Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 21.

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ट्रेक-०२१ (audio) (View topics)

समाधानः- ... यहाँ बहुत रहते थे। करने जैसा यह एक ही है। (प्रतिकूल) संयोगमें शांति रखनी।

... ज्ञायक कैसे पहचानमें आये? बाहर शुभभावमें देव, गुरु और शास्त्र उसके हृदयमें होने चाहिये और अन्दरमें शुद्धात्मा सर्वसे भिन्न है उसे पहचाने तो यह करने जैसा है। गुरुदेवके प्रतापसे, पीछेसे कोई रोग आये तो शांति (रखे)।

बारंबार-बारंबार अन्दरमें गहराईमें ऐसा हो कि आत्मा ही ग्रहण करना है, आत्माके सिवा और कुछ नहीं चाहिये। ऐसी अंतरकी भावना हो और बारंबार मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी भावना रहे। अभी यथार्थ ग्रहण नहीं हुआ है, परन्तु बारंबार उसका विचार, उसीके बारंबार विचार करता रहे, उसका मंथन करता रहे, लगनी लगाये। ऐसा करे तो अन्दर संस्कार पडते हैं। अन्दरसे गहराईसे हो तो। ऊपर-ऊपरसे हो तो नहीं पडते। अन्दर गहराईसे (होना चाहिये)।

मुमुक्षुः- स्वयंको मालूम पडता है?

समाधानः- स्वयंको मालूम पडे या नहीं पडे। गहराईसे हो तो स्वयंको मालूम पडे भी और नहीं भी पडे। मालूम पडे ही ऐसा कुछ नहीं है।

मुमुक्षुः- स्वयंको एक ही लगन हो तो ही पडे?

समाधानः- तो ही पडे। लगनी अन्दरकी गहराईसे होनी चाहिये। दूसरा कुछ भी रुचे नहीं, एक आत्मा ही रुचे। ऐसे अन्दरकी गहराईसे संस्कार हो तो पडे, गहरी रुचि हो तो पडते हैं। अन्दरसे उसे रुचि जागृत हो जाती है। ऐसे कोई प्रसंग बने तो उसे ऐसा लगता है कि, मुझे यह नहीं चाहिये, मुझे कुछ और चाहिये। मुझे आत्मा चाहिये। ऐसी अंतरसे उसे स्फुरणा होती है। अंतरके गहरे संस्कार हो तो। ऐसे कोई प्रसंग देखे, देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य प्राप्त हो, उसे अन्दरसे स्फुरणा हो कि मुझे यह चाहिये। अन्दरसे रुचि जागृत हो जाये। पुरुषार्थ करे तो होता है, लेकिन रुचि जागृत हो जाये।

आता है न? "क्रोधादि तरम्यता सर्पादिकनी मांहि, पूर्व जन्म संस्कार...' पूर्वके संस्कार हो वह अमुक भवमें स्फुरित हो जाते हैं। अमुक प्रकारकी जो स्वयंकी लायकात


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हो, वह स्वयं ही अंतरसे स्फुरित होती है। ऐसे शुभभाव हो, ऐसा पुण्य बन्धे कि देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें (जाये)। अन्दरसे स्वयंकी रुचि जागृत हो जाये कि मुझे तो यही चाहिये, मुझे और कुछ नहीं चाहिये।

मुमुक्षुः- ऐसा सब होनेका कारण पूर्वके संस्कार?

समाधानः- पूर्वके संस्कार (कारण) है। उसे द्रव्यदृष्टिसे नहीं कहनेमें आता, लेकिन ऐसे एक जातके संस्कार पडते हैं। अमुक जातके जो विभावके संस्कार चले आ रहे हैं, पूर्वमें जो होते हैं, फिरसे जो भव धारण करे उसमें उस जातके संस्कार, उस जातके शुभभाव, कषाय आदि सब होते हैं, ऐसा दिखनमें आता है। इसप्रकार अंतरमें जो स्वयंकी रुचि हो, वह रुचि उसे जागृत होनेका कारण होती है। फिर उसे बढानेके लिये स्वयंका वर्तमान पुरुषार्थ काम करता है। ज्यादा कार्य करनेके लिये।

मुमुक्षुः- वर्तमानमें जिसे सुख ही नहीं है, उसे..

समाधानः- किसीको पूर्वके संस्कार हो तो .. किसीको नहीं भी हो। वर्तमान जीवकी ऐसी कोई योग्यताके कारण बैठ जाये। वैसी उसकी योग्यता, कोई प्रकारकी कोमलता लेकर आया हो उसे बैठ जाता है। बाकी किसीको संस्कार होता है और किसीको नहीं भी हो। सभीको संस्कार ही हो, ऐसा नहीं होता। तो-तो जीवको पहली बार हो तो उसे पहलेके संस्कार.. निगोदमेंसे निकलकर पहली बार होता है। संस्कार ही हो, ऐसा नहीं होता। लेकिन किसीको संस्कार होते हैं, किसीको संस्कार नहीं होते।

स्वयं वर्तमानमें तैयारी करे कि मुझे आत्मा ही चाहिये। बारंबार उसका रटन, लगनी, जिज्ञासा, विचार, उसीके विचार, वांचन आत्माके लिये करता हो। ध्येय एक आत्माका, आत्माका प्रयोजन होता है, दूसरा कोई प्रयोजन नहीं होता। बाहरका किसी भी प्रकारका प्रयोजन नहीं है। सबकुछ आत्मार्थके लिये है। अंतरसे ऐसा हो तो उसे संस्कार (पडते हैं)। उसके आत्माको वही रुचे, वही पोसाय, दूसरा कुछ अंतरसे नहीं रुचे, दूसरा कुछ पोसाता नहीं, ऐसा आत्माका जीवन हो जाये कि दूसरा कुछ पोसाय नहीं। एक सतकी रुचि, एक सत आत्मा कैसे प्राप्त हो? ऐसा उसे पोसाता हो तो उसे दूसरे भवमें भी वह संस्कार स्फुरित हुए बिना नहीं रहते। ऐसा होना चाहिये। उसे वही पोसाय, दूसरा कुछ नहीं, दूसरा कुछ अंतरमें रुचे नहीं। अंतरमें उस जातकी रुचि और लगनी हो तो वह संस्कार उसे रहते हैं और स्फुरायमान भी होते हैं।

मुमुक्षुः- वह संस्कार स्फुरे बिना नहीं रहे।

समाधानः- स्फुरे बिना नहीं रहते। स्फुरे यानी उसे ऐसा लगे, कहीं भी रस नहीं आये। आत्माकी बातमें ही रस आये। ऐसा अंतरमेंसे उस जातका हो जाता है। सहज ही स्वयं ऐसा रटन वह लेकर आया है, घूटन करके आया है।


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मुमुक्षुः- ... नहीं हो तो संस्कार पडे तो भी उसे..

समाधानः- तो भी अच्छा है। सम्यग्दर्शन जितना पुरुषार्थ हो जाये तो उत्तम है, लेकिन नहीं हो तो उसकी बारंबार लगनी लगाता हो, उसीका रटन करता हो, संस्कार पडे तो भी अच्छा है। "तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता।' वार्ता भी अंतरकी प्रीतिसे सुनी है तो भावि निर्वाण भाजनं। उसमें उसकी अंतरकी प्रीति, अन्दरकी रुचि और प्रीति ही काम करती है। भविष्यमें वह उसे स्फुरे बिना नहीं रहती। परिणति प्रगट हुए बिना नहीं रहती। अंतरकी प्रीतिसे बात सुनी है और अपूर्वता लगी है तो अंतरसे लगी अपूर्वता फिर जाती नहीं। आये बिना नहीं रहती।

देशनालब्धि होती है, वह उसे कहाँ.. होता नहीं। भगवानकी वाणी या गुरुदेवकी वाणी सुनकर अंतरमेंसे कोई अपूर्वता लगी और अंतरमेंसे आत्मा कुछ अलग है और ये कुछ अलग ही कहते हैं, ऐसी देशना अंतरमें ग्रहण हो गयी तो वह देशना भी काम करती है, स्वयंको कुछ मालूम नहीं होता। वह सब संस्कार ही काम करते हैं। द्रव्यदृष्टिसे उसे नहीं कहनेमें आता, फिर भी निश्चय-व्यवहारकी संधि है। वैसे वह संस्कार भी है। देशनालब्धि अंतरमें होती है, वह भी प्रगट होती है। उस वक्त उसे मालूम नहीं होता, अप्रगटरूपसे अपूर्वता लगती है। अंतरमें जो परिणति मुडी है वह अप्रगट है। ये कुछ अलग अपूर्व है। अपूर्वताका पोषण अन्दरसे हो गया, वह उसे आये बिना नहीं रहता।

मुमुक्षुः- संस्कारसे मिथ्यात्व गलता होगा?

समाधानः- मिथ्यात्वका रस, दर्शनमोहनीय मन्द पडता है। दर्शनमोहनीय तो मन्द है। लेकिन दर्शनमोहनीय चला नहीं जाता। वह तो दर्शनमोहनीयकी मन्दता है। मिथ्यात्वका रस मन्द पडता है। अपनी ओरकी अपूर्वता लगती है तो। सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण करता है तो भी दर्शनमोहनीय मन्द है। परन्तु अन्दर आत्माकी अपूर्वता लगे, उस पूर्वक जो दर्शनमोहनीय मन्द पडता है, वह अलग रीतसे पडता है। जो जूठे देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण करे, उससे तो जो सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण करता है, उसका दर्शनमोहनीय मन्द है। परन्तु अन्दरसे अपूर्वता लगकर ग्रहण हो, वह दर्शनमोहनीय अलग प्रकारसे (मन्द) पडता है। अब आत्माकी ओर ही मुडेगा।

मुमुक्षुः- अन्दरकी भक्ति आदि ... करते हुए, आत्माकी ओरके मुडे जो संस्कार हैं, उसमें मिथ्यात्वका ज्यादा गलना होता है?

समाधानः- वह अलग प्रकारसे (होता है)। देव-गुरु-शास्त्रकी श्रद्धा भी ऐसी हो, अपूर्व रीतसे हो तो उसमें भी दर्शनमोहनीय अलग रीतसे मन्द पडता है। देव-गुरु- शास्त्रकी श्रद्धा भी उसे अपूर्व प्रकारसे (होती है)। ये गुरु कुछ अलग कहते हैं, देव


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कुछ (अलग है), शास्त्रमें कुछ अलग आता है, इसप्रकार अलग रीतसे ग्रहण हुआ तो वह अलग रीतसे ही है। लेकिन रूढिगतरूपसे ग्रहण हुआ हो वह अलग है। अन्दर अपूर्व रीतसे देव-गुरु-शास्त्रकी श्रद्धा ग्रहण हो, अपूर्व रीतसे, तो उसमें दर्शनमोहनीय मन्द पडता है। अब, अपनी ओर ही उसकी परिणति आयेगी, उस प्रकारसे मन्द पडता है।

मुमुक्षुः- माताजी! देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति और आत्माकी ओर वृत्ति, उसका मेल है?

समाधानः- हाँ, मेल है। आत्माकी भक्ति, ज्ञायककी भक्ति उसे शुभभावमें देव- गुरु-शास्त्रकी भक्ति भी साथमें ही होती है। दोनोंका मेल है। ज्ञायककी भक्ति हो तो देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति नहीं होती, ऐसा नहीं होता। जिसे ज्ञायककी भक्ति हो उसे देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति, शुभभाव होता है। अशुभभाव छूटकर, अशुभभावसे शुभभावमें आता है। अशुभभावका नाश नहीं होता। लेकिन वह शुभभावमें खडा रहता है। साथमें भक्ति आये बिना नहीं रहती।

ज्ञायककी रुचि हुयी। ज्ञायककी यथार्थ श्रद्धा होती है उसे भी देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति (होती है)। सम्यग्दर्शन हो, भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो, स्वानुभूति हो तो भी उसे बाहर आये तब देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति होती है। तो रुचि वालेको तो होगी ही। मुनि होते हैं, छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं, ऐसे मुनिराज, जो बारंबार स्वरूपमें लीन होते हैं, स्वानुभूतिमें, वे भी बाहर आये तो उन्हें भी देव-गुरु-शास्त्रकी उनकी भूमिका अनुसार भक्ति होती है, उन्हें शुभभाव होते हैं। उन्हें पूजा आदि कार्य नहीं होते। परन्त उन्हें शास्त्रका वांचन, शास्त्र लिखे, भक्तिके स्तोत्र रचे, ऐसी सब भक्ति होती है। पद्मनन्दि आचार्यने भक्तिके स्तोत्र रचे हैं।

मुमुक्षुः- सुखके लिये मिथ्या प्रयत्न करते हैं, फिर भी सुखी नहीं होते, उसका क्या उपाय है?

समाधानः- सुखके लिये मिथ्या प्रयत्न करता है। सुख अंतरमें है, बाहर नहीं है। बाहर ढूंढता रहे, बाहरसे सुख नहीं आता। सुख तो अंतरमें है। गुरुदेवने मार्ग बताया कि जो तत्त्व हो उस तत्त्वके अन्दर सुख (होता है)। सुख आत्माका स्वभाव है, बाहरसे नहीं मिलता। सुखसे भरा आत्मा जानने वाला, सुखसे भरा, आनन्दसे भरा आत्मा है। आत्माको पहचाने तो सुख प्राप्त होता है। और पहचाननेके लिये उसके विचार, वांचन आदि करे। अन्दर लगनी लगाये, जिज्ञासा करे तो आत्मा पहचानमें आता है। आत्मा कैसे पहचानमें आये, उसकी अंतरसे लगनी लगानी चाहिये कि सुख कैसे मिले?

बाहरसे तो अनन्त कालसे सुखके लिये बहुत व्यर्थ प्रयत्न किया, सुख मिलता नहीं। सुख जहाँ है, वहाँ मिलता है। मृग वनमें घूमता है। उसकी कस्तूरीसे वन सुगन्धित


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हो जाता है, लेकिन कस्तूरी तो उसके पास ही है। अन्दर है। ऐसे आनन्दगुण स्वयंका है और स्वयं बाहर ढूंढता है। स्वयंमें आनन्द भरा है। अंतर दृष्टि करे तो मिले ऐसा है। भेदज्ञान करे कि यह शरीर भिन्न है और आत्मतत्त्व भिन्न है। आत्माके द्रव्य-गुण- पर्याय भिन्न है, शरीरके भिन्न हैं। अन्दर विभाव होता है वह सब आकूलता है, अपना स्वभाव नहीं है। अपना स्वभाव एक जानने वाला आत्मा है। उस जानने वालेका स्वभाव पहचानकर अन्दरसे पहचानना चाहिये। उसका भेदज्ञान करना चाहिये। भेदज्ञान करनेके लिये अंतरकी लगनी लगाये, जिज्ञासा लगाये, विचार, वांचन (करे)। जब तक नहीं होता तब तक विचार, वांचन, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा शुभभावमें होती है। अंतरमें शुद्धात्माको पहचाननेकी लगनी लगाये तो वह पहचाना जाये ऐसा है। बाकी अनन्त कालसे जन्म-मरण किये, भवका अभाव होनेका यह एक ही उपाय है। आत्माको पहचानना, भेदज्ञान करना, अन्दर लगनी लगानी, जिज्ञासा लगानी। उसके लिये विचार, वांचन आदि करना।

मुमुक्षुः- ..लेकिन अन्दरमें जैसा होना चाहिये, चाहे कुछ भी करे अन्दरमें .. समाधानः- विधि तो यही है, स्वयंको पहचानना, भेदज्ञान करना, वही रीत है। मार्ग तो एक ही है। परन्तु पुरुषार्थ स्वयंको करना है। पुरुषार्थ करे नहीं तो होता नहीं। कारण दे नहीं तो कार्य कहाँ-से आये? कारण स्वयंको देना है, पुरुषार्थकी मन्दता है, आगे जा नहीं सकता। अन्दरकी गहराईसे रुचि लगानी चाहिये, पुरुषार्थ अन्दरसे तीव्र करना चाहिये, तो होता है। पुरुषार्थकी मन्दता है, बाहर दौडता रहता है और अंतर दृष्टि करता नहीं, तो कहाँ-से हो? उसे दिन-रात लगनी लगनी चाहिये। कहीं चैन नहीं पडे। एक आत्मा.. आत्माके सिवा कुछ रुचे नहीं। ऐसी अन्दरसे लगनी लगे तो स्वयंकी ओर पुरुषार्थ करे तो होता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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