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समाधानः- ... गुरुदेवने बहुत समझाया है। जाननेवाला अनादिअनन्त है। जाननेवाला ऐसा नहीं है कि किसीने उत्पन्न किया नहीं है। जाननेवाला त्रिकाल सत ही है। जाननेवाला तत्त्व ऐसा है कि जो स्वतंत्र पदार्थ है। वह पदार्थ ऐसा नहीं है कि कोई उसे उत्पन्न करे या किसीसे नाश हो। वह जाननेवाला सत ऐसा है कि वह त्रिकाल सत स्वयं त्रिकाल है ऐसा स्वयं स्वयंको बता रहा है।
उसमें जो विभावका भाग है उसे नहीं लेकर, मात्र जाननेवाला, मात्र जाननेवाला ज्ञायक वह जाननेवाला है। उस जाननेवालेमें नहीं जानना ऐसा नहीं आता। जाननेवालेका कोई नाश नहीं कर सकता। जाननेवालेकी किसी भी तरहसे उत्पत्ति नहीं होती। जाननेवाला है वह त्रिकाल जाननेवाला ही रहनेवाला है। जाननेवाला स्वयं त्रिकाल सत (है)। स्वयं वर्तमान है ऐसा नहीं, परन्तु वह त्रिकाल स्वतःसिद्ध वस्तु जाननेवाली ही है। ऐसे स्वयं अपनेआपको बता रही है। स्वयं विचार करे तो समझमें आये ऐसा है कि यह जाननेवाला... जाननेवाली वस्तु ऐसी है कि किसीसे उत्पन्न नहीं होती है। जड जडरूप है और जाननेवाला जाननस्वरूप है। जडके किसी भागमें कोई जाननेवाला उत्पन्न नहीं होता है। कोई दूसरा पदार्थ जाननेवालेको उत्पन्न नहीं कर सकता। जाननेवाला स्वयं स्वतःसिद्ध है। स्वतःसिद्धको कोई उत्पन्न नहीं कर सकता। वह अनादिअनन्त जाननेवाला ही है।
वर्तमान जो सत जाननेवाला है वह ज्ञात हो रहा है, वह त्रिकाल जाननेवाला स्वयं स्वतःसिद्ध है और वह स्वयं त्रिकाली सत है। ऐसे स्वयं स्वयंको बता रहा है कि यह जाननेवाला, वह जाननेवाला ऐसा है कि वह जाननेवाला विभावके कारण जाननेवाला है या जडके कारण, कोई दूसरे पदार्थके कारण जाननेवाला नहीं है। जाननेवाला स्वयं स्वतःसिद्ध जाननेवाला है। जाननेवाला ऐसा है कि स्वतःसिद्ध अनन्त पदाथाको जाने ऐसा जाननेवाला है। उस जाननेवालेको मर्याेदा नहीं है। जाननेवाला स्वयं स्वयंको जाने, सबको जाने। इस तरह जाननेवालेमें कोई मर्यादा नहीं है कि इतना जाने या उतना जाने। जाननेवाला सो जाननेवाला ही है। त्रिकाली सत है। वर्तमान सत त्रिकालको बता रहा है कि इतना ही सत नहीं है, स्वतःसिद्ध है। इसलिये जाननेवाला अनादिअनन्त है। इसलिये गुरुदेव कहते हैं कि जाननेवालेको तू जान। वह त्रिकाल सत स्वतःसिद्ध
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वस्तु अनादिअनन्त है।
जाननेवालेको जानना है। अंतरमें भेदज्ञान करके जाने तो ज्ञात हो ऐसा है। विभाव नहीं, जो कलुषित भाव है वह नहीं, मात्र जाननेवाला। जाननेवाला स्वयं त्रिकाल जाननस्वरूप है। किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ है, कभी जाननेवालेका नाश नहीं हो सकता। इसलिये वह वर्तमान त्रिकालको बता रहा है कि मैं त्रिकाल ही हूँ। मैं एक वस्तु हूँ।
जानना.. जानना.. जानना उसमें जानना ही आता है, उसमें नहीं जाननेका आता ही नहीं। इसलिये वर्तमान है वह त्रिकालको बता रहा है कि त्रिकाल सत, जाननेवाला सत त्रिकाल हूँ। त्रिकाल स्वरूपको बताता है। जो है वह है, वह त्रिकाल है रूप है। जो सत है वह त्रिकाल सतरूप है।
मुमुक्षुः- ... वह ऐसा सूचित करता है कि अन्दरमें त्रिकाली जानने-देखनेवाला पूरा पदार्थ...
समाधानः- कोई तत्त्व-पदार्थ है। वर्तमान जाननेवाला है वह त्रिकाल सत... जाननेवाला स्वतःसिद्ध त्रिकाल सत एक द्रव्य है। उस द्रव्यमेंसे द्रव्यका जानना है। वह जाननेवाला स्वयं त्रिकाल सतको बता रहा है। वर्तमान पर्याय भले हो, लेकिन वह त्रिकालको बता रही है। वह जाननेवाला किसीसे उत्पन्न नहीं होता है। वह जाननेवाला स्वतःसिद्ध अनादिअनन्त त्रिकाल सत है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- त्रिकालको ग्रहण करके, त्रिकास सतको ग्रहण करके कि मैं यह वस्तु ही हूँ, यह विभाव नहीं है। उसे विभावका दुःख लगा हो, विभावकी आकुलता लगी हो। आकुलस्वरूप यह मेरा स्वरूप नहीं है। मैं तो जाननेवाला हूँ। जाननेवाला एक द्रव्य हूँ। ऐसे उसे ग्रहण करके, उसकी प्रतीत करके उस ओर उपयोगको झुकाये और उसमें लीनता करनेका प्रयत्न करे। भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे। जो वस्तु यथार्थ है, द्रव्य है, उस द्रव्यको ग्रहण करनेका प्रयोजन ऐसा है कि जिसे आत्माकी लगी हो, विभावका दुःख लगा हो, भवभ्रमणकी थकान लगी हो, वह स्वयं वापस मुडकर, मैं तो अनादिअनन्त एक शाश्वत वस्तु हूँ, यह विभावमें जो भटकना होता है, परिभ्रमण, आकुलताकी जालमें फँसता रहूँ इन विकल्पोंमें, यह मेरा स्वरूप नहीं है।
मेरा स्वरूप तो अनादिअनन्त मैं तो शाश्वत द्रव्य हूँ। उसे ग्रहण करके, जो स्वरूप है, ज्ञायक ज्ञयकरूप उसकी परिणति कैसे प्रगट हो, उसका प्रयास करना। बारंबार प्रयास करे कि यह ज्ञायक ज्ञायकरूप मुझे कैसे भास्यमान हो? ज्ञायक ज्ञायकरूप मुझे कैसे वेदनमें आये? यह जो मेरा सत है, वह मुझे कैसे वेदनमें आये? विभावका वेदन हो रहा है, उसके बदले ज्ञायकका वेदन कैसे आये? ऐसे उसे जिज्ञासा हो, उसे ग्रहण
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करके भेदज्ञान करे, स्वानुभूति प्रगट करे। उसका ग्रहण करनेका प्रयोजन वह है। तू यथार्थ ग्रहण कर। तू झूठेमें, विभावमें बाहरमें सुख मान लिया है, उसीमें मानो मेरा सर्वस्वा मान लिया, वह सब जूठा है। जो यथार्थ है उसे ग्रहण कर तो उसमेंसे सुख आयेगा, बाहरसे नहीं आयेगा। इसलिये उसे ग्रहण कर। तू अनन्त गुणसे भरपूर ज्ञायकता तेरेमें है। उसमें अनन्त गुण भरे हैं। आनन्द उसमें, सुख उसमें, सब उसीमें है। इसलिये उसे ग्रहण करनेका प्रयोजन है।
मुमुक्षुः- उससे तुझे सुखकी प्राप्ति होगी।
समाधानः- सुखकी प्राप्ति ज्ञायकमेंसे होगी, बाहरसे नहीं होगी। देव-गुरु-शास्त्रने कैसा मार्ग कहा है उसे लक्ष्यमें रखकर... शुभभाव भी आकुलता है, उससे भी भिन्न ज्ञायक है, उसे ग्रहण कर। फिर बीचमें शुभभाव आये उसे ख्यालमें रखे, परन्तु वस्तु तो यह ग्रहण करनेकी है। ग्रहण तो शुद्धात्मा करनेका है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! एक प्रश्न ऐसा है कि, निर्विकल्पताके कालमें ज्ञानीको शुद्धनयका आलम्बन रहता है कि नहीं? और यदि रहता हो तो नयका प्रयोजन सिद्ध होनेके बाद नय निर्विकल्प अवस्थामें अस्त हो जाती हैं, उस कथनके साथ कैसे मेल है?
समाधानः- नय यानी वहाँ विकल्पात्मक नय नहीं है। निर्विकल्प अवस्थामें विकल्पवाली नय खडी नहीं रहती। इसलिये वह नय विलीन हो जाती है, नयकी लक्ष्मी कहाँ चली जाती है, आता है न? निक्षेपका समूह,.. प्रमाण अस्त हो जाता है। वह सब विकल्पात्मक नय और विकल्पात्मक प्रमाण वह सब अनुभवमें नहीं है। विकल्पात्मक नहीं है। परन्तु नय अर्थात अनुभूतिके अर्थमें निज द्रव्य पर दृष्टि तो जैसी है वैसी है। द्रव्य पर दृष्टि गयी और उस ओरकी परिणति हुयी वह वैसी ही है। इसलिये उस अपेक्षासे उसकी द्रव्य पर दृष्टि तो है। इसलिये उसे शुद्धनय कहो या आत्माकी अनुभूति कहो, सब एक है। समयसारमें आता है।
शुद्धनय अर्थात शुद्ध आत्माको ग्रहण किया और उस रूप शुद्ध परिणति हुयी, ऐसे अर्थमें है। द्रव्य पर दृष्टि तो वैसी ही है। परन्तु वह निर्विकल्प है। वहाँ विकल्पात्मक नय नहीं है कि मैं शुद्ध हूँ, यह पर्याय, ऐसे कोई विकल्प नहीं है। विकल्प नहीं है परन्तु शुद्धात्मा जैसा है उस रूप उसकी परिणति है। और शुद्धात्मा पर उसकी दृष्टि थँभ गयी है। शुद्धात्माकी ओर ही परिणतिने जो लक्ष्यमें लिया, दृष्टिने लक्ष्यमें जिस आत्माको लिया वहीं उसकी परिणति स्थिर है। वहीं उसकी दृष्टि स्थिर है। और पर्याय जो परिणति प्रगट हुयी, निर्विकल्प अवस्थाकी परिणति है। इसलिये उसे उस अपेक्षासे शुद्धनय है। परन्तु विकल्पात्मक नय नहीं है, निर्विकल्प नय है।
मुमुक्षुः- उस वक्त शुद्धनयका जोर है?
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समाधानः- हाँ, शुद्धनयका जोर है।
मुमुक्षुः- वह निरंतर रहता है।
समाधानः- वह निरंतर है। शुद्धात्माकी ओर जो दृष्टि है वह तो वैसी ही है। और ज्ञान भी साथमें है। दोनोंको जानता है। शुद्धात्माको और शुद्ध परिणतिको दोनोंको ज्ञान जानता है। ज्ञान भी साथमें है। आनन्दकी अनुभूति, ज्ञान, उसके गुण सबको ज्ञान जानता है। दृष्टि और ज्ञान दोनों काम करते हैं, परन्तु वह निर्विकल्परूप है।
मुमुक्षुः- कोई अपेक्षासे जोर चालू है वह नयका जोर है?
समाधानः- हाँ, वह नय उस अपेक्षासे। निर्विकल्प है, विकल्पात्मक नहीं है। वह नय उसे छूटता नहीं है।
मुमुक्षुः- लडाईमें हो तो भी वह नय...
समाधानः- वह छूटता ही नहीं। द्रव्य पर दृष्टि गयी वह नय छूटती नहीं।
मुमुक्षुः- एक प्रश्न है, आत्मस्वरूपमें प्रवेश करते समय, पहली बार जब प्रवेश करता है, उस वक्त पुरुषार्थ कैसा होता है? और स्थिरताके समय निर्विकल्प पुरुषार्थ कैसा होता है? इन दोनोंके बीच, दोनों पुरुषार्थमें (क्या अंतर है)? उस वक्त भी पुरुषार्थ तो होता ही है, निर्विकल्प अवस्थाके समय।
समाधानः- निर्विकल्प अवस्थाके समय पुरुषार्थ कैसा होता है और..?
मुमुक्षुः- स्वरूपमें प्रवेश करते समय कैसा होता है?
समाधानः- प्रवेश करते समय, फिर निर्विकल्प हो गया उस समय? ऐसा कहना है? प्रवेश करते समय तो अभी उसे विकल्प है। उसे दृष्टिका विषय जोरदार है। स्वयं शुद्धात्मा है। विकल्पकी ओरसे उसकी परिणति छूटती जाती है। स्वरूपमें स्थिर होता जाता है, उसमें स्थिर होता जाता है। उस ओरका उसे जोर है। दृष्टिका जोर है कि मैं शुद्धात्मा हूँ और स्वयं निज स्वरूपमें स्थिर होता जाता है। विकल्प ओरसे हटता जाता है और शुद्धात्मामें स्थिर होता जाता है।
निर्विकल्प अवस्था तो सहज है। उसमें उसे पुरुषार्थ करता हूँ या इस ओर आता हूँ, ऐसा कुछ नहीं है। परिणति, जो पहले पुरुषार्थ हुआ, जो स्थिर हुआ और विकल्पसे छूटा वह निर्विकल्प अवस्थामें सहज परिणति प्रगट हुयी, उसे विकल्प या .. मैं पुरुषार्थ करुँ और यह पुरुषार्थ, ऐसा कुछ नहीं है। सहज परिणति प्रगट हो गयी।
मुमुक्षुः- स्थिरता टिकती होगी वह पुरुषार्थ...
समाधानः- पुरुषार्थ है, पहले जो पुरुषार्थ किया वह पुरुषार्थ सहज हो गया। फिर उसे पुरुषार्थ करता हूँ, ऐसा ध्यान ही नहीं है। पुरुषार्थका ध्यान नहीं है। परिणति उसमें टिक गयी है। शुद्धात्मामें परिणति टिक गयी है। जैसा आत्मा था उस रूप प्रगट
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हो गया। फिर पुरुषार्थ करुँ, नहीं करुँ, ऐसा कोई विकल्प नहीं है, वैसा कोई ध्यान भी नहीं है। केवलज्ञान प्रगट हो तो कृतकृत्य दशा हो गयी। सिद्ध भगवानको कृतकृत्य हो गये, पुरुषार्थ करुँ ऐसा नहीं है। वैसे निर्विकल्प अवस्थामें मैं पुरुषार्थ करुँ, ऐसा नहीं है। पुरुषार्थ जो हुआ उसका फल आ गया। वह आंशिक फल आया। अभी पूर्ण नहीं है। उसका आंशिक फल आ गया। इसलिये उसे उस वक्त पुरुषार्थ करता है, ऐसा नहीं है।
पुरुषार्थका फल, जो शुद्धात्माका शुद्धात्माके वेदनरूप उसका फल आ गया। फिर बाहर जाता है तो वह अंतर्मुहूर्तकी स्थिति है। साधकदशामें पुरुषार्थ ... उसका आंशिक फल है। पुरुषार्थ प्रगट हो गया, आंशिक प्रगट हो गया वह वैसा ही रह जाता है। बुद्धिपूर्वकका कोई पुरुषार्थ नहीं है। भिन्न हो गया। वह पुरुषार्थका फल आ गया। पुरुषार्थरूप परिणति हो गयी।
श्रेणी चढते हैं उस वक्त उसे अबुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ होता है। बुद्धिपूर्वक नहीं होता। अबुद्धिपूर्वक श्रेणी चढते हैं। अबुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ है, बुद्धिपूर्वकका नहीं है। परिणति अपनी ओर झुकती जाती है। पुरुषार्थकी ओर ध्यान ही नहीं है। जिस रूप है वह वैसे ही रह गया। जो स्वरूप है, उस रूप स्वयं रह गया। अर्थात अपेक्षासे पुरुषार्थ है, परन्तु वह पुरुषार्थका फल है।
मुमुक्षुः- स्वरूपमेंसे बाहर आते हैं ऐसा कहते हैं, उस अपेक्षासे वह कमजोरीसे बाहर आते हैं।
समाधानः- वह पुरुषार्थ अमुक प्रकारका था। आंशिक निर्विकल्प अवस्था हो, फिर बाहर ही आता है। वैसी उसकी दशा है। वह पुरुषार्थ थोडा ही था। केवलज्ञान जितना पुरुषार्थ नहीं था, इसलिये वह बाहर आता है। स्थिर होनेका थोडा पुरुषार्थ था। अन्दर स्थिर हुआ, स्थिर होकर बाहर आता है। उसकी स्थिति ही अंतर्मुहूर्तकी है। उपयोगकी स्थिति अंतर्मुहूर्तकी ही है। पुरुषार्थ है लेकिन वह बल, चैतन्यकी ओरका बल जोरदार है, वह बल है। वह बल ऐसे ही रह गया। सहज है। पुरुषार्थ करनेकी कोई कृत्रिमता नहीं है।
अपनी डोर अपनी ओर खीँचता रहता है, वह कृत्रिमता नहीं है, सहज है। पुरुषार्थका बल सहज रहता है। अपनी ओर परिणति आ गयी सो आ गयी, फिर बुद्धिपूर्वकका पुरुषार्थ नहीं है। जागृति है। पुरुषार्थ प्रगट हो गया, लेकिन अभी पूरा नहीं है, अधूरा है। इसलिये बाहर आते हैं। क्षणमात्रके लिये सब छूट गया, परन्तु फिर बाहर आता है। दृष्टिका विषय है वह, बाहर जाय या अन्दर रहे, वह टिकी रहती है। लीनता अमुक क्षणकी ही थी, वह छूट गयी। फिरसे बाहर आते हैं।
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मुमुक्षुः- वह उपयोग ही वैसा है कि उतनी देर ही रहता है। समाधानः- बस, वह उपयोग अंतर्मुहूर्तकी स्थिति रहती है, फिर बाहर आते हैं। फिर पलट जाता है। बाहर आकर भेदज्ञानकी धाराका पुरुषार्थ चालू ही रहता है। विकल्प आये तो स्वयं भिन्न ही रहता है। ऐसी धारा उसकी चालू ही रहती है। फिर एकत्व नहीं होता है। ज्ञाताधाराकी परिणति चालू ही रहती है। भिन्न ही रहता है।