Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 54.

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ट्रेक-०५४ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- प्रवचनसार शास्त्रमें भी है कि अरिहंतके द्रव्य-गुण-पर्यायको जो जाने, वह आत्माको जाने।

समाधानः- हाँ, उसमें आता है। अरिहंतके द्रव्य-गुण-पर्यायको जानता है वह आत्माके जानता है। स्वयंको जाने, वह भगवानको जाने। भगवानको जाने, वह स्वयंको जानता है। स्वयंको स्वंय देख नहीं सकता। भगवानके दर्शन करे, भगवानकी उसे महिमा आये। गुरुके दर्शन करे, गुरुकी वाणी सुने इसलिये गुरु पर, भगवान पर उसे महिमा आती है। उसमेंसे उसे विचार आते हैं कि भगवान माने क्या? भगवानका द्रव्य क्या? उनका आत्मा क्या काम करता है? उनको कौन-से गुण प्रगट हुए हैं? ऐसे विचार करता है।

भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायका जो यथार्थरूपसे विचार करता है, वहाँ अपने द्रव्य- गुण-पर्यायका विचार आता है कि भगवान आत्मा है। आत्मामें अनन्त गुण हैं। उन्होंने पुरुषार्थ करके प्रगट किये हैं। भगवानका आत्मा है वैसा मेरा आत्मा है। ऐसे भगवानको पहचानकर भी अपनी ओर जाता है। यदि यथार्थ पहचाने तो स्वयंको पहचानता है। यथार्थरूपसे पहचाने तो।

गुरु साधन कर रहे हैं। कोई वाणी अपूर्व बरसाते हैं। उनका आत्मा क्या काम करता है? ऐसे विचार करते-करते अपने आत्माका विचार आता है। शास्त्रके विचार (करता है)। शास्त्रमें तत्त्वकी बात आती है। उसमें उसे आश्चर्य लगता है। विचार करे कि शास्त्रमें यह बात आती है। उसमेंसे अपने विचार आते हैं।

लेकिन प्रत्यक्ष जो है वह परिणति पलटनेका कारण बनता है। एक बार प्रत्यक्ष देव और प्रत्यक्ष गुरु मिले तो अपनी परिणति-सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेका कारण बनता है। फिर शास्त्र, एक बार सुननेके बाद शास्त्र पढे वह अलग बात है। परन्तु प्रत्यक्ष होते हैं वह उसे परिणति पलटनेका कारण बनता है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है।

मुमुक्षुः- अंतरना भावे वधाविए..

समाधानः- अंतरना भावे वधाविए।

मुमुक्षुः- वह भक्ति देखकर ऐसा लगता है कि ज्ञानीको किस प्रकार यह शुभराग


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हेयबुद्धिसे आया है? वह कैसे बनता होगा? आपने दस मिनट ही वहाँ भक्ति करवायी थी, इस वक्त सबके बीच उतने भावसे नहीं बता सकता, लेकिन आपके भावपूर्वक जब भक्ति आती हो...

समाधानः- अंतरमें दोनों रहता है। एकत्व परिणति हो नहीं और भाव एकदम जोरदार आये। दूसरेको ऐसा लगे कि ऐसी कैसी भावना आती है? परिणति एकत्व हो नहीं और भिन्न रहकर भावना आये।

मुमुक्षुः- वही आश्चर्य उत्पन्न करता है।

समाधानः- ज्ञायककी परिणति भिन्न रहे और भावना भी ऐसी आये। आवो आवो पधारो भाविना भगवान, अंतरथी भावे वधाविए।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर। आपने जिस भावसे गाया था..

मुमुक्षुः- जगतका यह एक आश्चर्य है कि एकसाथ दो काम इस प्रकार होते हैं।

समाधानः- एक परिणतिमें है, एक उपयोगमें है। परन्तु भेदज्ञानकी धारा वैसी की वैसी चालू हो तो भी वैसे भाव आते हैं। उसमें उसे विरोध नहीं होता।

मुमुक्षुः- ज्ञानीकी इस स्थितिका, माताजी! अज्ञानीको अंदाज आना बहुत मुश्किल है।

समाधानः- शास्त्रमें आता है और गुरुदेव बहुत बार कहते थे कि ज्ञायककी धारा प्रगट होनेके बाद जो भावना आती है, उसकी स्थिति अधिक नहीं पडती परन्तु रस अधिक पडता है। उसे देव-शास्त्र-गुरु पर जो भावना आती है कि यह मेरी जो साधना है, यह ज्ञायककी धारा, चैतन्यदेव जिसने प्रगट किया है और उसकी जो साधना की है और उपकारी गुरु हैं, उन्होंने जो मार्ग बताया है, उन पर जो भाव आये, ज्ञायककी जो स्वयंको प्रीति है, उसमें जो निमित्त बने, जो उपकार किया है, वह जिन्होंने प्रगट किया है, उन पर जो भाव आता है, अंतरमें जो ज्ञायककी महिमा है, वह बाहर आये तो देव-गुरु-शास्त्र पर भी उसे ऐसी ही महिमा आती है। इसलिये उसका बहुत दिखता है कि मानो एकत्व हो जाता हो।

मुमुक्षुः- भाव तो माताजी! प्रत्यक्ष देखे हैैं कि कैसे भाव आ सकते हैं।

नथी कलगी के हार हेम कुंडना, नथी मोती माणेक महा मूलना,
मात्र हैयाना ऊँडा उमळका तैयार, अंतरथी भावे वधाविए।
तुम सेवा तणी घणी कामना, अमे जाप जपीए तुम नामना।
क्यांथी पगला पनोता भाविना भगवान, अंतरथी भावे वधाविए।
शांत सादा अमारा छे आंगणा, शांत सादा अमारा वधामणा,
मात्र
अंतरथी दइये वधाई, अंतरथी भावे वधाविए,
आवो आवो पधारो भाविना भगवान, अंतरथी भावे वधाविए।

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लोकमें ऐसा कोई गीत है, उस परसे बनाया है। पहले गुरुदेवके लिये गाया था। कहीं छपा भी था। कहीं पर छपा था। परन्तु ज्ञायकधाराको कोई दिक्कत नहीं आती। चाहे जैसे भाव बाहरमें दिखाई दे, तो भी।

मुमुक्षुः- बहुत .. लगता है।

समाधानः- एक विकल्परूप श्रद्धा अलग बात है और एक सहज परिणति अलग बात है। ज्ञायककी सहज परिणति वह अलग बात है। और विकल्प करके श्रद्धा रखे वह एक अलग बात है। परन्तु जबतक नहीं होता है, तबतक भावना और प्रयास मुमुक्षुको चालू रहता है।

मुमुक्षुः- जब विकल्परूप भाव बाहर जाए, तब अंतरमें भी परिणति वृद्धिगत होती होगी न?

समाधानः- परिणति वृद्धिगत... ज्ञायककी धारा, भेदज्ञानकी धारा चालू है। वृद्धिगत किस प्रकारकी, उसका अर्थ करना पडे।

ज्ञायक है, ज्ञानस्वभावका नाश नहीं हुआ है। ज्ञानस्वभाव तो उसका है ही। ज्ञायक ज्ञायकरूप तो परिणमित हो ही रहा है। ज्ञायक प्रगटरूपसे नहीं परिणमता है। लेकिन ज्ञायक ज्ञायकरूप है, परन्तु स्वयं भ्रान्तिमें पडा है। इसलिये लक्ष्य नहीं जाता। उसकी दृष्टि बाहर है। जो बाहरका दिखता है उसे अपना मानता है, स्वयंको भूल गया है। बाकी स्वयंका नाश नहीं हुआ है। स्वयं स्वयंरूप (ही है)। जो अनादिअनन्त है वह पारिणामिकभावरूप परिणमता ही है। परन्तु उसकी दृष्टि, स्वयं भ्रान्तिमें पडा है, इसलिये जाननेमें नहीं आता। बाकी जैसा है वैसा अनादिका है ही। अनादि जो उसका स्वभाव है उस स्वभावका नाश नहीं हुआ है और पारिणामिकभाव ऐसा है कि ज्ञायक ज्ञायकरूप, ज्ञान ज्ञानरूप (है)। स्वयं भगवान आत्मा स्वंयसे ही जाननेमें आ रहा है, परन्तु स्वयं भ्रान्तिमें पडा है, उसे देखता नहीं इसलिये जाननेमें नहीं आता। स्वयं देखता ही नहीं, इसलिये कहाँसे जाननेमें आये? और दृष्टि बाहर है, परकी श्रद्धा कर रहा है, पर- ओरका ज्ञान कर रहा है। सब परकी ओर कर रहा है।

श्रद्धा, ज्ञान, आचरण सब बाहरका कर रहा है। पर पदार्थको अपना मान रहा है। विभाव परिणति होती है, वह सब मेरेमें हो रही है। दृष्टिकी दिशा पलट गयी है। इसलिये स्वयं स्वयंको देखता नहीं। स्वयं है, फिर भी उसे देखता नहीं और भ्रान्तिमें पडा है। दृष्टि बाहर है, इसलिये जाननेमें नहीं आ सकता। स्वयं होने पर भी स्वयं स्वयंको देखता नहीं, यह एक आश्चर्यकी बात है। दृष्टि ऐसे (बाहर) है।

गुरुदेव दृष्टांत देते थे, ऐसे बाहरसे गिने कि एक, दो, तीन, चार, स्वयंको गिनना भूल जाय। स्वयं स्वयंरूप ही है। स्वयं स्वयंको जाननेमें आ रहा है, परन्तु स्वयं स्वयंको


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भूलकर दृष्टि बाहर कर रहा है, स्वयं होने पर भी।

मुमुक्षुः- प्रश्न पूछुं? बहुत प्रयत्न करनेके बाद भी किसी भी प्रकारका मनोवांछित साहित्य पढनेकी प्रेरणा होने पर भी वह साहित्य, धार्मिक अथवा जो भी पढूँ, उस वक्त एकदम निद्रावश हो जाता हूँ, ऐसा लगता है, उसके लिये क्या कहना है?

समाधानः- स्वयंको उस प्रकारकी रुचि कम है। स्वयंकी महिमा स्वयंको लगती नहीं। बाहरकी प्रवृत्ति और बाहरका लौकिक कायाका रस लग रहा है। आत्मा कोई अलग है, उसका स्वयंको रस नहीं है, उसकी रुचि नहीं है। इसलिये उसका मन स्थिर नहीं हो रहा है। इसलिये यदि स्वयंकी महिमा आये, बाहरमें नीरसता लगे, बाहरमें चित्त लगे नहीं ऐसा हो तो स्वयंके अन्दर चित्त लगे। बाहरका रस एकदम तीव्र हो तो स्वयंकी ओर जा नहीं सकता। बाहरका रस उसे टूटे, बाहरका रस मन्द हो, बिलकूल तो छूटता नहीं, परन्तु मन्द रस करे और आत्माका रस बढाये, आत्माकी महिमा बढाये कि आत्मामें सर्वस्व है, आत्मा कोई अनुपम वस्तु है, आत्मा कोई अलौकिक है। उसकी महिमा आये तो उस ओर उसकी रुचि हो।

आत्माका क्या स्वरूप है, उस ओर उसकी लगनी लगे। परन्तु स्वयंको रस ही कम है। रस कम है इसलिये प्रमाद होता है। बाहरमें बाहरके प्रयत्न होते हैं, इसलिये अंतरमें होता नहीं। रस बाहरका लगा है। बाहरका रस मन्द हो और अंतरकी ओर रस जाय कि आत्मा क्या वस्तु है? सुख आत्मामें है, बाहर नहीं है। ऐसे अन्दरसे निर्णय होना चाहिये। सच्चा निर्णय नहीं हो रहा है, इसलिये बाहर भटकता रहता है।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- स्वयंके प्रयत्नसे लक्ष्य बदलना। दृष्टि और उपयोग दोनों सब बाहर ही जा रहे हैं। उसे बदलाये कि यह ज्ञायक मैं हूँ। यह विकल्प जाननेमें आता है, यह शरीर दिखता है वह बाहरका दिखता है। उसके पीछे जो ज्ञान है ज्ञानलक्षण, वह ज्ञानलक्षण है वही मैं हूँ। उस ओर अपनी दृष्टिको बदल देना। उसके लिये प्रयत्न करे कि यह ज्ञानलक्षण है वह मैं हूँ। वह लक्षण मात्र नहीं, परन्तु वह वस्तु ही मैं हूँ। मैं ज्ञायक हूँ। ऐसे दृष्टि बदलनेका प्रयत्न करे। बारंबार प्रयत्न करे। दृष्टिको वहाँ स्थिर करे और उसकी श्रद्धा करे, उसका ज्ञान करे। यही मैं हूँ, ऐसे बारंबार, बारंबार, बारंबार करे तो ज्ञायक लक्ष्यमें आये। बारंबार करे।

अनादिका अभ्यास है इसलिये बाहरका सब जाननेमें आता है। अंतरमें बारंबार श्रद्धा स्थिर करनेके लिये प्रयत्न करे। बारंबार करे। यह ज्ञान मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ। इस ज्ञायकमें ही सब है। बाहरमें नहीं है, ऐसे बारंबार प्रयास करे तो होता है। जोजो विकल्प आये, उसके पीछे जो ज्ञान रहा है, जाननेवाला है, वह जाननेवाला मैं हूँ।


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वह सब पर्यायें तो चली जाती हैं, विकल्पकी, विभावकी सब, और जाननेवाला खडा रहता है। जो-जो बना वह सब जाननेवालेको ख्याल है कि यह हुआ, यह हुआ। वह जाननेवाला जो है, वह जाननेवाला ही मैं हूँ। उसका अस्तित्व ग्रहण करे, बारंबार करे। बारंबार प्रयत्न करे। जबतक नहीं हो तबतक उसका प्रयास करता रहे, बारंबार करता रहे। नहीं होत तबतक उसके विचार, उसका वांचन आदि सब करे। स्वाध्याय (करे)। आत्मा सम्बन्धित जिसमें स्वयंको रस आये वह करता रहे, बारंबार करता रहे। गुरुने क्या कहा है, शास्त्रमें क्या आता है, वह सब बारंबार करता रहे, दृष्टि बदलनेके लिये।

अन्दरकी रुचि बढानी चाहिये। अंतरकी महिमा आये। कहीं भी स्थिर हो जाना वह योग्य नहीं है, परन्तु सत्य क्या है, यह नक्की करना पडे। कोई भी साहित्य और कुछ भी पढना (ऐसा नहीं होना चाहिये)। आत्मा सम्बन्धित हो वही भवके अभावका कारण है। दूसरा कुछ भवके अभावका कारण नहीं होता। भवका अभाव करनेके लिये सत्य क्या है, यह नक्की करके उस ओरका प्रयत्न करे तो भवका अभाव होता है।

... दृढता हो गयी, परन्तु उसकी विशेष दृढता, अन्दर गहराईसे विशेष दृढता (करनी)। यह सत्य है, लेकिन वह पदार्थ कौन है? ज्ञानस्वरूप आत्मा ज्ञायक कौन है? उसे प्रगट करनेके लिये उसकी श्रद्धा करके बारंबार प्रयत्न करे। सत्य यह है, परन्तु उस प्रकारसे अन्दर स्वयंको पहचान होनी चाहिये। उस प्रकारसे उसकी श्रद्धा, उसकी प्रतीत, उसका ज्ञान, उसकी दृढता होनी चाहिये। अन्दर गहराईसे कैसे प्रगट हो, ऐसे उसकी रुचि लगनी चाहिये। श्रद्धा हो, विकल्पसे श्रद्धा की परन्तु अंतरमें स्वयंको लगना चाहिये कि सत्य यही है। उसकी महिमा लगनी चाहिये। बाहरकी सब महिना छूट जाय। अंतरमें लगना चाहिये। बारंबार श्रद्धाको दृढ करे। वस्तु है उसको पहचाननेका प्रयत्न करे, उसे खोजनेका प्रयत्न करे। बारंबार उसे खोजे। यह ज्ञायक है, उस पर दृष्टि, उसका ज्ञान, उसके भेदज्ञानका बारंबार प्रयास करे। मैं तो भिन्न ही हूँ, यह सब भिन्न है। यह विभाव भी मेरा स्वभाव नहीं है। उससे भी मैं भिन्न हूँ। ऐसे बारंबार दृढता करता रहे।

मुक्तिका मार्ग, उसे आत्माका-स्वभावका रस लगा तो वह कैसे प्रगट हो और कैसे मेरे हाथमें आये, ऐसे बारंबार प्रयत्न करता रहे। श्रद्धामात्रसे, विकल्पसे जान लिया तो वैसे प्रगट नहीं होता। परन्तु उसका आगे-आगे प्रयास करता रहे, उसे प्रगट करनेके लिये। प्रयोजनभूत बराबर यथार्थ जानकर उसकी श्रद्धा करके, वह कैसे प्रगट हो उसका बारंबार प्रयत्न करे।

मुमुक्षुः- ज्ञान प्रकाश करता है और श्रद्धा है वह शक्तिओंको पचाती है, वहाँ क्या कहना है?


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समाधानः- ज्ञान है वह प्रकाश करता है (अर्थात) सब वस्तुओंका ज्ञान करता है कि वस्तु स्वरूप यह है। और श्रद्धा है वह उसे बराबर नक्की करती है। पाचक अर्थात उसे पचाती है। जहाँ वस्तु है, वहाँ उसकी दृष्टिको स्थिर करता है, श्रद्धा करता है। एक वस्तु पर स्थिर हो जाती है। और ज्ञान है वह वस्तु स्वरूप है उसे चारों ओरसे जानता है। और दृष्टि एक पर (स्थिर हो जाती है)।

... स्वयं अपनेसे करे तो होता है। वहाँ पढना। यहाँके शास्त्र हो, गुरुदेवके प्रवचन जो समझमें आये वह पढना। पढनके लिये कुछ समय रखना, कुछ पढना। अंतर आत्मामें रुचि रखनी कि यह सब तो बाहरका संसार तो चलता ही रहता है। अन्दर आत्मामें भवका अभाव कैसे हो, करने जैसा तो वह है। इसलिये भवका अभाव कैसे हो, उसका विचार करना, वांचन करना। जो समझमें आये वह पढना। जो सुना हो उसका विचार करना।

आत्मा भिन्न, यह शरीर भिन्न, सब भिन्न है। आत्मा शाश्वत है, यह सब आकुलता होती है वह आत्माका स्वरूप नहीं है। आत्मा सिद्ध भगवान जैसा है। उसका भेदज्ञान कैसे हो, आत्मा कैसे पहचानमें आये, उसका बारंबार विचार करते रहना। उसे समझनेके लिये वांचन करना। वहाँ दूसरा तो क्या हो सकता है? अन्दर स्वयं आत्माकी रुचि रखे तो होता है। अन्दरमें स्वयं रखे। वहाँ बाहरके साधन तो कोई है नहीं, देव- गुरु-शास्त्रके कोई साधन नहीं है, मन्दिर नहीं है, देव, गुरु (नहीं है)। शास्त्र समझनेके लिये कोई साधर्मी हो, ऐसा मिलना भी मुश्किल पडे। अपनेसे जो समझमें आये वह पढना। कोई हो तो भी कितने दूर-दूर रहते हैैं।

... सोनगढका माहोल तो कुछ अलग ही है, परन्तु यहाँ तो देव-गुरु-शास्त्रके कुछ प्रसंग मिले, लेकिन वहाँ तो कुछ मिले ऐसा नहीं है। आत्माकी रुचि रखनी, भवका अभाव कैसे हो? मनुष्य जन्म मुश्किलसे मिलता है। यह मनुष्य जन्म ऐसे पैसेके लिये या दूसरेके लिये नहीं है, परन्तु आत्माका स्वरूप कैसे पहचानमें आये? भवका अभाव कैसे हो? उसका विचार करना। अन्दरसे निर्लेप रहना, जितना बन सके उतना वैराग्य रखना और पढना। दूसरा कोई उपाय नहीं है। स्वयंसे जितना हो उतना करना।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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