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मुमुक्षुः- हम अमरिकामें धर्म प्रचार करें तो उसका दूसरा कोई परिणाम आये उसका दोष हमें लगे? हम तो हमारी भावना अच्छी रखकर लोगोंको समझाते हैं कि यह करने जैसा है। अमरिकन लोग कैसे उसका पालन करे, उसके दोषका विचार...
समाधानः- धर्मसे कभी दोष होता है क्या? धर्म तो, स्वयंको जो रुचि हो वह कहे। उसमेंसे विपरीत अर्थ करे तो उससे क्या दोष होता है? उसका दोष वह करता है। दोष हो ऐसा कहाँ आता ही है? दोष क्या करे? धर्मसे कभी दोष होता नहीं। दोष तो वह स्वयं करते हैं। धर्म तो बाहरमें सब सज्जनताकी बात आये और अंतरमें आत्मा कैसे पहचानमें आये, वह होता है। यहाँ तो अहिंसा, सत्य आदि सब होता है। वहाँ तो अहिंसा होती ही नहीं। वह सब तो हिंसामें समझते हैं।
मुमुक्षुः- वहाँ वह लोग भी समझनेके लिये तैयार है। आत्माकी बात सुननी उन लोगोंको अच्छी लगती है।
समाधानः- समझे वह तो ठीक, बाकी स्वयं स्वयंका करना। समझे तो ठीक है। उसका परिणाम-धर्मका दूसरा कुछ नहीं आता, वह तो अपनी गलतफहमीसे उसका अर्थ करे। यहाँ तो सब सज्जनताके गुण होते हैं। वहाँ वह सब कहाँ होता है? कुछ नहीं है। वह तो अभी सज्जनताकी (बात है), वहाँसे आगे अन्दर आत्माको पहचानना तो अलग रह जाता है। ऐसी सज्जनता भी बहुत बार की, परन्तु अन्दर आत्मा भिन्न है उसे पहचानना बाकी रहता है। अभी तो सज्जनता भी नहीं है, वहाँ आत्मा क्या समझमें आये? अभी तो हिंसामें पडे हैं, वहाँ आत्मा समझना कितना मुश्किल है। ऐसी पात्रता तो होनी चाहिये न। दया, शांति, समता, क्षमा आदि सब होना चाहिये, बाहरमें तो होना चाहिये न। ऐसा तो उन लोगोंमें होता नहीं और आत्मा समझनको तैयार हुए हैं। ... संसारका स्वरूप तो ऐसे ही चलता रहता है।
मुमुक्षुः- क्रमबद्धपर्यायका तात्पर्य क्या है? और ... क्या लाभ होता है?
समाधानः- क्रमबद्धपर्यायसे लाभ यह होता है कि कर्ताबुद्धि छूटती है। स्वयं कुछ नहीं कर सकता है। सर्व पदार्थ-द्रव्य स्वतंत्र परिणमते हैं। सर्वके द्रव्य-गुण-पर्याय, आत्मा अनादिअनन्त शाश्वत है, उसके गुण अनादिअनन्त, उसकी पर्याय स्वयंके पुरुषार्थसे होती
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है। सब क्रमबद्ध (है)। परपदार्थ सब क्रमबद्ध, सर्वकी पर्यायसे सब परिणमते रहते हैं। उसमें क्रमबद्धमें कर्ताबुद्धि छूट जाय कि मैं कुछ कर सकता हूँ और मुझसे सब होता है, ऐसी जो कर्ताबुद्धि है कि मैं सबका कर सकता हूँ, ऐसी कर्ताबुद्धि छूट जाय, वह उसका लाभ है। जैसे बनना होता है वैसे बनता है। स्वयं कुछ नहीं कर सकता।
अंतरमें पुरुषार्थके साथ क्रमबद्धका सम्बन्ध है। बाहरमें अपना पुरुषार्थ काम नहीं आता। बाहरके परपदार्थका परिणमन जैसे होना होता है वैसे ही परिणमन होता है। परन्तु अंतरमें जो विभावसे (भिन्न होकर) स्वभावमें जाना, उसमें स्वयंका पुरुषार्थ काम आता है। परन्तु वह पुरुषार्थ स्वयं अपनी ओर झुके, उसमें भी जैसे बनना होगा वैसे होगा (ऐसा नहीं)। वह पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध रखता है, वह क्रमबद्ध। वह क्रमबद्ध ऐसा है कि स्वयं पुरुषार्थ करके ज्ञायकको पहचाने। ज्ञायकको पहचाने वह स्वयं पुरुषार्थसे पहचानता है।
अनादि कालसे जो बाह्य दृष्टि है, उसमें ज्ञायककी ओर दृष्टि बदलता है, पुरुषार्थसे। पुरुषार्थसे अर्थात पुरुषार्थ किया कि जैसे बनना था वैसा बना, ऐसे पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है। कोई द्रव्यको स्वयं पलट नहीं सकता। उसकी पर्याय पलटनेका स्वभाव है इसलिये पलटती है। पलटनेका स्वभाव नहीं था और स्वयंने पलटायी ऐसा नहीं है। उसकी पर्यायका स्वभाव पलटे, परन्तु पुरुषार्थ उसमें काम करता है। ऐसा पुरुषार्थका और क्रमबद्धका सम्बन्ध है। भगवानने भव देखे इसलिये स्वयं पुरुषार्थ नहीं कर सके ऐसा नहीं है। स्वयं पुरुषार्थ करे, पुरुषार्थ करे उसके ही भगवानने भव नहीं देखे हैं, उसका ही क्रमबद्ध वैसा है। पुरुषार्थके साथ क्रमबद्ध सम्बन्ध रखता है।
जो पुरुषार्थ होता है, स्वयं अपनी ओर झुकता है, भेदज्ञान करता है, उसमें नियत, स्वभाव, काल और अपना पुरुषार्थ, सब कारण एकठ्ठे होते हैं। उसमें पुरुषार्थ भी साथमें होता है। कोई ऐसा कहे कि पुरुषार्थ किये बिना होता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। पुरुषार्थके साथ क्रमबद्ध सम्बन्ध रखता है। जिसके दिलमें ऐसा हो कि मैं पुरुषार्थ करके (प्राप्त करुं)। स्वयं जिज्ञासा करे, भावना करके मैं अपनी ओर जाऊँ। ऐसी भावना करे उसका ही क्रमबद्ध स्वयंकी ओर होता है। उसके ही भवका अभाव होता है।
वह माने कि जैसे होना होगा वैसा होगा, अपने कुछ भी करें। ऐसा नहीं होता। जिसकी कर्ताबुद्धि छूटी, उसका अर्थ कि वह स्वयं ज्ञायक हो जाना चाहिये। तो उसका फल है। स्वयं उदासीन ज्ञाता हो जाय, बादमें जैसे होना होगा वैसे होगा। ज्ञायक परिणति होनी चाहिये। मैं तो ज्ञायक हूँ, किसीके भी साथ एकत्वबुद्धिसे जुड जाऊँ ऐसा मेरा स्वभाव ही नहीं है। मैं तो ज्ञायक हूँ, यह क्रमबद्धका फल है। ज्ञायक हो जाना, वह उसका फल है। उदासीन ज्ञायक।
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जो विभावकी परिणति होती है, वह पुरुषार्थकी मन्दतासे होती है, परन्तु विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ। ज्ञायक हो जाऊँ, यह क्रमबद्धका फल है। पहले आंशिकरूपसे ज्ञायक हो, बादमें लीनता बढते-बढते पूर्ण ज्ञायक हो, वह उसका- क्रमबद्धका फल है।
भगवानने जिसके भव नहीं देखे हैं, पुरुषार्थपूर्वक जो स्वयंकी ओर आता है, उसके भव नहीं देखे हैं। आगे बढनेवालेके हृदयमें ऐसा होता है कि मैं पुरुषार्थ करके आगे बढूँ। ज्ञायक हो जाऊँ। क्रमबद्धका यह फल है कि मैं ज्ञायक हो जाऊँ। कर्ताबुद्धि छूटकर ज्ञायक हो जाय, यह उसका फल है। जिसकी ज्ञायककी ओर परिणति जाय, उसका क्रमबद्ध ज्ञायककी ओरका होता है। उसे ही स्वानुभूतिकी दशा होती है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! वर्तमानमें ज्ञायककी ओरका भाव करे फिर भी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता है, उसका क्या कारण है?
समाधानः- भाव करनेसे सम्यग्दर्शन नहीं होता, भावना करे वह एक अलग बात है और ज्ञायककी परिणति प्रगट करनी चाहिये तो सम्यग्दर्शन होता है। ज्ञायककी परिणति मात्र भावना करनेसे नहीं होती। भावना करे उस अनुसार अपनी परिणति होनी चाहिये। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसे शब्दसे बोले, विकल्प करे, भावना करे, भावना करे वह ठीक है, परन्तु ज्ञायकरूप ज्ञायककी परिणति हो तो सम्यग्दर्शन होता है।
ज्ञायकरूप ज्ञायककी परिणति होकर उसमें लीन हो जाय तो विकल्प टूट जाय, निर्विकल्प दशा हो तो होता है। ज्ञायक, मात्र भावनासे नहीं होता। भावना कररके पुरुषार्थ करना चाहिये। ज्ञायकरूप परिणति प्रगट करनी चाहिये। विभावकी परिणति आये एकत्व हो जाता हो, एकत्व हो जाय और मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा करे, भले वह भावना करे, भावना करे उसकी कोई दिक्कत नहीं है, परन्तु ज्ञायककी परिणति यथार्थ होनी चाहिये, तो यहाँ सम्यग्दर्शन होता है। परिणति हुए बना सम्यग्दर्शन होता नहीं। भेदज्ञानकी धारा अंतरमेंसे प्रगट होनी चाहिये। क्षण-क्षणमें जितनी विकल्पकी पर्याय आये उससे भिन्न रहकर, मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी अपनी परिणति प्रगट होनी चाहिये।
क्रमबद्धका फल वह है कि ज्ञायक हो जाना। ज्ञायक हो जाउँ, उसमें पुरुषार्थ साथमें आ जाता है। ज्ञायक हो जाउँ, वह पुरुषार्थ साथमेंं आ गया। वह क्रमबद्धका (फल है)। मैं कुछ नहीं कर सकता, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे बोलनेमात्र नहीं, अंतरमें ज्ञायक हो जाय। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र हो। द्रव्य पर दृष्टि हो, उस प्रकारका ज्ञान हो, ज्ञायककी परिणति हो, आंशिक लीनता हो। सम्यग्दर्शनमें स्वरूपाचरण चारित्र आंशिक होता है। ज्ञायककी परिणति प्रगट हो। चाहे जो भी कार्यमें, किसी भी परिणाममें उसे ज्ञायककी परिणति मौजूद होती है। भेदज्ञानकी धारा जागते-सोते, स्वप्नमें, खाते-पीते, हर वक्त
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उसे ज्ञायककी परिणति चालू रहती है। ऐसी परिणति हो, उसके बाद उसकी लीनता आंशिकरूपसे बढती जाय, उसकी उग्रता होती जाय, लीनता होती जाय तब मुनिदशा आती है। उसमें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूतिमें-स्वयमें लीन हो जाय और अंतर्मुहूर्त बाहर आया कि तुरन्त अंतरमें जाते हैं। ऐसी दशा है। उसका फल है कि ज्ञायककी परिणति प्रगट हो।
मुमुक्षुः- ज्ञायकका रस कैसे प्रगट हो?
समाधानः- रस (तो) स्वयं पुरुषार्थ करे कि ज्ञायकमें ही सर्वस्व है, अन्य कहीं नहीं है। ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये। ज्ञायकमें ही सर्वस्व है। ज्ञायक पूरा चैतन्य पदार्थ कोई अदभुत है। बाहरमें कहीं भी रस लगे नहीं, ज्ञायकका रस लगे। ज्ञायककी प्रतीति दृढ होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- कार्य तो सब पर्यायमें होता है और ज्ञायकका लक्ष्य हो, यह दोनों एक समयमें होता है?
समाधानः- कार्य भले पर्यायमें हो, द्रव्य अनादिअनन्त (रहता है)। दृष्टिका विषय द्रव्य पर है और दृष्टि स्वयं पर्याय है। द्रव्य और पर्याय, दोनों वस्तुका ही स्वरूप है। द्रव्य अकेला पर्याय बिनाका नहीं है। द्रव्य, गुण और पर्याय वस्तुका ही स्वरूप है। भले पर्यायमेें कार्य हो, परन्तु उसका विषय द्रव्य है। परन्तु पर्यायने पूरे आत्माको ग्रहण किया है, द्रव्यको ग्रहण किया है। दृष्टिका जोर, श्रद्धाका बल-प्रतीतका बल, उसका विषय द्रव्य है। उसके लक्ष्यमें पूरा द्रव्य है। स्वयं पर्याय है, उसका लक्ष्य द्रव्य पर है।
मुमुक्षुः- ऐसा कैसा अहंम आता होगा कि द्रव्य सर्वस्व भासित होता है?
समाधानः- अंतरमें सर्वस्व द्रव्य ही है। जीवमें एक श्रद्धा नामका गुण है। वह श्रद्धा करे तब एक वस्तु पर ऐसे जोरसे श्रद्धा कर सकता है। एकको ग्रहण करे। अनन्त शक्तिओँसे भरपूर ऐसे द्रव्यको एकको, अनन्त शक्तिसे भरपूर द्रव्य अभेद है। उसे लक्ष्यमें लेकर, बिना विकल्प, जिसमें कोई विचारोंका भेद नहीं है, ऐसे द्रव्यको लक्ष्यमें, प्रतीतमें, लक्ष्यमें लेती है श्रद्धा। वह श्रद्धाका बल है। चैतन्यमें ऐसा एक श्रद्धागुण है। उसके कारण पूरा द्रव्य लक्ष्यमें रहता है, वह श्रद्धाका बल है।
उसके साथ ज्ञान भी ऐसा काम करता है। ज्ञानमें भी उतना बल आता है। ज्ञान सब जानता है। द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप (ज्ञान जानता है) और श्रद्धा एक वस्तुको (ग्रहती है)। श्रद्धाका बल-जोर तो एक पर ही है। ऐसा चैतन्यमें गुण है। उसकी श्रद्धा करे तो उसमें अनन्त बल आता है। वह श्रद्धाका बल (है)। अनेक फेरफार हो तो भी श्रद्धाका बल टूटता नहीं, ऐसा अनन्त बल श्रद्धामें होता है। ऐसा उसने आश्रय किया है। अनन्त शक्तिसे भरपूर ऐसे द्रव्यका आश्रय किया, उस आश्रयमें उसे अनन्त
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बल है। उस बलको कोई तोड नहीं सकता। पूरा लोकमें फेरफार हो जाय, शास्त्रमें आता है, खलबली मच जाय तो भी उसका सम्यग्दर्शन टूटता नहीं। ऐसा श्रद्धाका बल होता है। ऐसे द्रव्यको उसने ग्रहण किया है। ज्ञानमें उतना बल है।
ज्ञानने जिस यथार्थ वस्तुको ग्रहण किया, वह बराबर ग्रहण की है। श्रद्धामें उतना बल है कि एकको ग्रहण किया है। ज्ञान सबका ज्ञान करता है। श्रद्धाके बलके कारण, श्रद्धा-ज्ञानके कारण लीनता भी उस ओर (होती है)। बाहर जा रहा उपयोग, बाहर जा रही अस्थिरताकी परिणति स्वरूपकी ओर जाती है। उसमें ही उसे स्वानुभूतिकी दशा प्रगट होती है। श्रद्धाका बल कोई अलग ही होता है।
मुमुक्षुः- माताजी! बाहरकी वस्तुओंमें तो विचार भी नहीं करना पडता और महिमा आ जाती है।
समाधानः- सहज ही आ जाती है।
मुमुक्षुः- और अन्दरमें ज्ञायकका इतना विचार करता है, फिर भी जैसा आप कहते हो वैसी, जिस प्रकार सम्यग्दर्शन और स्वानुभूति होनी चाहिये, वैसी महिमा आती ही नहीं, तो उसके लिये क्या करना?
समाधानः- बाहरका अनादिका अभ्यास है। बाहरकी वस्तु दिखे उसमें स्वयंका राग जुडा है। इसलिये उसे सहज ही उसकी महिमा आती है। बाहरमें राग जुडा है। और ज्ञायक उसे दिखाई नहीं देता। उसे ज्ञानमें दिखाई नहीं देता, उसकी अनुभूति नहीं है। इसलिये उसे विचार करके ग्रहण करना पडता है। परन्तु ज्ञान ऐसा यथार्थ है कि जो ज्ञानमेंं ग्रहण करे, ऐसे अटूट न्यायोंसे, ऐसे न्यायोंसे उसका स्वभाव ग्रहण कर सके, ऐसी ज्ञानमें शक्ति है। भले दिखाई नहीं देता, परन्तु वस्तु स्वयं ही है, कोई अन्य नहीं है कि स्वयंको मालूम न पडे। स्वयं ही वस्तु है। उस वस्तुको ग्रहण करनेवाला गुण भी अपना ही है। ज्ञानगुण भी अपना और वस्तु भी स्वयं ही है। इसलिये ज्ञानगुण स्वयंको ग्रहण कर सकता है। बाहरसे ग्रहण कर सकता है, वैसे अंतरमेंसे भी ग्रहण कर सकता है।
बाहर रूपी पदार्थ है, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शावाले, इसलिये दिखते हैं। यह उसे दिखाई नहीं देता, अरूपी है। अरूपी है, परन्तु स्वयं है। और स्वयं अनुमानसे वह लक्षणसे पहचान सकता है कि यह ज्ञानलक्षण मैं हूँ। अनुमानसे, उसकी विकल्पकी जालके साथ जो ज्ञान जुडा हुआ है, विकल्प तो चले जाते हैं, परन्तु ज्ञान अन्दर खडा रहता है, वह ज्ञान अन्दर खडा रहता है, वह ज्ञान किसके आश्रयसे रहा है? वह कोई शाश्वत वस्तुके आश्रयसे यह ज्ञान जुडा है। विकल्प तो सब चले जाते हैं, बचपनसे जो कुछ बना, वह विकल्प चले जाते हैं, परन्तु उसे याद करनेवाला खडा
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रहता है। अर्थात कोई शाश्वत वस्तु है। वह ज्ञान क्षणिकमात्र नहीं है, परन्तु ज्ञानगुणवाला एक पदार्थ है।
उस पदार्थको पहचाननेके लिये, ज्ञान बराबर उसे पहचान सकता है। परन्तु पहले तो विचार करके प्रथम भूमिकामें ज्ञानको विचारसे, अनुमानसे, प्रमाणसे, युक्ति, न्यायसे भी उसे पहचान सकता है। परन्तु युक्ति, न्याय ऐसे होते हैं कि स्वभावके साथ मिलान करके (नक्की करता है)। युक्ति, न्याय ऐसे होते हैं कि टूटे नहीं। अटूट होते हैं। कल्पना जैसा अनुमान प्रमाण नहीं, परन्तु उसके स्वभावके साथ मिलान करके, ज्ञानलक्षणके साथ मिलान करके, प्रमाणसे, अनुमानसे बराबर नक्की कर सकता है। यथार्थ अनुमान। वह अनुमान झूठे नहीं पडते।
शास्त्रमें आता है न? जहाँ धुँआ होता है, वहाँ अग्नि होती है। ऐसे उसके कुछ अनुमान एकदम यथार्थ होते हैं। वैसे ज्ञानलक्षण जो जाननेवाला है वह मैं हूँ, वह जाननेवाला कौन है? उस स्वयंको अन्दर स्वानुभूतिकी बात अलग है, आत्माकी अनुभूति, परन्तु अमुक लक्षण उसे स्वयंके वेदनमें है कि यह ज्ञानलक्षण जाननेवाला मैं हूँ, यह विकल्प सब चले जाते हैं, फेरफार होते हैं। परन्तु जाननेवाला खडा है। वह स्वयं ऐसा विचार करे तो स्वयंको जान सके ऐसा है। स्वानुभूतिकी बात अलग है।
ज्ञानलक्षणवाला आत्मा कोई अलग है और वह स्वयं अमुक स्वभावसे विचार करे, अमुक शास्त्रमें, अमुक गुरुदेवकी वाणीके साथ मिलान करे, स्वयंको अनुभूति नहीं है तो महापुरुषकी श्रद्धा रखकर वे क्या कहते हैं? उसके साथ स्वयंके विचारोंका मिलान करके नक्की कर सकता है कि यह कोई महिमावंत पदार्थ है। युक्ति, न्याय ऐसे होते हैं कि टूटे नहीं। अपने स्वभावके लक्षणके साथ मिलान करके (नक्की करे)। ज्ञानलक्षण है। उसमें आत्माका शांति, आनन्द स्वभाव है। शांति, आनन्दको इच्छता है, बाहरसे कहींसे मिलता नहीं। तो वह किस पदार्थमें रहे हैं शांति और आनन्द? शान्ति, आनन्द कोई पदार्थके गुण हैैं कि जो बाहरसे नहीं मिलते, तो भी वह बाहरसे ढूँढना चाहता है। वह अंतरमें ही रहे हैं। इस प्रकार स्वयं अंतरसे विचार करे तो वह यथार्थ प्रकारसे नक्की कर सके। और वह नक्की ऐसा होता है कि उसमें भूल नहीं होती, उसे कोई तोड नहीं सकता। ऐसे अटूट न्याय, युक्तसे ग्रहण कर सके।
पहले तो उसे युक्त, प्रमाणसे नक्की करे। उसकी महिमा, स्वानुभूतिकी दशा तो प्रगट नहीं है, परन्तु युक्ति, न्यायसे भी महिमा ला सकता है। जो इतना जाननेवाला है, जिसका स्वभाव ज्ञान है, उस ज्ञानमें नहीं जानना ऐसा कुछ आता ही नहीं, जो ज्ञान हो उसमें ज्ञान ही होता है। फिर इतना जानना, उतना जानना ऐसा नहीं होता। ज्ञानस्वभाव है वह अनन्त-अनन्त ज्ञानसे भरा है। उसमें पूरे लोकालोकके द्रव्य-गुण-
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पर्याय, भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकालका कुछ नहीं जानना ऐसा नहीं है। स्वयंका भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल, स्व-परके द्रव्य-गुण-पर्याय, उसमें नहीं जानना ऐसा कुछ आता ही नहीं। इसलिये ज्ञानस्वभाव ... भी जान सकता है। ऐसा ही कोई वस्तुका अचिंत्य स्वभाव है। ऐसा विचार करके... परन्तु अन्दर महिमा आये वह तो स्वयंको करना है न। अंतर परिणतिमें कैसे लाना वह स्वयं कर सकता है। परिणतिमें महिमा कैसे आये वह (स्वयं कर सकता है)। ज्ञानस्वभाव कोई अचिंत्य है।
पानीका स्वभाव ठण्डा है। ठण्डा है तो कितना ठण्डा है? उसका कोई नाप नहीं कह सकते। वह तो एक दृष्टांत है।
वैसे ज्ञानस्वभाव। ज्ञानमें नहीं जानना ऐसा कुछ नहीं आता। (यदि नहीं जानना आये) तो वह स्वभाव कैसा? जिस स्वभावमें मर्यादा आ जाय, वह वस्तुका शाश्वत स्वभाव नहीं कहा जाता। जिसमें मर्यादा बाँध ले कि ज्ञान इतना ही जाने। तो वह अनादिअनन्त शाश्वत गुण ही नहीं कहलाये। जिसकी मर्यादा हो, वह स्वतः स्वभाव नहीं कहलाता। जो अनादिअनन्त स्वभाव हो उसमें मर्यादा ही नहीं होती। जो ज्ञान काम करे वह पूरा ही करे। उसमें अधुरापन नहीं होता।
आकाशका अवकाश देनेका स्वभाव है तो पूरा अवकाश देता है। चाहे जितने द्रव्य आ जाय, तो भी वह अवकाश देता है। उसमें मर्यादा नहीं होती। पदार्थ ऐसी अनन्तासे भरा है। ऐसी अनन्ततासे भरा ज्ञानगुण, ऐसा आनन्दगुण, ऐसे अनन्त गुण हैं। अनन्त स्वभावमेंसे कितने तो वाणीमें नहीं आते। वह तो स्वयं नक्की करे तो होता है। बाकी अंतर परिणतिमेंसे महिमा लानी वह स्वयंको बाकी रहता है।