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समाधानः- .. छः महिने पुरुषार्थ करे, परन्तु उसका पुरुषार्थ कैसा होता है? उसकी लगनी कुछ अलग होती है। बारंबार अभ्यास करे। कमसे कम जानना चाहिये उसका अर्थ प्रयोजनभूत द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप तो प्रयोजनभूत है। जो जाननेमें आये वह सब प्रयोजनभूत ही है। दूसरा कुछ न समझता हो तो उसके लिये, मैं ज्ञायक हूँ। यह शरीर भिन्न है, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं द्रव्य आत्मा शाश्वत हूँ। अनन्त गुणसे भरा और मुझमें पर्याय है। मेरे द्रव्य-गुण-पर्याय भिन्न है और दूसरेके भिन्न है। मूल प्रयोजनभूत इतना ही जाने तो उसमें सम्यग्दर्शन होता है। परन्तु ज्यादा जाने तो उसमें कोई नुकसान नहीं है।
मैं ज्ञायक जाननेवाला आत्मा हूँ। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। यह शरीर भिन्न है और अन्दर जो विभाव होते हैं, वह भी मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो शाश्वत आत्मा ज्ञायक हूँ। मैं कभी नाश होनेवाला नहीं हूँ, मैं शाश्वत हूँ। मेरी पर्याय मुझमें मेरे कारणसे ही परिणमती है। उसमें दूसरा कोई कुछ नहीं कर सकता। मूल प्रयोजनभूत उतना तत्त्व जाने, उसमें सम्यग्दर्शन होता है। ज्यादा जाने तो उसमें नुकसान नहीं है, लाभका कारण होता है। उसका मार्ग स्पष्ट होता है।
मुमुक्षुः- प्रयोजनभूतमें नव तत्त्व, छः द्रव्य..
समाधानः- हाँ, वह आ जाता है। नव तत्त्व, छः द्रव्य सब। तिर्यंच ऐसे हैं कि जिन्हें नव तत्त्वके नाम नहीं आते। छः द्रव्यके नाम नहीं आते। परन्तु उसे भाव सब आ जाते हैं। तिर्यंचको शब्द नहीं आते। मैं जीव हूँ, यह जाननेवाला (हूँ)। यह अजीव है। स्वयं अपनेमें पुरुषार्थ करता हुआ, यह विभाव नाश करने योग्य है, वह आस्रव है। वह भाव उसमें आ जाता है। स्वयं अपनेमें साधना करे उसमें संवर आ जाता है। स्वयं विशेष उग्रता करके आगे बढे उसमें निर्जरा होती है। तिर्यंचको यह सब भाव उसमें समा जाते हैं। मोक्ष-पूर्ण केवलज्ञान हो, पूर्ण मोक्ष केवलज्ञान.. पूर्ण स्वरूपसे प्राप्त... मेरे स्वरूपमें समा जाऊँ। यह सब भाव उसमें समा जाते हैं। लेकिन वह तो तिर्यंचको शब्द नहीं आते हैं, भाव आ जाते हैं।
परन्तु जो मनुष्य है और क्षयोपशम है तो वह सब जाने, उसमें ज्यादा लाभका
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कारण होता है। उसमें इस पंचमकालमें जहाँ-तहाँ जीव भूल खाता है। इसलिये प्रयोजनभूत तत्त्व जाने उसमें भूल खाता है। उसमें चारों ओरका जाने तो लाभका कारण होता है। जीव किसे कहते हैं? अजीव किसे कहते हैं? आस्रव किसे कहते हैं? संवर किसे कहते हैं? सब समझे तो लाभका कारण होता है। निर्जरा किसे कहते हैं? बन्ध, मोक्ष आदि सब जाने तो लाभका कारण होता है। वह सब प्रयोजनभूत है। छः द्रव्य, नव तत्त्व। द्रव्य-गुण-पर्याय अन्यके अन्यमें, मेरे मुझमें। मैं भिन्न हूँ। परद्रव्य मुझे कुछ नहीं कर सकता। मैं दूसरेका कुछ नहीं कर सकता। मैं मेरे चैतन्यद्रव्यकी परिणति करूँ। दूसरेकी कर नहीं सकता। सब द्रव्य स्वतंत्र हैं। वह सब प्रयोजनभूत है।
मुमुक्षुः- मुक्तिका मार्ग समझाया, फिर भी गुरुदेवकी गैरमौजूदगीमें यह सब तकरार दिखती है, उसमें मुमुक्षुओंको बहुत दुःख होता है।
समाधानः- कारण तो सबका स्वतंत्र कारण है। इस पंचम कालमें सबके अभिप्राय भिन्न हो गये हैं। सबके अभिप्राय अलग हो गये हैं, इसलिये होता है। सबके अभिप्राय अलग हो गये हैं। तत्त्व तो गुरुदेवने चारों पहलूसे समझाया है। सबके अभिप्राय अलग हो गये है। इसलिये होता है।
मुमुक्षुः- सत्पुरुषकी आज्ञामें चलनेका कोई विचारता नहीं है, उसमेंसे यह सब होता है। एक आज्ञामें चलना हो तो इसमें कहाँ तकरार हो ऐसा है। सत्पुरुषकी आज्ञा जैसा कुछ होना चाहिये कि नहीं होना चाहिये। किसीको किसीकी सुननी नहीं है। सब कहते हैं मैं होशियार हूँ, वह कहता है, मैं होशियार हूँ। ...
समाधानः- गुरुदेव विराजते थे तो कोई बोल नहीं सकता था। मनमें हो तो भी कुछ नहीं कर सकते थे।
मुमुक्षुः- समाजमें दूसरे जीवोंको रुचि होती हो और ऐसा माहोल सुने तो बाहरसे उसे ऐसा लगे कि यह क्या है? आनेका मन हो तो अटक जाय।
समाधानः- क्या हो सकता है? उसका कोई उपाय है क्या? उसका कोई उपाय नहीं है। गुरुदेवके प्रतापसे... इस पंचमकालमें गुरुदेव जैसे महापुरुष पधारे, वह महाभाग्यकी बात है। सबको ऐसा तत्त्व समझाया। फिर ऐसे मतभेद हो जाय, वह सबकी योग्यताका कारण है। उसमें क्या हो सकता है?
मुमुक्षुः- गुरुदेवकी आज्ञाका विचार भी नहीं करते हो, ऐसी परिस्थिति है।
समाधानः- गुरुदेवका क्या अभिप्राय था, उसका विचार नहीं करता। गुरुदेवने क्या कहा है, उसका विचार नहीं करता और स्वयंको दिमागमें जैसा लगे, जहाँ अपनी रुचि है, जो स्वयंको ठीक लगे वह करता रहता है।
मुमुक्षुः- योग्य-अयोग्यका कोई विचार नहीं है।
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समाधानः- अंतरका करना छूट गया है। अंतरमें आत्माका करना, भवका अभाव कैसे हो? आत्माको मुक्तिका मार्ग अन्दरसे कैसे प्रगट हो? अन्दरमें यह करना है, उसके बजाय बाहरमें मानों मैं कुछ कर लूँ, दूसरा मानता है कि मानों मैं कुछ कर लूँ, ऐसा हो गया है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवने जो मार्ग कहा है, उसे चूक गये। समाजमें अधिक प्रसिद्धि प्राप्त करनेके लिये... उसमें गुरुदेवका विरोध हो जाता है।
समाधानः- मैं धर्मकी प्रभावना करुँ और मैं धर्मकी प्रभावना करुँ, ऐसा हो गया है। तत्त्व दृष्टिसे कोई किसीको बदल नहीं सकता। सबके अभिप्राय भिन्न-भिन्न हैं। अभिप्राय भिन्न हो गये, वह कैसे पलटे? अभिप्राय भिन्न-भिन्न हो गये हैं।
मुमुक्षुः- अभिप्रायमें विरूद्धता मिटे नहीं, तब तक कैसे वह लोग ठीक कर पायेंगे? यहाँ तो कोई भी आये, कहाँ किसीको ना है।
समाधानः- यह तो गुरुदेवकी भूमि है, सब आ सकते हैं, ऐसा है। किसीको प्रतिबन्ध नहीं है, कोई नहीं आये ऐसा।
मुमुक्षुः- यहाँ ऐसा कुछ नहीं है।
समाधानः- ऐसा है ही नहीं।
मुमुक्षुः- कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
समाधानः- यहाँ आकर सब रहे हैं। बाहरगाँवसे गुरुदेवका लाभ लेने आये हैं।
मुमुक्षुः- अनजानसे अनजान और परिचित सब आते ही हैं।
समाधानः- जिसको आना है, वह अपनी जिज्ञासासे आ सकते हैं। कोई रोकता नहीं, कोई किसीको कुछ कहता नहीं। कुछ नहीं है। (गुरुदेवश्री) बरसों तक विराजे। इस भूमिको पावन की है। यहाँकी बात पूरी अलग है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवकी गुँज तो बहुत याद आता है।
समाधानः- भगवान आत्मामें कहाँ राग-द्वेष है? भगवान आत्मा भिन्न है। लेकिन यह सब अभिप्राय एवं मतभेदके कारण यह सब हो गया है। सोनगढमें कोई किसीको नहीं आने देता है, ऐसा थोडा ही नहै, सब आते हैं। किसीको आनेका बन्धन थोडा ही है।
तत्त्व ऐसा समझाया। पहले तो सब क्रियामें धर्म मानते थे। यह क्रिया और अन्दर दृष्टि (विपरीत)। वहाँसे गुरुदेवने कितना आगे-आगे जाकर समझाया। द्रव्य-गुण-पर्यायकी बातमें मतभेद हो गये। (तत्त्व) तो कहाँ दूर पडा रहा। गुरुदेवने तो कहाँ तक सबको पहुँचा दिये हैं। अन्दर आत्माका करनेका बाकी है। अपना अभिप्राय हो वैसा सब करते हैैं।
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मुमुक्षुः- सत्पुरुषकी दिव्य वाणी सुननेके बजाय, उसमें मतभेद खडे करके, रोकटोक करके स्वयंको जो लाभ प्राप्त होना चाहिये, उसकी जगह दूसरा सब होने लगा।
समाधानः- .. वह तो स्थूल था, गुरुदेवने तो सूक्ष्म बताया। उसमें (मतभेद) हो गये।
मुमुक्षुः- वास्तवमें तो अंतरमें स्वयंका करना था, उसे छोड दिया और बाहरमें सब लग गये। यह करो और वह करो।
समाधानः- हाँ, बाहरमें आ गये। गुरुदेव स्वयंका करनेको कहते थे।
मुमुक्षुः- संक्षेपमें आपने बहुत कह दिया।
समाधानः- गुरुदेव कहते ही थे, अंतरका ग्रहण कर। सहज प्रभावनाका भाव हो, अलग बात है। फिर इस प्रकारकी तकरार तो नहीं होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- यहाँ किसका प्रतिबन्ध है? यहाँ आनेके लिये कौन रोकता है? अभिप्राय भिन्न पड गये हो, गुरुदेवने जो कहा है, वह करना नहीं है और अपने-अपने अभिप्रायसे भिन्न-भिन्न (बात करके) ऐसा करो, ऐसा करो। ऐसे मतभेद हो जाते हैं। कोई क्या करे?
समाधानः- ... यह गुरुदेवकी भूमि है। जिसे-जिसे भावना होती है, वह सब आते हैं। मतभेद अच्छा नहीं लगता। शान्तिसे... लेकिन क्या हो सकता है? कोई उपाय ही नहीं है।
मुमुक्षुः- ... बहुत महेनत करके नाममें थोडा ठीक किया तो फिर वापस...
समाधानः- गुरुदेवश्रीका अभिप्राय अन्दर ऊतारे तो होता है।
मुमुक्षुः- आप सब आईये, ... कुछ करे। ... सिद्धान्तिक विषय है।
समाधानः- गुरुदेव गये ही नहीं। ... कितना प्रकाश किया, उसके साथ दूसरेका मेल कहाँ-से हो? गुरुदेवने मार्ग प्रकाशित किया, उसके साथ दूसरेका मेल कहाँसे हो? वह पूरा संप्रदाय जुदा। उनका मार्ग तो उन्होंने भिन्न ही प्रकाशित किया।
मुमुक्षुः- आज्ञा जैसा विषय समझमें नहीं आता है, दूसरी कौन-सी बात समझमें आती होगी? ... किसी भी बातका विचार करनेका प्रश्न कहाँ है? मर्यादा बिनाके विचार कहाँ तक ले जाते हैं।
समाधानः- ... मार्ग ग्रहण किया, ऐसा मार्ग मिला, गुरुदेवने यह समझाया। धर्मकी प्रभावना करनेके लिये अपना अभिप्राय रखनेके लिये मर्यादा बाहर पहुँच जाना। मर्यादा छोडकर.... जितनी अपनी भावना हो... मर्यादा बाहर चले जाना? कहाँ जाना है यह मालूम नहीं पडता। विरोधमें कहाँ तक पहुँच जाना, वह भी मालूम नहीं पडता। स्वयं अपना करना। बाहर सब अपने अभिप्राय अनुसार हो जाना चाहिये, उस प्रकारके विरोधमें
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पहुँचकर जीव आत्माका करना भूल जाता है और बाहरका सब हो जाता है।
मुमुक्षुः- ऐसा ही है।
समाधानः- बाहरमें कहाँ तक पहुँच जाना, उसका कोई विचार नहीं आता है।
मुमुक्षुः- द्रव्यार्थिकनय द्वारा देख तो तुझे द्रव्य ही ज्ञात होगा। इस विषयमें आप थोडी स्पष्टता करें।
समाधानः- द्रव्यार्थिक चक्षुसे देखे तो सब द्रव्य ही दिखता है, पर्यायार्थिकको बन्द करे, उस चक्षुको बन्द करे। अनादि कालसे जीवकी पर्याय पर दृष्टि है। उस दृष्टिको बन्द करके द्रव्यको देखे तो द्रव्य ही दिखता है। पर्याय उसमें नहीं है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। द्रव्य पर दृष्टि जीवने अनादि कालसे नहीं की है। द्रव्यको पहचाना नहीं है। द्रव्य अनादि शाश्वत है। आत्मामें अनन्त शक्तियाँ हैं। आत्मा अनन्त गुणोंसे भरा द्रव्य शाश्वत (है)। कभी उस द्रव्य पर दृष्टि नहीं की है और पर्याय पर दृष्टि करके ही भटका है। इसलिये तू द्रव्य पर दृष्टि कर तो द्रव्य ही दिखाई देगा। द्रव्यकी दृष्टिमें द्रव्य दिखाई देता है। और द्रव्यदृष्टिकी मुख्यतासे आगे बढा जाता है। इसलिये उसमें पर्याय नहीं है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। पर्यायका ज्ञान नहीं करना, ऐसा उसका अर्थ नहीं है।
वस्तु स्वरूप जैसा है वैसा जाननेसे मुक्तिका मार्ग यथार्थ साध्य होता है। जैसा है वैसा जानना चाहिये। पर्यायमें विभाव है, पर्याय अनादिकालसे है ही नहीं, ऐसा नहीं है। विभाव यदि हो ही नहीं तो उसे टालनेका प्रयत्न क्यों किया जाता है? तो करना ही नहीं रहता है। पर्याय है, पर्यायमें विभाव होता है, लेकिन उसे टालनेके लिये द्रव्य पर दृष्टि करे। उसका भेदज्ञान करे तो आगे जाया जाता है। मैं चैतन्य अनादि शाश्वत हूँ। परन्तु द्रव्यमें पर्याय ही नहीं है (ऐसा नहीं है)। उसमें शुद्ध पर्यायें होती हैं। द्रव्य पर दृष्टि करनेसे शुद्ध पर्यायें प्रगट होती है। और अन्दर साधना-दर्शन, ज्ञान, चारित्र रत्नत्रय प्रगट होते हैं। सम्यग्दर्शन द्रव्य पर दृष्टि करनेसे होता है, लेकिन उसमें ज्ञान सब होना चाहिये।
सम्यग्दृष्टिके साथ सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यग्ज्ञानमें सब जाननेमें आता है। यह द्रव्य है, यह गुण है, यह पर्याय है, यह अशुद्ध पर्याय है, यह शुद्ध पर्याय है। द्रव्य पर दृष्टि करे, इसलिये पर्यायको निकाल देना ऐसा उसका अर्थ नहीं है। द्रव्यार्थिक चक्षुसे द्रव्य (दिखाई देता है)। फिर ऐसा आता है कि, पर्यायार्थिक चक्षुसे देखा जाय तो पर्याय दिखाई देती है। पर्याय नहीं है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है।
मुमुक्षुः- बराबर है, परम सत्य।
समाधानः- द्रव्य पर दृष्टि कर, पर्यायका ज्ञान कर। पर्यायमें जो एकत्व बुद्धि
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(हो रही है), द्रव्यको भूल गया है, उस द्रव्यको पहचान। पर्यायको गौण करके आगे जाय। पर्यायका ज्ञान होता है कि मैं द्रव्य हूँ। उसमें गुण है, पर्याय है, विभावपर्याय, स्वभाव पर्याय है। भेदज्ञान करे इसलिये अन्दर सम्यग्दर्शनकी पर्याय प्रगट होती है। सम्यग्दर्शनकी पर्याय भी पर्याय है। अन्दर चारित्रकी पर्याय होती है, वह भी पर्याय है। उसका तो वेदन स्वयंको होता है।
इसलिये उसमेंसे पर्याय निकाल देना, ऐसा अर्थ नहीं है। परन्तु उसमें सर्वस्व माना है। द्रव्यको भूल गया है, इसलिये द्रव्यको पहचान, द्रव्य पर दृष्टि कर, ऐसा कहना है। द्रव्यको मुख्य करके पर्यायको गौण कर। परन्तु साधक दशामें मुनिदशा प्रगट होती है, चारित्र दशा प्रगट होती है, वह सब पर्याय है। द्रव्य पर दृष्टि करनेसे शुद्ध पर्यायें प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- कोई जगह गुरुदेवने ऐसा कहा कि, द्रव्यको ग्रहण कर। और प्रवचनसारमें ऐसा कहा कि पर्यायचक्षु बन्द कर, उसमें क्या अपेक्षा है?
समाधानः- गुरुदेवका कहना वही है। प्रवचनसारमें ही ऐसा आता है कि द्रव्यार्थिक दृष्टिसे देखने पर द्रव्य दिखाई देता है। पर्यायचक्षुको बन्द कर, मतलब पर्यायचक्षुका ज्ञान मत कर, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। पर्यायकी ओर देखना बन्द कर और द्रव्य पर दृष्टि कर, ऐसा कहना है। इसलिये उसे निकाल देना ऐसा अर्थ नहीं है। गुरुदेव तो सब बात करते हैं, द्रव्य पर दृष्टि कर। द्रव्यको देख, पर्यायका ज्ञान कर (आदि) सब गुरुदेवमें तो आता है। उनकी वाणीमें सब आता है।
एकान्त करेगा तो शुष्क हो जायगा, ऐसा भी गुरुदेवकी वाणीमें आता है। पुरुषार्थ किसका करना? ऐसा भी आता है, गुरुदेवकी वाणीमें। सब आता है। उसका मेल करना पडता है। अनादि कालसे पर्याय पर दृष्टि है, इसलिये उस चक्षुको बन्द कर और द्रव्यको देख।
मुमुक्षुः- पर्यायचक्षु को बन्द करते हैं तो ऐसा होता है, पर्याय तो है। समाधानः- पर्याय तो है, पर्याय नहीं है, ऐसा नहीं है। पर्याय निकल नहीं जाती। उस पर दृष्टि कर। द्रव्य पर दृष्टि करनेसे द्रव्य दिखता है, पर्याय पर दृष्टि करनेसे पर्याय दिखती है। उसका मेल कर। द्रव्यका क्या स्वभाव है, पर्यायका क्या स्वभाव है? द्रव्यकी मुख्यता करके पर्यायको गौण करके ज्ञानमें सब जान और साधना कर, ऐसा कहना है।