Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 105.

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ट्रेक-१०५ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- जाननेका जो स्वभाव कहा है, वह भी रागका कारण है, तो उससे विशेष क्या?

समाधानः- ... होने पर भी, अनादिसे परकी ओर, परकी ओर एकत्वबुद्धि की है। इसलिये पर ओर जाता है। जाननेका स्वभाव है, लेकिन स्वयं जानता कहाँ है? ज्ञायक रहकर जानता नहीं है। जाननेका स्वभाव होने पर भी स्वयंको पहचानता नहीं है। इसलिये उसे मुश्किल हो गया है। रागमें अटक गया है। अनादि कालसे स्वयं ज्ञायक होने पर भी, स्वयं चैतन्य होने पर भी विभावकी ओर एकत्वबुद्धि करके भ्रान्तिमें पडा है। स्वयं स्वयंको भूल गया है।

यह एक आश्चर्यकी बात है कि स्वयं स्वयंको छोडकर बाहर जाता है। इसलिये स्वयं स्वयंको जाने। ज्ञायक होनेके बावजूद उदासीन रहकर जानता नहीं है और कर्ता होकर दूसरेको मैं करता हूँ, करता हूँ, ऐसी कर्तृत्वबुद्धिमें पडा रहता है, ज्ञायक नहीं होता है। उसकी स्वयंकी भूल है, भ्रान्तिमें पडा है। जाननेके बावजूद, स्वयं स्वयंको जानता नहीं है, यह एक आश्चर्यकी बात है। जाननेका पुरुषार्थ करे तो जान सके ऐसा है।

मुमुक्षुः- ज्ञानको रागके साथ एकमेक कर लेता है।

समाधानः- एकत्वबुद्धि, रागमिश्रित ज्ञान (है)। राग भिन्न है और मैं ज्ञान भिन्न हूँ, ऐसे भिन्नता करे तो होता है। रागके विकल्प आये, उस विकल्पके साथ रागमिश्रित ज्ञान (चलता है)। राग सो मैं नहीं हूँ, मैं ज्ञान हूँ। ज्ञान सो मैं, मैं पूर्ण ज्ञायक हूँ। एकत्वबुद्धि छूटती नहीं, ज्ञायक होता नहीं। ज्ञाता... करे सो करतारा, जाने सो जाननहारा। ज्ञाता होता नहीं और कर्ताबुद्धि छूटती नहीं। ज्ञाता हो जा तो कर्ताबुद्धि छूटे। कर्ताूबुद्धि छूटे तो ज्ञायक होता है। दोनों एकसाथ रहे हैं।

मुमुक्षुः- ... साधककी पर्याय, समयसारकी १५वीं गाथामें। द्रव्य एवं भाव जिनशासन सकल देखे। वह ज्ञानीका भावश्रुत है न?

समाधानः- भावश्रुत। ते जिनशासन देखे खरे। द्रव्य तेमज भाव जिनशासन सकल देखे करे। उसकी प्रथम पंक्ति क्या है? द्रव्य तेमज भाव जिनशासन सकल देखे खरे।


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बस, उसमें पूरे आत्माका स्वरूप आ गया। अबद्धस्पृष्ट-आत्मा बन्धा नहीं है, स्पर्शित नहीं है। आत्मा सामान्यसे विशेष हो नहीं जाता। आत्मा नियत है, अनियतरूप नहीं है। समुद्रका दृष्टान्त दिया। इस वृद्धि-हानिरूप आत्मा मूल स्वभावसे होता नहीं। आत्मा विशेषरूप अन्य-अन्य होता नहीं। आत्मा अनन्य (है)। अन्य-अन्य होता नहीं, एकरूप है। सब गुणोंके भेद होनेके बावजूद अभेद है। ऐसा समान्य है। विभावके साथ (होने पर भी) विभावरूप होता नहीं। ऐसा आत्मा है। ऐसे आत्माको पहचाने तो जिनशासन सकल देखे खरे। पूरा जिनशासन उसमें आ जाता है।

जैसा आत्माका स्वरूप है, आत्मा बन्धा नहीं है, आत्मा स्पर्शित नहीं हुआ है, आत्मा विशेषरूप होता नहीं, आत्मा अन्य-अन्य होता नहीं, आत्मा वृद्धि-हानिरूप होता नहीं। जैसे अग्निके (संयोगसे जल) उष्णरूप होता है। वैसे आत्मा शीतलरूप है। विभावकी उष्णता उसमें नहीं है। सर्व प्रकारसे आत्माका स्वरूप पहचाने। द्रव्यको (पहचाने) और मूल द्रव्य पर दृष्टि करे और पर्यायका स्वरूप साथमें पहचाने। वह जिनशासन सकल देखे खरे। ऐसा आत्माका स्वरूप यथार्थपने पहचाने, उसमें सब आ जाता है। ऐसा सब होनेके बावजूद भी स्वयं ऐसा अबद्धस्पृष्ट है।

उसमें आता है न? कमलिनीका पत्र है, वह जलसे निर्लेप है। उसके समीप जाकर देखे तो वह बन्धा हुआ, स्पर्शित हुआ दिखाई दे। अन्दर देखे तो बन्धा हुआ, स्पर्शित हुआ नहीं है। भूतार्थ दृष्टिसे देखे तो बन्धा हुआ, स्पर्शित नहीं हुआ है। और अभूतार्थसे देखे तो वह बन्धा हुआ, स्पर्शित हुआ दिखाई देता है। इसलिये उसे मूल वस्तु स्वरूपसे देख और अभूतार्थ दृष्टिसे उस रूप पर्यायमें है, लेकिन द्रव्यदृष्टिसे उस रूप नहीं है।

मुमुक्षुः- ऐसे आत्माका अनुभव कर।

समाधानः- ऐसे आत्माका अनुभव कर।

मुमुक्षुः- वह जिनशासन।

समाधानः- उसमें समस्त जिनशासन आ गया। मूल वस्तुको जानी तो समस्त जिनशासन (आ गया)। पूरा मुक्तिका मार्ग, स्वानुभूति सब आ गया।

मुमुक्षुः- .. मुनिओंको नहीं मान रहे हैं, उसका जवाब देना हमें नहीं आता। द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनि और द्रव्यलिंगी सम्यग्दृष्टि, इसके बारेमें आबप खुलासा कर देंगे तो मेरी शंका मिट जायेगी।

समाधानः- द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनि और सम्यग्दृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि तो उसमें क्या पूछना है?

मुमुक्षुः- जैसे आजके जो मुनि हैं, हमको दिखे तो हमें वंदना करना या नहीं


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करना, कैसे..?

मुमुक्षुः- वह आपके ऊपर निर्भर है। उसका तत्त्व क्या है वह... मुमुक्षुः- शंका जो है, लोग बोलते हैं, हमको जवाब देना नहीं आता। मुमुक्षुः- बोलने दो, जवाब क्यों दे? अपना अधिकार नहीं है जवाब देनेका, अपनेको समझ लेना।

समाधानः- ... मिथ्यादृष्टि तो आत्माको जानता ही नहीं है। स्व-परकी एकत्वबुद्धि है। आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। सबमें एकत्वबुद्धि मिथ्यादृष्टिको हो रही है।

सच्चे मुनि तो छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलनेवाले हैं। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूति होती है। यथार्थ मुनि हो तो। उसको स्वानुभूति तो है नहीं। मात्र बाहरसे वेष धारण कर लिया। और वर्तमानमें तो पंच महाव्रत आदि जो शास्त्रमें कहे हैं, ऐसी क्रिया भी वर्तमानमें तो नहीं है। जो शास्त्रमें (आता है कि) आहार कैसे लेना, ऐसी क्रिया भी बाहरमें नहीं है, वर्तमान मुनिमें तो।

पहले चतुर्थ कालमें द्रव्यलिंगी मुनि तो सब क्रिया पाले, सब करे तो भी भीतरमें तो एकत्वबुद्धि हो रही है। शुभभावसे मेरा कल्याण हो जायगा, शुभभावमें रुचि रहती है, ऐसे मुनि होते हैं तो भी वह मुनि तो नहीं है। वास्तविक मुनिकी दशा नहीं है तो वह मुनि नहीं है। और सम्यग्दृष्टि मुनि द्रव्यलिंगी बाहरमें वेश धारण कर लिया और सम्यग्दर्शन हो गया। तो सम्यग्दर्शन तो है, परन्तु उसे मुनिकी दशा नहीं है। मुनिदशा नहीं है, बाहरमें वेश तो है, उसे मुनिकी दशा नहीं है। उसको सम्यग्दर्शन तो हुआ है। बाहरमें कैसा व्यवहार करना वह तो अपने इतना समझना कि वंदन व्यवहार किसको होता है? भीतरमें यथार्थ दशा प्रगट हुयी हो, उसे वंदन व्यवहार होता है। सच्चे मुनिको हो सकता है।

मुमुक्षुः- शास्त्रोंमें भी ऐसा आता है, बहिनश्री! कहते हैं न कि पंचमकालके आखरी तक चतुर्विध संघ रहेगा, तो?

समाधानः- आखीर तक रहेगा, परन्तु वर्तमानमें तो कोई दिखाई नहीं देते। वह तो अपनेको परीक्षा करनी पडती है। वर्तमानमें कोई दिखाई नहीं देते। होते हैं, होते हैं तो कभी-कभी... कोई होते हो तो भी वर्तमानमें दिखाई नहीं देते। ऐसा निषेध नहीं है। होते हैं, कोई मुनि होते हैं, लेकिन वर्तमानमें ऐेसे दिखाई नहीं देते। उसमें ऐसा कोई काल आ जाता है तो वर्तमानमें मुनि दिखाई नहीं देते। सच्चे मुनि नहीं दिखाई देते। पहले हो गये, सब आचार्य हो गये, परन्तु वर्तमानमें कोई देखनेमें नहीं आते। निषेध नहीं है, पंचमकालके आखिर तक मुनि होते रहते हैं, परन्तु बीचमें कोई


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बार नहीं भी होते हैं, वर्तमानमें दिखाई नहीं देते। मार्ग बतानेवाले गुरुदेव हुए, उन्होंने मार्ग सच्चा बताया। परन्तु मुनि तो वर्तमानमें कोई दिखाई नहीं देते। कहाँ हो, दिखाई नहीं देते।

मुमुक्षुः- हो सकते हैं, लेकिन देखनेमें नहीं आते।

समाधानः- वर्तमान देखनेमें नहीं आते। वर्तमान कोई काल ऐसा आ जाता है। अभी देखनेमें नहीं आते। हो सकते हैं। पंचमकालके... होते हैं।

मुमुक्षुः- लिखा हुआ है वह भी ठीक है, परन्तु.. समादानः- लिका हुआ है, बराबर है। वर्तमानमें कोई-कोई काल ऐसा आ जाता है। होते हैं, नहीं होते हैं, होते हैं, नहीं होते हैं। निषेध नहीं है।

मुमुक्षुः- नमोस्तु..

समाधानः- नमोस्तु लेकिन किसको करना? सच्चे देव-गुरुको नमस्कार करने हैं न। बाहरमें वेष धारण कर लिया तो क्या वेषको नमस्कार होता है? अष्टपाहुडमें क्या आता है? मुनि आचार्यदेव कहते हैं, सच्चे मुनिको नमस्कार होते हैं। कैसे करना, नहीं करना, अपने भाव पर आधारित है। लेकिन लाभ तो सच्चे मुनिको नमस्कार (करनेसे होता है)। अष्टपाहुड शास्त्रमें कुन्दकुन्दाचार्य लिखते हैं, सच्चे मुनिको नमस्कार करना। परीक्षा करना। परीक्षा तो करनी पडती है।

मुमुक्षुको जिसको मोक्षकी इच्छा होवे, जिसको मोक्ष, अपना कल्याण करना है, उसको सब परीक्षा करके ग्रहण करना चाहिये। बिना परीक्षा किये,... मोक्षका स्वरूप कैसा है? आत्माका स्वरूप समझना। यह शरीर मेरा नहीं है, विभावस्वभाव मेरा नहीं है। मैं ज्ञायक हूँ। यह सब विचार करके परीक्षा करके सब नक्की करता है। फिर बाहरमें सच्चे देव, सच्चे गुरु, सच्चे शास्त्र, सबकी परीक्षा करे। जिसको मोक्षकी इच्छा होवे, वह परीक्षा (करता है)। इतना तो क्षयोपशम मिला है। आत्मार्थी हो, आत्माका प्रयोजन हो तो इतनी परीक्षा तो हो सकती है।

मुमुक्षुः- मुनिकी ... आचार कोई बिलकुल पालते नहीं। जो ऐसा हो तो .. आ जाते हैं। बाह्य .. तो परीक्षामें क्या दिक्कत है? ... उसमें क्या .. एक भी सच्चे बताओ।

मुमुक्षुः- .. उसको तो मुनि मानेंगे कि नहीं मानेंगे? मुमुक्षुः- तो उसको प्रणाम नहीं करना चाहिये। जो बाह्य आचार ... टोडरमलजीने कहा है, समाजमें कुछ विरोध नहीं होवे, इसलिये कोई द्रव्यलिंगी मुनि द्रव्यलिंगका आचार बराबर पालते हो, तो...

समाधानः- .. अपने ऊपर है। बाहरकी बात है न। कल्याण तो अपने स्वरूपको


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पहचाने तब होता है। मैं ज्ञायक हूँ, मैं जाननेवाला हूँ, यह सब मेरा स्वरूप नहीं है। शुभाशुभ भावसे मैं भिन्न हूँ। यह शरीर जडतत्त्व है, मैं जाननेवाला आत्मा हूँ। यह कैसे समझमें आवे? उसकी जिज्ञासा, उसकी रुचि सब होना चाहिये। अशुभभावसे बचनेके लिये शुभभाव सच्चे देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आती है, परन्तु मुझे शुद्धात्मा कैसे ख्यालमें आवे? मैं शुद्धात्माका स्वरूप कैसे पीछानुँ? ऐसी प्रतीत, ऐसा ज्ञान (करना)।

सम्यग्दर्शन आत्मामें होता है, सम्यग्ज्ञान आत्मामें होता है, सम्यकचारित्र आत्मामें होता है। सब आत्मामें होता है। बाहरसे कुछ नहीं होता, सब आत्मामें होता है। साथमें शुभभावका व्यवहार होता है। पंच महाव्रत, अणुव्रत सब शुभभाव होते हैं। भीतरमें चारित्र तो स्वरूपमें स्वानुभूति होवे तब चारित्र होता है। सम्यग्दर्शन, स्वरूपकी श्रद्धा, ज्ञान सब आत्माके आश्रयमें होता है। उसकी रुचि, जिज्ञासा, भावना सब करना। उसकी रुचि, तत्त्वका विचार आदि सब करना। ऐसे भवका अभाव हो सकता है। फिर बाहर क्या करना, नहीं करना, वह सब समझमें आ जायेगा। पहले भवका अभाव कैसे हो, उसकी लगनी लगानी। तत्त्वका विचार करना। यह सब तो बाहरका है। प्रणाम, नहीं प्रणाम सब बाहरका है।

मुमुक्षुः- .. समझमें आ जायगा तो यह अपनेआप ..

समाधानः- आ जायगा, सब आ जायगा। उसको विचार करना चाहिये।

मुमुक्षुः- ... वह तो सोचना चाहिये न।

समाधानः- .. तो विचार करना चाहिये। ऐसा पढनेमें आया, मोक्षमार्ग प्रकाशकमें सब आता है। गुरुदेवने बहुत समझाया है। सबका विचार करके नक्की करना।

मुमुक्षुः- द्रव्यलिंगी जैसे मिथ्यादृष्टि होता है, बहिनश्री! तो सम्यग्दृष्टि भी हो सकता है क्या?

समाधानः- सम्यग्दृष्टि हो सकता है, लेकिन वर्तमानमें ऐसा नहीं है। द्रव्यलिंगी सम्यग्दृष्टि होते हैं।

मुमुक्षुः- सम्यग्दृष्टि द्रव्यलिंगके साथमें होता नहीं है..

समाधानः- .. सब क्रिया करते हैं बाहरकी।

मुमुक्षुः- छठ्ठे-सातवें गुणस्थानवाले मुनिराज भी हाथमें ही लेते हैं?

समाधानः- हाथमें लेते हैं। भीतरकी दशा कोई उसकी अद्भुत रहती है। दशा अद्भुत रहती है। मुनि तो हाथमें आहार लेते हैं। बाहर हाथमें आहार लिया इसलिये भीतरमें ऐसी दशा हो गयी, ऐसा नहीं होता। वह तो कोई अजब होते हैं, भावलिंगी मुनि तो। छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें शरीर कहाँ है? आत्मा कहाँ है? भीतरमें चले जाते हैं, अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें। चलते-चलते भी भीतरमें चले जाते हैं। आहार लेते-लेते निर्विकल्प


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हो जाते हैं। निर्विकल्प दशा हो जाती है।

मुमुक्षुः- यह तो भावलिंगीको, और द्रव्यलिंगीको?

मुमुक्षुः- मिथ्यादृष्टि होवे तो कुछ नहीं।

मुमुक्षुः- और सम्यग्दृष्टि होवे तो?

समाधानः- सम्यग्दृष्टिको क्षण-क्षणमें (निर्विकल्पता नहीं होती)। मुनिको तो क्षण- क्षणमें होती है। ऐसी दशा है। क्षण-क्षणमें मुनिको स्वानुभूति होती है। सम्यग्दृष्टिको कोई बार होती है, कोई-कोई बार सम्यग्दृष्टिको होती है। ये तो क्षण-क्षणमें चलते-चलते, खाते-पीते, निद्रा थोडी लेते हैं, फिर निद्रामें जागे तो स्वानुभूतिमें। क्षणमें स्वानुभूति (होती है)। ऐसी मुनिकी दशा होती है।

यह (बाहरकी) तो शुभभावकी क्रिया है। अशुभभाव छोडकर त्याग ले लिया। त्याग लेकर ऐसे पच्चखाण ले लिया कि ऐसे आहार लेना। वह शुभभावकी क्रिया है। लेकिन भीतरकी दशा कोई कुछ अलग है। वह तो शुभभावकी क्रिया है। जैसे कोई उपवास कर लेते हैं, कोई त्याग करता है। वैसे मुनिकी क्रिया धारण कर ले। हाथमें आहार लिया, त्याग कर दिया कि मैं ऐसे आहार नहीं लूँगा, ऐसे आहार लूँगा। वह सब तो बाहरकी क्रिया है। क्रिया है, इसलिये भीतरमें दशा हो गयी ऐसा तो नहीं है।

(गृहस्थाश्रममें) भी सम्यग्दर्शन तो होता है। चक्रवर्तीको भी होता है। .. वह तो कोई अजब होती है। ऐसे मुनि नहीं हो सकते।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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