूद न हो तो महेनत करता ही नहीं।
मुमुक्षुः- तेरी महेनत की कच्ची है।
समाधानः- महेनत ही कच्ची है।
मुमुक्षुः- उसे पकानेकी बात...?
समाधानः- महेनत ही कच्ची है।
समाधानः- ... गुरुदेवने क्या मार्ग बताया है? विचार, वांचन, महिमा, अन्दरसे चैतन्यकी महिमा (आनी चाहिये)। देव-गुरु-शास्त्र क्या कहते हैं? उनकी महिमा, देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा, चैतन्यकी महिमा, वही विचार, उसीकी लगन लगनी चाहिये। बारंबार उसका अभ्यास करना चाहिये, तत्त्वका विचार करना चाहिये। वह करनेका है।
बाह्य क्रिया मात्र करे, शुभभाव करे तो पुण्य बन्धता है। उससे कुछ धर्म तो होता नहीं, देवलोक होता है। शुद्धात्माको-ज्ञायकदेवको पहचाने। विकल्प रहित निर्विकल्प तत्त्व आत्मा है, उसे पीछान। उसे पहचाननेको कहा है। भेदज्ञान करना। ये विभाव होते हैं वह मैं नहीं हूँ, मैं तो चैतन्य हूँ। ऐसा भेदज्ञान अंतरमेंसे करना चाहिये। उसके लिये उसकी जिज्ञासा होनी चाहिये। बाहरकी महिमा छूट जाय, अंतरकी महिमा आये तो होता है।
मुमुक्षुः- कोई वस्तु कठिन नही हैं।
समाधानः- कठिन नहीं है, लेकिन स्वयंका अभ्यास अनादिका दूसरा हो गया है इसलिये कठिन लगता है। स्वभाव अपना है, सहज है, परन्तु अनादि कालका अभ्यास दूसरा है इसलिये कठिन लगता है।
मुमुक्षुः- समझमें नहीं आये ऐसा कुछ...?
समाधानः- ऐसा नहीं है। स्वयंका स्वभाव है। समझे तो क्षणमें समझमें आये ऐसा है। गुरुदेव तो यहाँ पधारे...। गुरुदेव प्रवचनमें कोई अपूर्व बात करते थे। आत्माको पहचानना। उसके लिये शास्त्र स्वाध्याय, तत्त्व विचार आदि सब करना।
... स्वरूप है, विभावपर्याय भी उसका स्वभाव नहीं है। आत्मा कोई अलग अदभूत तत्त्व है, उसे पहचानना। ज्ञायक है। जितना ज्ञान, जितना आनन्द, जितना चैतन्यमेंसे प्रगट हो वह उसका स्वभाव है, बाकी सब विभाव है। चैतन्यका लक्षण पहिचानकर
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उसे भिन्न करना। अपने लक्षणसे भिन्न पडता है। विभावका लक्षण भिन्न और आत्माका लक्षण भिन्न। लक्षणसे भिन्न करना।
द्रव्य पर दृष्टि करके उस पर दृष्टिको स्थिर करना। गुणके भेद, पर्यायके भेद भी आत्माके स्वभावमें नहीं है। उसका ज्ञान करना, सबको जानना। दृष्टि एक चैतन्य पर रखनी। यह करना है। विकल्प टूटकर निर्विकल्प तत्त्वकी स्वानुभूति कैसे प्रगट हो, यह करना है।
.. अभ्यास करना चाहिये। ये तो अनादिका अभ्यास है। चैतन्यका अभ्यास बारंबार (करना चाहिये), ये विभावका तो अनादिका है। चैतन्यका अभ्यास करना वह अपूर्व है। कहीं भी हो, कर सकता है, करना अपने हाथमें है। लेकिन उसकी भावना तो ऐसी होती है न कि जहाँ देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य मिले। वहाँ कोई-कोई मुमुक्षु होंगे। ज्यादा तो होंगे नहीं।
मुुमुक्षुः- बहुत थोडे। समाधानः- शास्त्रका अर्थ समझना सरल पडे। मुमुक्षुः- यहाँ सुना हो, ... समाधानः- अपनी तैयारी चाहिये न।