Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 163.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 160 of 286

 

PDF/HTML Page 1033 of 1906
single page version

ट्रेक-१६३ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- कभी तो ऐसा लगता है मानो शुष्कता आ जाती है, हृदय भीगा हुआ नहीं रहकरके। उसमें तत्त्वकी समझका क्या दोष होगा?

समाधानः- शुष्कता तो अपने कारणसे (होती है)। बाकी अपना हृदय भीगा हुआ रहे, अपने स्वभावकी महिमा आये, अपने स्वभावमें ही सर्वस्व है। यह सब बाहरका है वह तो तुच्छ है। स्वभावकी महिमा तो... महिमासे भरा स्वभाव है। ऐसी महिमा आये तो ऐसा नहीं होता, शुष्कता आये ही नहीं, उसका हृदय भीगा हुआ रहे। अपना स्वभाव, वही अदभुत और आदरणीय है। शुष्कताको पलट देना कि महिमावंत मेरा स्वभाव है। ये बाह्य वस्तु कुछ महिमावंत नहीं है।

मुमुक्षुः- समझ की हो, लेकिन अन्दर कुछ आचरण करनेका आता नहीं।

समाधानः- वह आचरण ही है। स्वभावकी ओर जिसे सच्ची समझ हो, वह अंतरमें उतना लीन होता ही नहीं। उसे जो विभाव परिणाम संकल्प-विकल्प आये उसमें उसकी तन्मयता नहीं होती। रस टूट ही जाता है। उसका हृदय भीगा हुआ रहता है। उसे कहीं चैन नहीं पडता। स्वभावके सिवा कहीं चैन नहीं पडता। उसे बाह्य पदाथामें, खाने-पीनेमें हर जगहसे रस उड जाता है। अंतरसे निरस हो जाता है, स्वभावकी महिमा लगती है।

मुमुक्षुः- अनन्त.. अनन्त.. अनन्त काल गया तो भी मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ। तो ऐसा लगता है कि अनन्त-अनन्त काल मोक्ष प्राप्त करनेके लिये लगता होगा?

समाधानः- अनन्त कालसे मोक्ष नहीं हुआ उसका कारण स्वयं कहीं-कहीं अटका है। मात्र क्रियामें धर्म मान लिया, थोडा कुछ कर लिया, कुछ शुभभाव कर लिया, कुछ दया, दान थोडा-थोडा कर लिया तो मानो धर्म हो गया। ऐसा मान लिया। इसलिये मोक्ष नहीं हुआ। कहीं-कहीं बाहर अटक गया। त्याग किया, मुनिपना लिया परन्तु बाहरमें मानों मैंने बहुत किया, मैंने त्याग किया, बहुत किया। ऐसा मान-मानकर अटका है। अंतरमें जो स्वभाव है, उसको ग्रहण नहीं किया है। अपना स्वभाव ग्रहण करे तो अनन्त काल लगे ही नहीं।

अनन्त काल लगनेका कारण क्रियाओंमें, बाहर शुभभावोंमें स्थित रहा। स्वभावको


PDF/HTML Page 1034 of 1906
single page version

ग्रहण करनेमें अनन्त काल नहीं लगता। अनन्त काल रखडनेमें लगा, लेकिन स्वभाव प्रगट करनेमें अनन्त काल नहीं लगता। यदि स्वभावको ग्रहण करे तो बहुतोंको अंतर्मुहूर्तमें हो जाता है और बहुतोंको काल लगे तो थोडे भवमें भी उसे मोक्ष, केवलज्ञान होता है। और सम्यग्दर्शन तो यदि स्वयं पुरुषार्थ करे तो उसे हो सकता है। इस कालमें भी हो सकता है।

मुमुक्षुः- आपने तो छोटी उम्रमें प्राप्त कर लिया। और आपकी देशना सुने तभी कुछ लगता है, बाकी तो हम जैसोंको कुछ मालूम नहीं पडता है, सूझ नहीं पडती कि कैसे किस प्रकारसे कैसे बात करनी, उतना गहन तत्त्व लगता है।

समाधानः- स्वभाव आत्माका गहन ही है। अनेक जातकी महिमाओंसे भरा हुआ, गहनतासे भरा हुआ स्वभाव है।

मुमुक्षुः- प्रसन्न चित्तसे इस आत्माकी बात सुनी हो, उसे भी मुक्ति समीप है।

समाधानः- प्रसन्न चित्तसे आत्माकी वार्ता सुनी तो भावि निर्वाण भाजनम। भविष्यमें निर्वाणका भाजन बनता है। कोई अपूर्व रीतसे। गुरुदेवने अपूर्व वाणी बरसायी। उसे अपूर्व महिमा आये कि यह वस्तु कोई अलग ही है। मैं जिस मार्ग पर हूँ, वह यह नहीं है। कोई अंतरका मार्ग है। उसे आत्मामेंसे महिमा ही कोई अलग आती है। ऐसी प्रसन्न चित्तसे अपूर्व रीतसे सुना हो तो भावि निर्वाण भाजनम। भविष्यमें उसे चैतन्यकी ओर पुरुषार्थ उठनेवाला ही है और अवश्य भावि निर्वाण-भविष्यमें निर्वाणका भाजन है। बहुत बार अपनेआप (सुना हो), परन्तु कोई अपूर्व रीतसे सुना नहीं है। ऐसे अपूर्व रीतसे, प्रसन्न चित्तसे सुने तो भविष्यमें निर्वाणका भाजन होता है।

मुमुक्षुः- ... बात तो सम्यग्दृष्टि पुरुष आप जैसे कर सको। परन्तु ऐसा योग न हो तो क्या करें?

समाधानः- जिसकी तैयारी हो उसे बाहर ऐसे निमित्त मिल ही जाते हैं। इस पंचम कालमें..

मुमुक्षुः- ... आपका निमित्त मिल गया, हमको तो ऐसा लगता है। अन्दरसे ऐसा लगता है कि आपकी देशना... उनकी ऐसी कोई पात्रता हो गयी है।

समाधानः- महादुर्लभ था, उसमें गुरुदेवका इस पंचम कालमें जन्म हुआ। कितने जीवोंकी तैयारी (हो गयी)। उनकी वाणी ऐसी अपूर्व थी। कितने ही जीवोंको आत्मामें अपूर्वता लगती है कि ये कुछ अलग कहते हैैं। चाहे जितना बडा समुदाय हो, कोई समझे न समझे तो भी ऐसे प्रसन्न चित्तसे सुनते हों।

मुमुक्षुः- गुरुदेवकी वाणी..

समाधानः- कुछ अलग ही प्रकारसे ललकारके कहते थे। उनका प्रताप है। उनके


PDF/HTML Page 1035 of 1906
single page version

प्रतापसे सुनने (मिला)।

मुमुक्षुः- गुरुदेव कोई बार ऐसा कहते थे कि पर्याय जितना ही तू नहीं है और कोई बार ऐसा कहते थे कि पर्यायसे तू भिन्न है।

समाधानः- पर्याय जितना तू नहीं है अर्थात पर्याय तो क्षण-क्षणमें बदल जाती है। तू शाश्वत आत्मा है। पर्यायसे भिन्न अर्थात पर्यायका स्वभाव भिन्न और तेरा स्वभाव भिन्न है। वह क्षणिक है, तू त्रिकाल है। भिन्नताका अर्थ ऐसा लेना है, सर्वथा प्रकारसे भिन्न है ऐसा अर्थ नहीं है। अपेक्षासे भिन्न है। सर्वथा प्रकारसे सर्व प्रकारसे भेद हो तो द्रव्य पर्याय बिनाका हो जाय और पर्याय स्वयं द्रव्य बन जाय। इस तरह सर्वथा प्रकारसे भिन्नका अर्थ नहीं था। परन्तु तू कोई अपेक्षासे भिन्न है।

तू समझ कि तेरा स्वभाव त्रिकाल शाश्वत रहनेका है और पर्याय क्षणिक है। ऐसे समझना। उस अपेक्षासे भिन्न है। सर्वथा भिन्न (हो तो) द्रव्य पर्याय बिनाका हो जाय। तो द्रव्य उसे कहते हैं कि जिस द्रव्यके अन्दर उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सहित हो वह द्रव्व कहनेमें आता है। और पर्याय उसे कहते हैं कि द्रव्यके आश्रयसे जो पर्याय होती हो वह पर्याय है। पर्याय वैसी स्वतंत्र नहीं है कि वह पर्याय स्वयं बिना द्रव्यके परिणमती हो। ऐसे पर्याय नहीं रहती है। परन्तु दोनोंके स्वभाव भिन्न हैं। उस अपेक्षासे उसे भिन्न कहनेमें आता है। इसलिये भिन्न कहा है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- हाँ, पर्याय जितना नहीं है। अर्थात पर्याय क्षणिक है और तू त्रिकाल है।

मुमुक्षुः- मिथ्यात्व चला आता हो, एक बार तो ज्ञानीकी देशना नियमसे जीवको प्राप्त होनी ही चाहिये।

समाधानः- ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। अनादिका जो मिथ्यात्व है, उसमें एक बार सच्चे गुरु अथवा सच्चे देव उसे मिले तो उपादान स्वयंका, परन्तु वाणीका निमित्त बनता है। अनादि कालका अनजाना मार्ग है। ऐसी देशना एक बार उसे मिले, परन्तु वह मात्र देशनारूपसे देशना नहीं, परन्तु उसे अंतरमेंसे ग्रहण हो जाय। वह देशना तो सबको लाभकर्ता ही होती है। वह तो प्रबल निमित्त होती है। परन्तु स्वयं अन्दरसे ग्रहण करे तब देशनालब्धि हो। अनादिमें एक बार तो उसे देशना मिले फिर उसे संस्कार डले तो अपनेआप अपने उपादानसे तैयार हो जाय, परन्तु एक बार तो उसे ऐसा निमित्त बनता है।

मुमुक्षुः- हेयबुद्धिका अर्थ क्या है?

समाधानः- शुभभाव आदरणीय नहीं है, शुभभाव मेरा स्वभाव नहीं है। शुभभाव


PDF/HTML Page 1036 of 1906
single page version

आकुलतारूप है, वह हेयबुद्धि। मेरा स्वभाव नहीं है। शुभका स्वभाव भिन्न और मेरा स्वभाव भिन्न है। मैं ज्ञायक आनन्दसे भरा हुआ और यह शुभभाव है वह तो आकुलतारूप है। स्वभाव विपरीत है। उसका स्वभावभेद है। इसलिये वह मेरेसे भिन्न है। वह मुझे आदरणीयरूप है, ऐसा नहीं है। वह प्रवृत्तिरूप है, मेरा स्वभाव तो निवृत्तस्वरूप है। बीचमें आये बिना नहीं रहता। भावकी परिणति है। शुभभावका परिणमन मेरा स्वभाव नहीं है, वह तो आकुलतारूप है।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- वह कोई कहनेकी बात है? आत्मा अनुपम है, उसका आनन्द अनुपम है, उसका स्वभाव अनुपम है। अनन्त गुणोंसे भरा आत्मा है। अनन्त गुणकी जो निर्मल पर्याय प्रगट हो, वह अनुपम है उसका आनन्द। वह कोई वाणी (द्वारा कहा नहीं जाता)। उसे कोई उपमा लागू नहीं पडती। वह कोई अनुपम है। विकल्प टूटकर जो स्वानुभूतिका आनन्द (आता है) वह अनुपम है। जगतमें कोई उपमा नहीं है। किसके साथ मिलान करना?

मुमुक्षुः- बहिनश्रीको लिपटकर रहेंगे उसका भी बेडा पार है। तत्त्व भले कम समझे।

समाधानः- गुरुदेवके चरण मिले वह सब भाग्यशाली है। पंचमकालमें गुरुदेवके चरण सबको लंबे समय तक मिले। ...

समाधानः- ... पूरा मार्ग प्रवर्तता है। कुन्दकुन्द आम्नाय, जहाँ देखो वहाँ कुन्दकुन्द आम्नाय। गुरुदेवने तो कुन्दकुन्दाचार्यके रहस्य खोले हैं। शास्त्रके रहस्य खोले हैं।

मुमुक्षुः- कुन्दकुन्द भगवानकी कुछ बात करीये तो हम सुने।

समाधानः- कुन्दकुन्द भगवानकी क्या बात! उपकार किया इस पंचम कालमें। आचार्य, कुन्दकुन्दाचार्यकी पहचान गुरुदेवने करवायी। गुरुदेवने शास्त्रके सब रहस्य खोले। कुन्दकुन्दाचार्यने शास्त्रमें सब भर दिया। महाविदेह क्षेत्रमें भगवानके पास जाकर आचार्यदेव सब लाये। शास्त्रमें सब भर दिया और गुरुदेवने सब रहस्य खोले हैं। गुरुदेवने तो सब शास्त्रको सूलझा दिये। मुक्तिका मार्ग बता दिया है। कौई जानता नहीं था, मुक्तिका मार्ग क्या है? "आत्मा' शब्द बोलना गुरुदेवने सिखाया।

आत्मा जाननेवाला है, ज्ञायक है, उसे पहिचानो। आत्मा सबसे भिन्न है। यह शरीर, विभावस्वभाव अपना नहीं है। उससे आत्मा भिन्न है। ज्ञान-दर्शनसे आत्मा परिपूर्ण है। आचार्यदेव कहते हैं न,

मैं एक शुद्ध सदा अरूपी, ज्ञानदृग हूँ यथार्थसे,
कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणुमात्र नहीं अरे! ।।३८।।

PDF/HTML Page 1037 of 1906
single page version

शुद्धतासे भरा मैं अरूपी आत्मा, ये पुदगलका जो रूप है, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आत्मामें नहीं है। आत्मा उससे अत्यन्त भिन्न है, ऐसे आत्माको पहिचानना चाहिये। ज्ञान-दर्शनसे भरा ज्ञायकतत्त्व पूर्ण, पूरा सम्पूर्ण चैतन्यतत्त्व है उसे पहिचानना। उसमें अपूर्ण दिखती है, विभावके कारण अपूर्णता दिखती है। बाकी परिपूर्ण पूर्ण स्वभाव आत्मा है। एक परमाणुके साथ उसे सम्बन्ध नहीं है। वह स्वयं स्वयंमें ही अनन्त संपदासे भरा है। सब अनन्त प्रताप संपदा आत्मामें भरी है। वह संपदा कैसे प्रगट हो, उसकी रुचि रखने जैसा है। वह कैसे प्रगट हो? उसका अभ्यास, उसकी आदत, उसका विचार, उसका वांचन सब करना, उसकी महिमा। विभावसे रुचि छूटकर आत्माकी ओर रुचि जाये वह करना है। गुरुदेवने वह बताया है। आत्मतत्त्व कोई अलौकिक है।

आचायाने तो पूरा मार्ग शास्त्रमें बहुत भर दिया है। आत्मा कोई अलौकिक अनुपम वस्तु है। चैतन्यरस,.. आचार्यदेव कहते हैं, जैसे क्षाररससे भरी नमककी डली क्षाररसे भरी है, शक्करकी डली शक्करके रससे भरी है। ऐसे आत्मा पूरा चैतन्यतासे, ज्ञायकतासे, आनन्दतासे भरा है। उसे पहिचानना। सबसे न्यारा चैतन्यदेव विराजता है। अपना देव अपने पास है, उसे पहिचान ले। देव-गुरु-शास्त्रको हृदयमें रखकर और वे जो कहते हैं, उनके सान्निध्यसे, उनकी महिमासे आत्माको लक्ष्यमें रखकर उसे प्रगट करना। उसीका अभ्यास, उसीका चिन्तवन आदि सब करने जैसा है।

मुमुक्षुः- विचार करने पर अन्दरमें आप जो भी कहते हो वह सब बात बराबर सत्य है। लेकिन अन्दर जाने पर गुरुदेवके प्रति और आपके प्रति भक्ति उछल जाती है, उसका क्या करना? अन्दर जा नहीं सकते। वही भक्ति आ जाती है कि आहा..! ये वस्तु! ये महिमा आपने बतायी!

समाधानः- जबतक अन्दर जा नहीं सके तब तक भावना आये। शुभभावना तो अंतरमें आती है। परन्तु अंतरमें आत्माको पहिचाननेका ध्येय रखना कि आत्मा कैसे पहिचानमें आये? आत्माकी रुचि कैसे प्रगट हो? वह करने जैसा है। शास्त्रमें आता है, "तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता'। वह वार्ता भी अपूर्व चित्तसे सुनता है तो भावि निर्वाण भाजन। तो भविष्यमें निर्वाणका भाजन हो। परन्तु अपूर्व रीतसे सुनता है तो। परन्तु अपूर्वता अंतरमेंसे आनी चाहिये। आत्मा अपूर्व है, उसकी रुचि जागृत होनी चाहिये। वह न हो तब तक देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा अंतरमें आये बिना नहीं रहती। परन्तु अंतर आत्माको पहिचाननेका प्रयत्नका ध्येय रखना चाहिये।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!