Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 70.

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ट्रेक-०७० (audio) (View topics)

समाधानः- .. निमित्त बने, पुरुषार्थ करे तो अन्दर दृढता हो। पुरुषार्थ करे तो होता है। प्रतिकूल संयोगका निमित्त बने। बाकी पुरुषार्थ तो स्वयंको करना है। बहुतोंको प्रतिकूलता हो तो भी कुछ नहीं होता है। परन्तु स्वयं करे तो होता है। प्रतिकूलता तो बाहरका निमित्त बनती है, स्वयं करे तो होता है। स्वयंको पुरुषार्थ उठना रहता है। भेदज्ञान कैसे हो? अन्दर कैसे लगनी लगानी? सब अपने हाथकी बात है। ज्ञायककी परिणति दृढ करनी, ज्ञायकता प्रगट करनी अपने हाथकी बात है। निमित्त बने, बाहरके प्रतिकूल संयोग निमित्त बनते हैं। उसे वापस मुडनेका एक कारण बनता है। परन्तु करना स्वयंको पडता है।

मुमुक्षुः- बाहरसे वापस मुडे तो उसे दूसरी जगह कहाँ रही?

समाधानः- आत्मामें जानेकी जगह रही। लेकिन जाय तो होता है न? जाय तो होता है।

मुमुक्षुः- जानेके लिये पुरुषार्थ ही चाहिये और अन्दरकी लगनी?

समाधानः- परुषार्थ, अन्दरकी लगनी। विचार करके, मैं ज्ञायक हूँ, यह मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप भिन्न है। पुरुषार्थ (करके) परिणतिको बदले तो होता है।

मुमुक्षुः- एकदम लगनी कैसे लगे?

समाधानः- लगनी लगानी अपने हाथकी बात है। स्वयंको बाहरसे दुःख लगे, यह मेरा स्वभाव नहीं है, यह मुझे आकुलतारूप है, यह टिकनेका स्थान नहीं है। यह मेरा घर नहीं है। मेरा स्वघर रहनेका निवासस्थान तो आत्मामें है। ऐसा अन्दर निश्चय हो, ऐसी प्रतीति हो, वह प्रतीति दृढ हो तो अन्दर जाय। उतनी दृढता अपनेमें होनी चाहिये, तो अन्दर जाय। जबतक नहीं हो तबतक उसकी लगनी लगाये, उसका अभ्यास करे, बारंबार मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। बाहर शुभभाव आये, देव-गुर-शास्त्रकी महिमा आदि, परन्तु करनेका अन्दर शुद्धात्मामें है।

मुमुक्षुः- जाननेवालेको जानना।

समाधानः- जाननेवाला है। उसका मुख्य गुण जानना है। अनन्त गुणोंसे भरा है, परन्तु मुख्य गुण तो जानना है-ज्ञायक है।


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मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रकी भक्तिसे नहीं मिलता है?

समाधानः- भक्ति निमित्त बने, करना स्वयंको पडता है। भक्तिसे कुछ होता नहीं। वह तो बीचमें आती है। अशुभभावसे बचनेको अंतरमें नहीं हो तबतक देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति आये बिना रहती नहीं। भक्ति, स्वाध्याय, विचार, वांचन, सब बीचमें आता है। तो भी स्वयंको पहचानना पडता है। आत्माको पहचानना। वह सब बीचमें आता है।

मुमुक्षुः- बहुत वांचन नहीं हो सकता हो..

समाधानः- वांचन नहीं हो सके तो प्रयोजनभूत तत्त्वको जाने तो स्वयंको पहचान सकता है। ज्यादा वांचन करे तो होता है, ऐसा भी नहीं है। लेकिन वह सब स्वयंको विचार करनेके लिये शास्त्र स्वाध्याय बीचमें होता है, परन्तु वह ज्यादा ही चाहिये, ऐसा नहीं है। प्रयोजनभूत आत्माको जाने कि मैं जाननेवाला हूँ और यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा अंतरसे जाने कि यह सब परद्रव्य है, मैं आत्मा भिन्न हूँ। मेरा स्वभाव भिन्न है, आकुलता मेरा स्वरूप नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा प्रयोजनभूत स्वयं जाने तो ज्यादा वांचन नहीं हो तो भी अंतरमें कर सकता है।

मुमुक्षुः- स्वपरका भेदज्ञान?

समाधानः- स्वपरका भेदज्ञान। द्रव्य पर दृष्टि। मैं चैतन्यद्रव्य हूँ, यह मैं नहीं हूँ। भेदज्ञान और द्रव्य पर दृष्टि। द्रव्य पर दृष्टि हो उसे भेदज्ञान होता है। भेदज्ञान हो और द्रव्य पर दृष्टि हो, वह दोनों साथमें ही है।

मुमुक्षुः- पहले भेदज्ञान कैसे करना? शरीरसे, बाहरके पदार्थ प्रतिकूल हो, उससे भेदज्ञान हो सकता है पहले?

समाधानः- वह तो क्रम कहनेमें आता है, परन्तु जब अंतरसे भेदज्ञान होता है तब सच्चा भेदज्ञान होता है। बाकी विचार करे कि शरीरसे मैं भिन्न हूँ, यह बाह्य पदार्थसे मैं भिन्न हूँ, वह कुछ जानते नहीं, मैं जाननेवाला भिन्न हूँ, ऐसा पहले विचार करे। यह शरीर भिन्न, यह जड कुछ जानता नहीं। मैं तो जाननेवाला भिन्न हूँ। यह बाह्य परद्रव्य मुझसे अत्यंत भिन्न हैं। यह शरीर भी भिन्न है तो बाहरकी तो क्या बात करनी? उससे भिन्न, शरीरसे भिन्न परन्तु अंतरमें जो आकुलता, विकल्प उत्पन्न होते हैं, उस विकल्पसे अपना स्वभाव भिन्न है। मैं तो निर्विकल्प तत्त्व हूँ। तब उसे सच्चा भेदज्ञान होता है।

इतना करे तो भी वह तो स्थूल हुआ है कि परद्रव्यसे भिन्न और शरीरसे भिन्न। अन्दर जो सूक्ष्म भाव है, शुभाशुभ भावोंसे भी मेरा स्वभाव भिन्न है। ऐसे प्रतीत हो, ऐसी परिणति हो, तब सच्चा भेदज्ञान होता है। मैं तो चैतन्यद्रव्य हूँ, इन सबसे मैं भिन्न हूँ।


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मुमुक्षुः- अपने स्वभावसे भी भिन्नता?

समाधानः- अपने स्वभावसे भिन्नता नहीं, विभावके स्वभावसे। अपना स्वभाव वह तो स्वयं ही है। .. वांचन, विचार, भक्ति, वैराग्य आदि सब होता है, उसके साथ होता है। एक चैतन्यतत्त्वको पहचाने। ध्येय एक-आत्मा कैसे पहचाना जाय? शुभभावमें सब साथमें होता है। अंतरमें शुद्धात्मा कैसे पहचाना जाय? ज्ञायक.. ज्ञायक... ज्ञायकको जाननेका अन्दर पुरुषार्थ।

मुमुक्षुः- एकदम क्यों नहीं शुरू होता है?

समाधानः- उतनी लगनी नहीं है, उतनी रुचि नहीं है, अंतरमेंसे उतना वापस नहीं मुडा है। सब साथमें चाहिये।

मुमुक्षुः- ऐसे तो ऐसा लगता है कि कुछ अच्छा नहीं लगता।

समाधानः- अच्छा नहीं लगता, लेकिन अंतरमें अपनी ओर मुडनेकी उतनी रुचि जागृत होनी चाहिये न। अच्छा नहीं लगे, परन्तु उतना पुरुषार्थ अपनी ओरका होना चाहिये न। उतना पुरुषार्थ होता नहीं है। अच्छा नहीं लगे, वास्तवमें अच्छा नहीं लगता हो तो वह अंतरमें मार्ग किये बिना रहे नहीं।

मुमुक्षुः- अपनी ओर मुडनेका मार्ग प्राप्त हो ही जाता है?

समाधानः- मार्ग प्राप्त हो ही जाता है। वास्तवमें अन्दर लगे तो। खरा पुरुषार्थ अन्दर हो तो। लगनी लगनी चाहिये अंतरमें। क्षण-क्षणमें उसीकी लगनी लगे। और कहीं रुचे नहीं, क्षण-क्षणमें मेरा ज्ञायक.. ज्ञायक.. मुझे ज्ञायक कैसे पहचानमें आये? ज्ञायकदेव। ज्ञायक दिव्यस्वरूप मुझे कैसे पहचानमें आये? उतनी ज्ञायककी महिमा लगनी चाहिये, ज्ञायककी उतनी लगनी अन्दर लगनी चाहिये।

.. अन्दरसे स्वयं विचार करना। बाहरकी महिमा छूटे और अन्दरकी ज्ञायककी महिमा (आये)। उसका स्वभाव पहचानना कि आत्माका स्वभाव कोई अलौकिक है। उसका स्वभाव पहचानना। महिमा कैसे आये? ज्ञायक एक दिव्यमूर्ति है। ज्ञायक मात्र ज्ञान नहीं है, परन्तु ज्ञायक अनन्त गुणोंसे भरपूर दिव्य है। ऐसे महिमा लगनी चाहिये। मात्र एक रुखा ज्ञान जाननेवाला, जाननेवाला ऐसा नहीं है। दिव्यतायुक्त कोई पदार्थ है।

मुमुक्षुः- दिव्यता कैसी होती है? समादानः- कैसी हो, उसका क्या...? दिव्यता आश्चर्यकारक दिव्यता। दिव्यताका अर्थ स्वयं दिव्यस्वरूप है।

मुमुक्षुः- उसका कुछ वर्णन?

समाधानः- उसका वर्णन क्या? उसका अर्थ समझमें आये ऐसा है। दिव्यता अर्थात दिव्य। देवस्वरूप आश्चर्यकारक दिव्यता। कह नहीं सके, उसका अर्थ वह। दिव्यता।


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मुमुक्षुः- वर्णनमें नहीं आये।

समाधानः- वर्णनमें नहीं आता।

मुमुक्षुः- अनुभवमें आये।

समाधानः- अनुभवमें आये।

मुमुक्षुः- कैसा अनुभव होगा?

समाधानः- स्वयं अनुभव करे तब वह समझ सके। बाकी उसका मार्ग शास्त्रमें आता है। लगनी लगी नहीं है, नहीं तो प्राप्त हुए बिना रहे ही नहीं। लगनीमें न्यूनता है, पुरुषार्थकी न्यूनता है, प्रमाद है। प्रमाद है।

मुमुक्षुः- प्रमाद ही ज्यादा है।

समाधानः- लगनी लगती नहीं है, वह प्रमाद है। लगनीकी न्यूनता है और प्रमाद है। आज ही कार्य करना है, आज ही करना है, ऐसा अन्दर पुरुषार्थ नहीं है, प्रमाद है।

मुमुक्षुः- प्रमाद तो ... होगा, .. तो ही उसे प्रमाद रहता होगा न?

समाधानः- भरोसा होगा, लेकिन उसे प्रमाद रहता है। उतनी लगी नहीं है, इसलिये रहता है। देह टिकनेवाला है ऐसा भरोसा अप्रगट समझे, बाकी उसे ऐसा भी होता है कि यह शरीर हमेशा नहीं टिकनेवाला है, लेकिन अन्दरसे उसे सच्चा निर्णय नहीं होता। स्थूलतासे समझे कि यह शरीर परद्रव्य है, टिकेगा नहीं, परन्तु अंतरमें प्रमाद करता है वह स्वयं करता है। अन्दर सच्ची लगे तो तैयार हुए बिना रहे नहीं।

मुमुक्षुः- देह कभी भी छूटे तो भी उसकी तैयारी अन्दर होनी चाहिये।

समाधानः- तैयारी होनी चाहिये, क्षण-क्षणमें तैयारी होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायक, बस।

समाधानः- ज्ञायकका रटन होना चाहिये।

मुमुक्षुः- रटन करते-करते अन्दर लगनी लग जाती होगी?

समाधानः- अन्दर सच्ची लगानेवाला स्वयं है। कैसे लगे? स्वयंको लगानी है। रटन करते नहीं, उसकी जरूरत लगे तो लगनी लगे तो पुरुषार्थ हो। जरूरत लगती नहीं।

मुमुक्षुः- ... लेकिन निद्रामें क्यों नहीं रहता?

समाधानः- जिसको ज्ञायककी रुचि लगे तो ज्ञायककी रुचि तो रुचिवालेको छूटती नहीं। निद्रामें रुचि तो ज्ञायककी होनी चाहिये। निद्रामें पुरुषार्थ मन्द हो जाता है, रुचि तो ज्ञायककी लगनी चाहिये। स्वप्न आये तो भी मैं ज्ञायक, मुझे कैसे प्रगट हो? ऐसी भीतरमेंसे गहरी लगनी लगनी चाहिये। पुरुषार्थ मन्द हो तो बारंबार पुरुषार्थ करे, उसमें थके नहीं। बारंबार, बारंबार, उसकी महिमा छूटे नहीं, उसकी लगनी छूटे नहीं, पुरुषार्थ


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मन्द हो तो बारंबार पुरुषार्थ करे, तो भीतरमें प्रगट हुए बिना रहता ही नहीं।

भगवानके दरबारमें जाना है तो भगवानके द्वार पर टहले लगाये तो भगवानके द्वार खुल जाते हैं। ऐसे ज्ञायकके द्वार पर ज्ञायक.. ज्ञायक.. ऐसे उसकी टहेल लगाता रहे। भीतरमें ज्ञायकदेवका दर्शन हुए बिना रहता नहीं।

मुमुक्षुः- ज्ञायकका प्रचार करते हैं, बीच-बीचमें आस्रवभाव आ जाते हैं, उन्हें हटाते हैं तो हटते नहीं है, हमको परेशान करते हैं।

समाधानः- भीतरमें आस्रवभाव आवे तो बार-बार पुरुषार्थ करे। उसका जोर चलने नहीं देवे। आत्माकी ओरका पुरुषार्थ करे। आस्रवका जोर चलने नहीं देना। अनादिका अभ्यास है, बीचमें आता है तो उसका जोर नहीं चलने देना। आत्माका बारंबार उग्र पुरुषार्थ करे तो हो सकता है। ज्यादा आ जाय, ज्यादा सीख ले, ऐसा नहीं है। विचार करे, मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको जाने तो भीतरमें हो सकता है। आत्माका स्वभाव और विभावका स्वभाव भिन्न करके, ज्ञायकका स्वभाव है, प्रज्ञाछैनी द्वारा उसका भेद करके, मैं ज्ञायक ही हूँ, यह मैं नहीं हूँ, यह विभाव है, मेरा स्वभाव भिन्न है। ऐसा उग्र पुरुषार्थ करके स्वरूप ग्रहण कर ले। भीतरमें ज्ञायककी परिणति प्रगट कर ले, तो हो सकता है। मेरे द्रव्य-गुण सब भिन्न हैं, उसका द्रव्य-गुण-पर्याय भिन्न है, विभावका स्वभाव भिन्न है। ऐसा भेदज्ञान करे। द्रव्य पर दृष्टि करे तो हो सकता है।

मुमुक्षुः- माताजी! विकल्पके कालमें पुरुषार्थ और अलगसे चलता है? या विकल्प ही पुरुषार्थ है?

समाधानः- जब निर्विकल्प नहीं होता हो तो विकल्प होते हैं। परन्तु भीतरमें उसकी जो भावना है, उस भावनाकी उग्रता करके और ज्ञान अपनी ओर दिशा बदलकर ज्ञायकको ग्रहण करके विकल्प गौण हो जाता है। विकल्प छूटता नहीं, विकल्प तो निर्विकल्प दशा जब होवे तब छूटता है। परन्तु विकल्पको गौण करके, ज्ञान अपनेको ग्रहण करता है, अपनी ओर जिसे रुचि लगी, वह ज्ञान अपनी ओर जाकर ज्ञायकको ग्रहण करता है।

मुमुक्षुः- ज्ञानने अपनेको कभी देखा नहीं है तो ज्ञान किस बल पर अपनेको भीतर ले आये?

समाधानः- देखा नहीं है तो भी ज्ञान अपने स्वभावको ग्रहण कर लेता है। स्वयं ही है, दूसरा तो है नहीं। ज्ञायक स्वयं और ज्ञान भी अपना, सब स्वयं ही है। स्वयं स्वयंको ग्रहण कर सकता है। दूसरा नहीं है। देखा नहीं है तो भी ग्रहण कर सकता है, स्वभावको पहचानकर।

मुमुक्षुः- शास्त्रमें तो ऐसा आता है कि विभाव द्वारा स्वभावका भाना अशक्य


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है। विभावके द्वारा स्वभावका भाना अशक्य है। विभाव द्वारा स्वभावका भाना अशक्य है तो विभाव द्वारा स्वभाव कैसे पकडमें आये?

समाधानः- ज्ञानस्वभाव द्वारा। ज्ञानके द्वारा ज्ञानस्वभावका ग्रहण होता है, विभावके द्वारा नहीं होता है। ज्ञान द्वारा ज्ञायक ग्रहण हो सकता है, ज्ञायक ज्ञायकसे ग्रहण होता है। विभाव द्वारा नहीं। विभाव साथमें रहता है वह गौण हो जाता है। ज्ञानके द्वारा ज्ञायक ग्रहण होता है। ज्ञानस्वभावको ग्रहण करके, एक ज्ञायकको ग्रहण करके दृढ प्रतीति करके कि मैं ज्ञायक ही हूँ। फिर मति-श्रुतका उपयोग बाहर जाता है, उसको स्वभावकी ओर लाकर उसमें लीन करता है। विकल्पका भेद हो जाता है और स्वभाव प्रगट होता है।

भीतरमें जाये तो शून्य नहीं है। अकेला ज्ञायक-ज्ञान महिमावंत है। उसका ज्ञान अर्थात सूखा ज्ञान ऐसे नहीं। ज्ञान महिमावंत ज्ञायक ही है। उतना सत्य परमार्थ है, उतना कल्याण है, उतना ही है कि जितना यह ज्ञानस्वभाव है। ज्ञानस्वभाव है अर्थात ज्ञायकको ग्रहण कर। उसमें प्रीति कर, उसमें रुचि कर, उसमें संतुष्ट हो। ज्ञायक महिमासे भरपूर है। एक करने योग्य है, जितना यह ज्ञान है। ज्ञानको ग्रहण कर। वह परम महिमावंत पदार्थ है। .. भीतरमें जाय, सब छूट जाय इसलिये शून्य है, ऐसा शून्य नहीं है। महिमासे भरपूर, अनन्त गुणसे भरपूर ऐसा आत्मा है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- वर्तमानसे भी हो सकता है। पूर्वका किसीको होता है, सबको पूर्वका नहीं हो सकता है। वर्तमान पुरुषार्थसे भी हो सकता है। जिसको प्रगट हुआ वह वर्तमानसे हुआ। सबको पूर्वसे नहीं हो सकता है। जब होता है तब पहले तो हो सकता है। सब पूर्वका लेकर नहीं आते हैं। भगवानकी वाणी सुनता है, अनादिकालसे पहले कुछ हुआ ही नहीं, तो भीतरमें देशना लब्धि होती है, ऐसे पूर्वका लेकर नहीं आता है। भगवानकी ऐसी वाणी सुनकर भीतरमें भगवानको पहचानता है वह स्वयंको पहचानता है। अपनेको पहचानता है वह भगवानको पहचानता है। सब पूर्वसे लेकर नहीं आते हैं। वर्तमान पुरुषार्थसे हो सकता है।

...उसकी प्रीति कर, उसकी रुचि कर, उसमें तुझे उत्तम सुख होगा। शास्त्रमें आता है। उसमें संतुष्ट हो।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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