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मुमुक्षुः- .. ज्ञान होनेका एक ही समय है?
समाधानः- दोनोंका एक ही समय है। आस्रवको निवृत्ति और ज्ञानघन आत्माका होना, दोनों एकसाथ ही होता है। आस्रव निवृत्ते उसका मतलब कुछ प्रगट होता है। यहाँ ज्ञानघन आत्मा ज्ञायक हो, इसलिये वहाँसे आस्रव निवृत्त होते हैं। दोनों एकसाथ ही होता है। उसमें कोई क्रम नहीं पडता है। आस्रवोकी निवृत्ति और आत्माकी प्रगटता, दोनों एकसाथ ही है। उसमें क्रम नहीं पडता है। पहले आस्रव निवृत्त हो उसके बाद ज्ञान हो, ऐसा नहीं है। इस ओर निवृत्त हुआ, यहाँ ज्ञान होता है। ज्ञानघन आत्मा प्रगट होता है और आस्रवसे निवृत्त होता है, दोनों एक ही समयमें होता है। एक ही क्षणमें। यहाँ अस्तिमें स्वयं प्रगट होता है और उस ओर नास्तिमें आस्रवसे निवृत्त होता है।
मुमुक्षुः- मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धिके विषयमें कुछ..
समाधानः- मिथ्यात्व अर्थात उसकी दृष्टि जूठी है। परपदार्थके साथ एकत्वबुद्धि कर रहा है। पर शरीर सो मैं और मैं सो शरीर, ऐसी भ्रान्ति अन्दर है। यह विकल्प होते हैं, वह भी मेरे हैं (ऐसी) एकत्वबुद्धि (है)। स्वयं भिन्न है, उसका कुछ भान नहीं है। वह मिथ्यात्व है। वह अंतरमें परिणतिमें उसका मिथ्यात्व है।
और अनन्तानुबन्धि कषाय उसे इतना तीव हो कि उसे आत्मा ओरकी रुचि नहीं हो, आत्माकी बात करे तो रुचे नहीं, ऐसा। आत्माकी अरुचि, उस प्रकारका क्रोध, उस प्रकारका मान, उस प्रकारकी माया, वह अनन्तानुबन्धि कषाय है। और बाहरमें उसे मिथ्यात्वमें जूठे देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण करे तो वह भी मिथ्यात्व है। वह ग्रहित मिथ्यात्व है। और यह अन्दरका मिथ्यात्व है।
जूठे देव कि जिसको वीतरागता प्रगट नहीं हुयी है उसे देव माने। जो आत्माकी साधना नहीं करते हैं उसको गुरु माने। जिस शास्त्रमें आत्माकी बात नहीं आती है, ऐसे शास्त्रको माने। वीतरागी शास्त्र, वीतराग गुरु, वीतराग देव होने चाहिये। अन्य- अन्य देव माने, अन्य गुरु माने, अन्य शास्त्र माने तो वह गृहित मिथ्यात्व है।
मुमुक्षुः- संप्रदायकी मिथ्यात्वकी समझ..
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समाधानः- मिथ्यात्व इसी प्रकारका है। मिथ्यात्व तो एक ही प्रकारका है। जूठी भ्रान्ति। जूठे देव-गुरु-शास्त्रको माने और अंतरमें शरीरके साथ एकत्वबुद्धि वह भी मिथ्यात्व है। विभावके साथ (एकत्वबुद्धि)। उसकी समझन भिन्न-भिन्न नहीं है। वह तो कोई अर्थ अलग करे, समझन अलग (होती है)।
मुमुक्षुः- संप्रदायमें ऐसा है कि ... आपको शिवको नहीं मानो तो वह मिथ्यात्व है।
समाधानः- वह स्वयंको विचारना चाहिये कि सत्य क्या है? सब संप्रदायवाले अलग-अलग कहे। सच्चे देव, सच्चे गुरु कौन है उसका स्वयंको विचार करना पडता है। जिसे आत्माकी जिज्ञासा हो वह स्वयं ही विचार कर लेता है कि सच्चे देव, सच्चे गुरु, सच्चे शास्त्र किसे कहते हैं। वह स्वयंको ही विचारना पडता है। सब संप्रदायवाले तो.. जहाँ स्वयं जन्म धारण करता है, जीव जहाँ जन्म धारण करता है वहाँ स्वयं अपना मान लेता है कि इस धर्ममें मैंने जन्म लिया है इसलिये यह मेरा सत्य है। और उस धर्ममें ऐसा आये कि कृष्णको मानो, शिवको मानो, इसको न मानो, वह तो मिथ्यात्व है। सब संप्रदायवाले ऐसा कहे तो स्वयंको विचार करके नक्की करना पडता है कि सत्य क्या है? वह तो नक्की करना पडता है।
मुमुक्षुः- आप्त पुरुषने कहा हुआ वचन मानना, तो आप्त पुरुष किसे मानना?
समाधानः- आप्त कौन है, वह स्वयंको नक्की करना पडता है। श्रीमदमें आता है न? कि जिज्ञासुके नेत्र सत्पुरुषको पहचान लेते हैं। उसका हृदय उस प्रकारका हो जाता है कि सत्य क्या है, ऐसी अंतरमेंसे उसे जिज्ञासा प्रगट होती है कि सत्य क्या है? सच्चे गुरु कौन है? वह स्वयं ही उनकी वाणी परसे, उनकी वाणीका कहाँ जोर आता है? उनका अमुक प्रकारके परिचयसे नक्की कर लेता है कि यही सच्चे देव हैं।
मुमुक्षुः- जिसे रुचि होगी वही आप्त पुरुषको पहचान सकेगा न? जो मिथ्यात्व है वह पहचान सकता है?
समाधानः- मिथ्यात्वी हो तो भी जो जिज्ञासु होता है, सतका जिज्ञासु हो, भले मिथ्यात्व है उसे, परन्तु जिसे सत्य समझनेकी रुचि है कि मुझे सत्य कहाँ प्राप्त होगा? सतको खोजनेवाला, भले उसे एकत्वबुद्धि है, परन्तु अन्दरसे उसे जिज्ञासा हुयी है कि मुझे सत्या कहाँ प्राप्त होगा? वह सत्यकी परीक्षा करनेवाला जो है वह पहचान सकता है। मिथ्यात्व हो तो भी सत्पुरुषको पहचान सकता है कि यह सत्पुरुष है। उसकी हृदयकी पात्रता ऐसी हो जाती है कि वह सत्पुरुषको पहचान लेता है। लेकिन उतनी पात्रता तैयार होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- .. कहा है कि बनारसीदासजी जहाँ भूल करते हैं वह हम समझ सकते
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हैं। उन्होंने भूल बतायी नहीं है।
समाधानः- सम्यग्दर्शनमें उन्हें भूल नहीं हुयी है, पहले भूल हुयी है। पहले भूल हुयी है। पहले क्रियामें चढ गये, फिर शुष्क हो गये, अतः पहले भूल हुयी है, बादमें नहीं हुयी है। पहले-पहले सब भूल की है। पहले भूल हुयी है।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- मूल तत्त्वमें उसकी भूल नहीं होती, वस्तुकी समझमें भूल नहीं होती। उसकी अस्थिरता हो, राग आवे तो अस्थिरता है। उसकी तत्त्वकी समझमें भूल नहीं होती।
मुमुक्षुः- उसमें तो भूल होती ही नहीं।
समाधानः- नहीं, समझमें भूल नहीं होती। उसे अस्थिरता होती है।
मुमुक्षुः- उस समय नासमझ हो सकती है?
समाधानः- नासमझ नहीं होती। उसे राग हो वह जानता है कि मुझे राग होता है, मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है। अन्दर खेद होता है कि मैं गृहस्थाश्रममें हूँ, मुझे इस प्रकारका राग-द्वेष आदि होता है। लेकिन यह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ।
मुमुक्षुः- तत्त्वमें भूल नहीं करते।
समाधानः- तत्त्वमें भूल नहीं होती। राग होता है। राग भी मर्यादा छोडकर राग नहीं होता है।
मुमुक्षुः- क्योंकि क्षण-क्षणमें रुचि तो बदलती रहती है। ... जो लक्ष्य हुआ है वह नहीं बदलता। दृष्टि नहीं बदलती।
समाधानः- दृष्टि नहीं बदलती। अन्दर ज्ञायकको पहचाना वह नहीं बदलता।
मुमुक्षुः- समकिती हो वह लडाईमें जाय और लडाई भी करता हो। उस वक्त उसे हिंसा भी करनी पडे।
समाधानः- लेकिन उसकी दृष्टि नहीं बदलती। उसे ऐसा होता है कि अरेरे..! मैं इसमें-राजमें बैठा हूँ इसलिये इस कार्यमेें जुडना पडता है। तो वह अनीतिसे कुछ नहीं करता है। मुझे राजका राग है, इसलिये मुझे हिंसामें जुडना पडता है। मुझे इस राजका राग छूट जाय तो...
मुमुक्षुः- हिंसामें जुडता है?
समाधानः- हाँ, सम्यग्दृष्टि ऐसे कार्यमें जुडता है। सम्यग्दृष्टि राजा होता है, सम्यग्दृष्टि राजा होता है। ऐसे कार्यमें जुडता है। लेकिन उसे खेद (होता है)।
मुमुक्षुः- मरे हुएको मारता हूँ, मानसे उसे ऐसा नहीं कहे। मेरा दोष है ऐसा
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कहे। मरे हुएको मारता हूँ...
समाधानः- मेरा दोष है, ऐसा मानता है। मेरी अस्थिरता है कि मैं छूट नहीं सकता हूँ। मुझे राजका राग है। यदि अभी यह राज छोड दूँ तो सब छूट जाय। मैं इसमें जुडता हूँ, यह मेरा स्वरूप नहीं है। मुझे जुडना पडता है।
मुमुक्षुः- ... कितनी ऐसी क्षण आती है कि जब ... तत्त्वसे दूर जाना पडता है।
समाधानः- तत्त्वसे दूर नहीं जाता है। उसे अस्थिरता है। तत्त्वसे दूर नहीं जाता। कोई उसे ऐसा कहे कि तेरा ज्ञायक आत्मा भिन्न नहीं है, शरीर और आत्मा एक है, ऐसा तू बोल, तो ऐसा वह नहीं कहते। आकाश-पाताल एक हा जाय भी नहीं कहे।
मुमुक्षुः- समकित होनेके बाद वह भूल जाता है?
समाधानः- नहीं, भूलता नहीं।
मुमुक्षुः- तो समयसारमें ही आता है।
समाधानः- पुरुषार्थकी मन्दता हो तो भूल जाय, वह तो भूल गया कहनेमें आता है। परन्तु सम्यग्दर्शनमें पुरुषार्थकी धारा होती है वह अप्रतिहत धारासे भूलता नहीं, भूलता नहीं। च्यूत हो जाय उसकी (बात अलग है)।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन स्थिर रहता है?
समाधानः- स्थिर रहता है, कोई च्यूत हो जाय उसकी बात नहीं है। वह तो च्यूत हो जाता है। कोई च्यूत हो जाय।
मुमुक्षुः- समयसारमें एक ऐसी गाथा है...
समाधानः- .. हाँ, वह है। ... धारासे उठा हुआ.. उसमें कोई च्यूत हो जाता है।
मुमुक्षुः- अधिष्ठान एक है, वह मुझे नहीं बैठता नहीं था। वेदान्तमें एक अधिष्ठान कहते हैं। छः द्रव्य पढा तो एक अधिष्ठान...? वह नहीं बैठा।
समाधानः- .. कोई होता ही नहीं, स्वयं ही है स्वतंत्र।
मुमुक्षुः- ... स्वतंत्र है। कोई..
समाधानः- स्वयं स्वयंका आधार है। कोई किसीका अधिष्ठान नहीं है। स्वयं स्वतंत्र है, जैसा करना हो।
मुमुक्षुः- इसीलीये जीवको स्वतंत्र बनाना है। अभी जो संयोगीभावमें है, उसे स्वतंत्र बनाना है।
समाधानः- विभावपर्यायमें स्वतंत्र है। जहाँ स्वयंकी परिणति करनी हो, वहाँ स्वतंत्र
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है। निमित्त होता है, परन्तु स्वयं जुडे तो होता है। निमित्त यह नहीं कहता है कि तू जबरन उसमें राग कर या इसमें द्वेष कर। बाहरके शब्द नहीं कहते हैं कि तू शब्द सून या तू शब्द सुनकर राग कर या द्वेष कर। ऐसा वह कोई नहीं कहते हैं। शब्द नहीं कहते हैं, स्वयं जुडता है। तू वापस मुड जा तो जबरन तुझे कोई नहीं कहता है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थका पढा वह मुझे बहुत याद आता है कि आत्मा स्वयं .. हुए बिना, भाव्यका भावक हुए बिना दूरसे ही वापस मुड जाता है।
समाधानः- दूरसे वापस मुड जाता है। समयसारमें आता है। दूसरे वापस मुड जाता है।
मुमुक्षुः- .. वहाँ पुरुषार्थके दर्शन होते हैं।
समाधानः- दूरसे, अन्दर विभावमें जुडे बिना दूरसे वापस मुड जाता है।
मुमुक्षुः- वह वाक्य मुझे इतना पसन्द आ गया...।
समाधानः- .. ज्ञायक स्वयं स्वतंत्र, स्वयं पुरुषार्थ करके दूसरे वापस मुडता है। सब अपने हाथकी बात है। स्वयं जितना करता नहीं है, वह अपना प्रमाद है। स्वयं करे तो अपने हाथकी बात है। कर्म तो निमित्त है। निमित्त उसे रोकता नहीं है। निमित्त उसे रोकता नहीं है और निमित्त कुछ कहता भी नहीं है कि तू जुड जा।
मुमुक्षुः- आत्मा अनात्मा यानी जड ऊपर कोई प्रभाव डाल सकता है?
समाधानः- पर ऊपर कोई प्रभाव डाल नहीं सकता।
मुमुक्षुः- जो अरिहन्त, केवलज्ञानी होते हैं उनकी सौम्यमूर्तिसे उनका बाह्य आकार भी सौम्य हो जाता है, वह कैसे?
समाधानः- वे स्वयं अन्दर वीतराग हो गये, इसलिये उनका शरीर भी उस प्रकारके रजकण स्वतंत्र परिणमते हैं।
मुमुक्षुः- स्कंध उस प्रकारके बन्धते होंगे?
समाधानः- नहीं, उसके परमाणु वैसे बदल जाते हैं, स्वतंत्र। प्रभाव नहीं पडता है, स्वतंत्र अपनेआप हो जाता है। ऐसा सम्बन्ध है कि...
मुमुक्षुः- एकक्षेत्रावगाही इसलिये?
समाधानः- एक क्षेत्रमें रहते हैं। स्वयं अन्दर उपशमभाव करे, उपशमभाव हो गया इसलिये शान्त परिणाम हो गये। जैसे कोई मनुष्य क्रोध करे तो उसकी मुद्रामें क्रोध दिखता है। शांत मनुष्यकी शांत दिखती है। वह क्रोध और शान्ति अलग रहते है। परन्तु यह तो कुदरती एकक्षेत्रावगाह एकसाथ रहे हैं, इसलिये ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है।
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मुमुक्षुः- परमाणुको अथवा पुदगल स्वयंको अर्पण करते हैं। और आत्मा देखता- जानता है। तो रजकण केवलदर्शनीको कैसा अर्पण करना...
समाधानः- .. ऐसा उसका ज्ञान होता है, वैसा उसका ज्ञेय होता है। जैसा ज्ञेय होता है, वैसा ज्ञान होता है। वह तो सम्बन्ध ही होता है। उसे अर्पण नहीं करता। दर्पणमें प्रतिबिंब दिखते हैं। उस प्रतिबिंबरूप दर्पण स्वयं परिणमता है। प्रतिबिंब अन्दर प्रवेश नहीं करते, दर्पणके अन्दर प्रवेश नहीं करते।
मुमुक्षुः- वह दर्पणकी स्वच्छता है।
समाधानः- हाँ, वह दर्पणकी स्वच्छता है। वैसे ज्ञानकी स्वच्छता है कि जैसा ज्ञेय हो वैसे ज्ञान परिणमता है। ज्ञान परिणमता है। वह बाह्य ज्ञेय आकर अन्दर कुछ नहीं करता है। और ज्ञान वहाँ जाकर, दर्पण बाहर प्रतिबिंबमें जाकर कुछ नहीं करता है, वैसे ज्ञान बाहर जाकर ज्ञेयोंको कुछ नहीं करता है।
मुमुक्षुः- केवलिओंकी वाणी ऐसी होती है कि वे कहे वैसा ही बने। तो वाणी तो पुदगल है, तो उसमें ऐसी कैसी शक्ति आयी?
समाधानः- वाणी तो पुदगल है। परन्तु जैसा वस्तुका स्वरूप है, वैसी वाणी निकलती है। दूरसे, जैसे चुंबक होता है, वह चुंबक सूईको नहीं कहता है कि तू यहाँ आ। और वह सूईको खीँचने भी नहीं जाता। और सूई स्वतंत्र आती है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध जगतमें पुदगलोंके (बीच होता है)। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- लेकिन वह सम्बन्ध नहीं है।
समाधानः- वह कुछ करता नहीं है। चुंबक सूईको कुछ करने नहीं जाता है और सूई चुंबकके कारण खीँची नहीं आती। उसका स्वभाव ही ऐसा है। जहाँ चुंबक हो वहाँ सूई आये। बस, ऐसा सम्बन्ध ही है। स्वतंत्र परिणमन है।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- भिन्न द्रव्य न रहे, यदि उसका प्रभाव पडता हो तो।
मुमुक्षुः- ... अच्छी अस्पताल हो तो मैं अस्पताल बन जाऊँ। मेरी अस्पताल,.. मैं अस्पताल बन गया।
समाधानः- अस्पताल पर प्रभाव नहीं पडता।
मुमुक्षुः- प्रभाव पडे तो वह, वह बन जाय। तो तीर्थंकर शरीर बन जाय। तीर्थंकरने परमाणुको सौम्या बनाया हो तो..
मुमुक्षुः- प्रभावका अर्थ ऐसा नहीं कर सकते, मानो हम लोग बैठे हैं और उसमें आत्मा ही वैसे परिणमता है। उसमें तो उसको आत्माको कुछ नहीं है, परन्तु
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स्वयंका आत्मा स्वयं वैसे परिणमे। उसे प्रभाव लगे ही।
समाधानः- स्वयं परिणमता है। स्वयं प्रभावको ग्रहण करता है।
मुमुक्षुः- क्योंकि ऐसा तो बहुत जगह देखते हैं कि किसीके प्रभावमें आ जाते हैं।
समाधानः- गुरुदेवकी वाणी ऐसी थी कि सुननेवाले एकदम स्थिर हो जाय और आश्चर्यचकित हो जाते। लेकिन स्वयंकी ऐसी लायकता होती है। वाणी निमित्त और अन्दर आत्माकी योग्यता, दोनोंका सम्बन्ध है।
मुुमुक्षुः- बहुत लोग कहते हैं, मैंने तो नहीं देखे हैं, परन्तु गुरुदेवके पास बैठें और उनकी वाणी सुने तो उसका कुछ अलग ही प्रभाव पडता।
मुमुक्षुः- कोई विरोध भी करते थे।
समाधानः- विरोध करनेवाले भी थे, विरोध करते थे। मुंबईमें कितनी बडी जनसंख्यामें गुरुदेव प्रवचन करते थे। सब आश्चर्यचकित हो जाते थे कि कुछ आत्माकी बात करते हैं। परन्तु जीवोंकी ऐसी लायकात होती है।
मुमुक्षुः- मैंने कहा वह बराबर है? कि सामनेवाला आत्मा वैसे परिणमता है।
समाधानः- आत्मा परिणमता है। प्रभाव नहीं, आत्मा उस निमित्तको प्राप्त करके आत्मा स्वयं परिणमता है।
मुमुक्षुः- क्योंकि मैंने इस प्रकारका ऐसा समाधान खोज लिया कि ऐसे..
समाधानः- बने... तो चावल, अनाज आदि पके। लेकिन चावल स्वयं पकते हैं। अग्नि निमित्त है। अग्नि कुछ नहीं करती, उसकी योग्यता है इसलिये होता है। जिस मुँगमें नमी न हो, वह अग्नि मिले तो भी पकते नहीं। वह वैसा ही रहता है। इसलिये जो कोई ऐसे आत्मा हो उसे ऐसे गुरुका निमित्त मिले तो भी वे पकते नहीं। परन्तु जो ऐसे नरम होते हैं, वह अग्निका निमित्त पाकर मुँग आदि पक जाते हैं।
वैसे पात्र आत्मा हो उसे गुरुकी वाणी मिले वहाँ ऐसे पक जाते हैं, परिणमित हो जाते हैं। लेकिन कोई उपरोक्त मुँग जैसे हो, उसे कुछ.. अभव्य जैसे हो उसे कोई असर ही नहीं होती।