Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 90.

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ट्रेक-९० (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- अस्थिरता अपेक्षासे परमें जुडे तब भी उसे रुचता नहीं होगा।

समाधानः- उसे अंतरमें रुचि नहीं है। यह पुरुषार्थकी मन्दताके कारण बार जाना हो रहा है। अंतरमें पूर्णरूपसे स्थिर नहीं हुआ जाता। अंतरमें बाहर आना हो जाता है। अंतर्मुखकी दशामेंसे, अंतर्मुखकी स्थितिमेंसे बाहर आना होता है और सविकल्प दशामें आना होता है, वह रुचता नहीं है। फिर भी पुरुषार्थकी मन्दताके कारण आना हो जाता है और उसमें गृहस्थाश्रममें बाह्य कायामें जुडता है।

प्रत्येक कार्य, शुभाशुभ प्रत्येक कायामें जुडे लेकिन उसकी रुचि तो आत्मामें जानेकी रहती है। मेरी ज्ञायककी धारा विशेष कैसे प्रगट हो? विशेष लीनता कैसे हो? ऐसी उसे भावना रहती है। ऐसी अनुपम दशा, ऐसा अनुपम चैतन्यदेव जो हाथमें आया उसे छोडकर बाहर जानेका मन नहीं होता है। परन्तु पुरुषार्थकी मन्दताके कारण बाहर जाना होता है।

समाधानः- ... ऐसी एकत्वबुद्धि निरंतर रहती है। दिन और रात एकत्वबुद्धिकी परिणति चलती है। विचार करे कि मैं जुदा हूँ-भिन्न हूँ, परन्तु परिणति तो एकत्वकी चलती है। जैसी एकत्वकी परिणति चलती है, वैसी परिणति "मैं ज्ञायक हूँ' ऐसा अभ्यास बारंबार करे। जैसी वह परिणति निरंतर (चलती है), जीवनमें ऐसी एकत्वबुद्धि हो रही है। अनादि कालसे हो रही है। मैं ज्ञायक हूँ, (ऐसा) एक-दो बार विचार करे ऐसा नहीं, जीवनमें ऐसा ही दृढ करे कि मैं ज्ञायक ही हूँ। ऐसी भले भावना, विचार करे परन्तु एकत्वबुद्धि तोडनेकी परिणति होनी चाहिये।

मैं ज्ञायक ही हूँ, मैं यह नहीं हूँ, क्षण-क्षणमें उसका विचार आये। मात्र विचार ऊपर-ऊपरसे नहीं, अंतरसे ज्ञायककी लगनीपूर्वक (होना चाहिये)। अन्दर जिज्ञासा ... हो और बारंबार मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा भीतरमेंसे होना चाहिये। बारंबार। यथार्थ सहज परिणति तो जब निर्विकल्प दशा होती है, उसके बाद सहज होती है। परन्तु पहले उसका बारंबार अभ्यास करे। मैं ज्ञायके ही हूँ, क्षण-क्षणमें उसका अभ्यास करना चाहिये। बारंबार।

बुद्धिसे जान लिया कि यह शरीर भिन्न, मैं भिन्न, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं।


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परन्तु उसके प्रयत्नमें ऐसा होना चाहिये कि मैं भिन्न ही हूँ। बारंबार जब-जब विकल्प आवे तब मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसा भीतरमेंसे होना चाहिये। ऐसा अभ्यास होना चाहिये।

मुमुक्षुः- पहले देह सम्बन्धि भिन्नताका प्रयास विशेष चलेगा?

समाधानः- ऐसा क्रम आता है। प्रथम देह, स्थूल देहसे मैं भिन्न हूँ। सूक्ष्म विभावसे भिन्न, शुभसे भिन्न ऐसा आता है, ऐसा क्रम आता है। क्रम आता है, परन्तु जब यथार्थतासे भिन्न होवे तब सब एकसाथ हो जाता है। यह स्थूल शरीर तो मैं नहीं हूँ, मैं तो ज्ञायक हूँ। लेकिन भीतरमें विभाव आवे वह भी मैं नहीं हूँ, वह मेरा स्वभाव नहीं है।

फिर शुभभाव। शुभाशुभ और शुभभाव। उसमें द्रव्य-गुण-पर्यायका विचार आवे तो भी वह तो विकल्प रागमिश्रित है। उससे भी मैं भिन्न हूँ। ऐसा क्रम-क्रमसे (होता है)। परन्तु क्रम आवे वह व्यवहार है। भीतरमें तो जब यथार्थतासे भिन्न पडता है, तब सब एकसाथ हो जाता है। यथार्थ भिन्नता आवे तब एकसाथ (हो जाता है)। स्थूल शरीरसे, विभावसे, सुबुद्धिका विलास है, सबसे एकसाथ भिन्न हो जाता है। पहले अभ्यास क्रममें ऐसा आता है। स्थूल शरीरसे भिन्न, विभावसे भिन्न, शुभभावसे भिन्न। द्रव्य-गुण-पर्यायका रागमिश्रित विचार बीचमें आता है। परन्तु वह सब तो रागमिश्रित विचार है। ऐसा मेरा स्वभाव (नहीं है)।

शरीरमें जब कुछ होवे तो मैं तो आत्मा ही हूँ, मैं तो भिन्न हूँ। यह स्थूल शरीर मेरा नहीं है। वह तो पुदगल जड है। ऐसे एकत्वबुद्धि तोडनी चाहिये। विभावसे एकत्वबुद्धि तोडनी चाहिये। शुभभाव आवे इससे भी एकत्वबुद्धि तोडनी चाहिए। सबसे एकत्वबुद्धि तोडनी चाहिये। एकत्वबुद्धि तोडनेके लिये उपयोगको सूक्ष्म करना पडता है। देह तो स्थूल है, मैं सूक्ष्म हूँ। शुभभावसे भी भिन्न उपयोग सूक्ष्म होता है। ऐसी जिसको जिज्ञासा हो तब एकसाथ हो जाता है।

मुमुक्षुः- अन्दर भिन्नताकी परिणति निरंतर चालू रहती है?

समाधानः- हाँ, अभ्यास करनेकी परिणति चालू रहती है। ... ऐसा कोई नियम नहीं है, लेकिन शुभभाव (होता है)। द्रव्य-गुण-पर्यायका विचार (होता है)। कोई कहता है कि आखिरमें कौन-सा विकल्प (होता है)? ऐसा विकल्पका कोई निश्चित नहीं है। ऐसा शुभभाव ज्ञायकके साथ शुभभाव साथमें रहता है। कौन-सा शुभभाव, इसका कोई नियम नहीं है। ज्ञायकके सम्बन्धमें जो अनुकूल होवे उसका विचार (होता है)।

... भेदज्ञान करनेका प्रयास होता है। भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन। जो सिद्ध हुए सब भेदविज्ञानसे हुए हैं। द्रव्य पर दृष्टि और भेदज्ञानका प्रयास। मैं चैतन्य


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शाश्वत द्रव्य हूँ। ऐसे द्रव्य पर दृष्टि करके, विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसा भेदज्ञान करनेका प्रयास करना चाहिये। जो नहीं हुए हैं, भेदविज्ञानके अभावसे नहीं हुए हैं। जो हुए भेदविज्ञानसे हुए हैं। अनन्त काल गया। अपना स्वभाव सरल है, सुगम है, तो भी दुर्लभ हो गया है।

मुमुक्षुः- दुर्लभ होनेका क्या कारण रहा?

समाधानः- कारण, ऐसी एकत्व परिणतिकी इतनी गाढता हो गयी है। पुरुषार्थ नहीं करता है। प्रमाद हो रहा है। पहले तो यथार्थ समझन नहीं है, अज्ञानता है। ज्ञान सच्चा नहीं है। सच्चा ज्ञान करे, विचार करके नक्की करे तो भी प्रमादके कारण नहीं हो सकता है। मैं भिन्न हूँ, ऐसा नक्की करे। अनादि कालसे कहीं न कहीं रुक जाता है। ऐसे गुरुदेव मिले, सच्चा मार्ग मिला। नक्की करता विचार करके, लेकिन प्रमादके कारण नहीं हो सकता है। अंतर लगनी लगी नहीं है और प्रमाद है। लगनी लगे तो पुरुषार्थ हुए बिना रहता ही नहीं।

मुमुक्षुः- .. उस समय मनमें जितना उल्लास और निर्णयकी जागृति होती है, ुउतना जब आपसे अलग होते हैं उस समय उतना काम नहीं होता। दर्शनसे ही इतना लाभ मिलता है, इसका क्या कारण?

समाधानः- यहाँ आनेसे होता है, फिर कहाँ नहीं होता है? उपादान-निमित्तका ऐसा सम्बन्ध होता है। अपने कारणसे स्वयं... शास्त्रमें आता है न कि सत्संग लाभका कारण होता है। करता है स्वयंसे, पुरुषार्थ स्वयंको करना है, परन्तु सत्संगके साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होता है। सत्संग करना। तुझे पुरुषार्थ चलनेका कारण होता है। ऐसा भी कहनेमें आता है कि अच्छे संगमें रहना। मुनिओंको ऐसा उपदेश दिया है। सत्संग.. निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है।

मुमुभुः- जिसके प्रति राग हो, वह जीव तिर जाता है। समाधानः- ... राग हो अर्थात उसे ज्ञानीकी महिमा होती है। महिमा यानी उसकी स्वयंकी ओरकी यथार्थ महिमा होनी चाहिये। राग यानी महिमा होती है। ज्ञानीकी महिमा अर्थात उसे स्वभावकी महिमा है। वे क्या करते हैं? आत्माका क्या? उसे स्वभावकी महिमा, ज्ञानीकी महिमा अर्थात उनकी अंतर दशाकी महिमा है। अंतर दशाकी महिमा अर्थात मुझे यह चाहिये, ऐसा अन्दर गहराईमें आ जाता है।

शास्त्रमें आता है कि यह तत्त्वकी बात तत्प्रति प्रीतिचित्तेन वार्तापि ही श्रुता। यह जो तत्त्वकी बात है, उसे जिसने प्रीतिसे सुनी है, वह भावि निर्वाण भाजन है। गुरुकी वाणी, भगवानकी वाणी उसने प्रीतिसे सुनी इसलिये उसे भावि (निर्वाणका भाजन कहा है)। अंतरकी प्रीति लेनी।


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वैसे ज्ञानीकी भक्ति-राग अर्थात अंतरकी भक्ति अर्थात अंतरमें उसे निमित्तमें ज्ञानीकी भक्ति, अंतर ज्ञायककी भक्ति आ जाती है। ऐसा सम्बन्ध होता है, इसलिये निमित्त- उपादानका सम्बन्ध है। प्रीति अंतरकी, रुचि और प्रीति अंतरकी लेनी।

अनन्त कालसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया है, तो कोई देव और गुरुके उपदेशसे देशनालब्धि (प्राप्त होती है), वह निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। करे स्वयंसे, पुरुषार्थ स्वयंको करना है। स्वतंत्र, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। कोई किसीको कर नहीं देता। परन्तु ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है कि साक्षात वाणी मिले। देवकी अथवा गुरुकी वाणी मिले तो जीवको अंतर देशनालब्धि होकर उसे परिणति पलटनेका कारण बनता है।

... बीजलीके चमकारेकी भाँति चले जाये, ऐसा होता है। थोडा फेरफार हो, किसीने पानीको छू लिया, किसीने हरी वनस्पति छू ली, ऐसा ख्याल आये तो बोले नहीं कि छू लिया, ऐसे ही चल देते थे। ऐसा लगे कि क्यों चले गये? जिसे घर पधारे हो उसे इतना दुःख लगता है...

... आत्माका ही करना है, ऐसा ध्येय था। वही सच्चा है। आत्माके ध्येयसे ही सब करना है। हिम्मतभाईको वह है, आत्माका ध्येय। जो कुछ करना है, आत्माके ध्येयसे करना है। किसीको कुछ कहना नहीं। क्या कहना?

... अपना करना है। दूसरेको दिखानेके लिये नहीं करना है, स्वयंको करना है। भवका अभाव कैसे हो और आत्मा कैसे प्राप्त हो, वही करना है। भेदज्ञान करके आत्मा कैसे पहचानमें आये, वही करना है। सुख और आनन्द सब आत्मामें भरा है, बाहर तो कहीं नहीं है। ऐसी जोरदार वाणी, दूसरोंको आत्माको आश्चर्य लगे और विभाव चूर-चूर हो जाय, ऐसी उनकी वाणी थी। स्वयं पुरुषार्थ करे.. श्रवण करे उसे रुचि प्रगट होनेका कारण बने।

मुमुक्षुः- सुनते ही दिगंबर बन जाय, ऐसी वाणी।

समाधानः- यह कहते हैं वह सत्य ही है। .. क्रमबद्ध ऐसा होता है कि पुरुषार्थ स्वयं करे तो हुए बिना रहे ही नहीं। क्रमबद्ध... बाहर देखनेवाला स्वयं अपना बचाव करके अटक जाता है। क्रमबद्ध...

तुझे क्या काम है? तू तेरा ज्ञायकपना प्रगट कर, ज्ञायककी परिणति प्रगट कर। कर्ताबुद्धि छूटकर ज्ञायकता प्रगट कर और भेदज्ञान प्रगट करके, द्रव्य पर दृष्टि करके भेदज्ञानपूर्वक आत्मामें लीनता कर। उससे भिन्न होनेका प्रयत्न कर तो हुए बिना रहता नहीं। स्वयं करे उसे क्रमबद्ध रोकता नहीं। उसे काललब्धि भी रोकती नहीं और क्रमबद्ध भी रोकता नहीं। कोई रोकता नहीं। स्वयं अपने कारण रुका है। अपनी मन्दतासे, अपने ही कारणसे प्रमादसे स्वयं छूटता नहीं। स्वयं पुरुषार्थ करे तो छूट सके ऐसा है।


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क्रमबद्ध तो कर्ताबुद्धि छोडनेके लिये है, बचाव करनेके लिये नहीं है। .. उसे ऐसा ही होता है कि मेरी कमजोरी है, मैं कर नहीं सकता हूँ। .. विचार करता रहे और आगे नहीं बढे तो भी नहीं सकता है। ऐसा नक्की करके फिर उस प्रकारका प्रयत्न करे तो आगे बढता है। परन्तु जबतक वह नहीं होता है, तबतक श्रुतके विचार, श्रुतका चिंतवन, शास्त्र अभ्यास आदि सब होता है। परन्तु आगे तो स्वयं अन्दर प्रयत्न करे तो होता है।

मुमुक्षुः- ... तब तो आगे बढनेका कुछ..

समाधानः- पकडमें आनेके लिये भी स्वयंको प्रयत्न करना पडता है कि यह ज्ञायक है। शाश्वत आत्मा है। उसे ग्रहण करनेके लिये स्वयं प्रयत्न करे। विचार करके नक्की करे कि यह शाश्वत आत्मा है। वही मेरा आश्रय है। उसका आश्रय ग्रहण करे। उसका भी प्रयत्न करना। विचार करके नक्की करना पडता है। द्रव्य क्या है, गुण क्या है, पर्याय क्या है। ऐसा विचार करके नक्की करके जो शाश्वत है, ज्ञायक ध्रुव है उसका आश्रय लेता है।

मुमुक्षुः- द्रव्य-गुण-पर्यायका .. आगे बढनेमें...

समाधानः- आगे बढनेमें सच्चा ज्ञान करनेमें उपयोगी है। क्योंकि जो यथार्थ वस्तु है वैसी पहचाने तो सच्चा प्रयत्न हो। वस्तु जैसी हो वैसी पहचाने नहीं तो उसका प्रयत्न सच्चा नहीं हो सकता। वस्तु जिस प्रकारसे है, उस प्रकारसे पहचानकर उसका आश्रय ले तो आगे बढे। सच्चा ज्ञान करे तो सच्चा ध्यान होता है। तो ही सच्ची एकाग्रता होती है। ज्ञान सच्चा नहीं है तो उसका ध्यान कहाँ जाकर खडा रहेगा? किसके आश्रयसे खडा रहेगा? किसके आश्रयसे स्थिर होगा? जिसे सच्चा ज्ञान नहीं है, उसे सच्चा ध्यान भी नहीं हो सकता है। ज्ञान तो चारों ओरसे स्पष्ट एवं निर्मल हो तो उसे आगे बढनेमें सरलता रहती है। यथार्थ ज्ञान जूठा हो तो उसका पुरुषार्थ सच्चा नहीं हो सकता।

मुमुक्षुः- लगनी बढे..

समाधानः- लगनी स्वयं बढाये तो होता है। उसे बाहरका रस छूट जाना चाहिये। अंतरमें चैतन्यमें सुख लगना चाहिये। सुख चैतन्यमें ही है। बाहर कहीं नहीं है। बाहर रुकता हो, उसे अंतरमें मुडनेका, स्वयं अंतरमें प्रयत्न करे। रुचि बढानेका प्रयत्न करे, लगनी लगानेके लिये।

अंतरमें सुख लगे तो उसे लगनी लगे न। अंतरमें सुख एवं आत्मा सारभूत है, ऐसा नहीं लगे तो लगनी कहाँसे लगे? सर्वस्व सारभूत हो तो आत्मा है जगतमें, दूसरा कुछ सारभूत नहीं है। ऐसी अंतरमेंसे रुचि लगनी चाहिये तो लगनी लगे। आत्माके


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बिना कहीं चैन पडे नहीं, ऐसी लगनी अंतरसे लगनी चाहिये। परन्तु आत्माकी उतनी जरूरत लगे तो लगनी लगे न।

रस है, जहाँ-तहाँ रुक जाता है। अन्दर लगनी लगनेके लिये, आत्मा ही वस्तु सर्वस्व है और उसीकी जरूरत है, ऐसा लगना चाहिये। परन्तु वह कोई कर नहीं देता, स्वयं करे तो होता है।

मुमुक्षुः- सत्पुरुषके सान्निध्यमें कुछ लगनी बढे न?

समाधानः- सत्पुरुषका निमित्त महानिमित्त है, प्रबल निमित्त है। परन्तु करना तो स्वयंको है। इसलिये शास्त्रमें आता है, देव-गुरु-शास्त्र, सत्पुरुषका सान्निध्य... तू उसकी शरणमें जा, जैसा कहे वैसा करे। ऐसा आता है। परन्तु करना स्वयंको करना है। उपादान स्वयंको तैयार करना है। कोई कर नहीं देता, करना स्वयंको हो। सत्पुरुषका निमित्त तो प्रबल है। देवका, गुरुका सबका प्रबल निमित्त है, मुक्तिका मार्ग प्रगट करनेके लिये। मुक्तिको पहचाननेके लिये, स्वानुभूति प्रगट करनेके लिये, जिज्ञासुकी भूमिका आत्मार्थीता प्रगट करनेके लिये गुरुका निमित्त बडा है, परन्तु करना स्वयंको है।

निमित्तः- जीव निमित्तको अधिक जोर देता है। समाधानः- ऐसा नहीं है। श्रीमदका कहनेका आशय एक है। उनका गहराईसे यह कहना है कि तू कर तो होता है। निमित्तकी ओरसे बात भले करते हो।

मुमुक्षुः- दृष्टिका विषय पकडे उसके पहले तो ज्ञानमें मुख्य-गौण करके, द्रव्य मुख्य और पर्याय गौण, ऐसा करके द्रव्यका ज्ञान करना पडे।

समाधानः- ऐसा ज्ञान उसे हो जाता है। भले ही लंबी बात समझे नहीं, परन्तु जो दृष्टिका विषयमें द्रव्य मुख्य और पर्याय गौण उसमें आ जाता है। जिसे आत्माकी लगी हो, उसे संक्षेपमें भी आ जाता है। तिर्यंच कोई शब्द नहीं समझते हैं तो भी उसे सम्यग्दर्शन होता है। वह अन्दर मुख्य शाश्वत आत्मा ग्रहण करता है और जो भेद है वह सहज ही गौण हो जाते हैं। नव तत्त्वके नाम भी नहीं आते हैं।

मुमुक्षुः- स्वयं अपनेआप..

समाधानः- यथार्थ लक्ष्य हो तो सभी पहलू उसे आ जाते हैं। परन्तु जबतक नहीं समझता है, तबतक विचार करके नक्की करे तो उसे ज्ञान अधिक निर्मल होकर आगे बढनेमें सरलता रहती है, मार्ग स्पष्ट होता है। स्पष्टता उसे अधिक लाभका कारण होता है। कोई एक अंतर्मुहूर्तमें प्राप्त कर लेता है, वह बात अलग है। बाकी ज्यादा स्पष्टता अन्दर ज्ञानकी निर्मलता हो तो उसे ज्यादा लाभका कारण है। परन्तु मूल प्रयोजनभूत वस्तु जो समझता है, उसे मुक्तिका मार्ग प्रगट हो जाता है। प्रयोजनभूत वस्तु यथार्थ


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आ गयी तो उसे स्वानुभूति भी होती है और आगे भी बढता है। केवलज्ञान पर्यंत पहुँच जाता है।

शिवभूत मुनि ज्यादा नहीं समझते थे। मूल प्रयोजनभूत समझ लिया तो आगे बढ गये। एकान्त ऐसा नहीं है कि ज्यादा ज्ञान हो तो ही आगे बढ सके। ऐसा एकान्त नहीं है। चारित्र उसमें प्रगट हो जाय, कम ज्ञान हो तो भी। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र सब....

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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