Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 254.

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ट्रेक-२५४ (audio) (View topics)

समाधानः- ... वह भी अपूर्व नहीं है। वह सब अनादि कालमें परिचयमें आया, अनुभवमें आया। आत्माका स्वभाव परिचयमें, अनुभवमें आया नहीं। गुरुदेवकी वाणीमें वह बात आती थी। वह कोई अपूर्व वस्तु है। जगत-से कोई .. अपूर्व (है)। ज्ञायकमें अनन्त शक्तियाँ भरी है, अनन्त आनन्द भरा है। अनन्त धमा-से आत्मा भरा ही है। कोई अपूर्व तत्त्व है। उसकी कोई उपमा जगतमें नहीं है। वह तो अनुपम है।

आत्मतत्त्व तो कोई अपूर्व है। उसकी ज्ञायकता अनन्त काल जाने और अनन्त लोकालोकको जाने तो भी उसका ज्ञानस्वभाव खत्म नहीं होता। लोकालोकको एक समयके अन्दर एक अणुरेणुवत जान लेता है तो उसमें कोई वजन नहीं हो जाता। जैसा ज्ञायकका स्वभाव कोई जाननेका अपूर्व है, ऐसा आनन्दका स्वभाव कोई अपूर्व है। अनन्त काल तक जाने तो उसमें-से कम नहीं होता। उसमें अनन्त शक्ति है। एक समयमें अनन्त द्रव्य, अनन्त क्षेत्र, अनन्त काल, अनन्त भाव अपनेको, परको, सबके अनन्त भावोंको सबको एक समयमें स्वरूपमें जब लीन होता है, केवलज्ञान होता है तो एक समयमें जान लेता है। उसकी ज्ञायककी शक्ति कोई अपूर्व, अपूर्व अनुपम है।

एक समयमें लोकालोकके अनन्त द्रव्य, अनन्त पुदगल, चैतन्य, धर्मास्ति, अधर्मास्ति सबके अनन्त धर्म, उसका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, अपना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सबको एक समयमें जान लेता है। ऐसी कोई शक्ति अपूर्व है। अनन्त शक्ति-से ज्ञायक स्वभाव ...

ज्ञायकको पहचानना। वह परको जानता है इसलिये अपूर्व नहीं, उसकी शक्ति ही ऐसी अपूर्व है। अमर्यादित, अमाप शक्ति है। ज्ञायककी महिमा लगनी चाहिये, अनुपमता लगनी चाहिये। उसका आनन्द स्वभावका जगतमें कोई मेल नहीं है। उसकी उपमा नहीं है। ऐसा कोई अपूर्व आनन्द है कि जिसकी जगतमें तुलना नहीं (हो सकती)। ऐसा अनुपम आनन्द, अनुपम ज्ञान, अनन्त धर्म (हैं)। ज्ञायकतत्त्व अपूर्व है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- ऐसे शुभभाव तो बीचमें आता है। स्वरूपमें लीन हो जाना, मुनि स्वानुभूतिमें बारंबार लीन होेते हैं। बीचमें शुभभावमें ... होता है, वह अपवाद मार्ग है।


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मुमुक्षुः- प्राप्ति उत्सर्ग मार्ग-से ही है।

समाधानः- प्राप्ति तो उत्सर्ग मार्ग-से होती है, तो भी बीचमें आता है। उत्सर्ग- अपवादकी मैत्री होती है। जबतक केवलज्ञान नहीं होता तबतक शुभभाव बीचमें ... ऐसा आता है। शुभभाव-से मुक्ति नहीं होती, मुक्ति तो उत्सर्ग स्वानुभूति-से होती है। मुक्ति इससे होती है, केवलज्ञान इससे होता है। परन्तु वह बीचमें आता है। जबतक उत्सर्गरूप परिणमन नहीं होता, तबतक बीचमें अपवाद होता है। परन्तु अपवाद अपनेको लाभ करता है, ऐसी श्रद्धा नहीं होनी चाहिये। बीचमें उत्सर्ग और अपवाद दोनों साथमें होते हैं। शुभभाव बीचमें आता है। प्राप्ति तो शुद्धउपयोग-से होती है। यथार्थरूप-से तो शुद्धउपयोग-से पोसना होता है। व्यवहार-से शुभभाव-से पोसना होता है।

मुमुक्षुः- ध्याये बनाया हो तो हमको तो..

समाधानः- ध्येय शुद्धात्माका रखना चाहिये और बीचमें शुभभाव आता है। अशुभमें नहीं जाना। जबतक तीसरी भूमिका शुद्धात्माकी प्राप्त नहीं होती तबतक शुभभाव बीचमें आता है। वह भूमिका रहती है। व्यवहार-से उसका पोसना कहनेमें आता है। वास्तविक पोसना तो शुद्धात्मा... व्यवहार-से पोसना ... व्यवहार बीचमें आता है।

बारंबार मुझे ज्ञायककी प्राप्ति होवे, मुझे ऐसी स्वानुभूति होवे। ऐसा अभ्यास बारंबार, गहरी लगन, बारंबार मुझे ज्ञायकतत्त्व कैसे प्राप्त हो, ऐसी भावना रहे। देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्यका शुभभाव, बीचमें शुद्धात्माकी भावना रहे, उसके संस्कार रहे। वह संस्कार साथमें आते हैं। गहरे संस्कार (डाले), ज्ञायकका अभ्यास करे वह संस्कार रहते हैं। बीचमें जो शुभभाव होता है, देव-गुरु-शास्त्रके, उससे जो पुण्यबन्ध होता है तो उसके योग्य बाहरमें साधन मिल जाते हैं-देव-गुरु-शास्त्र। भीतरमें ज्ञायकका संस्कार डालने चाहिये। शुभभाव बन्धता है, उससे बाहरमें साधन मिलता है और भीतरमें शुद्धात्माका संस्कार।

मुमुक्षुः- कैसा पुरुषार्थ (होता है)?

समाधानः- सबका एक ही उपाय है-शुद्धात्माको पहचानना।

मुमुक्षुः- पहचानना कौन-से पुरुषार्थ-से? कैसे?

समाधानः- यह पुरुषार्थ-स्वयंको शुद्धात्माकी लगनी लगे। जो कार्य करनेके पीछे लगे तो होता है। व्यवहारमें कोई कार्य करना हो तो उसके पीछे लगता है। तो शुद्धात्माका स्वभाव पहिचाननेके लिये स्वयं बाहरमें रुकता है, अन्दरमें ... मुझे शुद्धात्मा कैसे प्राप्त हो? उसकी लगन, उसके पीछे लगे। उसका स्वभाव पहचाननेके लिये बारंबार-बारंबार, बारंबार-बारंबार (प्रयत्न करे)। छूट जाय तो भी बारंबार-बारंबार उसके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये। एक ही उपाय है-शुद्धात्माको पहिचानना, उस पर दृष्टि करनी, उसका ज्ञान करना, उस ओर परिणति करनी। उपाय एक ही है।


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मुमुक्षुः- .. उपयोग आत्माकी तरफ पहुँचकर एकाग्र नहीं हो सकता।

समाधानः- रुचि होवे तब होवे न। रुचि बाहर होवे तो उपयोग कहाँ-से लगेगा? रुचि स्व तरफ जाय तो उपयोग लगे। रुचि बदल देनी। आत्मा ही प्राप्त हो, आत्मा ही प्राप्त हो, ऐसी रुचि होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- माताजी! हम स्वाध्याय करते हैं, वांचन-विचार करते हैं, मंथन करते हैं, फिर भी आत्मानुभूति होती नहीं है। तो हमें ऐसा कोई उपाय बताओ कि जिससे हम आत्मानुभूति करके अपना ... कर ले।

समाधानः- विचार, वांचन सब होेवे तो भी परिणति भीतरमें पलटनी चाहिये न। पुरुषार्थ करके परिणति पलटनी। परिणतिको पलटाना चाहिये। विचार, वांचन (करे)। मैं कौन हूँ? यह विभाव है। मैं चैतन्यतत्त्व हूँ। मेरा स्वभाव क्या है? उसको लक्षण- से पहचानना चाहिये। लक्षण-से पीछाने बिना, भीतरमें-से पीछान किये बिना वह होता नहीं। बाहर-से विचार, वांचन सब होता है तो भी लक्ष्य तो मुझे शुद्धात्मा कैसे प्रगट हो, ऐसा ध्येय होना चाहिये। ऐसा पुरुषार्थ होना चाहिये। बारंबार पुरुषार्थ करना चाहिये। मैं चैतन्य हूँ, ज्ञायक हूँ। परद्रव्यका कर्ता होता है, विभावकी कर्ताबुद्धि टूटकर ज्ञायक- ज्ञाताकी परिणति होनी चाहिये। परिणति तो अपनेको करनी है, वह कोई कर नहीं देता। अनादि काल-से परिभ्रमण हुआ, एकत्वबुद्धि-से हुआ है। और चैतन्यको विभक्त- मैं उससे विभक्त-भिन्न हूँ, ऐसा भिन्नताका ज्ञान, भिन्नताकी परिणति होनी चाहिये। तो हो सकता है।

मुमुक्षुः- पर-से भिन्न आत्माकी रुचि ..

समाधानः- रुचि तो अपनेको करनी पडती है। रुचि कौई नहीं कर देता है। परमें रुचि रहती है, परमें सर्वस्व मान लेता है, सबकुछ परमें है। ऐसी रुचि रहती है। मेरे आत्मामें सर्वस्व है। परमें नहीं है। सबकुछ ज्ञान, आनन्द सब मेरे आत्मामें है, बाहरमें नहीं है। भीतरमें ऐसी प्रतीत होनी चाहिये तो परिणति पलटती है। रुचि तो अपनेको करनी पडती है।

बाहरमें सुख नहीं है। बाहरमें आकुलता-आकुलता है। विभावमें आकुलता है। परद्रव्यमें दृष्टि करनेमें सब आकुलता है। निराकुल स्वभाव और आनन्द स्वभाव मेरा है। तो रुचि पलटती है।

मुमुक्षुः- गुरुदेवश्रीके प्रवचनमें आया है, समयसार १७-१८ गाथामें, कि ज्ञानका स्वभाव स्वपरप्रकाशक होने-से आबालगोपालको सबको भगवान आत्मा जाननेमें आता है। तो अज्ञानीको कैसे स्वपरप्रकाशक स्वभाव है, वह ख्यालमें नहीं आया?

समाधानः- अज्ञानीको भी स्वपरप्रकाशक स्वभाव कहीं नाश नहीं होता है। आत्माका


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स्वभाव स्वपरप्रकाशक है। अपनेको भी जानता है, परको भी जानता है। परन्तु आबालगोपाल आत्माका असाधारण लक्षण है। ज्ञानस्वभाव है वह असाधारण है। ज्ञानस्वभाव... सबको यथार्थ ज्ञान नहीं है, परन्तु उस ज्ञानस्वभावका नाश नहीं हुआ है। ये सब जाननेवाला जो ज्ञान है, वह ज्ञान ज्ञानरूप (रहा है)। अनुभूति है, वह ऐसी स्वानुभूति नहीं है, उसका वेदन नहीं है। तो भी ज्ञान ज्ञानरूप रहता है, ज्ञान ज्ञानरूप परिणमन करता है। वह यथार्थ नहीं। परन्तु ज्ञानका नाश नहीं हुआ। ऐसे ज्ञायक स्वभावका ग्रहण सब आबालगोपाल कर सकते हैं।

ज्ञानस्वभावका नाश नहीं हुआ है। ज्ञानस्वभाव तो जैसा है वैसा ही है। परन्तु अपनेको भ्रान्तिके कारण पर तरफ दृष्टि करता है, पर तरफ जाता है, परका ज्ञान करता है, पर तरफ आचरण करता है, सब पर तरफ करता है। स्वसन्मुख होता नहीं है इसलिये ख्यालमें नहीं आता है। ज्ञान ज्ञानरूप रहता है। ज्ञान कहीं जड नहीं हो जाता है। ज्ञान ज्ञानरूप रहता है।

अनादि काल हुआ तो भी ज्ञान ज्ञान ही है। ज्ञान, चेतन चेतन ही है, जड नहीं हुआ। जो विभाव होता है उसमें देखना चाहिये कि इसमें ज्ञानस्वभाव क्या है? रुचि करे, प्रतीत करे तो सब आबालगोपाल जान सकते हैं। ज्ञानस्वभाव ज्ञानस्वभाव ही है, उसका अज्ञान नहीं हुआ।

मुमुक्षुः- गुरुदेव तो ऐम फरमाते थे कि भगवान आत्मा सबको जाननेमें आता है।

समाधानः- हाँ, भगवान आत्मा सबको जाननेमें आता है। जो उस तरफ दृष्टि करे तो जाननेमें आता है। भगवानस्वरूप आत्मा, शक्तिरूप भगवान आत्मा है। सबकुछ जान सकता है। ऐसा नहीं है कि यह जान सकता है और यह नहीं जान सकता है। जो आत्मा तरफ रुचि करे वह सब जान सकते हैं। ज्ञान ज्ञानरूप है। ज्ञान जड नहीं हुआ है। सब जान सकते हैं, भगवान आत्माको सब जान सकते हैं। जो पुरुषार्थ करे वह जान सकता है। नहीं करे तो नहीं जान सकता है।

... लाल-पीले फूल-से वह लाल-पीला हो नहीं जाता है। स्फटिक तो स्फटिक ही है। वैसे ज्ञायक ज्ञायक ही है। परन्तु पर तरफ उपयोग, दृष्टि सब पर तरफ है। इसलिये उसको ख्यालमें नहीं आता है। अपनी तरफ यदि दृष्टि करे तो जान सकता है। ज्ञान ज्ञानरूप ही है। वह जड नहीं हुआ है। आबालगोपाल सबको ज्ञान ज्ञानरूप ही है। वह जड नहीं हुआ है। भगवान आत्मा जैसा है वैसा है, जड नहीं होता है। जैसा है वैसा ही परिणमता है। प्रगटरूप नहीं, शक्तिरूप। परन्तु वह ज्ञान ऐसा है कि असाधारण लक्षण सबको जाननेमें आ सकता है।

समाधानः- .. क्षमा, आर्जव, मार्दव धर्म सब दस धर्म मुनि आराधते हैं। दस


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धर्म-क्षमा, आर्जव, मार्दव सब मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप परिणमते हैं। मुमुक्षु जिज्ञासुकी भूमिकामें वह पात्रतारूप होते हैं। पात्रतामें ऐसा आता ही है। मुमुक्षुकी भूमिकामें शुद्धात्माका ध्येय रखे और शुभभाव बीचमें आता ही है। ऐसा पात्रतामें होता है। पात्रता विना वस्तु न रहे, पात्रे आत्मिक ज्ञान। पात्रता होने-से सब हो सकता है।

ज्ञायक स्वभाव मुझे कैसे प्रगट होवे ऐसा ध्येय रहता है। और शुभभाव बीचमें आता है तो सब पात्रतामें आता है। तीव्र क्रोध, तीव्र मान, तीव्र माया, तीव्र अनन्तानुबंधी तीव्र रसरूप होता ही नहीं। मन्द हो जाता है। जिसकी रुचि आत्मा तरफ जाती है, उसको सब मन्द हो जाता है। उसको देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, शुद्धात्माका ध्येय, क्षमा, आर्जव, मार्दव सब उसकी भूमिकामें आता ही है। सब आता है। मुनि तो चारित्रदशामें छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। उनकी आराधना तो बहुत प्रबल है। सम्यग्दृष्टिको भी होता है और पात्रतामें भी होता है।

... अशुभमें जाना ऐसा अर्थ नहीं है। शास्त्रमें आता है कि हम तो तीसरी भूमिकामें जानेको कहते हैं। इसलिये अशुभमें जानेको नहीं कहते हैं। शुभभाव पुण्यबन्धका कारण है। तीसरी शुद्धात्माकी भूमिकाको प्रगट करो, ऐसा कहना है। इसलिये बीचमें शुभभाव आता है।

मुमुक्षुः- तीसरी भूमिका?

समाधानः- तीसरी भूमिका-अमृतकुंभ भूमिका-शुद्धात्माकी भूमिका। वह प्रगट हो, मोक्षमार्ग तो वही है। तो भी शुभभाव बीचमें आता है। श्रद्धा ऐसी रहती है कि पुण्यबन्धका कारण है तो भी शुभभाव बीचमें आता है। तुझे ऊपर-ऊपर चढनेको कहते हैं, शुद्धात्माकी भूमिकामें-अमृतकुंभ भूमिकामें। इसलिये अशुभमें जानेको नहीं कहते हैं, परन्तु शुभ बीचमें आता है। तो तीसरी भूमिकाका ध्येय करो, दृष्टि करो, ज्ञान, आचरण सब उसका करो। बीचमें शुभभाव आता है। मार्दव धर्म तो पात्रतामें भी होता है। मुनिको तो शुभस्वरूप परिणमन क्षमा, आर्जव, मार्दव, शुद्धपर्यायरूप और शुभभाव मुनिको भी होता है, पंच महाव्रतमें।

मुमुक्षुः- आत्मामें कर्ता-कर्मका अभिन्नपना कैसा है? और कर्ता-कर्मका भिन्नपना कैसा है?

समाधानः- वह विभावका, परद्रव्यका कर्ता नहीं है। परद्रव्य जड द्रव्यको कर नहीं सकता। जडका कार्य, क्रिया नहीं कर सकता है। जडका कर्म आत्मा नहीं कर सकता है। विभावका भी अज्ञान अवस्थामें कर्ता कहनेमें आता है। राग उसके पुरुषार्थकी मन्दता-से होता है। इसलिये अज्ञान अवस्थामें कर्ता है। और ज्ञान स्वभावमें ज्ञानस्ववभाका कर्ता है। ज्ञान ज्ञानरूप परिणमता है। ज्ञानरूपी ज्ञानकी क्रिया होती है, ज्ञानका कर्म


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होता है। ज्ञायककी पर्याय प्रगट होती है। ज्ञान-ज्ञायकमें परिणति प्रगट होती है। ये कर्ता- क्रिया-कर्म आत्मामें होते हैं, अपने-से अभिन्न होते हैं। परद्रव्यका कर्ता-कर्म जडका तो होता नहीं। विभावका अज्ञान अवस्थामें (होता है)। फिर अस्थिर परिणति रहती है तो उसको कर्ताबुद्धि, स्वामीत्वबुद्धि नहीं है। अस्थिर परिणतिरूप है, वह परिणति होती है। परन्तु वह मेरा स्वभाव है और मेरा कार्य है, ऐसा वह मानता नहीं। पुरुषार्थकी मन्दता-से होता है, अपना स्वभाव वह नहीं है।

ऐसे कर्ता-क्रिया-कर्म आत्मा-से भिन्न है। आत्माका स्वभावका कर्ता-क्रिया-कर्म स्वभावमें होता है। कर्ता-क्रिया-कर्मका भेद दृष्टिमें नहीं होता है। वह ज्ञानमें जानता है। तो भी अपनी परिणति, क्रिया, पर्याय शुद्धात्मा तरफ शुद्धपर्याय प्रगट होती है, उसकी शुद्ध परिणति होती है, वह अपना कर्ता-क्रिया-कर्म है, वह विभावका है। जडका तो आत्मा कर ही नहीं सकता। विभावका अज्ञान अवस्थामें कर्ता कहनेमें आता है। ज्ञान अवस्थामें स्वामीत्वबुद्धि टूट गयी। विभावका मैं कर्ता नहीं हूँ। तो भी अस्थिर परिणति होती है उसको जानता है। जबतक पूर्ण ज्ञायककी धारा नहीं हुयी, केवलज्ञान नहीं हुआ तबतक अल्प अस्थिर परिणति रहती है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!