Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 53.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 50 of 286

 

PDF/HTML Page 316 of 1906
single page version

ट्रेक-०५३ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- .. होता है, राग भी है, विकल्प भी है और साथ-साथ ज्ञानका निर्णय भी होता है कि मैं यही हूँ, यही हूँ। तो ज्ञायकका निर्णय बहुत गहराईमें जाय तो वह बराबर है? विकल्पके साथ।

समाधानः- विकल्प साथमें होता है। परन्तु पहले विकल्प साथमें होता है और निर्णय होता है। विकल्प छूटकर बादमें होता है। विकल्प साथमें होता है। मैं यह ज्ञायक हूँ, परन्तु अपने लक्षणको बराबर पहचानना चाहिये कि यह ज्ञानलक्षण है वही मैं हूँ। यह विकल्प मैं नहीं हूँ। विकल्प आये वह मेरा स्वरूप नहीं है। जो-जो विभाव है वह सब आकूलतास्वरूप है। वह मेरा स्वरूप नहीं है। मैं उससे भिन्न ज्ञायक हूँ। उसका लक्षण बराबर पहचानना चाहिये। उसका लक्षण पहचानकर निर्णय करना चाहिये।

जिज्ञासासे निर्णय करे परन्तु पहले जो निर्णय आता है, वह निर्णय अन्दर भिन्न होकर निर्णय होता है तब उसे यथार्थ निर्णय कहनेमें आता है। तब तक उसे विकल्प सहितका निर्णय कहनेमें आता है। होता है, गहरा निर्णय होता है, फिर भी अभी ज्ञायककी भेदज्ञानकी धारा नहीं होती, तब तक यथार्थ रूपसे नहीं कहा जाता। पहले विकल्प सहित निर्णय होता है।

मुुमुक्षुः- विकल्पमें तो ख्याल आता है कि यह बात बराबर है, करना यही है। दूसरा जो भी करते हैं वह बराबर नहीं है। मनमें इतना विश्वास भी आता है। लेकिन विश्वास टिकता नहीं है और बाहर चला जाता है। बाहरकी प्रवृत्तिमें अधिक रुचि कर लेता है। ख्याल होने पर भी ऐसा होता है।

समाधानः- स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दता है। विकल्प सहितका निर्णय है, परन्तु अभी अन्दरसे स्वयं भिन्न होकर, आंशिक भिन्न होकर लक्षण पहचानकर निर्णय नहीं हुआ है, इसलिये वह बाहर जाता है। रुचि बाहर चली जाती है। वह सब अन्दर अपने पुरुषार्थकी मन्दता है, इसलिये होता है। अन्दरसे यथार्थ भेदज्ञानकी धारा हो, ज्ञायकको अन्दरसे पहचाने तो स्वयंका अस्तित्व ग्रहण करे तो वह ज्यादा बाहर नहीं जा सकता। लेकिन वह तो स्थूल निर्णय किया है, अन्दर लक्षणको पहचानकर निर्णय नहीं किया है। अन्दर यथार्थ निर्णय नहीं हुआ है। परन्तु जब तक वह नहीं होता है तब तक


PDF/HTML Page 317 of 1906
single page version

ऐसा स्थूल निर्णय आता है। लेकिन अभी पुरुषार्थकी मन्दता है, इसलिये बाहर जाता है।

मुमुक्षुः- भेदज्ञान कैसे करना? विचारमें तो आता है, परन्तु अन्दरमें वास्तवमें कैसे भेदज्ञान करना?

समाधानः- अपना लक्षण पहचाने कि यह जाननेवाला है वही मैं हूँ। यह जाननेवाला मैं हूँ, यह शरीर जड कुछ जानता नहीं। यह जो विकल्प आते हैं, वह स्वयं स्वयंको जानते नहीं, अन्दर जाननेवाला भिन्न है। जाननेवाला भिन्न है, उसका लक्षण बराबर पहचानकर, उसका अस्तित्व ग्रहण करे कि यह ज्ञायक है वही मैं हूँ। लक्षण द्वारा पूरे ज्ञायकको ग्रहण करके, यह ज्ञायक है वही मैं हूँ, ऐसा नक्की करके ज्ञायकमें दृढता रखकर बारंबार ज्ञायकके अस्तित्वको ऐसे ग्रहण करे कि उससे भिन्न ही नहीं हो। बारंबार जो विकल्प आये उससे मैं भिन्न हूँ, भिन्न हूँ। ऐसी परिणतिको अन्दरसे दृढ करे तो अन्दरमें भेदज्ञान हो।

... भिन्न पडे कि यह ज्ञायक मैं हूँ, यह विकल्प मैं नहीं। यह ज्ञायक मैं हूँ, मैं यह नहीं हूँ। इस प्रकार बारंबार ज्ञायककी परिणतिको दृढ करे। बारंबार उसका अभ्यास करे। जबतक नहीं हो तबतक अभ्यास करे, भावना करे, जिज्ञासा करे। बारंबार उसकी लगनी लगाये। जबतक नहीं हो तबतक बारंबार ऐसे करता ही रहे। उसकी महिमा, उसका लक्षण पहचाने, उसका विचार, सब वही बारंबार करता रहे, जबतक नहीं होता तबतक। बारंबार उसका प्रयास करता रहे। नहीं हो तबतक बारंबार करता रहे। निर्णय छूट जाय तो भी बारंबार दृढ करता रहे। बारंबार भेदज्ञान करता रहे। उपाय एक ही है।

अपने अस्तित्वको ग्रहण करके, उसकी दृढता करके बारंबार उसे ग्रहण करे। बारंबार उसकी दृढता करता रहे। बारंबार वह छूट न जाय इसलिये बारंबार उसका प्रयत्न करता रहे। एक ही करना है। जो मुक्तिको प्राप्त हुए, वे भेदज्ञानसे ही प्राप्त हुए हैं। जो नहीं हुए हैं, वे भेदज्ञानके अभावसे नहीं हुए हैं। भेदज्ञान करनेका बारंबार प्रयत्न करते रहना। यह ज्ञायक ही मैं हूँ और यह सब मैं नहीं हूँ। ऐसे स्वयंके अस्तित्वको ग्रहण करके दृढता करता रहे, बारंबार। बारंबार दृढता करनेके बाद विकल्प छूटते हैं। तब तक उसने स्वयंको बराबर ग्रहण नहीं किया है तो उसका विकल्प भी कैसे छूटे? विकल्पमें ही घुमता रहता है। एकमेंसे दूसरेमें, दूसरेमेंसे तीसरेमें। शुभाशुभ, शुभाशुभके विकल्पमें ही पलटा खाता रहता है। इस ओर पलटा खाता है, इस ओर पलटा नहीं खाता। ज्ञायककी ओर पलटता नहीं है और इस ओर अनादिसे पलटता रहता है। अनादिसे शुभाशुभ भावोंमें पलटा खाता रहता है।

मुमुक्षुः- अन्दरका विकल्प कैसे करना? बाहरका ही होता है।


PDF/HTML Page 318 of 1906
single page version

समाधानः- ज्ञायकको ग्रहण करनेकी ओर (जाना है)। विकल्प नहीं करनेका है, परन्तु ज्ञायककी ओर जाना है। परिणतिका पलटा होना चाहिये।

मुमुक्षुः- वह कैसे?

समाधानः- अन्दर जिज्ञासा करे, अन्दर लगनी लगी हो तो अन्दर गये बिना रहे ही नहीं। स्वयंको कहीं चैन नहीं पडे, बाहर कहीं रुचे नहीं, कहीं रुकना अच्छा लगे नहीं। क्षण-क्षणमें मुझे ज्ञायक कैसे पहचानमें आये? मुझे ज्ञायक कैसे पहचानमें आये? उतनी लगनी लगे तो वह पलटा खाय। अंतरमेंसे लगनी लगनी चाहिये, तो पलटा खाय। उतनी लगनी लगी नहीं है, उतनी ज्ञायककी महिमा नहीं आती है। बाहरसे उतनी तुच्छता नहीं लगती है। तो पलटा कहाँसे हो? अन्दर स्वयंको लगना चाहिये।

.. प्राप्त कर लेते हैं। नहीं प्राप्त करते हैं उन्हें देर लगती है। शिवभूति कुछ नहीं जानते थे। बाई दाल धो रही थी। छिलका अलग, दाल अलग। ऐसा करके, मेरा आत्मा भिन्न और यह विभाव भिन्न। ऐसा करके अंतरमें ऊतर गये। अंतरमेंसे प्रगट किया। ज्यादा नहीं जानते थे तो भी।

मुमुक्षुः- हमें विश्वास आता है वह तो अंतरसे ही आता है। अभी जितने विचार आते हैं, वह अंतरसे ही आते हैं, ऐसा नहीं है कि ऊपर-ऊपरसे आते हैं।

समाधानः- वह तो अंतरसे आये, वास्तवमें तो अन्दर स्वभावमेंसे आना चाहिये। यह सत्य है, ऐसा स्वयंको अंतरसे आता हो, परन्तु स्वभाव ग्रहण करके आये वह अलग बात है। वह अलग बात है।

मुमुक्षुः- किसीको क्षणमें आ जाता है, किसीको नहीं आता है, उसमें ...?

समाधानः- उसमें स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दता है। किसीको जल्दी होता है, किसीको देर लगती है। स्वयंकी मन्दता है। कर्म तो निमित्त मात्र है, वह कुछ नहीं कर सकता। न हो तबतक भगवानने क्या कहा है? गुरुदेवने क्या कहा है? शास्त्रमें क्या आता है? उसका विचार, उसका वांचन, उसका स्वाध्याय बारंबार करता रहे और ज्ञायक कैसे पहचानुँ, उसकी बारंबार जिज्ञास करे और बारंबार लगनी लगाये।

मुमुक्षुः- जबतक अन्दरमें रुचि नहीं लगती, हमें तो वही लगता है। बाहर बहुत रुचि हो जाती है, बाह्य भावोंमें। तो ऐसा लगता है कि अन्दरमें नहीं आती। हमारे मनमें ऐसा लगता है।

समाधानः- अंतरकी रुचि हो, वह बाहरमें उतना तन्मय नहीं होता है। जिसे अंतरकी लगी हो, ज्ञायककी महिमा, उसे विभावसे तो कुछ हद तक वैराग्य आ जाय, यह सब तुच्छ है, सारभूत नहीं है। सारभूत तो आत्मा है। उतना तन्मय हो जाय तो अंतरमेंसे कम हो जाय, वह तो सीधी बात है। बाहरमें उतना तन्मय हो जाय


PDF/HTML Page 319 of 1906
single page version

तो। अंतर खटक रहनी चाहिये कि यह सब है, वह सारभूत नहीं है। अन्दर स्वयंको होवे नहीं, लेकिन खटक तो लगनी चाहिये कि यह सब सारभूत नहीं है, सारभूत तो मेरा आत्मा है। ऐसे खटक लगनी चाहिये। उसका अर्थ यह है कि ज्यादा खटक होनी चाहिये। मात्र खटकसे कुछ नहीं होता, इसलिये तीव्र खटक लगनी चाहिये।

... कार्य कहाँसे आये? कारण थोडा (हो तत) कार्य नहीं आता। जितना उसका कारण दे उतना ही कार्य आये। अन्दर जितनी स्वयंको लगी हो, अन्दर जिज्ञासा, लगनी लगी हो, उतना अन्दर स्वयं पुरुषार्थ करे तो कार्य आये। कारण बिना कार्य कहाँसे आये? आनन्द (आदि) सब आत्मामें ही भरा है। बाहर जाता है उतनी स्वयंकी क्षति है कि बाहर एकत्व होकर, तन्मय होकर जाता है।

... साधकको अवलम्बन तो दृष्टिमें होता है। श्रद्धाके अन्दर शुद्धात्म द्रव्यका आलम्बन होना चाहिये। जो शुद्धात्मा अनादिअनंत स्वयं द्रव्य वस्तु है, वह वस्तु शुद्ध स्वरूप ही है। उस वस्तुका अवलम्बन साधकको होता है। अर्थात मूल अवलम्बन तो उसे शुद्धात्माका है, परन्तु अंतरमें स्थिर नहीं हो सकता है इसलिये उपयोग बाहर आता है। इसलिये बाहरमें देव-गुरु-शास्त्रके शुभभावमें है। और शुभभावका अवलम्बन है वह व्यवहारमें है। अंतरमें निश्चयका अवलम्बन शुद्धात्माका है। बाहरमें शुभभावमें बाहर आये तो जिनेन्द्रदेव, गुरु और शास्त्र (का अवलम्बन होता है)। परन्तु मूल अवलम्बन तो शुद्धात्माका है। उसे द्रव्य पर ही दृष्टि रहती है। ज्ञायक पर ही दृष्टि रहती है (कि) मैं यह शुद्धात्मा हूँ। उसके सिवा सब मुझसे भिन्न है, सब पर है।

... मैं ज्ञायक ही हूँ, इस प्रकार ज्ञायक पर ही दृष्टि (रहती है)। बाहरमें उपयोग जाये तो भी उसकी दृष्टि तो ज्ञायक पर ही रहती है। बाहर शुभभाव आये तो भी उसे दृष्टि तो एक ज्ञायक पर ही रहती है। ज्ञायकका अवलम्बन उसे छूटता ही नहीं। ज्ञायकका आश्रय तो उसे सदा रहता ही है। उपयोग बाहर आये तो शुभभावमें देव- गुरु-शास्त्र, जिन्होंने पूर्णता प्राप्त की ऐसे देव और गुरु जो साधना करते हैं, और शास्त्रोंमें जो वस्तुका स्वरूप बताया है, उसका अलम्बन उसे व्यवहारसे शुभभावमें होता है। परन्तु उस वक्त भी शुभभाव मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसी दृष्टि और ज्ञान उसे साथमें वर्तते हैं। और आंशिक ज्ञायककी परिणति भी साथमें होती है। उसे भेदज्ञानकी धारा सदा वर्तती ही है, बाहर उपयोग आये तो भी।

मैं, इन सब भावोंसे भिन्न शुद्धात्मा हूँ। ज्ञायककी धारा सदा वर्तती है। उदयधारा और ज्ञानधारा दोनों साथमें वर्तती है। बाहरमें शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रका अवलम्बन होता है। अन्दर पूर्णता प्राप्त नहीं हो, अन्दर पूर्णरूपसे स्थिर नहीं हो सकता है, ज्ञायककी परिणति प्रगट हुयी, लेकिन उसमें पूर्ण लीनता नहीं होती है इसलिये उपयोग बाहर


PDF/HTML Page 320 of 1906
single page version

आता है। शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रका अवलम्बन होता है।

मुमुक्षुः- अनुभव नहीं हुआ है, ऐसे जीवकी कैसी परिस्थिति होती है?

समाधानः- जिसे अनुभव नहीं हुआ है, उसे भी मुझे शुद्धात्मा कैसे ग्रहण हो, उसकी जिज्ञासा और रुचि रहा करे। मुझे ज्ञायक कैसे समझमें आये? ज्ञायकका यथार्थरूपसे अवलम्बन (कैसे हो)? मैं शुद्धात्मा हूँ, उसका अवलम्बन मुझे कैसे आये और यथार्थ रूपसे वह परिणति कैसे प्रगट हो, उसकी भावना अन्दर रहे। विचारोंसे निर्णय करे कि मैं ज्ञायक ही हूँ। यह शुभाशुभ भाव मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसे विचारसे नक्की किया लेकिन यथार्थ अवलम्बन कैसे हो? उसकी भावना हो, उसकी रुचि रहे, उसकी खटक रहे। उसे निरंतर खटक रहा करे कि मुझे ज्ञायकका अवलम्बन कैस प्राप्त हो? उसकी रुचि रहा करे।

अंतरमें वह प्रगट नहीं हुआ है तो बाहरमें उसे देव-गुरु-शास्त्रका अवलम्बन होता है। भगवानने जो प्राप्त किया, गुुरु साधना करते हैं, शास्त्र मार्ग बताते हैं। शुभभावमें उसे देव-गुरु-शास्त्र (का अवलम्बन होता है), लेकिन अंतरमें उसे खटक रहती है (कि) मुझे शुद्धात्मा कैसे ग्रहण हो? उसे रहता ही है। अंतरमें ऐसी रुचि रहती है। मुमुक्षुको अन्दरसे खटक नहीं जाती कि मुझे शुद्धात्मा कैसे ग्रहण हो? बाहरमें अशुभभावसे बचनेको वह शुभभावमें खडा रहता है। जिनेन्द्रदेवकी महिमा, शास्त्रका चिंतवन, गुरुकी महिमा आदि सब उसे होता है।

सब कायामे जुडता है। जिनेन्द्र देवके, गुरुके, शास्त्रके सब कायामें जुडता है। जिन्होंने प्रगट किया उन पर उसे भक्ति आये बिना नहीं रहती, इसलिये वह सब कायामें जुडता है। भगवानका, गुरुकी प्रभावना, गुरुकी सेवा, गुरुकी भक्ति, गुरुने क्या कहा है, गुरुने क्या मार्ग बताया है, उसके विचार, शास्त्रमें क्या आता है, तत्त्वके विचार अन्दर आते रहे। द्रव्य-गुण-पर्याय, आत्माका स्वरूप, परद्रव्यका क्या स्वरूप, तत्त्वके विचार आते रहे। वह सब उसे होता है। ... पलटता है। अशुभभावमेंसे शुभभावमें दिशा पलटता है और शुद्धात्माकी खटक अन्दर रहा करती है।

मुमुक्षुः- शुद्धात्माकी महिमा..

समाधानः- शुद्धात्मा तो महिमास्वरूप ही है। सब चैतन्यमें भरा है, चैतन्य अनन्त गुणोंसे भरपूर है। अनुपम तत्त्व है। उसे किसीकी उपमा लागू नहीं पडती। जगतके किसी भी पदार्थकी उपमा चैतन्यको-शुद्धात्माको लागू नहीं पडती। उसका ज्ञान अनुपम, उसका आनन्द अनुपम, उसके अनन्त गुण अनुपम। चैतन्य तो अनुपम तत्त्व है, उसे कोई उपमा लागू नहीं पडती। ऐसा अनुपम तत्त्व है। उसकी महिमा उसे आनी चाहिये कि यह सब सारभूत नहीं है, सारभूत मेरा आत्मा है और वह अनुपम है। जगतकी कोई वस्तु


PDF/HTML Page 321 of 1906
single page version

अनुपम नहीं है। जगतके कोई पदार्थ अनुपम नहीं है कि महिमा योग्य नहीं है। परन्तु मेरा आत्मा एक अनुपम है, जिसे कोई उपमा नहीं दी जाती। ऐसी महिमा आये, अन्दर चैतन्यकी-शुद्धात्माकी महिमा आये, बाहरसे हटे, महिमावाला पदार्थ हो तो यह एक मेरा चैतन्य शुद्धात्मा चैतन्यदेव महिमावंत है।

भगवानने जो प्राप्त किया, गुरु जो साधना करते हैं, वह पदार्थ कोई अनुपम है। गुरुदेव जो वाणीमें कह रहे हैं, आत्माकी महिमा प्रकाशते हैं, शास्त्रमें उसकी महिमा आती है, शास्त्रमें उसका स्वरूप आये, गुरुकी वाणीमें आये वह पदार्थ कोई अलग है। ऐसे अंतरमेंसे स्वयं विचार करके नक्की करके उसकी स्वयंकी महिमा अंतरमें आये। अर्थात उसे प्रगट करनेका स्वयं प्रयत्न करे। उसके बिना चैन पडे नहीं। उसीकी लगनी लगे, उसीका बारंबार रटन, याद (करे), बारंबार उसके विचार करे।

मुमुक्षुः- .. आत्माकी महिमा-ज्ञायककी महिमा और बाहरमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा। एक स्व है और एक पर है। अभिप्रायमें दोनों महिमा एकसाथ कैसे टिक सके?

समाधानः- अभिप्राय चैतन्यका है। अभिप्रायमें चैतन्यकी महिमा है और देव- गुरु-शास्त्रकी उसे महिमा तो है। महिमावंत पदार्थ तो मैं हूँ और महिमावंत पदार्थ जो है उसे देव-गुरु-शास्त्रने प्रगट किया है। इसलिये उसकी महिमा उसे आती है। दोनों साथ टिक सकते हैं। बाहरका जो है वह तो उपयोगरूप होता है। यह अंतर अभिप्रायमें है। अभिप्रायमें शुद्धात्माकी महिमा (है)।

जो शुद्धात्मा है वह महिमावंत है। ऐसा महिमावंत पदार्थ भगवानने प्राप्त किया है और गुरु उसकी साधन कर रहे हैैं, शास्त्रोंमें उसका वर्णन आता है। इसलिये उसकी महिमा आये बिना रहती ही नहीं। जिसकी महिमा मुझे लगी, वह महिमावंत पदार्थ जिसने प्राप्त किया, उस पर उसकी महिमा आये बिना नहीं रहती। उनको वह दिखाई देता है, अन्दरमें स्वयं तो नहीं देख सकता है। अंतरमें स्वयं विचार करके अंतरमें जाये तब उसे उसकी स्वानुभूति होती है।

यह तो भगवानने प्राप्त किया है, गुरुकी वाणीमें आता है। जिन्होंने प्राप्त किया है उसकी महिमा उसे आती है। ऐसा पदार्थ जिन्होंने प्राप्त किया वे धन्य हैं, वे पूजने योग्य हैं। साथमें रहनेमें कोई दिक्कत नहीं है। वह तो उपयोगमें आता है और यह अन्दर अभिप्रायमें है।

मुमुक्षुः- एक अभिप्रायमें आता है और एक उपयोगमें आता है। इस प्रकार दो प्रकारमें फर्क पडा।

समाधानः- हाँ, दो प्रकारमें फर्क है। श्रद्धा दोनों पर है। श्रद्धामें दोनों है। शुद्धात्मा


PDF/HTML Page 322 of 1906
single page version

भी महिमावंत है और देव-गुरु-शास्त्र भी महिमावंत है। लेकिन उपयोगमें तो बाहर हो तब बाहरमें उपयोग है। अंतरमें तो अभी स्वयं गया नहीं।

मुमुक्षुः- आशंका ऐसी होती है कि स्व और पर दोनोंकी महिमा एकसाथ कैसे रह सके?

समाधानः- एक श्रद्धामें रहता है और एक उपयोगमें आता है, बाहर होता है तब। स्वयंकी महिमा आये। भगवानकी महिमा आये और अपनी आती है। ऐसे भी आता है, भगवानको पहचाने वह स्वयंको पहचाने, स्वयंको पहचाने वह भगवानको पहचानता है। भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको पहचाने वह स्वयंको पहचानता है। स्वयंके द्रव्य-गुण-पर्यायको पहचानता है वह भगवानको पहचानता है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। लेकिन उसे साथमें रहनेमें दिक्कत नहीं है। एक श्रद्धामें रहता है, एक उपयोगमें रहता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
?? ?