Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 275.

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ट्रेक-२७५ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- उसके पहले भेदज्ञानकी परिणति कैसे उत्पन्न हो?

समाधानः- वह करे तो हो। जब-जब क्षण-क्षणमें विकल्प आवे, आनन्द आवे, शुभभाव हो, सबसे मैं भिन्न ही हूँ। ऐसी भेदज्ञानकी परिणति होनी चाहिये।

मुुमुक्षुः- अभी हम ऐसे विचार करे... समाधानः- बीचमें आये बिना नहीं रहता। जबतक स्वयं अभी शुभभावकी भूमिकामें है, शुभभाव तो आते हैं, भक्ति आवे, उल्लास आवे, ज्ञान-से भरा, आनन्द-से भरा हुआ एक तत्त्व है। जैसे ये पुदगल वस्तु है, वैसे एक चैतन्य भी वस्तु है, परन्तु वह ज्ञानस्वभाववाला है, आनन्द स्वभाववाला, अनन्त गुणवाला है। उसे पहचाननेके लिये अनादि- से तो विभावमें एकत्वबुद्धि की है, राग-द्वेष इत्यादिमें, और धर्म बाहरसे माना है कि बाहर-से कुछ शुभभाव करें, कुछ क्रियाएँ करें तो धर्म होता है, ऐसा माना है। ऐसा तो अनन्त कालमें किया है। उससे शुभभाव बँधकर पुण्य बँधे तो देवलोक होता है। भवभ्रमण तो मिटता नहीं।

भवभ्रमण तो अन्दर आत्माको पहचाने तो मिटे। अंतर दृष्टि करके आत्माका भेदज्ञान करे तो वह मिटता है। अन्दर भेदज्ञान करनेका उपाय एक गुरुदेवने बताया है। उसका बारंबार विचार करे, उसकी गहरी लगन लगाये, उसकी महिमा करे तो हो। उसका गहरा विचार करना चाहिये, उसकी जिज्ञासा जागृत करनी चाहिये कि आत्मा कैसे समझमें आये।

जो महापुरुष हुए, इस पंचमकालमें गुरुदेव पधारे और उन्होंने मार्ग बताया कि अंतर दृष्टि करना। बाकी बाहर-से थोडा कर ले और थोडा त्याग कर ले, उसमें धर्म मान लिया। शुभभाव यदि अंतरमें हो, शुभभाव रहे तो पुण्य बँधे। पुण्य बाँधकर देवलोकमें गया। ऐसा देवलोक अनन्त बार प्राप्त हुआ है। परन्तु भवका अभाव हो, आत्माका अंतर अनुपम आनन्द, आत्मा मुक्त स्वरूप ही है, ऐसे आत्माको उसने पहचाना नहीं है। विभाव-से भिन्न पडे कि मैं तो ज्ञायक आत्मा जाननेवाला साक्षीस्वरूप हूँ। उसे अंतरमें आत्माकी महिमा आये तो आत्माकी पहिचान हो। विचार, वांचन, पुरुषार्थ, रुचि, लगनी उसीकी लगनी चाहिये। कितनोंको अंतर दृष्टि करवायी, रुचि जागृत करवायी।


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मुमुक्षुः- .. वह तो ख्यालमें आता है। विषय जो बाह्य पदाथाको जानता है। परन्तु जो भावेन्द्रिय है, वह तो ज्ञानकी पर्याय है, उसे कैसे भिन्न जाननी? उसका उपाय क्या?

समाधानः- क्षयोपशम ज्ञान अधूरा ज्ञान राग मिश्रित है न। अधूरा ज्ञान रागमिश्रित है। रागमिश्रित जो है वह अपना मूल स्वभाव नहीं है। रागमिश्रित भाव जो अंतरमें होते हैं, वह क्षयोपशमज्ञान अधूरा ज्ञान है, वह अधूरा ज्ञान है उतना आत्मा नहीं है। आत्मा तो पूर्ण स्वरूप है। उस पूर्णको पहचानना, पूर्ण पर दृष्टि रखनी। वह ज्ञान भले क्षयोपशम ज्ञान आत्माका उघाड है, परन्तु वह अधूरा ज्ञान है और वह रागमिश्रित है। वह रागमिश्रित है। रागमिश्रित है इसलिये वह अपना मूल नहीं है, शुद्धात्माका मूल स्वभाव नहीं है। अधूरी पर्याय जितना वह नहीं है। उसका ज्ञान करना।

मुमुक्षुः- अधूरी पर्यायको ज्ञेय समझना?

समाधानः- हाँ, वह अधूरी पर्याय ज्ञेय है। उसे जानना कि ये अधूरी है। मैं तो पूर्ण स्वरूप हूँ। अधूरा है वह मेरा मूल स्वरूप नहीं है। वह जानने योग्य है। अधूरी पर्याय है उसे जाननी। उसका ज्ञान बराबर करे तो आगे बढे। पूर्ण चैतन्य पर दृष्टि करे, अखण्डको पहिचाने। मैं तो शाश्वत अखण्ड द्रव्य हूँ। क्षयोपशम ज्ञान जितना भी नहीं हूँ, साधनाकी अधूरी पर्याय हो उतना भी मैं नहीं हूँ, पूर्ण वीतराग दशा हो वह पूर्ण पर्याय हैं, बाकी स्वयं अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य अखण्ड है। फिर उसमें साधनाकी पर्याय बीचमें आती है, नहीं आती ऐसा नहीं, परन्तु उसका ज्ञान करे कि ये आती है, परन्तु उसकी दृष्टि पूर्ण पर है। पूर्ण स्वभाव पर और पूर्ण वीतरागता कैसे हो, वह उसे लक्ष्यमें है, उपादेयरूप है। पूर्ण हो जाय इसलिये वह सब साधनाकी पर्यायें छूट जाती है, पूर्ण वीतराग हो जाता है।

शुद्ध पर्याय, शुद्धात्माकी पर्याय सर्वथा भिन्न कहाँ है? शुद्धात्माकी शुद्ध पर्यायें सर्वथा भिन्न नहीं है।

मुमुक्षुः- द्रव्यकी अपेक्षा-से?

समाधानः- द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से वह क्षणिक है। लेकिन वह चैतन्यके आश्रय- से पर्याय होती है। उसे सर्वथा भिन्न नहीं कह सकते, कोई अपेक्षा-से भिन्न है। सर्वथा भिन्न नहीं कह सकते, अपेक्षा-से भिन्न है। उतना भेद पडा उस अपेक्षा-से है। मूल स्वभावमें भेद नहीं है। भेदकी अपेक्षा-से उसे (भिन्न कहा)। पूर्ण और अपूर्णकी अपेक्षा रखता है, निमित्तके सदभाव-अभावकी अपेक्षावाली पर्याय है, उस पर्याय जितना आत्मा नहीं है। आत्मा तो अखण्ड शाश्वत है। इसलिये उसे कथंचित भिन्न कहते हैं, सर्वथा भिन्न नहीं कहते। द्रव्यमें ही पर्याय होती है, द्रव्य-से भिन्न निराधार नहीं होती।


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मुमुक्षुः- विकारी पर्यायको भी ... नहीं कह सकते न?

समाधानः- वह अपेक्षा और यह अपेक्षा भिन्न-भिन्न है। उसका स्वभाव भिन्न है। विभाव पर्याय भले सर्वथा भिन्न नहीं है, स्वयं उसमें जुडता है। तो भी उसका भावभेद है। स्वभावपर्यायका भावभेद नहीं है। उसमें और इसमें फर्क है।

... वह तो वैशाख शुक्ला दूज थी न? गुरुदेवकी सब सजावट, जीवन चरित्र इत्यादि था न। उसे देखने गयी थी। उसमें-से फिर ऐसे विचार आये कि ये सब सजावट की है, ऐसेमें गुरुदेव पधारे हो तो बहुत सुन्दर दिखे। गुरुदेव पधारे ऐसा ही यह सब हो रहा है। वही विचार और भावना रहती थी, इसलिये प्रातःकालमें स्वप्न आया कि गुरुदेव देवलोकमें-से देवके रूपमें पधारे। सब पहनावट देवकी, रत्नका हार,ुमुगट इत्यादि देवके रूपमें थे। गुरुदेव पधारो, पधारो ऐसा आया। ऐसा बोलनेमें आया। फिर गुरुदेवने कहा, ऐसा कुछ रखना नहीं, मैं तो यहीं हूँ, बहिन! मैं तो यहीं हूँ। ऐसा तीन बार कहा।

फिर मैंने कहा, मैं तो ऐसा रखूँ, परन्तु ये सबको बहुत दुःख होता है। तो गुरुदेव कुछ बोले नहीं। लेकिन उस वक्त वातावरण ऐसा हो गया था कि मानों गुरुदेव विराजते ही हों। मैंने तो किसीको कुछ कहा नहीं था, परन्तु माहोल ऐसा हो गया था। परन्तु इतना स्वप्न आया था। गुरुदेव देवमें-से आये और ऐसा ही कहा, मैं यहीं हूँ, ऐसा कुछ रखना नहीं। बहिन! मैं तो यहीं हूँ, यहीं हूँ ऐसा तीन बार कहा। बस, उतना। स्वप्न उतना आया था। गुरुदेव है, शरीर देवका था, पहनावट देव की थी। दिखाव सब देवका ही था।

... वे तो हर जगह अलग ही हैं। सर्वसे अलग दिखे ऐसे कुछ अलग ही हैं। तीर्थंकरका द्रव्य, उनके जैसा कोई नहीं था। ऐसा उनका प्रभाव था। चले जाते हो तो मानों भव्य... दूर-से कोई उन्हें भगवान ही कह दे, ऐसे लगते थे। देव हो गये इसलिये अधिक दिव्यमूर्ति हो जाते हैं। .. चले तो ऐसा लगे। दूसरे लोग देखे तो माहोल बदल जाय। दिव्यमूर्ति वही है।

... जानेकी शक्ति नहीं होती। देवके शरीरमें हर जगह जानेकी शक्ति होती है। उनका वैसा वैक्रियक शरीर है, हर जगह जा सके। भगवानके पास जा सके, समवसरणमें जाये। और इस लोकको वे अवधिज्ञान-से देखते हैं। तो लोकमें जहाँ जानेकी भावना आये वहाँ जा सकते हैं। भाव आवे भी, और दूर-से भी देखते हों। अवधिज्ञानमें प्रत्यक्ष देखते हों। भगवानकी उन्हें बहुत भावना थी तो भगवानके पास समवसरणमें जाये। यहाँ आनेकी उन्हें भावना (हो), अवधिज्ञानमें उपयोग रखे तो वे तो प्रत्यक्ष देखते हैं। लोकका अमुक भाग दिखाई दे। जम्बू द्विप, विदेहक्षेत्र आदि सब जम्बू द्वीपमें


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ही आया है। सीमंधर भगवान आदि।

.. इतना क्षेत्र ऊपर, नीचे जो उसका हो, उस अनुसार प्रत्यक्ष दिखता है। उनके क्षेत्रमें रहकर उपयोग रखकर देखे तो सब प्रत्यक्ष देखते हो। जैसे नजदीक-से देखते हैं, वैसे प्रत्यक्ष दूर-से दिखता है।

.. उस अनुसार स्वप्न आये, कुछ दूसरा आये, कोई स्वप्न यथातथ्य हो, कोई स्वप्न संस्कारके कारण आये। भूतकालके जो संस्कार हो कि गुरुदेव पधारते हैं और गुरुदेव प्रवचन करते हैं, वह सब संस्कार होते हैं। कोई स्वप्नमें यथातथ्य स्वप्न भी हो और कोई संस्कारके कारण आये। अन्दर जो रटन हो उस अनुसार आते रहते हैं।

मुमुक्षुः- यथातथ्य भी कोई आये।

समाधानः- हाँ, यथातथ्य स्वप्न भी आवे। ... यथातथ्य है या भावनाका है, क्या है? माताको स्वप्न आते हैं, सोलह स्वप्न। वह सब आगाही लेकर आते हैं।

मुमुक्षुः- यथातथ्य।

समाधानः- यथातथ्य स्वप्न आता है। .. कोई देव आते भी हैं, परन्तु दूसरेको दिखे भी नहीं। प्रसंग पडे, कोई मन्दिरके दर्शन हेतु या कोई प्रतिमाका उत्सव, कोई देव आते भी है, परन्तु आवे ही ऐसा नहीं। आते हैं, देव नहीं आते हैं ऐसा नहीं है।

... जो अपनी भूल है वह भूल है। स्व-परकी एकत्वबुद्धि ही बडी भूल है। परपदार्थको अपना मानना और अपनेको अन्य मानना। स्वयं अन्यरूप एकत्व हो जाय और अन्यको अपना मानता है, वह एकत्वबुद्धिकी बडी भूल है। विभावस्वभाव अपना नहीं है, उसे अपना मानता है वह उसकी बडी भूल है। बडी भूल वही है। एकत्वबुद्धिकी भूल है। फिर विचारमें द्रव्य-गुण-पर्यायकी (भूल हो)। वह निर्णय करनेमें भूल करता हो, अपने विचारमें, निर्णयमें भूल करे। बाकी एकत्वबुद्धिकी भूल अनादिकी चली आ रही है।

सम्यग्दर्शनका विषय तो एक द्रव्यको ग्रहण करना उसका विषय है। चैतन्य पदार्थ अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य है उसे ग्रहण करना। उसमें कोई अपेक्षा (नहीं है)। स्वतःसिद्ध द्रव्य है। उसमें कोई अपूर्णकी, पूर्णकी कोई अपेक्षा नहीं है। वह अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य है। उस द्रव्यको ग्रहण करना। फिर पर्यायमें अल्पता है उसे ज्ञानमें जानना है कि पर्यायमें अधूरापन है, अभी विभाव है। भेदज्ञान करके पूर्णता करनी अभी बाकी रहती है, लीनता बाकी रहती है। वह सब ज्ञानमें जानना। ज्ञान यथार्थ करना। दृष्टमें एक द्रव्यको ग्रहण करना। दृष्टिका विषय एक द्रव्य है। और ज्ञानमें सब ज्ञात होता है। निश्चय- व्यवहार सब ज्ञानमें ज्ञात होता है।

ज्ञान एवं दर्शन साथमें ही होते हैं। जिसे दर्शन सम्यक हो, उसका ज्ञान भी सम्यक


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होता है। यथार्थ द्रव्यको ग्रहण किया तो ज्ञानमें द्रव्य और पर्याय दोनों ज्ञानमें ग्रहण होते हैं। दर्शन एवं ज्ञान साथमें ही होते हैं। इसलिये विषय तो एक चैतन्यको ग्रहण करनेका है। ज्ञान सब करता है। परन्तु सम्यग्दर्शन प्राप्त करने हेतु भेदज्ञान करे वह एक ही उसका उपाय है। और उसके लिये स्वयं तैयारी (करे)। चैतन्य कोई अपूर्व वस्तु है, कोई अनुपम है। उसकी महिमा आये, उसकी लगन लगे, बारंबार उसीका अभ्यास करे, वही उसका उपाय है।

उसे एकत्वबुद्धि टूटकर भेदज्ञान हो। द्रव्यकी दृष्टि, द्रव्य पर दृष्टि (करे)। स्वसे एकत्व और परसे विभक्त। विभाव-से विभक्त होना और अपनेमें एकत्व होना। वह उसका उपाय है, दूसरा कोई नहीं है। ऐसी भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो, मैं ज्ञायक हूँ। उसे याद नहीं करना पडता, ऐसी सहज ज्ञायकधारा, सहज ज्ञाताकी धारा-ज्ञायकधारा प्रगट हो तो उसमें विकल्प छूटकर निर्विकल्प दशा हो। वह उसका उपाय है। परन्तु उसके लिये बारंबार उसका अभ्यास करना चाहिये। चैतन्यका द्रव्य, गुण, पर्याय क्या है? वह शाश्वत द्रव्य कैसे हो? उसकी पर्याय क्या है? वह सब नक्की करके बारंबार अभ्यास करे कि मैं भिन्न ही हूँ। ये शरीर मैं नहीं हूँ, ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। विभावकी परिणति होती है, परन्तु उससे भिन्न मेरा स्वभाव है। उससे भिन्न पडनेका प्रयत्न करे कि मैं ज्ञायक हूँ। वह एक ही उपाय है। ज्ञाताधारा प्रगट करनी, वह एक ही उपाय है।

मुमुक्षुः- ज्ञाताधारा द्रव्यके आश्रय-से प्रगट होती है। तो आश्रयका क्या अर्थ बताना चाहते हो?

समाधानः- आश्रय अर्थात अपना अस्तित्व, चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण करना कि यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ। अपना अस्तित्व ग्रहण करके उसमें स्थिर खडा रहता है कि मैं यही हूँ। अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। इस तरह उसकी दृष्टि विभाव तरफ-से उठाकर ज्ञायकका जो अस्तित्व चैतन्य जो है, वह मैं हूँ। इसप्रकार अपने ज्ञानस्वभावको ग्रहण कर ले। ये विभावके साथ जो ज्ञान है, वह विभावमिश्रित ज्ञान नहीं, परन्तु अकेला जो ज्ञान है, वह ज्ञानस्वरूप ही मैं हूँ। वह ज्ञान ज्ञायकके आधार-से है। वह गुण है परन्तु वह गुण ज्ञायकके आधार-से है। इसलिये द्रव्यको ग्रहण करे। ज्ञानलक्षण द्वारा लक्ष्यको ग्रहण करे। द्रव्यको ग्रहण करे कि ये ज्ञान, ज्ञान-से भरा जो द्रव्य है वही मैं हूँ। इसप्रकार अपने अस्तित्वको ग्रहण करे। उसमें दृष्टिको स्थापित करे और उसमें लीनता करे। उसका आलम्बन वह द्रव्य है, अन्य कोई आलम्बन नहीं है।

भगवानने, गुरुदेवने एक ही उपाय (बताया है)। जो मोक्ष गये, वे इस एक ही उपाय-से गये हैं। दूसरा कोई उसका उपाय नहीं है। चैतन्यका आश्रय ग्रहण करे। बाहर


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विभावकी परिणति जाती है। बारंबार मैं चैतन्य हूँ, (ऐसे) अपना अस्तित्व ग्रहण करे कि ये ज्ञायक सो मैं। वह ज्ञानगुण ऐसा है कि असाधारण है। वह लक्ष्यमें आये, ख्यालमें आये ऐसा ज्ञानगुण है। दूसरे कुछएक गुण असाधारण है जो स्वयंको जल्दी लक्ष्यमें नहीं आते हैं। परन्तु ये ज्ञानलक्षण है, दूसरेमें जाननेका लक्षण नहीं है। वह जाननेका लक्षण एक आत्मामें ही है। जानन लक्षण पर-से अपना अस्तित्व ग्रहण करे कि ये जानन लक्षण जो है, उस लक्षणवाला मैं चैतन्य हूँ। उस ज्ञानके साथ जीवमें ऐसे अनन्त गुण हैं। परन्तु ज्ञानगुण-से पूरा आत्मा ग्रहण करे। उसमें अनन्त आनन्द गुण, सुख गुण सब उसमें है। परन्तु आनन्द ऐसा विशेष गुण नहीं है, उससे पकडमें नहीं आता। परन्तु ज्ञान ऐसा स्वभाव है कि उससे ग्रहण होता है। इसलिये ज्ञान द्वारा आत्मा ग्रहण हो सकता है। ज्ञानलक्षण यानी ये बाहरका जाना वह ज्ञान, ऐसे नहीं। उस ज्ञानको धरनेवाला कौन है? ज्ञेय जाना, यह जाना, वह जाना वह ज्ञान, ऐसा नहीं। परन्तु वह ज्ञान कहाँ-से आता है? उस ज्ञानको धरनेवाला, ज्ञानका अस्तित्व किस द्रव्यमें रहा है, उस द्रव्यको ग्रहण करना। ये जाना, ज्ञेय-से ज्ञान ऐसा नहीं, परन्तु मैं स्वयं ज्ञानस्वरूप हूँ। उस ज्ञानको धरनेवाला कौन चैतन्य है? उसे ग्रहण करना।

मुमुक्षुः- यह मुद्देकी बात आयी। ज्ञान स्वयं अपने-से जानता है, ज्ञेय-से नहीं। समाधानः- उस ज्ञानको धरनेवाला मैं चैतन्य हूँ। मुमुक्षुः- ज्ञानको धरनेवाला हूँ। समाधानः- ज्ञानको धरनेवाला मैं चैतन्य हूँ। पहले मूल अस्तित्वको ग्रहण करनेका प्रयत्न करे कि मैं यह चैतन्य हूँ।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!