Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 71.

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अमृत वाणी (भाग-३)
(प्रशममूर्ति पूज्य बहेनश्री चंपाबहेन की
आध्यात्मिक तत्त्वचर्चा)
ट्रेक-७१ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- माताजी! सत चिद आनन्द। चिदका अर्थ क्या है? सच्चिदानन्द स्वरूप।

समाधानः- सत चिद। चिद अर्थात ज्ञान होता है। चैतन्य ज्ञान चिद, ऐसा होता है। चिद अर्थात ज्ञान। सत ज्ञानानन्द स्वरूप है।

समाधानः- चेतन भी होता है और ज्ञान भी होता है। चिद अर्थात ज्ञान।

मुमुक्षुः- सत जो शब्द है, अस्तित्वगुण, उसमें भाव नहीं आता है। उसका मूल्य क्या है? जैसे हवाके बिना नहीं चलता, तो उसकी महत्ता बहुत है। वैसे अस्तित्वकी महत्ता बहुत है, परन्तु आनन्दमें जो भाव रहा है, वैसा सतमें भाव नहीं आता। सतकी महिमा, सत स्वरूप है, सतकी महिमा कैसे आये?

समाधानः- वह तो जो वस्तुकी मौजूदगी है, उस मौजूदगीमें गुण होते हैं। जिसकी मौजूदगी ही नहीं है, उसमें गुण कैसे? सत वस्तु है। एक वस्तु है, चैतन्य एक है। जड है, चैतन्य है, वैसे सब है। उसका अस्तित्व हो, उसमें ज्ञान होता है, आनन्द होता है। अस्तित्व हो उसमें यह सब है। अस्तित्व ही नहीं है, जिस वस्तुकी मौजूदगी ही नहीं है, तो ज्ञान और आनन्द किसमें होंगे? वह सब गुण है। ज्ञान, आनन्द सब।

सत अर्थात एक वस्तु है। एक हयाती है। मैं एक आत्मा हूँ। हूँ अर्थात एक


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अस्तित्वगुण, एक अस्तित्व, चैतन्यरूप मेरा अस्तित्व है। यह जड है, मेरा अस्तित्व नहीं है। मैं तो सत स्वरूप, आनन्द स्वरूप (हूँ)। आनन्द गुण है, परन्तु सत एक वस्तु है। उस वस्तुकी महत्ता है। वस्तु है, पहले वस्तु है तो कैसी है? ज्ञान और आनन्दसे भरी है। ज्ञान और आनन्द किसमें है? सतमें है। सत-मैं एक आत्मा हूँ। अपना अस्तित्व ग्रहण करनेका है। यह जड मैं नहीं हूँ। मैं हूँ। मैं एक अस्तित्वस्वरूप वस्तु हूँ। अस्तित्वमें एक गुण नहीं लेना, पूरा पदार्थ उसमें आ जाता है। सतरूप वस्तु है, उसमें पूरा पदार्थ आ जाता है। और वह पदार्थ कैसा है? कि ज्ञान और आनन्दादि अनन्त गुणोंसे भरा है। अस्तित्वकी महिमा है।

पहले इस प्रकार ग्रहण करे कि मैं एक अस्तित्व-मेरी हयाती है। मैं एक सतस्वरूप आत्मा हूँ। सत कैसा है? सतमें सब (आ जाता है)। ज्ञानरूप मेरा अस्तित्व है, आनन्दरूप अस्तित्व है, मेरा अनन्त गुणरूप अस्तित्व है। मेरे अस्तित्व कैसा है? ज्ञान और आनन्दसे भरपूर मेरा अस्तित्व है। इस प्रकार गुण और द्रव्य सब उसमें साथमें आ जाता है, एक सतको ग्रहण करने पर।

मुमुक्षुः- हम लोग क्या कहते हैं, आनन्द .. अनुभूति है, वेदन है, इसलिये उसमें बहुत भाव भरा हो ऐसा लगता है। वैसे सतमें भाव नहीं दिखाई देता।

समाधानः- वह तो एक वेदन है। आनन्द है वह वेदन है, इसलिये भावसे भरा है। ज्ञानमें जाननेका गुण है, इसलिये वह भावसे भरा दिखता है। परन्तु अस्तित्व है वह टिकनेवाली वस्तु है। जो वस्तु टिकती ही नहीं,.. जो टिकनेवाली वस्तु अनादिअनन्त शाश्वत है, जो शाश्वत वस्तु ही नहीं है तो ज्ञान और आनन्द रहेेंगे किसमें? तो वेदन किसमें होगा? एक वस्तु टिकती है तो उसमें ज्ञान और आनन्द है। टिकनेवाली वस्तु ही नहीं है तो ज्ञान और आनन्द किसमें रहेंगे?

मुमुक्षुः- इसलिये शुरूआत ही वहाँसे होती है?

समाधानः- वहाँसे-अस्तित्वसे होता है। अग्नि है वह अग्नि है, पानी है वह पानी है। परन्तु अग्नि और पानी। उसमें शीतल गुण है, उसमें उष्ण गुण है। उसके गुणसे पकडमें आता है कि उष्ण है वह अग्नि है और शीतल है वह पानी है। वैसे आत्मा ज्ञान ज्ञायकस्वरूप जो ज्ञायक है, जिसने ज्ञायकका अस्तित्व धारण किया है वह आत्मा है और जो जानता नहीं है वह जड है। वह गुणके द्वारा पकडमें आता है, परन्तु उसका अस्तित्व है तो पकडमें आता है। अस्तित्वके बिना जो द्रव्य ही नहीं, जो ध्रुव ही नहीं है, बिना ध्रुवके गुण कहाँ रहेंगे? ध्रुव स्वयं वस्तु है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- अस्तित्वगुणके कारण वस्तुकी हयाती है। अस्तित्व नहीं है तो गुण


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कहाँ रहेंगे? मेरा एक चैतन्य अस्तित्व है। ज्ञानगुणका अस्तित्व है। आनन्दका अस्तित्व है। आनन्द अस्तित्वसे भरा है। ज्ञान, आनन्द आदि सब अस्तित्वसे भरे हैं। उसका वेदन, आनन्दगुणका वेदन आनन्दस्वरूप है, जाननेका जाननस्वरूप, लेकिन अस्तित्व नहीं है तो वेदन किसका?

मुमुक्षुः- इसीलिये सच्चिदानन्दमें पहले सत लिया।

समाधानः- सत-पहले वस्तु है। ध्रुव एक वस्तु है। लेकिन वह है। हयातीसे टिकनेवाली। उसका भाव वह है-हयाती, उसका भाव वह है-हयाती। वह जाननेका, आनन्दका। वेदन स्वयंको (होता है)। अनादिसे स्वयं दुःखी हो रहा है, इसलिये दुःखसे छूटनेके लिये कहते हैं, सुख आत्मामें है। तो उस ओर मुडता है। सुख आत्मामें है, बाहर नहीं है। इसलिये वह सुखकी ओर मुडा। परन्तु सुख किसमें रहा है? सुख बाहर तो नहीं है। तो सुख किस पदार्थमें है?

आत्मा पदार्थ है। जौ मौजूदगी रखता है, उसमें सुख है। मौजूदगीके बिना सुख कहाँ रहेगा? हयाती साथमें होती है। हयाती उसका भाव है। अस्तित्वका भाव मौजूदगी रखना, वह है। शाश्वत है। अनन्त काल गया, अनन्त जन्म-मरण किये, कुछ भी किया लेकिन उसका अस्तित्व, ज्ञायकका अस्तित्व ज्ञायकरूप ही रहा है। चाहे किसी भी क्षेत्रमें रहा, जडके साथ रहा, चाहे जैसे उपसर्ग, परिषह आये तो भी उसका अस्तित्व- ज्ञायकका-चैतन्यका अस्तित्व चैतन्यरूपसे छूटता नहीं, नाश नहीं हो जाता। निगोदमें रहा, नर्कमें गया, कहीं भी गया, चाहे जैसे दुःख आये तो भी चैतन्यका अस्तित्व है, वह अस्तित्व मौजूदगी रखता है। उसका भाव हयाती धरना है। अपनी हयाती ज्ञायककी ज्ञायकरूप हयाती छूटती ही नहीं, नाश नहीं होती। उसका भाव हयाती रखना है। है, हयाती रखनेवाली वस्तु है। उसका कोई नाश नहीं कर सकता। ऐसी ध्रुव शाश्वत वस्तु है। उसका भाव हयाती रखना है। उसका वेदन वह है कि हयाती रखना। ज्ञानका जाननेका वेदन, आनन्दका आनन्दरूप और हयाती रखना उस प्रकारका उसका वेदन है। हयाती, जो हयाती है।

मुमुक्षुः- ऐसा निर्णय..

समाधानः- ऐसा निर्णय करे कि मैं एक वस्तु है। जो हो उसका निर्णय होता है, नहीं हो उसका निर्णय कैसा? है उसे ग्रहण करता है, नहीं है उसका ग्रहण क्या? एक वस्तु है। तो भी वह भावसे भरा है। ध्रुव। वह खाली ध्रुव नहीं है, ज्ञायक ध्रुव। अस्तित्व कैसा? ज्ञायकका अस्तित्व, आनन्दका अस्तित्व। सब गुणसहित अस्तित्व है। उसमें गुण साथमें आते हैैं। खाली अस्तित्व नहीं है, अस्तित्व खाली शुष्क अस्तित्व नहीं है। वह अस्तित्व ज्ञान आदि अनन्त गुणोंसे भरा अस्तित्व है। हयाती। हयाती


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है और ज्ञानकी हयाती, आनन्दकी हयाती सबकी हयाती उसमें साथमें आती है।

मुमुक्षुः- सबके भाव ...

समाधानः- सबके भाव उस हयातीमें समा जाते हैं। हयातीमें अकेली हयाती नहीं आती, उसमें सब भाव साथमें आ जाते हैं। अनन्त गुणके भाव अस्तित्वके साथ आते हैं।

मुमुक्षुः- आत्मस्वरूप, सहज आत्मस्वरूप ... मुश्किल लगता है, फिर भी आत्माका स्वयंका स्वरूप है, जितना बोलनेमें सहज दिखता है, उतना सहज नहीं दिखता है।

समाधानः- स्वभाव सहज है, इसलिये स्वयं सहज है। अनादिसे विभावमें पडा है इसलिये सहज नहीं दिखता। ज्ञान, आनन्द, अस्तित्व आदि उसके सभी गुण अनादि अनन्त सहज है। सहज वस्तु स्वयं है, उसे किसीने बनायी नहीं है। अब, जो स्वभाव होता है वह सहज होता है। स्वभावकी उत्पत्ति करनी पडे ऐसा नहीं है, वह तो स्वभावरूप ही है। स्वभावकी ओर जाना, अपने स्वभावमें जाना वह सहज है। उल्ट विभाव (असहज है)।

पर पदार्थको अपना करना, वह मुश्किल है। वह मेरा-मेरा करता ही रहता है, लेकिन अपना होता नहीं। कैसे हो? जो अपना नहीं है। जड और चैतन्य दोनों भिन्न- भिन्न हैैं। भिन्न हो वह एक कैसे हो? जड अपना होता नहीं। परन्तु चैतन्यको स्वयंको ग्रहण करके अपनेरूप होना हो तो वह सहज है। अपने स्वभावरूप परिणमना वह सहज है।

पानी शीतल है, पानीको शीतलतारूप परिणमना सहज है। पानी अग्निके निमित्तसे गर्म हुआ, परन्तु गर्म होनेका बाद उसे शीतल होना सहज है। क्योंकि वह अग्निसे भिन्न पडे इसलिये वह शीतल हो ही जाता है। उसे शीतल होना सहज है। पानीको गर्म रखना दुर्लभ है। परन्तु शीतल होना सहज है।

अनन्त काल गया तो भी वह शरीररूप नहीं हुआ। वह मुश्किल है, क्योंकि वह तो परपदार्थ है। उसके साथ रहा तो भी वह जडरूप नहीं हुआ। वह मुश्किल है। और अपनी ओर झुकना, वह यदि स्वयं ज्ञायकको ग्रहण किया तो अल्प कालमें स्वानुभूति (होती है)। यदि अंतरसे ग्रहण करे तो स्वानुभूति और केवलज्ञान अल्प कालमें प्रगट करता है। क्योंकि स्वयंका स्वभाव है। उसके लिये अनन्त काल नहीं चाहिये। इसमें तो अनन्त काल गया फिर भी अपना होता नहीं। और यहाँ स्वयंको ग्रहण किया तो उसे ग्रहण करनेके बाद अनन्त काल जाता ही नहीं। अल्प भवमें केवलज्ञानकी प्राप्ति करता है। इसलिये स्वयंको ग्रहण करना और स्वयंकी प्राप्ति करना सहज है।

मुमुक्षुः- इसलिये सहज और सुलभ है। अपनी ओर मुडे तो तुरन्त...


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समाधानः- अपनी ओर मुडे तो स्वयं प्रगट होता ही है। (परपदार्थ) अपना होता नहीं, अपना करनेका प्रयत्न करता है, कोई होता नहीं। और यहाँ तो यदि स्वयंको ग्रहण किया तो अल्प कालमें अपनेरूप हो जाता है। अपनी ओर मुडा सो मुडा। एक बार अपनी ओर गया तो फिर पहलेकी भाँति उसकी एकत्व परिणति होती ही नहीं। अल्प कालमें अपनी ओर प्रगट हुए बिना रहता ही नहीं, ऐसा सहज है। उसे मुश्किल लगता है। उसे पर-ओरका, विभाव-ओरका अभ्यास है, परन्तु यदि अपनी ओर मुडा तो सहज है।

मुमुक्षुः- माताजी! ऐसा लगता है कि एक क्षण विकल्पके बिना जाता नहीं, एक क्षण टिकता नहीं,.. एक क्षण विकल्पको हटा नहीं सकते। तब ऐसे लगता है कि यह सहज कैसे होता है?

समाधानः- अनादिका अभ्यास है इसलिये टिकता नहीं। स्वयं कारण थोडा दे तो कार्य कहाँ-से आये? उसके लिये अधिक कारण चाहिये। प्रथम भूमिका विकट होती है, श्रीमद कहते हैं न? फिर सहज है और सरल है। हमेशा प्रथम भूमिका विकट है। क्योंकि स्वयं दूसरे अभ्यासमें है, विभावके अभ्यासमें है, उसमेंसे छूटकर स्वभावमें आना उसे कठिन लगता है। परन्तु एक बार आया तो सहज है। फिर तो पानी पानीको खिँचता अपने प्रवाहकी ओर चला जाता है। वैसे स्वयं अपने स्वभावमें चला जाता है, वह सहज है। परन्तु प्रथम भूमिका विकट है।

मुमुक्षुः- माताजी! क्षण-क्षणमें पुरुषार्थ (चाहिये)। जैसे पैसा एक-एक मिनटमें चाहिये, एक कदम नहीं बढता, वैसे पुरुषार्थ भी क्षण-क्षणमें चाहिये।

समाधानः- क्षण-क्षणमें पुरुषार्थ चाहिये। व्यवहारमें ऐसा है कि पैसा चाहिये। आत्मामें पुरुषार्थकी जरूरत पडती है। क्षण-क्षणमें पुरुषार्थ। स्वयंकी जागृति रखनी चाहिये, तो अपनी ओर सहज होता है। यह अनादिका कैसा सहज (परिणमन है)। उसे ऐसा रस है कि एकके बाद एक विकल्प आये वह उसे सहज हो गया है। उसे उतना प्रयत्न नहीं करना पडता और एकके बाद एक विकल्प चलते ही रहते हैं, चलते ही रहता है। वह कैसा सहज (हो गया है)। विभावकी परिणति ऐसी सहज हो गयी है। वैसी क्षण-क्षणमें अपनी ओर जाय ऐसी अपनी ओर सहज परिणति हो तो अपनी ओर जाये। ऐसा कर नहीं सकता, उसे विकट लगता है। पानीको शीतल होना सहज है। (क्योंकि) अपना स्वभाव है। वैसे ज्ञायकको ज्ञायकरूप परिणमना सहज है। परन्तु वह करता नहीं है, अनादिका अभ्यास पर-ओरका हो गया है।

मुमुक्षुः- माताजी! शास्त्रमें शब्द तो आते हैं कि सहज आत्म स्वरूप है। पढते हैं, परन्तु अन्दर .. आपने जो लिखा है कि क्षण-क्षणमें पुरुषार्थ चाहिये अथवा जैसे


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आप कहते हो कि पानी...

समाधानः- पुरुषार्थ करे तो सहज होता है। पर-ओरका उसे आसान हो गया है। आत्माका दुर्लभ हो गया। आत्माका सुलभ है, करे तो होता है। प्रथम भूमिका विकट है, परन्तु वह आगे जाये तो सहज है और सुगम है।

पानी पानीके प्रवाहको खीँचता ढालवाले मार्गमें (सहज चला जाता है)। ज्ञान- भेदज्ञानके मार्ग पर यदि स्वयंने अपनी परिणतिको मोड दिया, विवेकके मार्गमें भेदज्ञानकी ओर यदि मुड गया तो भेदज्ञानकी डोर ऐसी है, द्रव्यदृष्टिकी डोर हाथमें आ गयी। स्वयं स्वयंको अपनी ओर खीँचता हुआ अपनी ओर एकदम जल्दी चला जाता है।

... धरसेनाचार्यको ऐसा हुआ कि कोई आवे तो... स्वप्न आया था। उन्हें क्षयोपशम कितना! कंठस्थ था फिर भी याद हो जाता था। पहले लिखनेका नहीं था। फिर उन्होंने लिखा। लिपिबद्ध किया। भावलिंगी मुनिराज आचार्य उनकी क्या बात करनी!

मुमुक्षुः- माताजी! सबसे पहले लिखा गया है, इसके पहले लिखनेकी ... यह कैसे..?

समाधानः- ऐसा क्षयोपशम था, लिपिबद्ध करनेका। उनकी शक्ति थी। लिखनेका उनको क्षयोपशम था। लिखनेकी कला तो सबको आती है, परन्तु अन्दर शक्ति उतनी है कि लिखनेकी आवश्यकता नहीं। फिर ऐसा लगा कि कालदोषके कारण सबके क्षयोपशम ऐसा होता जाता है इसलिये लिपिबद्ध किया। पहले चतुर्थ कालमें सब कला सबको आती थी। शक्ति इतनी थी कि लिखनेकी जरूरत नहीं पडती थी। सब याद हो जाता है। उसमेंसे ज्ञान प्रगट हो जाता था। बारह अंगका ज्ञान भीतरमेंसे हो जाता था। लिखने- पढनेसे नहीं होता है, भीतरमेंसे हो जाता है।

बादमें सबका क्षयोपशम मन्द हुआ, आचार्यको विचार हुआ कि किसीको याद नहीं रहता ऐसा क्षयोपशम हो गया है, इसलिये लिपिबद्ध किया। शास्त्र लिखनेकी शक्ति तो थी। कैसे शास्त्र रचे! कितनी बात षटखण्डागममें! उनके क्षयोपशमकी क्या बात करनी! उनकी-आचार्यकी दशाकी क्या बात!!

मुमुक्षुः- .. आपसे कई बार सुनते हैं फिर भी भूल जाते हैं, माताजी!

समाधानः- .. अभ्यास करना, उसका आशय ग्रहण करके बारंबार भीतरमें ऊतारनेसे होता है। शब्द याद नहीं रहे, भूल जाय तो भी उसका भाव याद रहे, आशय ग्रहण करनेसे हो सकता है। इतना क्षयोपशम तो होता है कि आशय ग्रहण हो सके। शिवभूति मुनिको तो इतने शब्द भी याद नहीं रहते थे। उनके गुरुने कहा कि मा-रुष, मा- तुष, उतना भी याद नहीं रहा। भीतरमेें उन्होंने आशय ग्रहण कर लिया कि मेरे गुरुको ऐसा कहना था कि दाल और छिलका (भिन्न है)। (एक औरत दाल) धोती थी।


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तुष-छिलका अलग और दाल अलग है।

वैसे ज्ञायक आत्मा भिन्न है और विभाव, विकार सब भिन्न-जुदा है। ऐसा आशय ग्रहण कर लिया। मारुष, मातुष याद नहीं रहा और मासतुष हो गया। शब्द भूल गये, परन्तु आशय ग्रहण हो गया। यह विभाव परिणति मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ, जाननेवाला हूँ, ऐसा मेरे गुरुने कहा था। आत्मा भिन्न है। भिन्न है उसका आशय ग्रहण करके, ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ज्ञायककी परिणति प्रगट करके भीतरमें इतनी लीनता हो गयी कि सम्यग्दर्शनमें ज्ञायक तो ग्रहण हो गया और उतनी दृढ प्रतीति हुयी और लीनता भी उतनी हो गयी। चारित्र भी इतना हो गया कि अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्रगट हो गया।

इस प्रकार आशय ग्रहण करनेसे होता है। शब्दकी वहाँ जरूरत नहीं पडती। थोडा भी आशय ग्रहण कर ले तो हो सकता है। सब शास्त्रका ज्ञान होवे, सब होवे तो अच्छा है, इसमें लाभका कारण होता है। विचारनेमें द्रव्य-गुण-पर्यायका, उत्पाद-व्यय- ध्रुवका स्वरूप विचार करनेमें, आत्माका स्वरूप विस्तारसे समझनसे लोभ होता है। तो भी याद न रहे तो भी प्रयोजनभूत तत्त्वको समझ ले तो भी हो सकता है।

मुमुक्षुः- माताजी! प्रयोजनभूत तत्त्वोंको सुगमतासे समझनेके लिये सबसे सरल शास्त्र कौन-सा है?

समाधानः- सरल उपाय तो एक आत्माको ग्रहण करे। मुमुक्षुः- कौन-सा शास्त्र सरल है? समाधानः- भेदज्ञानकी बात जिसमें आती हो, वह शास्त्र सरल है। परन्तु समयसारमें सब आ जाता है। तो भी उसका रहस्य बतानेवाले तो गुरुदेव थे। शास्त्र तो थे, परन्तु उसका रहस्य आचार्यदेव क्या कहते हैं? इन सबका रहस्य तो गुरुदेवने बताया है। समयसार शास्त्रमें तो सब आ जाता है। ज्ञायककी बात, स्वभावकी, विभावकी सब, कर्ता-अकर्ता सब बात उसमें (आती है)। मुक्तिके मार्गमें प्रयोजनभूत सब बात समयसारमें स्वानुभूतिकी सब बात आ जाती है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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