PDF/HTML Page 106 of 1906
single page version
मुमुक्षुः- ... पुरुषार्थ हो, ऐसा लगता है।
समाधानः- सहज और पुरुषार्थ, दोनों है। उसकी दशा ही ऐसी है। बाहरमें ज्यादा नहीं रुक सकता। मुनिदशाकी दशा ऐसी है कि बाहरमें ज्यादा नहीं रह सकता। ऐसी सहज उसकी दशा है। परन्तु जुड जाता है और खीँचता है, दोनों।
... अनेक प्रकारकी बाह्य प्रवृत्ति, चक्रवर्ती होते हैं उन्हें बाहरकी अनेक प्रकारकी प्रवृत्तिमें उसके विकल्प रुकते हैं। उसमेंसे शुभमें आये, उसमेंसे स्वयं शुद्धताकी ओर अपनी डोरको खीँच लेता है। उसकी दशा हो उसके अनुरूप सहज है, बाकी खीँच लेता है। पुरुषार्थ करके आगे बढता है। आगे जाते-जाते कितना समय लगे, उसका कोई नियम नहीं है। उसी भूमिकामें कितने ही साल निकल जाते हैं। फिर पुरुषार्थ बढे तो भूमिका पलटती है। कितनोंको जल्दी पलट जाती है, किसीको देर लगती है। कितने साल तक सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें गृहस्थाश्रममें चक्रवर्ती आदि रहते हैं। भरत चक्रवर्तीने अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है। एकदम पुरुषार्थ शुरू हो गया।
श्रुतज्ञान बीचमें आता है, परन्तु कितना श्रुतज्ञान.. कितने ही मुनिओंको श्रुतकेवली कहनेमें आता है। उतना श्रुतज्ञान उन्हें बीचमें आता है। कहते हैं न? श्रुतज्ञान और केवलज्ञानमें कोई अंतर नहीं है। परोक्ष और प्रत्यक्षका (ही अंतर है)। वह संवेदनकी अपेक्षासे कहा। ये जो श्रुतज्ञान श्रुतकेवलीको होता है, उसे भी ऐसा ही कहते हैं। वह परोक्ष है और केवलज्ञानीका प्रत्यक्ष है। परोक्ष-प्रत्यक्षका अंतर है। इसलिये केवलज्ञानी जितना श्रुतकेवली जानता है, ऐसा कहनेमें आता है। उतना (श्रुतज्ञान) बीचमें आता है। परन्तु काम तो मोक्षमार्गमें दर्शन और चारित्र(का मुख्य होता है)। ज्ञान काम तो बीचमें होता ही है, परन्तु ज्ञान विवेक करता है। अधिक जानना वह नहीं। बीचमें भेदज्ञानकी धारा (उग्र होती है)। भेदज्ञान कहाँ तक भाना? कि स्वरूपमें जबतक स्थिर नहीं हो, तबतक होता है। भेदज्ञान अत्रुट धारासे भाना। भेदज्ञान बीचमें कार्य करता है। भेदज्ञानकी उग्रता, ज्ञान वह कार्य करता है। भेदज्ञानकी उग्रता। दृष्टि द्रव्य पर है, भेदज्ञानकी उग्रता और लीनता।
मुमुक्षुः- बहुत बडा सिद्धान्त आ गया।
PDF/HTML Page 107 of 1906
single page version
समाधानः- .. ऐसी उसे उपमा देते हैं-परोक्ष। बाकी केवलज्ञानीका प्रत्यक्ष (है)। बादमें कहते हैं न कि मेरा क्षयोपशमज्ञान कहाँ और प्रभु! आपका क्षायिक कहाँ और मैं कहाँ! ऐसा कहते हैं। अंतर्मुहूर्तमें मेरा उपयोग जानता है, आप तो एक समयमें जान सकते हो। मैं कहाँ, उसका कोई मेल नहीं है। आपका तो अनन्त (ज्ञान) और मेरा तो कितना आंशिक! उस अपेक्षासे श्रुतज्ञानको (परोक्ष) कहते हैं। यह तो क्षयोपशम क्षण-क्षणमें जानने वाला, उपयोग अंतर्मुहूर्त हो तब जाननेमें आये, आप तो एक समयमें जानते हो, उस अपेक्षासे बहुत फर्क है। केवलज्ञान अनन्त और क्षयोपशम तो एक अंतर्मुहूर्तमें जानने वाला, इसलिये थोडा उसका मेल नहीं बैठता इसलिये ऐसा कहते हैं। उसकी महिमामें ऐसा कहे कि श्रुतज्ञानी और केवलज्ञानी दोनों समान हैं, ऐसा कहनेमें आये। शास्त्रमें आता है, श्रुतज्ञानी और केवलज्ञान (दोनों समान हैं)। संवेदनकी अपेक्षासे आता है। परन्तु अन्दर दोनों ले सकते हैं।
समाधानः- ... मनुष्यदेह मिले, उसमें पंचमकालमें गुरुदेव मिले वह महाभाग्यकी बात है। सबको ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायककी सबको रुचि करवायी। शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न आदि गुरुदेवने ही सिखाया है। महाभाग्यकी बात है। भवका अभाव करनेका प्रसंग बना। नहीं तो समाज तो कहाँ पडा था। क्रिया आदि, शुभभाव। शुभाशुभ भावसे भिन्न आत्मा किसने बताया? गुरुदेवने बताया है। इसलिये सबको इतने संस्कार प्राप्त हुए हैं।
जीवने कितने जन्म-मरण किये हैं। एक-एक आकाशके प्रदेशमें, अनन्त अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी कालमें, एक-एक आकाश प्रदेशमें जन्म-मरण करते-करते बाहरके पुदगल परमाणु लोकमेंसे जितने ग्रहण किये उतने छोडे हैं। उतने जीवने भव धारण किये। आकाशके एक-एक प्रदेश पर जन्म-मरण, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी कालमें अनन्त जन्म-मरण धारण किये, उसमें ऐसे गुरुदेव मिले, ऐसा मार्ग मिला वह महाभाग्यकी बात है। गुरुदेवके प्रतापसे सबको यह मार्ग मिला है, महाभाग्यकी बात है।
मुमुक्षुः- .. उस भावको दृढ करनेके लिये, उस भावमें अधिक-अधिक गहराईमें जा सके, ऐसा करनेके लिये, वांचन तो बराबर है, लेकिन साथ-साथमें .. जिससे एकदम दृढ हो, स्वरूपमें लीनता हो, आनन्द है...
समाधानः- मैं ज्ञायक हूँ, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ। ज्ञायककी रुचि ज्यादा लगनी चाहिये। बाहरकी रुचि कम हो, अंतरकी जिज्ञासा, लगनी, भावना अन्दर बढाये। मैं तो ज्ञायक ही हूँ, यह शरीर मैं नहीं हूँ, ये शुभाशुभ विकल्प भी मेरा स्वभाव नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। इसप्रकार बारंबार प्रयास करता रहे। वांचन, विचार तो करे, लेकिन उसके साथ बारंबार भिन्न करनेका प्रयास करे कि मैं तो भिन्न ही हूँ। उसका स्वभाव पहचानकर कि यह जानने वाला है वही मैं हूँ। इसके सिवा
PDF/HTML Page 108 of 1906
single page version
दूसरा है वह मैं नहीं हूँ। जो जानने वाला है वह मैं हूँ। और जानने वालेमें-स्वरूपमें लीन हो तो उसमें आनन्दादि अनंत गुण भरे हैं। परन्तु उसकी अनुभूति उसमें लीन हो तो होता है। परन्तु पहले उसे बराबर पहचानकर भेदज्ञानका प्रयास करे तो होता है। बारंबार भेदज्ञानका प्रयास करना पडे। क्षण-क्षणमें, जागते-सोते, स्वप्नमें भेदज्ञानका अभ्यास बारंबार तीव्रतासे करे तो होता है।
यह चैतन्यद्रव्य है वह मैं हूँ, इसके सिवा दूसरा मैं नहीं हूँ। उसकी महिमा आये, उसे बराबर पहचाने, उसकी प्रतीति दृढ हो। प्रतीत दृढ हो तो उसमें लीनता होती है। बाहर जा रहे उपयोगको सवरूपकी ओर मोडे, उसमें लीन करे तो होता है। बारंबार उसके लिये प्रयास करना पडे। जो चैतन्य है सो मैं हूँ, उसमें अनन्त गुण हैं और उसकी पर्यायें, अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको पहचाने और दूसरे पुदगलके द्रव्य-गुण-पर्यायको पहचाने, फिर उसे भिन्न करे कि यह चैतन्य है वही मैं हूँ।
अनादिअनन्त शाश्वर हूँ, ये पर्याय प्रतिक्षण परिणमति है। उस पर्याय जितना भी मैं नहीं हूँ, मैं तो शाश्वत आत्मा हूँ। पर्याय परिणमे, स्वयं परिणमित हो परन्तु मैं तो शाश्वत हूँ। इसप्रकार उसकी दृष्टि बारंबार द्रव्य पर जाये तो स्वरूपकी प्राप्ति हो। पहले उसका अभ्यास बारंबार करना। जबतक वह नहीं हो तबतक बाहरमें वांचन, विचार, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि शुभभावमें (जाये), परन्तु मैं तो उन सबसे भिन्न शुद्धात्मा हूँ, ऐसा ध्येय होना चाहिये। बारंबार उसका प्रयास होना चाहिये। बारंबार करते रहना। वह ऐसा है कि होता है, अपना स्वभाव है। इसलिये स्वयं करीब और समीप ही है, दूर नहीं है, परन्तु अनादिका अभ्यास विभावकी ओर हो गया है, इसलिये दूर हो गया है। अभ्यास बाहरका है, अंतरका अभ्यास बारंबार उसका प्रयास नहीं किया है, इसलिये दुर्लभ हो गया है। हो सकता है, अनन्त जीवोंने यह प्रयास करके भेदज्ञान करके स्वानुभूति करके केवलज्ञान प्रगट करके मोक्षमें गये हैं। हो सकता है। बारंबार उसका प्रयास करता रहे। नहीं हो तो छोडना नहीं, परन्तु बारंबार प्रयास करते रहना।
(ज्ञायकके) द्वार पर बारंबार टहेल लगाते रहे तो उसके द्वार खुल जाये। जैसे भगवानके द्वार पर टहेल लगाये तो भगवानके द्वार खुल जाते हैं। वैसे चैतन्यके द्वार पर, ज्ञायकके द्वार पर बारंबार उसका अभ्यास करनेकी टहेल लगाये तो उसके द्वार खुल जाये। उसमें थकना नहीं, बारंबार अभ्यास करते रहना।
मुमुक्षुः- रुचिका विषय तो इतना है कि मैं ज्ञायक परिपूर्ण आत्मा हूँ और बाकी सब मुझसे भिन्न है। ...
समाधानः- सच्ची प्रतीत हो तो अपनी श्रद्धा दृढ हो गयी, रुचिका विषय उतना हो गया। परन्तु जिसे अभी अन्दरसे सच्चा प्रगट नहीं हुआ है, भावना भाता है, उसकी
PDF/HTML Page 109 of 1906
single page version
रुचि कभी मन्द पडती है, कभी तीव्र होती है, कभी मन्द-तीव्र हुआ करती है। इसलिये रुचिकी उग्रता करनी।
मुमुक्षुः- मेरा सबकुछ मुझमें है, उसमें कमी होनेसे ऐसा होता है? मेरा सबकुछ मुझमें है अथवा मेरा सुख और मेरा ज्ञान सब मुझमें है।
समाधानः- मुझमें है, उसकी रुचि, उसकी महिमा। बाहरमें एकत्व होकर बाहरकी रुचि बढ जाये, बाहरमें संतुष्ट हो जाये, ऐसा हो जाये तो रुचिकी मन्दता हो जाये। बाहरमें उसे कहीं तृप्ति नहीं हो, बाहरमें कहीं भी उसे संतुष्टपना नहीं हो और अंतरमें मुझे प्राप्त हो तो ही मुझे संतोष और तृप्ति हो। अन्दरमें ऐसी रुचि और ऐसा हुआ करे। रुचिकी उग्रता होती रहे। बाहरमें संतुष्ट नहीं हो। रुचिकी मन्दता-तीव्रता ...
जिसे यथार्थ भेदज्ञान होकर ज्ञायककी प्रतीत दृढ हो गयी उसे तो एकरूप हो गया, परन्तु जो अभी जिज्ञासामें है, बाहरमें संतुष्ट हो जाता है, बाहरमें तृप्त हो जाये, बाहरमें थोडा करे तो तृप्ति हो जाये और अंतरमें कुछ मन्दता हो जाये तो रुचिको तीव्र करे। इस अर्थमें है।
मुमुक्षुः- समझ हो कि श्रद्धान हो कि मैं अखण्ड स्वरूपसे ध्रुव तत्त्व रूप हूँ, परन्तु जबतक उसे पूर्णरूपसे नहीं प्राप्त करे, पूर्ण आनन्दकी अनुभूति नहीं हो, उस ओरकी रुचि बढानी। श्रद्धान हो उसका पहला भाव कि यह मैं। उसे कैसे प्राप्त करना? मुझे मेरे गुणोंका, गुणधमाका साहजिक रूपसे कैसे अनुभव हो, यही समझना, उसीका प्रयास, उसकी ही रुचि।
समाधानः- उसका ही बारंबार अभ्यास, उसका ही प्रयास करना कि मैं यह ज्ञायक हूँ। उसका यथार्थ ज्ञानस्वभाव पहचानकर, ज्ञानमात्र नहीं परन्तु पूर्ण ज्ञायकद्रव्य हूँ, उसे पहचानकर प्रतीत करे। बारंबार, यही मैं हूँ, ऐसी बारंबार दृढता करके, यही मैं हूँ, दूसरा नहीं, ऐसे बारंबार (अभ्यास करे)। शरीरके साथ, विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि हो जाये, परन्तु मैं यह नहीं हूँ, मैं ज्ञायक ही हूँ। स्वयंको भूल जाये और दूसरेमें एकत्व हो जाये (तो) बारंबार, मैं यह ज्ञायक ही हूँ, इसप्रकार बारंबार दृढता करे। ये जो अनन्त गुणोंसे भरपूर है वह मुझे कैसे प्राप्त हो? इसप्रकार बारंबार उसकी रुचि बढाता जाये। उसकी श्रद्धा दृढ करता जाये। श्रद्धा हो उसे ऐसा लगे कि श्रद्धा दृढ है। बाहरमें संतुष्ट हो जाये तो उसकी रुचिकी मन्दता हो जाये।
मुमुक्षुः- माताजी! उसे रुचिकी मन्दता कहना या रुचिका अभाव कहना?
समाधानः- अभाव नहीं, परन्तु उसे अन्दर थोडी तो खटक होती है। वह स्वयं ही अपना जान सके कि बाहरमें कितना संतुष्ट होता है और कितना अन्दर (प्रयास करता है)? स्वयं अपना जान सकता है। उतना समय हो गया, कुछ होता नहीं, ऐसा
PDF/HTML Page 110 of 1906
single page version
समझकर प्रमाद हो जाये, रुचिकी मन्दता हो जाये, वह सब स्वयं ही जान सकता है। रुचिकी मन्दता, प्रयत्नकी मन्दता, वह सब साथमें है।
मेरेमें गुणोंका भेद लक्षणभेदसे है, वस्तुभेद नहीं है। उसके अनन्त गुण हैं, परन्तु वस्तु तो एक ही है। अनन्त गुणसे भरा मैं चैतन्य हूँ। ऐसा अखण्ड द्रव्य है। उस पर दृष्टि करे, यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ। इसप्रकार बारंबार दृढता करता रहे। बारंबार दृढता करे। मैं यह हूँ और यह नहीं हूँ, एक-दो बार याद किया, फिर भूल जाये, फिर जैसा था वैसा हो जाये। रुचि तो अमुक .... करता है, लेकिन रुचिकी उग्रता हो, लगनी उग्र हो तो वह आगे बढ सकता है। मुझे आत्माके बिना कहीं चैन नहीं है, ऐसी उग्रता अन्दर होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- ऐसी उग्रता..
समाधानः- उसप्रकारकी उग्रता होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- उसका नाम रुचिको बढाते जाना।
समाधानः- हाँ, रुचिको बढाते जाना, यही उसका अर्थ हुआ। अमुक प्रकारकी रुचि तो होती है। अमुक नक्की किया हो कि यह करने जैसा है, उस प्रकारकी जिज्ञासा तो उसे होती है। प्रयत्न उस ओर नहीं जाता है, इसलिये थोडी रुचिकी मन्दता होती है। जिसे ज्ञायककी दशा प्रगट हुयी, उसे तो एकरूप प्रतीति रहती है। फिर उसे आचरणमें आचरण विशेष नहीं होता है, इसलिये वह बाहर खडा है।
मुमुक्षुः- उसके पहले रुचिमें कम-ज्यादा, मन्द-तीव्र होता रहता है।
समाधानः- यथार्थ प्रगट नहीं हुआ है इसलिये।
मुमुक्षुः- पूर्ण स्वरूपकी समझ नहीं हुई है और उस ओर रुचि ज्यादासे ज्यादा हो, अभी भी अपूर्ण हूँ, इसलिये थोडे मन्द कषाय हैं, पूर्णरूपसे प्राप्त नहीं हुआ है, इसलिये ये थोडे-बहुत बाकी है और वह तो नाश होनेके लिये है, ऐसी समझ होनी चाहिये न? जितना भी मन्द कषाय है वह तो नाश होनेके लिये है। समझ हुयी तो उसकी उग्रता बढने पर...
समाधानः- पूर्ण पर्याय प्रगट हो, पूर्ण पर्याय प्रगट हो तो वह छूट जानेवाला है। परन्तु अन्दर अपूर्णता (है)। द्रव्य वस्तु स्वभावसे पूर्ण है, वस्तुमें पूर्णता है, लेकिन उसकी पर्यायमें अपूर्णता है। वस्तु शक्तिमें जो है, शक्ति स्वरूप आत्मामें बाहरके विभावने अन्दर प्रवेश नहीं किया है। जैसे स्फटिक स्वभावसे निर्मल है, लेकिन उसे बाहरके फूल लाल-पीले हो तो उसके कारण उसमें मलिनता दिखती है। मलिनतारूप उसका अमुक प्रकारका परिणमन होता है, कोई करवाता नहीं। स्फटिक वर्तमान लाल-पीले स्वरूप परिणमता है। परन्तु मूलमें जो स्फटिककी निर्मलता है, वह नाश नहीं हुयी है।
PDF/HTML Page 111 of 1906
single page version
वैसे चैतन्य स्वभावसे स्फटिक जैसा निर्मल है। इसलिये उसमें किसी भी प्रकारका अंतरमें मूल तत्त्वमें किसी भी मलिनताने प्रवेश नहीं किया है। इसलिये अपूर्ण उसे पर्याय अपेक्षासे कहते हैं। शक्ति अपेक्षासे उसमें केवलज्ञानकी शक्ति भरी है। स्फटिक जैसे स्वभावसे निर्मल है, उसकी निर्मलताका कोई भी प्रकार शक्तिमें नाश नहीं हुआ है। स्फटिकमें किसी भी प्रकारकी अपूर्णता उसकी शक्तिमें नहीं है।
वैसे ज्ञायकमें किसी भी प्रकारकी अपूर्णता उसकी शक्तिमें नहीं है, परन्तु प्रगट वेदनमें नहीं है। जैसे स्फटिकमें प्रगटमें लाल दिखाई देता है, वैसे आत्मा शक्तिमें परिपूर्ण है, उसका कोई अंश मलिन नहीं हुआ है, लेकिन प्रगटमें उसके वेदनमें अपूर्णता है। उसे स्वानुभूतिकी लीनताका अंश (होता है)। सम्यग्दर्शन होता है तो आंशिक स्वानुभूति होती है। विकल्पसे छूटकर क्षणभर स्वयं स्वानुभूति प्रगट होती है। जिसे सम्यग्दर्शन होता है उसे स्वानुभूति निर्विकल्प दशामें आनन्दकी अनुभूति होती है। लेकिन उसे थोडी देर रहती है और फिरसे बाहर आता है।
ऐसे भेदज्ञान करते-करते, ज्ञायककी उग्रता करते-करते उसकी साधना बढती जाये और पर्यायमें निर्मलता बढती जाये, तब उसे पर्यायमें केवलज्ञानकी प्राप्ति पूर्ण होती है। स्फटिककी लाली निकल जानेपर स्फिटक प्रगट निर्मल होता है। वैसे शक्ति निर्मल है स्फटिक जैसा, परन्तु प्रगटमें उसे निर्मलताका वेदन नहीं है। इसप्रकार बारंबार स्वयं ज्ञायकको पहचानकर उसमें लीनता करता रहे तो पहले स्वानुभूति आंशिकरूपसे होती है। अभी केवलज्ञान लोकालोकको जाने वैसा केवलज्ञान नहीं हो जाता। लोकालोकका केवलज्ञान वीतरागदशा एकदम हो जाये, फिर रागका अंश भी उत्पन्न नहीं हो, रागका अंश कहाँ चला गया, था कि नहीं ऐसा हो जाये, तब वह स्वयंको पूर्ण प्रकाशित करे और अन्यको प्रकाशित करे ऐसा ज्ञान होता है। स्वानुभूतिमें वह नहीं होता। स्वभाव पूर्ण है, अभी साधना है। इसलिये निर्विकल्प दशा होती है उस वक्त स्वानुभूति, आनन्दकी अनुभूति होती है। लेकिन वह थोडी देर रहकर फिरसे आता है। तो भी मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी धारा उसे चलती है।
इसप्रकार बारंबार अनुभूति होते-होते उसे चारित्रदशा होती है। अंतरमें लीनता बढती जाती है, मुनिदशा होती है और बादमें उसे पूर्णता होती है। फिर क्षण-क्षणमें स्वरूपमें ऐसा लीन होता है कि उसमें ऐसा लीन हो जाये कि फिर बाहर ही नहीं आये। ऐसी लीनता हो तब उसे केवलज्ञान होता है। तब अनन्त गुणसे सब प्रगट पूर्ण हो जाता है। तब पूर्णता होती है।
पहले पूर्णकी श्रद्धा होती है। और स्वानुभूति, पहले निर्विकल्प दशा होती है, उसमें स्वानुभूति-आनन्दकी अनुभूती होती है। लेकिन फिरसे बाहर आ जाता है। फिर भेदज्ञान
PDF/HTML Page 112 of 1906
single page version
चालू रहता है। लेकिन वह सब समझता है कि ये सब रागकी दशा है, उससे भिन्न ही भिन्न रहता है। उसे अल्प-अल्प (राग) होता है, परन्तु वह छूटनेके लिये है। स्वयं पुरुषार्थ करके लीनता बढाता जाये तो छूट जाता है। लेकिन पूर्ण तो जब केवलज्ञान होता है, मुनिदशा हो, अंतरमें मुनिदशा कैसी? बाहरसे ले ले ऐसे नहीं, अंतरमें स्वानुभूति बढ जाये। ऐसी बढ जाये कि बाहर रह नहीं सके। अंतर्मुहूर्त में आये, क्षण-क्षणमें बार-बार अन्दर जाता है, फिरसे अन्दर जाता है। ऐसी स्वानुभूति आनन्दकी लीनता होती है तब उसे केवलज्ञान होता है। उसे पूर्ण दशा कहते हैं। तब तक उसे पूर्ण है, लेकिन वह शक्तिमें पूर्ण है। शक्तिमें है तो प्रगट होता है। पानी स्वभावसे निर्मल है। लेकिन वह वर्तमान कीचडसे मलिन हुआ, लेकिन निर्मल औषधिसे निर्मल होता है। स्वभावसे-शक्तिसे आत्मा पूर्ण है। परन्तु उसे वेदन नहीं है, प्रगटता नहीं है, वेदन नहीं है, पूर्णताका।
... श्रद्धा, भावना, प्रयाससे अभी अंश प्रगट होता है और वह गृहस्थाश्रममें होता है। लेकिन उसमें बहुत आगे बढ जाये तब उसे एकदम ऐसी स्वानुभूति अंतर्मुहूर्त- अंतर्मुहूर्तमें आनन्दकी अनुभूति होती है, क्षण-क्षणमें होती है। फिर वह गृहस्थाश्रममें रह नहीं सकता। फिर मुनिदशा आ जाती है और फिर कोई उस भवमें, कोई दूसरे भवमें ऐसी आनन्दकी अनुभूति बढ जाती है, फिर पूर्ण केवलज्ञान होता है। फिर बाहर ही नहीं आता, अन्दर गया सो गया, स्वरूपमें समाये तो समा गये, फिर बाहर ही नहीं आते। फिर ऐसी वीतरागदशा हुई, रागका अंश उत्पन्न ही नहीं होता।
मैं ज्ञायक हूँ, मैं स्वभावसे पूर्ण हूँ, परन्तु अभी प्रगट नहीं है। रागका वेदन है। मैं भिन्न ज्ञायक हूँ, इसप्रकार रागसे भिन्न होते-होते, भेदज्ञान करते-करते उसे स्वानुभूतिकी दशा हो, तब उसे मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। .. पहले होता है, पूर्णता बादमें होती है।