Atmadharma magazine - Ank 252
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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ः २२ः आसोः २४९०
* भरत चक्रवर्ती जेवा धर्मात्मा छ खंडना राजवैभवनी वच्चे रहेला छतां, एमनी
श्रद्धामां पोताना अनंत आत्मवैभव सिवाय बीजा एक रजकणमात्रनी पण पक्कड
न हती. जे मर्यादित राग हतो ते रागनी पण पक्कड न हती...मारो स्वभाव तो
रागथी पण उपर ने उपर तरतो छे–एवुं आत्मभान वर्ततुं हतुं.
* अज्ञानीने बहारनो संयोग कदाच ओछो होय, बहारमां त्याग भले देखातो
होय, पण अंतरना अभिप्रायमां ‘आ शुभराग मारा आत्माने धर्मनो लाभ
करशे’ एवी रागनी पक्कड होवाथी, अनंता परद्रव्यना परिग्रहनी पक्कड तेने
वर्ते छे. मारो ज्ञानस्वभाव रागमां नथी पण एनाथी जुदो ने जुदो उपर तरतो
छे–एवुं आत्मभान तेने नथी, निजवैभवनी तेने खबर नथी.–एने धर्म
क्यांथी थाय?
* अज्ञानी ध्यान करी शके?
हा; आर्तध्यान के रौद्रध्यान ते करी शके.–तेनुं ध्यान रागमां के द्वेषमां लीनतारूप छे.
* ज्ञानीनुं ध्यान केवुं होय?
रागथी भिन्न चिदानंदस्वभावमां उपयोगनी एकाग्रता ते ज्ञानीनुं ध्यान छे.
धर्मात्माने गृहस्थपणामांय क्यारेक आवुं ध्यान थाय छे. भेदज्ञान वगर धर्मध्यान
होय नहि.
* कोइ कहे–अमने धर्मध्याननो वखत मळतो नथी. तो कहे छे के अरे भाई,
बीजा बधा कामना वखत तो तने मळे छे, ने अहीं कर्मकार्यमां तने वखत नथी
मळतो–ए तारी वात ज जुठी छे; तने बीजानी रुचि छे ने आत्मानी रुचि
नथी तेथी तेमां तारा उपयोगने तुं जोडतो नथी ने बीजामां उपयोगने जोडे छे.
धर्मनो वखत न होवानुं तो तारुं फक्त बहानुं छे, खरेखर तने धर्मनी रुचि
नथी. अमेरिकामां, रशियामां के दिल्हीमां शुं थाय छे तेनी निष्प्रयोजन वात
जाणवानो तने वखत मळे छे, विकथानो वखत तने मळे छे, ने सत्संगे
आत्माना अभ्यास करवामां तुं ‘वखत नथी’ एम बहानुं काढे छे,–तो अमे
कहीए छीए के तने आत्मानी रुचि नथी. रुचि होय त्यां वखत न मळे एम
बने ज नहि. चक्रवर्ती जेवाने आत्माना ज्ञानध्याननो वखत मळतो, तो तारी
पासे तो शुं सामग्री छे के तने वखत नथी मळतो? माटे ए खोटुं बहानुं छोडी
आत्मानो प्रेम प्रगट करी उत्साहथी तेना ज्ञानध्यानमां तारा उपयोगने जोड.
तो अवश्य तारुं हित थशे.