Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 106.

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ट्रेक-१०६ (audio) (View topics)

समाधानः- .. उसको पहचानना। दो तत्त्व भिन्न हैं। एक मुक्तिका मार्ग है। शरीरके साथ एकत्वबुद्धि है, विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि है। वह आत्माको पहचानता नहीं है। आत्माको पीछानना और शरीर, विभाव आदिसे भेदज्ञान करना। मुक्तिका यह एक ही मार्ग है। मैं आत्मा जाननेवाला ज्ञायक हूँ। अनन्त गुणसे भरपूर हूँ। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। मैं निर्विकल्प तत्त्व हूँ। ऐसे भेदज्ञान करना, यह एक ही मुक्तिका मार्ग है।

मुमुक्षुः- क्षण-क्षण ऐसा चिंतवन होता रहना चाहिये? बहिनश्री!

समाधानः- चिंतवन तो क्षण-क्षणमें तब होवे कि जब यथार्थ लक्षण उसके ख्यालमें आवे तब। उसकी जिज्ञासा करे, उसकी लगन लगाये। मेरे आत्मामें सब सुख भरपूर है। मैं आत्मा महिमावंत हूँ। ऐसी भावना, जिज्ञासा, लगन लगावे। भीतरसे पहचाना जाय। विकल्पसे रटनमात्रसे नहीं। भीतरसे विचारना चाहिये। क्षण-क्षणमें मैं आत्मा ही हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा भीतरमेंसे जानना चाहिये। यथार्थ तो तभी होता है। भीतरमेंसे सहजपने भेदज्ञान हो जाय। भीतरमें स्वानुभूति हो जावे। विकल्प छूट जाय और स्वानुभूति होवे तब यथार्थ होता है। पहले तो उसकी जिज्ञासा, लगन आदि होता है।

मुमुक्षुः- व्यापार, कुटुम्बमें रहते हुए भी...?

समाधानः- यह हो सकता है। व्यापार, कुटुम्ब सबमें (रहते हुए भी) भीतरमेंसे उसकी रुचि उठ जाय। उसका रस टूट जाय। बाहरसे त्याग नहीं होता है तो भी भीतरमेेंसे रुचि उठ जाय। उसका रस उठ जाय। उसकी महिमा आत्मामें लग जाय, आत्माकी लगन लग जाय। गृहस्थाश्रममें भी हो सकता है। आत्माका भेदज्ञान होवे। पहले कालमें, चतुर्थ कालमें चक्रवर्तीको भी भेदज्ञान होता है। क्षण-क्षणमें आत्माको मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी सहज उसकी परिणति रहती नथी। चतुर्थ कालमें गृहस्थाश्रममें भी हो सकता है। बाहरसे त्याग नहीं होता, परन्तु भीतरमें आत्माकी स्वानुभूति, भेदज्ञान सब होता था।

मुमुक्षुः- वह कैसे करे?

समाधानः- आत्माकी लगन लगाये, तब होवे। विचार करना। मेरे द्रव्य-गुण- पर्याय क्या है? विभाव परद्रव्य क्या? मेरे द्रव्य-गुण-पर्याय क्या? ऐसे शास्त्रका स्वाध्याय


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करे, विचार करे। यथार्थ समझे, सत्संग करे। सत्संगमें जाय और उसका स्पष्टीकरण (करे), निःशंकतासे उसकी प्रतीत करे तब होवे। बिना समझे नहीं हो सकता है। उसे समझना चाहिये। प्रयोजनभूत तत्त्व समझे। ज्यादा जाने, ज्यादा शास्त्र अभ्यास करे इसलिये नहीं, परन्तु मूल प्रयोजनभूत तो जानना चाहिये।

मुमुक्षुः- थोडा-बहुत व्यापार है, उनसे भी लगाव छोडना पडेगा न?

समाधानः- उससे रस टूट जाना चाहिये। रस और रुचि छूट जाना चाहिये। उसकी मर्यादा हो जाय। उसकी तृष्णा, अधिक संचय करुँ ऐसी तृष्णा टूट जाय। अधिक तृष्णा आदि नहीं रहते।

मुमुक्षुः- वह कब टूटेगी? जब अन्दरसे भाव..?

समाधानः- अन्दरमें रुचि होवे तब, आत्माकी रुचि होवे तब हो सकता है।

मुमुक्षुः- आत्मामें लगानेका प्रयत्न करने पर भी वह लग नहीं पाता है। करने पर भी .... आता है।

समाधानः- लगन यथार्थ नहीं लगी है। लगन लगे तो हो सके। यथार्थ सच्ची लगन लगे तो भीतरमें तो आत्मा पहचाननेमें आये बिना रहता ही नहीं।

मुमुक्षुः- हम समझते तो यह हैं कि हमने बहुतकुछ कर लिया है, बहुत लगन लगा ली है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है।

समाधानः- भीतरमेंसे सच्ची लगन नहीं लगी है, ऊपर-ऊपरसे लगती है। ऐसे ऊपरसे लगती है।

मुमुक्षुः- भीतरमेंसे लगानेके लिये बहिनश्री! थोडा-बहुत तो लगाव छोडना ही पडेगा न?

समाधानः- भीतरमेंसे ऐसे रुचि (लगे कि) बाहरमें सुख नहीं है। मेरा सुखका भण्डार मेरे आत्मामें है। बाहरमें कुछ सुख नहीं है। ऐसा विश्वास आ जाय तो आपोआप छूट जाता है। ऐसे भीतरमेंसे (लगना चाहिये)।

मुमुक्षुः- दर्शनका श्रद्धान होनेके बाद चारित्रका श्रद्धान करना पडेगा या अपनेआप हो जायगा?

समाधानः- सम्यग्दर्शन जिसको होता है, सच्ची प्रतीत, निर्विकल्प स्वानुभूति ऐसा सम्यग्दर्शन होवे। फिर स्वरूपमें लीनता तो अपने पुरुषार्थसे करनी पडती है। आपोआप नहीं होती, पुरुषार्थसे होती है। सम्यग्दर्शन होवे उसके भवका अभाव हो जाता है। बादमें केवलज्ञान प्रगट करनेके लिये, आत्माकी पूर्ण स्वानुभूति पूर्ण स्वरूपमें रहना, निर्विकल्प स्वरूपमें बारंबार जाना, उसके लिये उसकी लीनता लगानी पडती है।

मुमुक्षुः- चारित्रका पालन करना जरूरी है अभी या श्रद्धान पक्का करना जरूरी है?


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समाधानः- पहले श्रद्धान करना। पहले श्रद्धान मुक्तिका मार्ग है। चारित्र बादमें आता है। सच्चा श्रद्धा करे तो चारित्र होता है। श्रद्धान बिना चारित्र कैसे हो सकता है? सच्चा चारित्र नहीं होता। समझे बिना चलने लगे तो मार्गको समझे बिना कहाँ जायगा? भावनगर जाना है तो ऊलटा चलेगा, समझे बिना। श्रद्धान हो कि यह भावनगरका मार्ग है। उस मार्गका श्रद्धान करना। मैं ज्ञायक हूँ, मेरेमें सबकुछ भरा है। उसका भेदज्ञान करके विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ, उसकी श्रद्धा करके यथार्थ भीतरमेंसे उसमें लीनता करे। विशेष लीनता करनेके लिये चारित्र होता है।

मुमुक्षुः- खाली चारित्रका पालन करनेसे कुछ नहीं होता?

समाधानः- अकेले चारित्रका पालन करनेसे कुछ नहीं होता। शुभभाव होता है, पुण्यबन्ध होता है, देवलोकमें जाता है। ग्रैवेयक उपजाया।

मुमुक्षुः- निगोदमें आयेगा यदि सम्यग्दृष्टि नहीं हुआ तो?

समाधानः- हाँ, सम्यग्दृष्टि नहीं हुआ तो निगोदमें भी जायगा। तो निगोदमें भी जायगा। परिभ्रमण नहीं टूटेगा। मुनिव्रत धार अनंत बैर ग्रैवेयक उपजायो। मुनिव्रत धारण करके अनन्त बार ग्रैवेयक गया, वहाँ भवभ्रमण टूटा ही नहीं। सम्यग्दर्शन करनेसे भवभ्रमण टूट जायगा।

मुमुक्षुः- इसका क्या प्रमाण है कि हमारे मनुष्यके भव पूरे ही हो चूक हैं या अभी कुछ बाकी रह गये हैं? आगेके भवोंके लिये क्या पता है कि मनुष्यभव है या नहीं है?

समाधानः- अपना परिणाम देख लेना कि मैं कैसे परिणाम करता हूँ? आगे क्या? जैसे परिणाम होवे ऐसा फल मिलता है। कैसा परिणाम भीतरमें होता है? परिणाममें कलुषितता और बहुत बाहरकी लुब्धता, रुचि होवे तो मैं... जैसा उसका परिणाम, वैसा उसका भव। मेरे परिणाम कैसे होते हैं, यह देख लेना। मैं अंतरमेंसे कितना भिन्न रहता हूँ? मुझे आत्माकी कितनी रुचि है? यह सब देख लेना। परिणाममें अत्यंत एकत्वबुद्धि है तो जैसा परिणाम (वैसा) उसका फल।

भव मिलनेसे क्या होता है? भीतरमें आत्माकी रुचि करनेसे भवका अभाव होता है। भव तो देवका भव अनन्त बार मिला और मनुष्यका भव भी अनन्त बार मिला। सबकुछ मिल चुका है। शुभभाव करनेसे पुण्यबन्ध होवे तो देवलोक होता है, मनुष्यभव होता है शुभभावसे, परन्तु भवका अभाव तो नहीं हुआ। भवका अभाव कैसे हो, वैसा करना चाहिये।

मुमुक्षुः- भवका अभाव करनेके लिये अनुभूति प्राप्त करनी है।

समाधानः- अनुभूति प्राप्त करे तो भवका अभाव होता है।


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मुमुक्षुः- सिद्ध अवस्था प्राप्त होनेके बाद यह अंतःतत्त्व है या बाह्य तत्त्व है?

समाधानः- सिद्धदशाको प्राप्त करे तो अंतर तत्त्व है। सिद्धका स्वरूप तो अंतःतत्त्व है। नियमसारमें कुछ ऐसा..

मुुमुक्षुः- नव तत्त्व बहिःतत्त्व है। निज एक ही अंतः तत्त्व है। सिद्धदशा सिद्ध अपेक्षासे अंतःतत्त्व है और पर्याय अपेक्षासे बाह्य कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- एक दफे सिद्ध होनेके बाद भी उसमें रजोबदल होता रहता है क्या? पर्यायका तो...

समाधानः- सिद्धदशा तो अंतःतत्त्व ही है। अंतः, बाह्य समझनमें बहुत मुश्किपल होगा।

मुमुक्षुः- पण्डितजी साहबने समझाया, लेकिन आपके मुखसे समझे तो थोडा...

समाधानः- भीतरमें लीन हो गया सिद्धकी दशा, केवलज्ञान प्राप्त हो गया, विकल्प सब टूट गये। सम्यग्दर्शन सम्यग्दृष्टि जो होता है... दर्शनकी अपेक्षासे दर्शनके विषयमें पर्याय गौण होती है, द्रव्य मुख्य रहता है। इसकी अपेक्षासे बाह्य और अभ्यंतर ऐसा कहनेमें आता है। बाकी ज्ञान सब जानता है। पर्याय है, द्रव्य है। पर्याय और द्रव्य, सब द्रव्यका स्वरूप है। सिद्धका स्वरूप है। उसको सब अंतः ही है।

... जैसा अपना शुभभाव। शुभभाव होवे तो पुण्य बन्धे। परिणामके ऊपर पुण्य है। दर्शन करके परिणाम अच्छे होवे ते पुण्य बन्धे, परिणाम इधर-ऊधर चला जाता है तो...

मुमुक्षुः- कोई भी खराब परिणाम...

समाधानः- परिणाम दूसरा होता है तो.. परिणाम अच्छा होता है तो पुण्य बन्धता है। आत्म स्वरूपकी प्राप्ति तो नहीं होती और शुभभाव होता है, पुण्य बन्ध (होता है)। सामान्य पुण्य बन्ध होता है। क्योंकि अपने आत्माका स्वरूप तो पहचानता नहीं है। तीर्थमें फिरे, आत्मा स्वरूप-तीर्थ तो पीछाने नहीं, आत्म-तीर्थको और तीर्थ-तीर्थमें फिरे तो क्या? शुभभाव होता है। शुभभाव रखे तो पुण्यबन्ध होता है।

मुमुक्षुः- ... वहाँ जो आदमी रहते हैं, जो जैनियों... उनके भाव हलके रहते हैं, तीर्थंक्षेत्रमें, ऐसा क्यों?

समाधानः- ऐसा एकान्त नहीं होता है। सबके भाव (ऐसे नहीं होता)।

मुमुक्षुः- पंचमकालके हिसाबसे...?

समाधानः- पंचमकालमें सबके भाव ऐसे नहीं होते।

मुमुक्षुः- ऐसा नियम नहीं है।

समाधानः- ऐसा नियम नहीं है। सबका भाव ऐसे रहते हैं? जैसी योग्यता होती


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है, ऐसा भाव होता है। क्षेत्र क्या करे? क्षेत्र किसीका कुछ कर नहीं देता। अपना भाव ऐसा रहे तो अपनी योग्यता, अपना दोष है, तीर्थ क्या करता है? कोई निमित्त कुछ कर नहीं देता। निमित्त कर ही नहीं देता है, निमित्त कुछ कर नहीं देता है। अपने उपादानकी तैयारी होवे ऐसा होता है।

मुमुक्षुः- कहते हैं, यहाँ आकर आपके दर्शन हुए तो शान्ति हो गयी।

समाधानः- ... बहुत किया, आत्माको नहीं पहचाना। आत्माको पीछाना नहीं।

मुमुक्षुः- यात्रा तो..

समाधानः- भाव आवे, करे यात्रा। शुभभाव है।

मुमुक्षुः- शुभभाव आनेसे यात्रा करते हैं।

समाधानः- तीर्थमें भगवान है? अपने भगवानको पीछानना चाहिये। आत्माको नहीं पहचानता है। भगवानको देखकर अपना भाव अच्छा होना चाहिये।

मुमुक्षुः- हम भी वैसे ही बने।

समाधानः- भगवान जैसे होवे, ऐसा होना चाहिये। ॐ भगवानकी दिव्यध्वनि है। भगवानकी वाणीमें ॐ आता है। एकाक्षरी वाणी भगवानकी वाणी है। उसमें सब अनन्त रहस्य आता है। सब अपनी योग्यता अनुसार समझ लेते हैं। ॐ है। पंच परमेष्ठीका मन्त्र, सब ॐमें आ जाता है। ॐ भगवानकी वाणी है। भगवानको केवलज्ञान होता है तो वाणी ऐसे क्रम-क्रमसे निकलती है, ऐसे भगवानकी वाणी क्रम-क्रमसे नहीं निकलती है। एक ॐ निकलता है। उस ॐमें सब अनन्त रहस्य आता है। उसमें इतना अतिशय रहता है कि सब अपनी भाषामें सब समझ लेते हैं। ऐसी भगवानकी वाणी ॐ है।

मुमुक्षुः- ॐको अरिहन्त अवस्थामें भी ध्याया जाता है?

समाधानः- अरिहन्त अवस्थामें उसका ध्यान नहीं होता है, ॐ भगवानकी वाणी है।

मुमुक्षुः- वाणी है?

समाधानः- वाणी है, वाणी है। भगवानको तो पूर्ण केवलज्ञान हो गया। भगवान ॐका ध्यान नहीं करते, भगवानकी वाणी ॐ है।

समाधानः- ... तब कुछ काम नहीं आता। संसार तो ऐसा है। जन्म-मरण संसारमें है। जो जन्म और मरण संसारमें है। आयुष्य सबके पूरे होते हैं। परन्तु इस मनुष्य जीवनमें आत्माकी रुचि हो वही लाभरूप है। बाकी तो संसार ऐसा ही है। जीवनमें कुछ आत्माकी रुचि की हो, अन्दर संस्कार बोये हो, गुरुदेवने जो वाणी बरसायी है, वह स्वयंने ग्रहण की हो तो मनुष्य जीवन सफल है। बाकी जीवनमें सबको यही करने जैसा है, मनुष्य जीवनके अन्दर।


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अनन्त जन्म-मरण हुए। जन्म-मरण तो संसारमें है ही। भवका अभाव कैसे हो, यह करने जैसा है। गुरुदेवने भवका अभाव कैसे हो, यह मार्ग बताया। अनन्त भव हुए, वह भव इतने अनन्त हुए कि उसकी कोई सीमा नहीं है। निगोदमें अनन्त काल रहा। अनन्त नर्कमें हुए, अनन्त मनुष्य, अनन्त तिर्यंच और अनन्त देवके हुए। ऐसा चार गतिका परिभ्रमण खडा है। उसमेंसे भवका अभाव कैसे हो, यह गुरुदेवने मार्ग बताया कि अंतरमें तू देख, आत्माको पहचान, उसका भेदज्ञान कर तो भवका अभाव हो।

बाकी भवका अभाव... बाहरसे जीवने बहुत किया है। शुभभाव किये, क्रियाएँ की परन्तु अंतर दृष्टि नहीं की। अंतर दृष्टि करके आत्माको पहचाने, सब शुभाशुभ भावसे भिन्न अन्दर आत्मा है उसे पहचाने, उसका भेदज्ञान करे तो भवका अभाव होता है। वह जब तक न हो तब तक उसकी रुचि करे, जिज्ञासा करे, लगन लगाये। अशुभभावसे बचनेके लिये शुभभाव आते हैं, परन्तु वह भी आत्माका स्वरूप नहीं है। अन्दरमें शुद्धात्माकी रुचि रखनी वही है। शुभभावमें जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र उनकी महिमा, शास्त्रका चिंतवन, वह सब जीवनमें करने जैसा है। शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये, भवका अभाव उसीसे होता है। अन्य कोई प्रकारसे भवका अभाव नहीं होता।

अनन्त कालमें सब मिला है। यह एक सम्यग्दर्शन दुर्लभ है। जिनेन्द्र देवके दर्शना (नहीं किये)। जिनेन्द्र देवका योग हुआ है लेकिन स्वयंने पहचाना नहीं है। इसलिये सम्यग्दर्शन है वही अपूर्व है। वह कैसे हो, उसकी लगन, जिज्ञासा आदि करने जैसा है। सबके आयुष्य पूर्ण होते हैं। देवलोकका सागरोपमका आयुष्य भी पूरा हो जाता है। और चक्रवर्तीका आयुष्य भी पूरा हो जाता है। तो फिर इस पंचमकालका आयुष्य तो क्या हिसाबमें है? उनकी जो रुचि थी, अन्दर संस्कार थे वह अपने साथ जाते हैं। मनुष्य जीवनमें यही करने जैसा है। किसीको छोडकर स्वयं आता है, स्वयंको छोडकर दूसरे चले जाते हैं। ऐसा संसारमें चलते ही रहता है। आत्माका स्वरूप पहचान लेने जैसा है।

मुमुक्षुः- पहलेकी सब कैसेट बतायी। गुरुदेवश्री और आपकी, एवं जिन मन्दिरका सब था, मेरे पास एक विडीयो कैसेट है। पहलेकी सब कैसेट देखी। क्योंकि सोनगढ लेकर आये ऐसी स्थिति नहीं थी।

समाधानः- विडीयोमें तो भगवान दिखे, सब दिखे।

मुमुक्षुः- सम्मेदशीखर आदि जो बडे-बडे तीर्थ थे सबकी पूरी कैसेट थी, वह सब तीर्थस्थान दिखाये।

मुमुक्षुः- यहाँ सोनगढ पर उसे भाव बहुत था।


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समाधानः- भाव था, पहलेसे भाव था।

मुमुक्षुः- बहुत भक्ति। गुरुदेवश्री और बहिनश्रीको देखे तो अन्दरसे ऐसा हो जाता था, हाथ-पैस सीधे नहीं थे इसलिये ऐसा कुछ कर नहीं सकते थे।

समाधानः- उनको जो रुचि थी वह रुचि सबको रखने जैसा है। आत्माका स्वरूप कैसे समझमें आये, उसकी जिज्ञासा, लगन। आत्मा जाननेवाला ज्ञायक है, उसमें अनन्त गुण भरे हैं। वह अनुपम तत्त्व है। यह विभाव स्वभाव अपना नहीं है। आत्मा भिन्न है, उसका भेदज्ञान कैसे हो, उसकी जिज्ञासा, लगन जबतक नहीं हो तब उसकी रुचि और शुभभावोंमें जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र, उनकी महिमा शास्त्रका चिंतवन, शास्त्रका स्वाध्याय, जीवनमें वह सब शुभभावमें (होना चाहिये)। और शुद्धात्मामें आत्माकी रुचि रखने जैसा है। जीवनमें वह कर्तव्य है। जन्म-मरण तो चलते ही रहते हैं। उन्होंने जो रुचि (की), उन्होंने जो किया वह सबको करने जैसा है। आत्माकी रुचि, जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रकी महिमा आदि।

... पंचमकालमें पधारे वह तो कोई अपूर्व तीर्थंकरका द्रव्य, उनकी तो बात क्या! ऐसे महापुरुषका अवतार यहाँ कहाँ? पंचमकालमें कहाँसे?

मुमुक्षुः- ... मैंने महाराज साहबको कहीं देखा है।

समाधानः- वहाँ ऊपर ही रहती थी न। तब मन्दिर जाना कुछ था नहीं, इसलिये बाहर भी बहुत नहीं निकलती थी। मन्दिर नहीं था।

मुमुक्षुः- मन्दिर दर्शन जानेकी कोई प्रथा शुरू नहीं हुयी थी।

समाधानः- प्रथा शुरू नहीं हुई थी। चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।

चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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