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मुमुक्षुः- शुद्धनयका विषय त्रिकाली द्रव्य निष्क्रिय माने क्या?
समाधानः- शुद्धनयका विषय त्रिकाली निष्क्रिय यानी उसमें एक परमपारिणामिकभाव द्रव्य अनादिअनन्त है। उस पर दृष्टि कर, ऐसा कहना है। शुद्धनयका विषय परमपारिणामिकभाव है। निष्क्रिय अर्थात उन सबका एक ही (भाव) है, उसमेंसे पर्याय निकल नहीं जाती। तू एक स्वरूप आत्मा है, उस पर दृष्टि कर, बस, ऐसा ही कहना है। उसमें पर्याय है, परन्तु तू द्रव्यको पहचानता नहीं है। उस पर दृष्टि कर। एक शुद्धनयका विषय एक द्रव्यकी मुख्यता है। निष्ष्क्रिय एक द्रव्यदृष्टि, उसमें किसी भी प्रकारका फेरफार नहीं है। फेरफार रहित एक द्रव्य अनादिअनन्त है, उसे तू पहचान, ऐसा कहना है।
इसलिये उसमें पर्यायकी परिणति अथवा उसमें कोई कार्य ही नहीं होता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं होता। सिद्ध भगवानमें परिणति है। सिद्ध भगवानमें भी पर्यायें होती हैं। उनमें भी ज्ञानकी, दर्शनकी, चारित्रकी सब पर्यायें सिद्ध भगवानमें हैं। उसमेंसे निकल नहीं जाती। द्रव्य-गुण-पर्याय वह वस्तुका स्वरूप है।
एक द्रव्यको पहचान, द्रव्य पर दृष्टि कर। द्रव्यका आलम्बन ले। द्रव्य पर दृष्टि करनेसे, उसका आलम्बन लेनेसे उस पर जोर आता है। जो पर्याय पलटती है, उस पर आश्रय नहीं लिया जाता। आश्रय द्रव्य जो अनादिअनन्त शाश्वत स्थिर है, उसका आश्रय लिया जाता है। जो पलटता रहता है, उसका आश्रय नहीं लिया जाता। लेकिन उसमेंसे पर्याय निकल नहीं जाती। सिद्ध भगवानमें परिणति होती है। केवलज्ञानकी पर्याय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि सब पर्याय सिद्ध भगवानमें हैं। पर्याय रहित द्रव्य है ही नहीं। पर्याय रहित द्रव्यका स्वीकार करता है, वह द्रव्यका स्वरूप जानता नहीं है। पर्याय रहित द्रव्य होता ही नहीं।
परन्तु पर्यायको मुख्य करके द्रव्यको भूल जाता है। अनादि कालसे पर्यायकी मुख्यता करके द्रव्यको भूल गया। इसलिये जिसका आश्रय लिया जाता है, ऐसा आश्रयभूत जो द्रव्य है, उस द्रव्यको भूल गया। इसलिये द्रव्यकी मुख्यता करके द्रव्यका आश्रय ले। पर्यायका आश्रय नहीं लिया जाता। पर्यायको ख्यालमें रख, उसका ज्ञान कर।
मुमुक्षुः- पर्यायको गौण करता है, पर्याय कहीं चली नहीं जाती।
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समाधानः- पर्याय वस्तुमेंसे चली नहीं जाती। विभाव छूट जाता है। क्योंकि विभाव अपना स्वभाव नहीं है। परन्तु शुद्ध पर्याय तो स्वयंमें रहती है।
मुमुक्षुः- अन्दर जो उलझन थी, वह सब निकल गयी। बहुत स्पष्टता (हो गयी)।
समाधानः- उसका स्वरूप, चैतन्यका वस्तुका स्वरूप कोई अद्भुत है। आश्चर्यकारी है। उसका मेल करके समझना। तो ही मुक्तिका मार्ग यथार्थपने सधता है। समझनेमें दूसरा पहलू समझे ही नहीं और निकाल दे तो यथार्थ नहीं आती। कहाँ जोर देना है, कहाँ गौण करना है, वस्तुके स्वरूपको निकाल नहीं देना चाहिये। ... है, पराश्रित भाव है, आत्माका स्वभाव नहीं है।
द्रव्यकी दृष्टिसे स्वभाव सधता है। लेकिन उसमें शुद्ध पर्यायें प्रगट होती हैं, उसका वेदन स्वयंको होता है। वह शुद्ध पर्याय चैतन्यसे भिन्न नहीं है। सर्वांशसे सर्व प्रकारसे वह भिन्न रहे अथवा दूसरे द्रव्यकी भाँति भिन्न अलग है, ऐसा नहीं है। चैतन्यके आश्रयसे ही वह पर्याय प्रगट होती है और चैतन्यको ही उसका-शुद्ध पर्यायका वेदन होता है। रागकी पर्याय तो विभाव पर्याय है। क्षेत्र तो उसका एक है, वह कहाँ भिन्न है? विभाव अपना स्वभाव नहीं है। वह तो उसका निमित्त जड है। बाकी जो चैतन्यमें पर्याय होती है, वह दूसरे क्षेत्रमें नहीं होती है, रागकी पर्याय। अपेक्षासे कहनेमें आताैहै।
निमित्तसे होती है, जड कर्मके निमित्तसे होती है, इसलिये उसका क्षेत्र भिन्न है, ऐसा कहनेमें आता है। सर्व प्रकारसे वह जडमें नहीं होती है। रागकी पर्यायको वह टाल नहीं सके, यदि जडमें होती हो तो। स्वयंको रागकी पर्यायका वेदन होता है। तो वह जड है क्या? अपना स्वभाव नहीं है, इसलिये उस अपेक्षासे, कर्मके निमित्तसे हुयी इसलिये उसे पुदगलमें डालकर पुदगल कहनेमें आता है। सर्व प्रकारसे वह जडके क्षेत्रमें नहीं होती है। वह तो अपनी परिणतिमें होती है। उसे स्वयं टाल सकता है। उसका स्वभावभेद है। स्वभावभेद है इसलिये उसे अन्य क्षेत्रकी कही जाती है। सर्व प्रकारसे वह अन्य क्षेत्रकी नहीं है। अपनी पर्याय अपनेमें विभाव पर्याय होती है।
समाधानः- ... गुरुदेवने मार्ग कहा है, वह करनेका है। इस पंचमकालमें गुरुेदव पधारे और मुक्तिका मार्ग स्पष्ट किया है। कोई जानता नहीं था। इस पंचमकालमं बाह्य दृष्टि थी। गुरुदेवने अंतर दृष्टि करवायी। मुक्तिका मार्ग, स्वानुभूतिका मार्ग, मुनिकी दशा, केवलज्ञान इत्यादि सब गुरुदेवने प्रगट किया है। आत्माकी जिज्ञासा, अंतरसे लगन लगे, सचमुचमें लगन लगे तो प्रगट हुए बिना नहीं रहता। परन्तु जीवको लगन लगानी, अंतरमें रुचि हो, तत्त्वके विचार करके अंतरमें ज्ञायक कौन है? स्वयंका स्वभाव क्या है? अंतरमेंसे नक्की करे कि मैं जाननेवाला ज्ञायक ही हूँ। यह जड शरीरादि मेरा स्वरूप नहीं है।
शरीर, मन, वचन आदि सब जड पदाथासे मैं भिन्न हूँ। यह विभावस्वभाव, शुभाशुभ
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भाव भी मेरा स्वरूप नहीं है। उससे भिन्न पडकर, अंतरसे भिन्न पडकर, विकल्पसे भावना भावे अलग बात है, अंतरसे भिन्न होकर भेदज्ञान करे तो मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। भेदज्ञान करके अंतरसे लीन हो, उसकी श्रद्धा, उसका ज्ञान और लीनता करे तो स्वानुभूति प्रगट होती है। उसके लिये उसकी लगनी, जिज्ञासा, बारंबार चैतन्यकी महिमा आवे, चैतन्यकी रुचि लगे, चैतन्यतत्त्वका यथार्थ स्वरूप पहचाने और विभावसे विरक्ति हो तो अंतरमें परिणति झुके, तो होता है। बाहरमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, शुभाशुभ भाव दोनों विभाव हैं, फिर भी शुभभावोंमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आये बिना नहीं रहती और अंतरमें शुद्धात्माकी रुचि।
सब विभावसे आत्मा भिन्न है, ऐसी शुद्धात्माकी रुचि अन्दर होनी चाहिये। उसकी लगन और जिज्ञासा लगाये तो हुए बिना नहीं रहता। क्षण-क्षणमें उसकी लगन, जिज्ञासा हो तो होता है। पुरुषार्थके बिना नहीं होता। गुरुदेवने पुरुषार्थ करनेको कहा है। चार गतिका अभाव अन्दर स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है। जीव बाहरमें अटका है, अंतरमें दृष्टि नहीं की है। अंतर दृष्टि स्वयंको पहचाने तो होती है।
मुमुभुः- आपके आशीर्वाेदसे हमारा .. हो जायगा। समाधानः- स्वयं अन्दर पुरुषार्थ करे तो होता है। जो भगवानको पहचाने वह स्वयंको पहचाने, गुरुदेवको पहचाने वह स्वयंको पहचाने। आशीर्वाद कहाँ लागू पडते हैं? स्वयं तैयारी करे तो आशीर्वाेद लागू पडे। परसे होता नहीं, स्वयं करे तो होता है।
मुमुक्षुः- गृहस्थ दशामें रहकर अपनेको शांति लेनी है तो ले सकते है कि नहीं ले सकते हैं? गृहस्थ दशामें रहते हुए भी आत्मामें शांति मिले, ऐसा कोई उपाय बताईये।
समाधानः- गृहस्थाश्रममें रहकर भी आत्माका स्वरूप पहचाना जाता है। गृहस्थाश्रममें रहकर (हो सकता है)। गृहस्थाश्रम अन्दर आत्मामें घुस नहीं गया है। अन्दर शुद्धात्माकी रुचि लगे, उसकी लगन लगे तो गृहस्थाश्रममें भी होता है। चक्रव्रती, राजा आदि सब गृहस्थाश्रममें रहकर भिन्न रहते थे। अन्दरसे आत्माकी-ज्ञायककी दशा प्रगट करते थे, भेदज्ञानकी धारा प्रगट करते थे। गृहस्थाश्रममें रहकर भी मुक्तिका मार्ग शुरू होता है, स्वानुभूति प्रगट होती है। आगे लीनता बढानेके लिये मुनिदशा आती है। बाकी सम्यग्दर्शन तो गृहस्थाश्रममें भी होता है। अन्दरसे भिन्न रहे तो होता है। अन्दर उतनी स्वयंको जिज्ञासा लगे और भेदज्ञान करे तो गृहस्थाश्रममें भी होता है।
मुमुक्षुः- माताजी! रुचिको कैसे बढाना चाहिये?
समाधानः- पुरुषार्थ करे तो होता है। रुचि भी स्वयंको ही बढानी है। तत्त्वज्ञान स्वयंको करना है, रुचि स्वयंको बढानी है, लगन स्वयंको लगानी है, सब स्वयंको करना है। गुरुदेवकी वाणी प्रबल निमित्त है, परन्तु करना स्वयंको है। पुरुषार्थ स्वयं
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करे तो होता है।
मुमुक्षुः- आत्माका चिंतवन-विचार करते रहेंगे तो आत्माकी लगनी लगेगी, ऐसे चिंतन विचार करनेसे?
समाधानः- चिंतन, विचार करे लेकिन अंतरमें लगनी तो स्वयं लगाये तो होता है।
मुमुक्षुः- आप कहते हो तब तो बहुत आसान लगता है कि, आत्मा मैं ऐसा हूँ। लेकिन परिणमनमें कठिन लगता है।
समाधानः- स्वयं स्वभाव है इसलिये सुलभ है। स्वयं ही है, अन्य नहीं है। स्वभावसे सुलभ है, स्वभाव उसका है। परन्तु अनन्त कालसे अनादिका अभ्यास है इसलिये क्षण-क्षणमें परिणति विभावकी ओर जाती है, एकत्वबुद्धि हो रही है। इसलिये दुर्लभ हो गया है। अनादिसे जो विभावका अभ्यास चल रहा है, उसमेंसे भिन्न होना उसे दुर्लभ लगता है। स्वभावसे सुलभ है।
मुमुक्षुः- .. तो कल्याण हो जायगा। ऐसा अवसर, ऐसे भावि तीर्थंकर, भावि गणधर मिले, इस पंचमकालमें... जन्म सफल हो गया।
समाधानः- पंचमकालमें गुरुदेव पधारे, तीर्थंकरका द्रव्य। महाभाग्यकी बात कि गुरुदेवका सान्निध्य मिला। ४५-४५ साल वाणी बरसायी। ... बहुत स्पष्ट किया।
मुमुक्षुः- ... आत्मा दिखता नहीं है, तो आत्मा कैसे दिखे? ऐसा पूछते हैं।
समाधानः- अन्धेरा दिखता है,... आत्मा जाननेवाला ज्ञायक है, उसे पहचाने तो अन्धेरा या प्रकाश, यह प्रकाश बाहरका और अन्धेरा भी जडका है। अन्दर ज्ञानमें जाननेवाला है उसे देखे तो वह अन्धकार नहीं है, परन्तु अन्दर जाननेवाला है, अन्दर जाननेवाली ज्याति है, उसे पहचाने तो होता है। वह बाहरसे देखता है। चर्म चक्षुसे देखे तो अन्धेरा दिखता है और प्रकाश दिखता है। अन्दर देखे कि ज्ञायक जाननेवाला कौन है? उसे पहचाने तो वह ज्ञानकी ज्योति है। जो अन्दर जाननेवाला है, यह सब विकल्पोंको जाननेवाला, सुख-दुःखको जाननेवाला है, अन्दरमें जाननेवाला है, वेदन है, उस वेदनके पीछे जो जाननेवाला है, वह स्वयं है। जाननेवाली ज्याति अन्दर है। जाननेवालेमें सब भरा है। अनन्त सुख और अनन्त आनन्द, ज्ञान सब जाननेवालेमें अनन्त गुण भरे हैं। अन्दर जाननेवाला है।
समाधानः- ... अशुभसे बचनेको शुभभाव आते हैं, परन्तु अन्दर आत्माको पहचाननेके लिये तो अन्दर सच्चा ज्ञान, सच्चा वैराग्य, महिमा सब अंतरमें होना चाहिये। शुभभावसे पुण्य बन्धता है। परन्तु आत्माको पहचाने तो मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। अशुभसे बचनेको शुभभाव आवे, लेकिन आदरणीय तो एक शुद्धात्मा है।
मुमुक्षुः- माताजी! आज सबने नंदीश्वरमें पूजा की, दर्शन किये, फिर सब देखा।
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उन लोगोंको अभी शुरूआत है, इसलिये प्रश्न पूछा कि अकृत्रिम जिनालय कैसे? मनुष्यने तो किये ही नहीं है न। शाश्वत है।
समाधानः- पुदगलके परमाणु वैसे... कुदरती रचना हो जाती है। भगवानकी महिमा ऐसी है। जगतमें जैसे भगवान सर्वोत्कृष्ट हैं, वैसे भगवानकी प्रतिमा भी सर्वोत्कृष्ट कुदरत बता रही है। मन्दिरों, प्रतिमाएँ सब शाश्वत हैं। जैसे यह पर्वत आदि किसीने बनाये नहीं हैं, वह तो कुदरती है। जैसे पर्वत, समुद्र आदि किसीने बनाया नहीं है। वैसे मन्दिरों भी कुदरती हैं। भगवान भी कुदरती है। पुदगलके परमाणु उस प्रकारसे रत्नकी प्रतिमारूप परिणमित होकर (रचना हुयी है)। कुदरतमें शाश्वत किसीने बनाया नहीं है।
मुमुक्षुः- सब रत्नमणिके होते हैं न?
समाधानः- हाँ, रत्नमणिके।
मुमुक्षुः- और ५०० देहमानके।
समाधानः- ५०० देहमानके, १०८ प्रतिमाएँ।
मुमुक्षुः- एक मन्दिरमें? एक मन्दिरमें १०८?
समाधानः- ऐसा है।
मुमुक्षुः- अर्थात उनका कभी विरह नहीं होता, चाहे जो भी काल हो तो भी।
समाधानः- वह तो शाश्वत हैं। नंदीश्वरमें, मेरुमें सब शाश्वत हैं।
मुमुक्षुः- भवनवासीके, ऊपरके सब...
समाधानः- हाँ, भवनवासीमें है, व्यंतरमें है, ज्योतिषीमें, वैमानिकमें सबमें है। उसमें कोई जघन्य मन्दिर, कोई मध्यम, कोई उत्कृष्ट (होते हैं)। किसीका नाप बडा, कोई छोटे ऐसे होते हैं।
मुमुक्षुः- उसका मतलब सर्वज्ञका कभी विरह नहीं है, ऐसा उसमेंसे समझना?
समाधानः- साक्षात तीर्थंकर तो सदा शाश्वत हैं। जो तीर्थंकर विराजते हैं, बीस विहरमान, वे तो विदेहक्षेत्रमें विराजमान होते ही हैं। उनका भी कभी विरह नहीं होता।
मुमुक्षुः- उनका कभी विरह नहीं होता।
समाधानः- हाँ, बीस विहरमान भगवान होते ही रहते हैं। और यह कुदरतमें जो प्रतिमाएँ हैं, वह भी शाश्वत रहते हैं। उसका कभी विरह नहीं होता।
मुमुक्षुः- आत्माका स्वरूप भी शाश्वत।
समाधानः- आत्मा शाश्वत है। आत्माका स्वरूप शाश्वत है। उसे भी किसीने नहीं बनाया है। आत्मा भी शाश्वत है। आत्माको किसीने बनाया नहीं है, भगवानकी प्रतिमा किसीने नहीं बनायी है। आत्माको किसीने बनाया नहीं है। वह भी शाश्वत है, ज्ञानस्वरूप आत्मा भी शाश्वत है। उसे पहचाने तो प्रगट होता है। पहचानता नहीं है इसलिये प्रगट
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नहीं होता है। भ्रान्तिके कारण अनादि कालसे भव करता रहता है, भवका भ्रमण। आत्माको पहचाने तो भवका अभाव होता है।
यह आत्मा शाश्वत है, उसे पहचाने, उसका भेदज्ञान करे, उस पर दृष्टि करे, उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे तो वह प्रगट होता है। लेकिन बाह्य दृष्टि है, प्रतीत बाहर करता है, ज्ञानका उपयोग सब बाहर जाता है, लीनता सब बाहरमें करता है। अंतरमें जाता नहीं है, इसलिये आत्मा पहचाना नहीं जाता।
मुमुक्षुः- गुरुदेवके पास, आपके पास सुने तब तो ऐसा लगता है, ओहो..! आत्मा तो अत्यंत करीब है। लेकिन जैसे ही बाहर निकलते हैं, आत्मा कहाँ खो जाता है। हमारेमें क्या क्षति है उसे समझना चाहिये।
समाधानः- आत्मा तो अपने पास ही है। अनादिका अभ्यास है, इसलिये उपयोग बाहर चला जाता है। बाहरमें रस है, उतना आत्माका रस नहीं लगा है। आत्माकी महिमा नहीं लगी है। आत्मा सर्वोत्कृष्ट है, ऐसा लगा नहीं है। बाहरका रस है। मानो बाहरमें सबकुछ रसमय क्यों न हो, ऐसा उसे लगता है। बाहरका सब सुखमय, रसमय लगता है। अंतर आत्मा सुखमय और रसमय लगता नहीं है। उसकी श्रद्धा नहीं होती है, इसलिये बाहर दौड जाता है। श्रद्धा होती है तो ऊपर-ऊपरसे श्रद्धा करता है, अन्दर गहराईमें जाकर श्रद्धा करे तो अंतरमें पुरुषार्थ हुए बिना रहता नहीं।
मुमुक्षुः- वैसे तो आत्माकी उपलब्धि सहज साध्य है ऐसा भी कहनेमें आता है, प्रयत्न साध्य है ऐसा भी कहनेमें आता है। तो दोनोंका मेल कैसे है?
समाधानः- उसका स्वभाव है, इसलिये सहज साध्य है। वह बाहरसे नहीं आता, अंतरमें सहज है। परन्तु अनादिका अभ्यास बाहरका है, इसलिये प्रयत्न अपनी ओर करे तो होता है।
मुमुक्षुः- करना पडे।
समाधानः- प्रयत्न करे तो होता है, ऐसे ही नहीं हो जाता। सहज है। अपने पास है, सहज है। वह, बाहरका कोई साधन मिले (तो होता है), ऐसा नहीं है। स्वयं सहज है, प्रयत्न करे तो होता है। साधन बाहरके होते हैं-देव-गुरु-शास्त्र। अनादिकालसे आत्माको पहचाना नहीं है, इसलिये उसके साधन देव-गुरु-शास्त्र हैं। अनादिसे पहचाना नहीं है, इसलिये पहले उसे एक बार स्व सन्मुख होनेमें, सम्यग्दर्शन होनेमें, देशनालब्धि होनेमें जिनेन्द्र देव, गुरुका प्रत्यक्ष उपदेश मिले तो वह अंतरमें स्वयं स्वयंको पहचानता है, अपनी ओर जाता है। परन्तु पुरुषार्थ स्वयंसे करना है।
मुमुक्षुः- लेकिन ऐसा निमित्त भी मिलना चाहिये न?
समाधानः- हाँ, निमित्त-उपादानका सम्बन्ध ऐसा है। अनादि कालमें एक बार
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ुउसे जिनेन्द्र देव और गुुरु मिले और वह अंतरमें ऐसी रुचिसे सुने तो होता है। रुचिसे श्रवण करे नहीं तो अनन्त कालमें अनेक बार मिले हैं, तो भी अन्दरमें अपूर्वता नहीं लगी है।
मुमुक्षुः- उपयोगको बहिर्मुख रहनेकी अतिशय आदत है।
समाधानः- आदत, अनादिका अभ्यास है, बाहर ही जाता है, बाहर ही दौड जाता है। उसे बारंबार पुरुषार्थ कर-करके, बारंबार अपनी ओर आनका (प्रयत्न करना चाहिये)। जैसा बाहरमें सहज जाता है, वैसा अंतरमें स्वयं सहज करे तो अपनी ओर टिके। बाहरमें कैसा दौड पडता है। उसमें उसे महेनत नहीं करनी पडती। कुछ करना नहीं पडता, सहज ही दौड पडता है। वैसे अपनी ओर सहज होनेके बावजूद जाता नहीं है। बारंबार उसका अभ्यास करे, उसके बिना रुचे नहीं, उसके बिना सुहाय नहीं, बारंबार बाहर जाय तो भी बारंबार मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ, यह स्वरूप मेरा नहीं है। यह सब विकल्पका स्वरूप मेरा नहीं है। ऐसे भेदज्ञान करके बारंबार उस ओर यदि आदत डाले। लेकिन वह कब पडती है? उसकी महिमा लगे तो पडती है। शुष्कतासे बोलनेमात्र या रटन करने हेतु करे तो नहीं होता है, उसकी महिमा लगे तो होता है। उसे अंतरमेंसे पहचाने तो होता है।
मुमुक्षुः- अभी तो सब अवसर, ऐसे दुषमकालमें ऐसे गुरुदेव, ऐसी वाणी, आप विद्यमान, ऐसा प्रबल और समर्थ निमित्त मिले हैं, अब काम तो हमारी ही हिन योग्यताके कारण नहीं हो रहा है।
समाधानः- अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। ऐसे गुरुदेव मिले, इतनी वाणी बरसायी, चारों ओरसे समझाया, कुछ बाकी नहीं रहा, उतना समझाया है। आत्माका स्वरूप, तत्त्वका स्वरूप स्पष्ट कर-करके आत्माकी स्वतंत्रता, द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप, निमित्त- उपादानका स्वरूप चारों ओरसे सब स्वरूप गुरुदेवने स्पष्ट किया है। लेकिन पुरुषार्थ स्वयंको करना बाकी रहता है। आत्माकी स्वानुभूति, मुनिदशा, केवलज्ञान सब स्पष्ट किया है। लेकिन स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें तो भाषा ऐसी है कि इन सबको भी समझमें आता है। इतना सुन्दर। गुरुदेवने उस पर उतने प्रवचन दिये। सचमुचमें तो हलवा तैयार हो गया, हमारे लिये।
समाधानः- स्वयंको करना बाकी रहता है। उतनी लगन लगानी, उतनी जिज्ञासा करनी, अपनी क्षति है।