
* भरत चक्रवर्ती जेवा धर्मात्मा छ खंडना राजवैभवनी वच्चे रहेला छतां, एमनी
न हती. जे मर्यादित राग हतो ते रागनी पण पक्कड न हती...मारो स्वभाव तो
रागथी पण उपर ने उपर तरतो छे–एवुं आत्मभान वर्ततुं हतुं.
करशे’ एवी रागनी पक्कड होवाथी, अनंता परद्रव्यना परिग्रहनी पक्कड तेने
वर्ते छे. मारो ज्ञानस्वभाव रागमां नथी पण एनाथी जुदो ने जुदो उपर तरतो
छे–एवुं आत्मभान तेने नथी, निजवैभवनी तेने खबर नथी.–एने धर्म
क्यांथी थाय?
धर्मात्माने गृहस्थपणामांय क्यारेक आवुं ध्यान थाय छे. भेदज्ञान वगर धर्मध्यान
होय नहि.
मळतो–ए तारी वात ज जुठी छे; तने बीजानी रुचि छे ने आत्मानी रुचि
नथी तेथी तेमां तारा उपयोगने तुं जोडतो नथी ने बीजामां उपयोगने जोडे छे.
धर्मनो वखत न होवानुं तो तारुं फक्त बहानुं छे, खरेखर तने धर्मनी रुचि
नथी. अमेरिकामां, रशियामां के दिल्हीमां शुं थाय छे तेनी निष्प्रयोजन वात
जाणवानो तने वखत मळे छे, विकथानो वखत तने मळे छे, ने सत्संगे
आत्माना अभ्यास करवामां तुं ‘वखत नथी’ एम बहानुं काढे छे,–तो अमे
कहीए छीए के तने आत्मानी रुचि नथी. रुचि होय त्यां वखत न मळे एम
बने ज नहि. चक्रवर्ती जेवाने आत्माना ज्ञानध्याननो वखत मळतो, तो तारी
पासे तो शुं सामग्री छे के तने वखत नथी मळतो? माटे ए खोटुं बहानुं छोडी
आत्मानो प्रेम प्रगट करी उत्साहथी तेना ज्ञानध्यानमां तारा उपयोगने जोड.
तो अवश्य तारुं हित थशे.