Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 252.

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ट्रेक-२५२ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- स्वभाव-से ही अमूर्तिक पदार्थ आत्मा, उसका लक्षण अमूर्तिक। मूर्तिक पदार्थ तो इन्द्रिय गोचर होता है, इसलिये उसका ज्ञान भी होता है और प्रतीति भी आये। ये अमूर्तिक पदार्थ है, उसका लक्षण भी अमूर्तिक है। अभी तो लक्षण पकडनेमें देर लगती है, वैसेमें उस लक्षण पर-से लक्ष्य पर जाना और वह भी अनुभव पूर्व ऐसा नक्की करना कि मैं यही हूँ, ये तो बहुत कठिन लगता है।

समाधानः- वह मूर्तिक है, यह अरूपी है। अरूपी है लेकिन स्वयं ही है। वह रूपी है लेकिन पर है। वह तो पर पदार्थ है। उसका वर्ण, गन्ध, रस सब दिखता है। रूपी-दृृश्यमान होते हैं। परन्तु यह जो है वह, भले स्वयंको दृश्यमान होता नहीं, परन्तु वह उसे अनुभूतिमें आये ऐसा है। उसका स्वानुभव-वेदन वह अलग बात है, परन्तु उसका लक्षण अरूपी होने पर भी, अरूपी लक्षण भी पहचान सके ऐसा है।

जैसे अन्दरमें स्वयंको विभावके परिणाम हैं, वह विभाव परिणाम, जैसे यह रूपी दृश्यमान होते हैं, वैसे विभाव परिणाम कहीं दृश्यमान नहीं होते हैं। उसे वह वेदन- से पहचान लेता है कि यह राग है और यह कलुषितता है और यह क्रोध है। उसके वेदन पर-से पहचान सकता है कि ये सब भाव कलुषिततावाले हैं। ऐसे पहचान सकता है।

वैसे स्वभावके लक्षणको भी उसके लक्षण-से पहचाना जा सकता है कि यह ज्ञान लक्षण है, यह शान्तिवाला लक्षण है। यह कलुषित लक्षण है। उस कलुषित लक्षणको वह देख नहीं सकता है। उसे वेदन-से पहचानता है।

मुमुक्षुः- वह अच्छा न्याय दिया। क्योंकि कलुषित परिणाम भी अमूर्तिक है और वह दिखाई नहीं देते, फिर भी उसे नक्की किया जा सकता है।

समाधानः- हाँ, वह नक्की करता है, उसके वेदन-से नक्की करता है। वैसे ज्ञान लक्षणको भी पहचान सकते हैं, अरूपी लक्षण है तो भी। जाननेका लक्षण, वह स्वयं जो जान रहा है कि यह राग है, यह क्रोध है, यह माया है, यह लोभ है ऐसा जैसे पहचान सकता है, तो वह पहचाननेवाला कौन है? ये सब भाव हैं, उसे पहचाननेवाला, जो जाननेवाला है वह कौन है? उस जाननेवाले पर-से, जानन लक्षण पर-से जाननेवालेको पहचान सकता है कि यह जाननेवाला है कौन कि जो यह सब जान लेता है? जानन


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लक्षण पर-से वह पदार्थको पहचान सकता है।

अरूपी होने पर भी उसका लक्षण ऐसा है कि पहचान सके ऐसा है और स्वयं ही है, अन्य नहीं है। वह तो क्षण-क्षणके भाव पलट जाते हैं। फिर भी जाननेवाला तो ऐसे ही खडा रहता है। जानन लक्षण तो ज्योंका त्यों है। इसलिये वह उसे पहचान ले कि यह जाननेवाला तो ज्योंका त्यों है, बाकी सब भाव तो चले जाते हैं। जो कलुषिततावाले भाव वेदनमें आनेवाले हैं वह चले जाते हैं। परन्तु जाननेलवशापला ज्याेंका त्यों रहता है। वह जाननेवाला कौन है? उसे पहचान सके ऐसा है। अरूपी होने पर भी उसके स्वरूपसे पहचाना जाता है।

मुमुक्षुः- दिक्कत कहाँ आती है कि राग-द्वेषके परिणाममें आकुलतारूप वेदनमें आते हैं इसलिये ख्यालमें आता है। ज्ञान निर्विकल्प है। अतः वेदनमें आता होने पर भी वेदनमें नहीं आने जैसा दिखता है।

समाधानः- वह सूक्ष्म उपयोग नहीं करता है। वह स्थूल है इसलिये स्थूल वेदनको पकड लेता है। परन्तु यह तो शान्तिका लक्षण है, जिसमें आकुलता नहीं है, मात्र जानना ही है। उसमें कुछ करना ऐसा नहीं आता है। मात्र विचार करे तो वह सूक्ष्म है, परन्तु उसमें मात्र जानना ही रहा कि ये सबको जाननेवाला कौन है? उस जानन लक्षणमें शान्ति भरी है। परन्तु वह सूक्ष्म होकर देखे तो उसे पहचान सकता है। वह स्थूलता युक्त है इसलिये स्थूलता-से पहचान लेता है।

इसमें अन्दर गहराई-से देखे तो जाननेमें आकुलताका वेदन नहीं है, परन्तु यदि देखे तो जाननेवालेमें शान्तिका लक्षण रहा है कि जिसमें आकुलता नहीीं है। जिसमें कुछ करना नहीं है, मात्र जानना है, ऐसा शान्तिका लक्षण, निराकुलता लक्षण है। उसे पहचान सकता है। स्वयं सूक्ष्म होकर देखे तो पहचान सके ऐसा है। लक्षण पर- से लक्ष्यको पहचाने कि यह जानन लक्षण जो है वह किसके आधार-से है? किसके अस्तित्वमें है? चैतन्यके अस्तित्वमें। जो अस्तित्व अनादिअनन्त शाश्वत है कि जिसका नाश नहीं होता। ऐसा अनादिअनन्त अस्तित्व वह चैतन्यद्रव्य मैं हूँ। और उसमें ही सब भरा है। उसमें अनन्त धर्म आदि सब बादमें नक्की कर सकता है। लक्षण-से यदि लक्ष्यको पहचाने तो।

मुमुक्षुः- लक्षण तो शान्त लक्षण यानी निर्विकल्परूप-से ख्यालमें लेने जाते हैं वहाँ तो उससे पार लक्ष्यभूत पदार्थको लक्ष्यमें लेता हूँ, उतनेमें तो उपयोग (छूट जाता है)। मुश्किल-से रागको भिन्न करे, प्रगट ज्ञानका थोडा ख्याल आया नहीं आया, उतनेमें तो उपयोग पलट जाता है।

समाधानः- वह उसे बुद्धिपूर्वक लक्ष्यमें लेता है कि यह स्थूल लक्षण सो मैं।


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सूक्ष्म लक्षण ज्ञानका, वह मैं हूँ। उस तरफ जाय, उसे लक्ष्यमें ले तो बुद्धिपूर्वक है। अभी निर्विकल्परूप परिणति नहीं है, निर्विकल्प स्वानुभूति भी नहीं है, परन्तु उसे लक्षण- से पहचाने-नक्की करे कि जिसमें विकल्प नहीं हैं, मात्र जानना निराकुल लक्षण है, उसे पहचाने। भले ही उपयोग पलट जाय तो भी बारंबार ग्रहण करनेका प्रयत्न करे। बुद्धि-से नक्की करने जाय और उपयोग पलट जाय तो उसे बारंबार नक्की करनेका प्रयत्न करे कि ये जो ज्ञान लक्षण है वही मैं हूँ और उसे धारण करनेवाला चैतन्य द्रव्य पदार्थ सो मैं हूँ, इसप्रकार स्वयंके अस्तित्वको नक्की करनेके लिये प्रयत्न करे।

निर्विकल्प परिणति तो बादमें होती है। पहले तो उसे प्रतीत करता है कि यह अस्तित्व है सो मैं हूँ। यह विभाव मैं नहीं हूँ। निर्विकल्प स्वानुभूतिमें जो आनन्द वेदनमें आये वह अलग अनुभवमें आता है। यहाँ ज्ञानमें तो मात्र उसे शान्ति, यह ज्ञान लक्षण शान्तिवाला है, उतना ही उसे ग्रहण होता है। आनन्दकी अनुभूति तो उसे निर्विकल्प स्वानुभूतिमें प्रगट होती है। आत्मा पूरा ज्ञान, आनन्द सागर-से भरा, ज्ञान-से भरा है। वह उसे स्वानुभूतिमें वेदनमें आता है। यह तो मात्र उसे लक्षण-से प्रतीतमें आता है। उपयोग पलट जाय तो बारंबार नक्की करनेका प्रयत्न करे। वह सहज न हो तबतक उसका प्रयत्न करना।

मुमुक्षुः- अनुभव होने-से पहले ऐसा सहज होगा?

समाधानः- अनुभव पूर्व उसे बारंबार पलट जाता है तो बारंबार अभ्यास करे तो दृढता तो हो। वास्तविक सहजता बादमें होगी, लेकिन एक दृढतारूप हो सकता है।

मुमुक्षुः- अपूर्व अवसरमें मुनिपदकी भावना भायी है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि है और आत्माको देखा है। सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पूर्व जीव आगे बढता है, वह अस्तित्वकी अव्यक्त पक्कड-से आगे बढता है? मिथ्यादृष्टिने तो कुछ देखा नहीं है। सम्यग्दृष्टिने अस्तित्व देखा है और मुनिपदकी भावना भाते हैं। मिथ्यादृष्टिने अस्तित्व नहीं देखा है, तो अव्यक्तपने उसके अस्तित्वके विश्वास-से आगे बढता है?

समाधानः- है ही, ऐसे वह नक्की करता है। उसके लक्षण-से पहचान सकता है। अस्तित्व देखा नहीं है, परन्तु उसे अन्दर भाव होता है कि यह लक्षण किसका है? यह चैतन्यका लक्षण है। इसप्रकार मति-श्रुत द्वारा नक्की करनेकी उसमें वैसी योग्यता है कि पहले वह नक्की कर सकता है। सहज बादमें होता है, परन्तु नक्की तो कर सकता है।

मुमुक्षुः- इस ओर अस्तित्व और इस ओर विभाव-से भिन्न नास्तित्व, इसप्रकार आगे (बढता है)?

समाधानः- ऐसा अभ्यास करता है। अनादि काल-से उसने बाहर-से मुनिपना


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ले लिया वह अलग बात है। परन्तु जो जिज्ञासाकी भूमिकामें है, वह उसका अभ्यास करता है। बाकी जो कुछ समझते नहीं है कि अंतरमें आत्माका अस्तित्व है, ये विभाव- से भिन्न है, उसकी बात नहीं है। वे सब तो क्रियामें पडे हैं। परन्तु जिसे रुचि हुयी है कि आत्मा कोई अपूर्व चीज है और मुक्तिका मार्ग अंतरमें रहा है, ऐसी रुचि है, जिज्ञासा है, तो वह बारंबार अभ्यास-से आगे बढता है कि यह चैतन्यका अस्तित्व भिन्न है, विभाव भिन्न है। चैतन्य अनन्त गुण-से भरा है। उस प्रकारके अभ्यास-से विचार करके, नक्की करके आगे बढता है।

बाकी जो क्रियामें पडे हैं, जिन्हें कुछ रुचि नहीं है, अंतरमें कुछ अपूर्वता नहीं लगी है, वे तो बाहर क्रियामें पडे हैं। गुरुदेवने ऐसा मार्ग बताया कि अन्दर कोई वस्तु अलग है और मुक्तिका मार्ग अंतरमें है। स्वानुभूति अंतरमें प्रगट होती है। उसका अभ्यास करके आगे बढता है कि मैं चैतन्य भिन्न, यह विभाव भिन्न है। द्रव्य-गुण- पर्याय अनन्त मेेरेमें हैं। मैं एक अखण्ड चैतन्य हूँ। गुणभेद नहीं है, सब लक्षणभेद है। अनेक प्रकार-से नक्की करके तत्त्वका स्वरूप समझकर आगे बढता है।

सम्यग्दर्शनके बाद तो उसे आगे बढनेके लिये उसे मुनिदशाकी भावना आती है। वह तो स्वरूपकी दशा कैसे बढे? स्वरूपकी दशा बढने पर बाहर ऐसा निमित्त-नैमित्किक सम्बन्ध है कि उसे मुनिपना आ जाता है। अंतरमें चैतन्यकी परिणतिकी दशा कैसे आगे बढे, ऐसी भावना होती है।

मुमुक्षुः- जिज्ञासुकी भूमिकामें चाहे जितने सवाल आपको पूछते हैं और जवाब आते हैं, उसमें नवीनता आती हो, सुनते ही रहे, ऐसा होता है। भले ही प्रश्न एक जातके हो, परन्तु ... कुछ कहते हैं।

समाधानः- प्रश्न एक जातके हों, जवाब उसी जातके होते हैं।

मुमुक्षुः- जवाब तो हमें भिन्न-भिन्न लगते हैं। ... ऐसे जवाब आते हैं। शल्य असंख्य प्रकारके हैं तो बहुत प्रकारके ...

समाधानः- गुरुदेवके प्रताप-से गुुरुदेवने सबको अंतर दृष्टि करवायी कि अंतरमें मार्ग है, और कहीं नहीं है। बाकी तो सब व्रतके दिवस आये तो बाहर-से कुछ होता है। बाहरके व्रत और उपवास आदि बहुत करें तो अपने धर्म हो जाता है, ऐसा सब माननेवाले जीव होते हैं। परन्तु गुरुदेवने अंतर दृष्टि करवायी। अंतरमें हो, उसके साथ सब शुभ परिणाम होते हैं। रुचिवालेको भी होते हैं। सम्यग्दर्शन होनेके बाद भी शुभभाव होते हैं। मुनिदशा होनेके बाद भी पंच महाव्रतादि होते हैं। परन्तु वह हेयबुद्धि-से आते हैं। अपनी परिणति न्यारी हो गयी है। स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हुयी है।


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मुमुक्षुः- शुभभावकी मर्यादा उसे ख्यालमें आ गयी।

समाधानः- ख्यालमें आ गयी है।

समाधानः- ... देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें आत्मा कैसे प्रगट हो? आत्माका सान्निध्य कैसे प्रगट हो, वह करना है। आत्मा स्वयं ही है। वह कैसे ग्रहण हो, वह करने जैसा है। बाकी बहुत सुना है, बहुत साल पर्यंत। गुरुदेवने बहुत सुनाया है और बहुत दिया है उसे पिघलाना है। बहुत साल बीत गये। करनेका एक ही है। देव- गुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें आत्मा कैसे ग्रहण हो?

मुमुक्षुः- .. यही भावना है। आप एकका आधार है अभी तो।

समाधानः- गुरुदेव मिले, बडा आधार (है)। गुरुदेवने सबको बहुत दिया है। स्वाश्रय- आत्माका आश्रय (लेना) और शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रका आश्रय।

मुमुक्षुः- बहिनश्री! आत्मा सम्बन्धित ऐसी कौन-सी बात है, जो पूर्वमें कभी सुनी नहीं है और जो आपको अनुभवमें आ गयी है। आपके श्रीमुख-से प्रत्यक्ष सुननेकी जिज्ञासा है।

समाधानः- गुरुदेव समक्ष बहुत बातें सुनने मिली है। जीवने अनन्त कालमें सुना है वह मात्र बाह्य दृष्टि-से ही सुना है। शास्त्रमें आवे, भगवानकी वाणीमें आवे, परन्तु जीवने अंतरमें जो उसका आशय है उसे ग्रहण नहीं किया। गुरुदेवकी वाणीमें तो बहुत स्पष्ट आया है। अनुभवकी बात गुरुदेव स्पष्ट कर-करके कहते थे। मुक्तिका मार्ग एकदम स्पष्ट बताते थे। परन्तु उसका आशय ग्रहण करना वह अपने हाथकी बात रहती है।

जीवने बाह्य दृष्टि-से क्रिया-से धर्म हो, ऐसा मान लिया है। इतने शुभभाव करें या बाहरके व्रत करें या नियम करें, यह करें, वह करें उसमें-शुभभावोंमें धर्म माना है। परन्तु शुभभाव-से भी आत्मा भिन्न एक शुद्धात्म तत्त्व है, उसे पहचाना नहीं है। और शुद्धात्मामें सब भरा है। उसमें ज्ञान, आनन्द आदि अनन्त-अनन्त शक्तियाँ उसीमें भरी है। उसकी उसे अपूर्वता नहीं लगी है। सुना तो कुछ अपूर्व है, यह चैतन्य वस्तु कोई अपूर्व है और उसमें सब अपूर्वता भरी है। और गुरुदेव कहते हैं वह कोई अपूर्व बात कहते हैैं, अपूर्व आत्माकी बात कहते हैं। ऐसी अपूर्वता अन्दर-से जो लगनी चाहिये, वह उसे लगी नहीं है।

आत्मा अपूर्व है, उसकी बात भी अपूर्व है। उसकी अपूर्वता लगे और चैतन्य स्वभावकी अपूर्वता लगनी चाहिये कि आत्मा चैतन्य कोई अदभुत वस्तु और अपूर्व वस्तु है। वह अपूर्वता लगे और उस ओर दृष्टि करे, उसका ज्ञान करे और उसमें लीनता करे तो वह प्रगट होता है।

शास्त्रमें आता है, अनन्त कालमें वह बात परिचयमें नहीं आयी है, अनुभवमें नहीं


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आयी है। क्योंकि उसका स्वयंने परिचय नहीं किया है। सुना तो उसे ऊपर-ऊपर- से चली गयी है। उसकी जो अपूर्वता लगनी चाहिये वह नहीं लगी। आत्मा कोई अपूर्व है। उसमें कोई अपूर्वता भरी है और वह कोई अपूर्व वस्तु है। जगतकी आश्चर्यभूत अपूर्व वस्तु हो तो आत्मा है। और आत्माकी दृष्टि करनी, आत्माकी पहचान करनी, आत्माका ज्ञान अंतरमें-से करना वह कोई अपूर्व है।

शुभभावमें, विभाव भावमें एकत्वबुद्धि कर रहा है, उसीका अभ्यास किया है। उसीका परिचय किया है। परन्तु जो आत्माकी अपूर्वता लगनी चाहिये (वह नहीं लगी)। उससे आत्मा भिन्न है। सब विकल्पों-से आत्मा भिन्न निर्विकल्प तत्त्व है। उसे उसने न्यारा ग्रहण नहीं किया है। अंतरमें न्यारा ग्रहण करे तो उसकी अपूर्वता उसके अनुभवमें आये बिना नहीं रहती। आत्मा कोई अपूर्व है। उसके स्वरूपमें स्थिर हो जाय तो वह अपूर्व वस्तु प्रगट होती है। परन्तु वह स्थिर कब हो? स्वयंको यथार्थ पहचान करे, उसकी यथार्थ प्रतीति हो तो उसमें स्थिर होता है और तो उसमें-से उसे अपूर्वता प्रगट होती है।

बाहरका सब ग्रहण किया है, परन्तु अंतर चैतन्यका स्वभाव ग्रहण नहीं किया है। उसे ग्रहण करना। अंतरका वह कोई अलग पुरुषार्थ करे। उसने बाहर-से सब प्रयत्न किया है। बाहर-से अशुभमें-से शुभमें आया, परन्तु शुभ-से भी भिन्न मैं एक चैतन्य न्यारा तत्त्व है, उसे ख्यालमें नहीं लिया। उसे न्यारा ख्यालमें तो उसमें-से अपूर्वता प्रगट हो ऐसा है। उसमें शान्ति, उसमें आनन्द, सब उसमें है।

बाह्य क्रिया सब छूट जाय तो अंतरमें क्या होगा? इस प्रकार अनन्त काल-से प्रवृत्तिके अलावा अन्दर निवृत्तस्वरूप आत्मा है, उस निवृत्तमें सब भरा है। ऐसी उसे अपूर्वता नहीं लगती है। यह छूट जायेगा तो अंतरमें शून्यता (हो जायगी)। शून्यता नहीं है, अपितु अंतरमें भरचक भरा है, वह उसे प्रगट होता है।

मुनि किसके आश्रय-से मुनिपना पालेंगे? मुनिको महाव्रतका आश्रय (नहीं है)। महाव्रत तो बीचमें आते हैं, उन्हें आश्रय तो आत्माका है। आत्मा जो अपूर्व वस्तु है, उसमें ही उन्हें शरण लगता है, उसका ही उन्हें आश्रय है। विकल्प छूटने-से वह निष्क्रिय नहीं हो जाता। परन्तु अंतरमें-से उसकी स्वरूप परिणति प्रगट होती है और स्वरूपमें जो भरा है, वह उसे प्रगट होता है।

ये सब छूट जाने-से उसमें क्या होगा? ऐसी उसे अंतरमें-से अपूर्व प्रतीति नहीं होती है। अंतरमें सब भरा है। ज्ञानस्वरूप आत्मा, ज्ञानमात्र आत्मा उसमें ही सब भरा है। और उसे भिन्न ग्रहण करने-से उसमें-से प्रगट होता है। कर्ताबुद्धिका रस, बाह्य प्रवृत्तिका रस, अंतरमें-से उसे छूटता नहीं है, कहीं न कहीं मीठास रह जाती है। परन्तु उन सब-से न्यारा कोई कर्ता-क्रिया-कर्मका रस नहीं, कोई प्रवृत्तिका रस नहीं,


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अन्दर चैतन्य एक स्वरूप आत्मा है, उसमें स्थिर हो जाना। उसकी प्रतीत, उसका ज्ञान, उसकी उसे यदि अपूर्वता लगे तो उसमें-से प्रगट हुए बिना नहीं रहता। अंतरमें जाने-से उसकी स्वभाव परिणति-स्वभाव क्रिया प्रगट होती है। परन्तु बाह्यकी प्रवृत्तिका और बाह्य विकल्प प्रवृत्तिका उसे रस लग गया है। उसमें एकत्वबुद्धि हो गयी है, उसमें-से वह छूट नहीं सकता है। कर्ताबुद्धिमें-से ज्ञायक होना, ज्ञायकता-ज्ञायकरूप परिणमन करना, वह उसे पुरुषार्थ करके सहजरूप करना मुश्किल हो गया है।

समाधानः- ... अनुभूतिको (गुरुदेवने) स्पष्ट करके बता दिया है। समयसारमें विभिन्न प्रकार-से मुक्तिका मार्ग प्रकाशित किया है। आचार्यदेव कहते हैं, मुझे अंतरमें-से वैभव प्रगट हुआ है, भगवानके पास-से, गुरुके पाससे, वह मैं सबको कहता हूँ। विभिन्न प्रकार-से (कहा), गुरुदेवने उसे स्पष्ट किया। नहीं तो कोई समयसारको समझता नहीं था। ज्ञायक हो जा। भेदज्ञान प्रगट कर। अबद्धस्पृष्टमें तू अकेले आत्माको ग्रहण कर। इस प्रकार विभिन्न प्रकार-से मुक्तिका मार्ग, स्वानुभूतिका मार्ग आचार्यदेवने कहा और गुरुदेवने स्पष्टि किया।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!