Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 119.

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ट्रेक-११९ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- करुणामूर्ति पूज्य भगवती माताको कोटि-कोटि वन्दन! बहिनश्री! एक प्रश्न है कि जीवका ज्ञान लक्षण जाननेसे लक्ष्य ऐसा आत्मा प्रसिद्ध होता है, ऐसा आगमवचन है। तो साथमें इन्द्रिय निग्रह, वैराग्यभाव, संसार प्रति विरक्ति इत्यादि भावोंकी आवश्यकता है या नहीं?

समाधानः- ज्ञानलक्षणसे ज्ञायक प्रसिद्ध होता है। ज्ञायक तो ज्ञानलक्षणसे ही प्रसिद्ध होता है। शास्त्रमें आता है और गुरुदेव भी बारंबार कहते थे कि ज्ञानलक्षण आत्माका असाधारण लक्षण है। उससे ज्ञायक प्रसिद्ध होता है। ज्ञानलक्षणसे ज्ञायक प्रसिद्ध होता है। परन्तु वह ज्ञायकको ग्रहण करता है, तो विरक्तिके बिना ज्ञायक ग्रहण नहीं होता है। ज्ञानलक्षणसे ज्ञायकको ग्रहण करे वहाँ विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण होता ही नहीं। इसलिये उसे ग्रहण करनेका मुख्य उपाय ज्ञानलक्षणसे ज्ञायक ग्रहण होता है। ज्ञानलक्षणसे ज्ञायककी प्रसिद्धि होती है।

वैराग्य बीचमें आये बिना, विभावसे भिन्न होकर ज्ञायकको ग्रहण करने जाय तो उसे वैराग्य आये बिना ज्ञायक ग्रहण होता ही नहीं। ज्ञायककी महिमा आये बिना, ज्ञायकका लक्षण जाने बिना ज्ञायक ग्रहण नहीं होता है। विभावसे विरक्त हो, संसारसे विरक्त हो तो ही ज्ञायक ग्रहण होता है। ऐसा उसे सम्बन्ध है। ज्ञानलक्षणसे ज्ञायकको ग्रहण करे, उसमें विरक्ति आये (बिना नहीं रहती)। सचमुचमें ग्रहण करे तो विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण होता ही नहीं। कोई बोलनेमात्र अथवा शुष्कतासे ग्रहण करे उसकी बात नहीं है। शुष्कतासे वैराग्य नहीं हो और ज्ञायक ग्रहण हो गया, ऐसा मान ले तो यथार्थ नहीं है।

आचार्यदेव तो यथार्थ बात करते हैैं कि ज्ञानलक्षणसे ज्ञायक प्रसिद्ध होता है। आत्माका असाधारण लक्षण ज्ञानलक्षण है। ज्ञानलक्षणसे ही ज्ञायक प्रसिद्ध होता है। परन्तु विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण होता ही नहीं। वह बीचमें आता ही है। जिसे ज्ञायक ग्रहण करना हो उसमें विरक्ति बीचमें आती ही है। बन्धो तणो स्वभाव जाणी, आत्माका स्वभाव जानकर बन्धसे विरक्त हो तो कर्ममोक्ष होता है। इस तरह जैसे चारित्रदशामें लीनतामें भी विरक्ति आती है, वैसे पहले ज्ञायक ग्रहण करनेमें भी विरक्ति होती है।


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चारित्रमें विशेष विरक्ति होती है। यह भी जो अन्दर विभावसे विरक्त होता है, वह विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण होता ही नहीं।

सम्यग्दर्शनमें अमुक अंशमें विरक्ति है। क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय छूट जाता है। अतः विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण नहीं होता। संसार प्रति उदासीनता, शुभाशुभ भावोंसे, सबसे विभावसे विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण होता ही नहीं, ऐसा उसे सम्बन्ध होता है। परन्तु मूल लक्षण ज्ञायक ग्रहण करनेमें ज्ञानलक्षणसे ग्रहण होता है। वह मात्र वैराग्य करता रहे और हेतु ज्ञायकको ग्रहण करनेका न रखे तो ज्ञायक ग्रहण नहीं होता है।

वैराग्य उसने अनन्त कालमें बहुत बार किया, परन्तु ज्ञायकको ग्रहण करनेका लक्ष्य नहीं था तो ज्ञायक ग्रहण नहीं हुआ। वैराग्यके साथ ज्ञायकको ग्रहण करनेका हेतु होना चाहिये। हेतु हो तो वह ज्ञानलक्षणसे, ज्ञायक तो ज्ञानलक्षणसे ग्रहण होता है। परन्तु उसके साथ वैराग्य आदि सब होता है। यथार्थ ज्ञायक कब ग्रहण होता है? विभावसे विरक्ति हो तो। सर्वथा विरक्ति बादमें होती है। परन्तु आंशिक विरक्ति और प्रतीतमें तो आ जाता है। विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण ही नहीं होता। ऐसा उसे सम्बन्ध है।

जहाँ ज्ञायक ग्रहण हुआ तो उसके साथ विरक्ति, ज्ञान, ज्ञायककी महिमा वह सब साथमें आ ही जाता है। और सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। उसके साथ सब गुण एक ज्ञायकको ग्रहण करनेसे, उसकी प्रतीत, उसका ज्ञान, उसकी लीनता आंशिक लीनता है। उसकी दिशा बदल जाती है। सर्व गुणोंकी दिशा स्वरूपकी ओर मुड जाती है। जो पर सन्मुख थी वह दिशा ज्ञायक ओर हो जाती है। सर्व गुणांश सम्यग्दर्शन। सब गुण उसके साथ प्रगट होते हैं। मुख्य लक्षण ज्ञायकको ग्रहण करनेका ज्ञानलक्षण है। ज्ञानलक्षण बिना ज्ञायक ग्रहण नहीं होता। वह उसका मूल असाधारण लक्षण है। ज्ञायकमें अनन्त गुण हैं, परन्तु वह ज्ञानलक्षणसे ही प्रसिद्ध होता है। उसीसे प्रसिद्ध होता है।

ज्ञायक ग्रहण होनेके बाद उसकी स्वानुभूति भी उसीसे होती है। उसके बिना,.. मूल बीजको ग्रहण करके फिर उसमेंसे वृक्ष होता है। परन्तु मूलको यदि ग्रहण न करे तो वृक्षमें फल, फूल आदि बादमें (पनपता है)। वह बीजको ग्रहण करे, बीचमें पानी दे तो वह वृक्ष होता है। ऐसे मात्र वैराग्यमें रुक जाय तो ज्ञायक ग्रहण नहीं होता। उसका हेतु ज्ञायकको ग्रहण करनेका होना चाहिये। परन्तु ज्ञायक अकेला रुखा ग्रहण नहीं होता। उसे विभावसे विरक्ति हो, यह सब आकुलता है, यह मेरा स्वभाव नहीं है, मेरा स्वभाव ज्ञायक है। ऐसे विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण नहीं होता। इस ओर छूटे तो यहाँ आये और इसे ग्रहण करे तो वह छूटे, ऐसा सम्बन्ध है। शुभाशुभ दोनों


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भावोंसे उसे विरक्ति होती है। देव-गुरु-शास्त्र साथमें होते हैं। उसे शुभभाव जबतक होते हैं तबतक होते हैं, परन्तु उसे हेयबुद्धिसे आते हैं। देव-गुरुका साथ उसे छूटता नहीं है। परन्तु वह शुभभाव आकुलतारूप है। इसलिये उसे सर्व प्रकारसे मैं तो निर्विकल्प शुद्धात्मा हूँ। इसी तरह उसे ग्रहण होता है। हेयबुद्धिसे सब आता है।

देव-गुरु-शास्त्र उसे निमित्तमें होते हैं, उपादान अपना होता है। देव-गुरु-शास्त्र, मुनि हों तो भी उन्हें विकल्प आता है, शास्त्र रचते हैं, वह साथमें होते हैं। परन्तु विरक्ति तो पहले आंशिक और बादमें अधिक विरक्ति (होती है)। विरक्तिका साथ तो होता ही है, विरक्ति तो होती ही है।

मुमुक्षुः- तबतक अध्यात्ममें प्रवेश ही नहीं होता।

समाधानः- अध्यात्ममें प्रवेश नहीं होता। उसकी संसार ओरकी रुचि छूटे तो ज्ञायक ग्रहण होता है। रुचि तो छूटनी चाहिये न। रुचि, बाहरकी एकत्वबुद्धि, बाहरकी पूरी-पूरी रुचि हो और ज्ञायक ग्रहण करनेकी बात करे तो ऐसे ज्ञायक ग्रहण नहीं होता। रुचि अंतरमेंसे छूट जानी चाहिये। यह कुछ मुझे नहीं चाहिये। यह सब दुःखमय है, यह सब आकुलतामय है। पूरा संसार दुःखमय है। सुख एवं शान्ति मेरे आत्मामें है। यह विभाव, विकल्पकी जाल दुःखमय है। विकल्पकी जालमें उसे कहीं शान्ति नहीं लगती। ऐसी विरक्ति अंतरमेंसे आनी चाहिये, तो ज्ञायक ग्रहण होता है। रुचि तो छूट जानी चाहिये। और स्वभाव ओर रुचि जागृत होनी चाहिये।

रुचि छूटे और अपना अस्तित्व ग्रहण करनेका ध्येय न हो तो ग्रहण नहीं होता है। वैराग्य करे, परन्तु रुचि अस्तित्व ग्रहण करनेका ध्येय होना चाहिये, ध्येय साथमें होना चाहिये। उसमेंसे ज्ञायक ग्रहण करे, उसमेंसे ही उसे भेदज्ञानकी धारा, सबकुछ उसीमेंसे होता है। उतना कल्याणरूप, परमार्थभूत है जितना यह ज्ञान है। ज्ञान अर्थात ज्ञायक है। उतना परमार्थरूप सत्यार्थ कल्याणरूप है, यह ज्ञान है। यह ज्ञान उसे शुष्क नहीं लगता, ज्ञान भरपूर भरा है। ज्ञान ज्ञायक पूरा महिमासे भरा है। ज्ञान अर्थात मात्र जानपना नहीं। ज्ञायक स्वतः ज्ञानस्वरूप है। ज्ञायक पूरा अनन्त महिमासे भरा ज्ञायक अनन्त गुणसे भरा है। ज्ञान यानी मात्र जानना ऐसा अर्थ नहीं है। ज्ञायक ग्रहण करनेमें उसे जितना परमार्थरूप, सत्यरूप, कल्याणभूत हो तो यह ज्ञायक है-ज्ञान है वही है।

अब उसे प्रगट कैसे करना? कि ज्ञायकको ज्ञानलक्षणसे (ग्रहण करना)। ज्ञानलक्षणसे ग्रहण करने कैसे जाय? कि विरक्ति आये बिना ग्रहण नहीं होता। दोनोंका सम्बन्ध है। ग्रहण करनेका मुख्य लक्षण ज्ञानलक्षण है।

मुमुक्षुः- चारित्रसे पहले शुरूआत करनी ऐसा कुछ नहीं है।

समाधानः- नहीं। उसे ज्ञानलक्षणसे ही ग्रहण करे। ऐसा कहा न? कहा न, ज्ञानलक्षणसे


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उसकी शुरूआत उस ओरसे होती है। परन्तु वैराग्य उसे साथमें आये बिना नहीं रहता। बाहर रचपचा हो, रससे भरा हो और (कहे कि) मुझे ज्ञायक प्रगट हुआ है, वह सब बोलनेकी बात है। वह शुष्कता है।

मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेवको कोटि-कोटि वन्दन! प्रशममूर्ति पूज्य भगवती माताका धर्म- प्रभावना उदय जयवंत वर्तो! आपश्रीको हमारे कोटि-कोटि वन्दन। मंगलमय मंगल करण, वीतराग विज्ञान, नमों तेथी थया अर्हंतादि महान। पूज्य माताजी! इस जन्मोत्सवके मंगल अवसर पर, यहाँ उपस्थित मुमुक्षुवृन्दकी ओरसे एक आध्यात्मिक जिज्ञासा है। उस विषयमें आपके श्रीमुखसे मांगलिकरूपसे दो शब्द सुननेके लिये हम उत्सुक हैं।

प्रश्न है कि रागादि भाव होनेपर भी उसी वक्त आत्मा शुद्ध कैसे हो सकता है? और राग और आत्माकी भिन्नता कैसे समझमें आये? तथापि अनादिकालसे राग-द्वेषके साथ एकतारूप परिणमन करता हुआ आत्मा भिन्नपने किस विधिसे परिणमे? यह आप समझानेकी कृपा कीजिये।

समाधानः- गुरुदेवने रागादिसे भिन्न आत्मा (बताया है)। गुरुदेवने सब समझाया है। गुरुदेवका परम उपकार है। मैं तो गुरुदेवका दास हूँ। गुरुदेवने तो सूक्ष्म-सूक्ष्म (समझाया है)। शास्त्रोंके रहस्य गुरुदेवने खोले हैं। रागादि होनेपर भी शुद्धता कैसे है? यह गुरुदेवने बहुत स्पष्ट करके समझाया है। जिस वक्त रागादि है, उसी समय आत्मामें शुद्धता है। आत्मा द्रव्यसे तो शुद्ध है, परन्तु पर्यायमें अशुद्ध है। द्रव्य अशुद्ध नहीं हो गया है। द्रव्य तो स्वभावसे शुद्ध ही है। परन्तु रागकी एकत्वबुद्धिके कारण पर ओरकी रुचिके कारण वह ख्यालमें नहीं आता है।

उसका भेदज्ञान करे तो हो सके ऐसा है। उस ओरकी जिज्ञासा, भावना, आत्माकी रुचि लगाये, पर ओरकी महिमा छूट जाय और ज्ञायककी महिमा लगे तो ज्ञायक समझमें आये ऐसा है। महिमा लगे, उस प्रकारके विचार करे, उस प्रकारका तत्त्वका चिंवतन करे तो समझमें आये ऐसा है।

जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र सबने मार्ग बताया है। कैसा मार्ग बताया है, वह स्वयं विचार करके तत्त्वसे निर्णय करके विचार करे तो ज्ञायकस्वभाव उसी वक्त मौजूद है। जिस समय रागादि है, उसी समय शुद्धता भरी है। वह शुद्धात्मा पूर्ण स्वरूपसे भरा है। उसमें द्रव्य अपेक्षासे अशुद्धता नहीं हुयी है, परन्तु पर्यायमें अशुद्धता है। चैतन्यदेव, ज्ञायकदेव स्वयं देवस्वरूप विराजमान है।

जिनेन्द्र देवने ज्ञायकदेवका स्वरूप बताया। गुरुदेवने उस दिव्यमूर्ति ज्ञायकदेवका स्वरूप बताया है। रागादिमें सर्व प्रकारसे रागरूप नहीं हुआ है। उसी समय वह द्रव्य अपेक्षासे शुद्ध है। उसके स्वभावका नाश नहीं हुआ है। स्वभाव तो अनादिका शुद्ध ही है।


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जैसे पानी अग्निके निमित्तसे गर्म होता है तो भी पानीकी शीतलताका नाश नहीं होता है। वैसे आत्मा ज्ञायक स्वभाव अनादिअनन्त है। उसे ज्ञायकताका नाश नहीं होता है। वह अनन्त गुणोंसे भरपूर अपूर्व महिमावंत आत्मा है। उसकी महिमा करे, उसका विचार करे। तत्त्वसे उसका विचार करके निर्णय करे, उसमें लीनता करे, उसका भेदज्ञान करे तो वह समझमें आये ऐसा है। एकत्वबुद्धि होनेपर भी, विभाव होनेपर भी उसका नाश नहीं हुआ है। वह तो वैसाका वैसा अनादिअनन्त है। उसका भेदज्ञान करके देखे।

जैसे स्फटिक स्वभावसे शुद्ध और निर्मल है, परन्तु पर निमित्तसे लाल, काला जो प्रतिबिम्ब उठते हैं, उस प्रतिबिम्बरूप परिणमन स्फटिकका (होता है), परन्तु स्फटिक मूल स्वभावसे स्फटिकको छोडकर, उसकी निर्मलता छोडकर रंगरूप नहीं होता है।

वैसे आत्मा अपना द्रव्यत्व जो स्वभाव ज्ञानस्वरूप है, शुद्ध है, उसे छोडकर वह विभावरूप नहीं हुआ है। उसका भेदज्ञान हो सके ऐसा है। एकत्वबुद्धि होनेपर भी वह भिन्न देखे कि जितना ज्ञान है वही मैं हूँ। ज्ञानके अतिरिक्त राग-द्वेषादि है, वह मेरा स्वरूप ही नहीं है। शुभाशुभ विकल्पसे भी भिन्न, गुणभेद, पर्यायभेद पडे उसे जाने। विभावसे स्वभावभेद है। गुण एवं पर्यायसे उसे लक्षणभेद और अंश-अंशीका भेद है। बाकी कथंचित गुणके साथ... गुण और द्रव्य अभेद है, और पर्याय भी उसके साथ अभेद है। परन्तु कथंचित भेद है। लक्षणसे और अंश-अंशीका भेद है।

द्रव्य अनादिअनन्त शाश्वत है और अभेद है। और गुण कोई अपेक्षासे उसमें लक्षणभेद और पर्यायका अंश-अंशी (भेद है)। पर्याय पलटती है, द्रव्य एकरूप अनादिअनन्त रहता है। विभाव और स्वभावका विभावके साथ भेद है। उन सबका ज्ञान करके, प्रतीत करके अन्दर जाय तो वह पहचाना जाय ऐसा है। जे शुद्ध जाणे आत्मने, ते शुद्ध आत्म ज मेळवे। जो आत्माको शुद्ध जाने वह आत्माकी शुद्ध पर्याय प्रगट करता है। शुद्धात्माका अनुभव करता है। रागमें शुद्धात्माका अनुभव नहीं है। द्रव्य अपेक्षासे शुद्ध आत्मा हाजिर है, परन्तु उसकी पर्याय यदि पलटे, ज्ञायककी परिणति पलटे, ज्ञायक- ज्ञायककी परिणति ज्ञायकरूप हो जाय तो उसमें उसे ज्ञाताकी धारा प्रगट हो और स्वानुभूति प्रगट हो और उसीमें उसे मुक्तिका मार्ग, मुनिदशा आदि सब उसी मार्ग पर आती है। यदि वह .. करे तो अंतर्मुहूर्तमें होता है और न करे तो उसे काल लगता है। परन्तु स्वयंके पुरुषार्थकी कचास है इसलिये होता नहीं है।

गुरुदेवने मार्ग बताया है, उस मार्गकी बारंबार स्वयं प्रतीति करके ज्ञायकका रटन करे तो वह पहचाना जाय ऐसा है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा लक्ष्यमें शुभभावमें रखे। भले शुभाशुभ भावसे आत्माका स्वभाव भिन्न है, परन्तु बीचमें अशुभसे बचनेके लिये शुभभाव आते हैं। वह आते हैं, परन्तु अपना स्वभाव नहीं है। वह हेयबुद्धिसे आते


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हैं। परन्तु बीचमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, तत्त्वका चिंतवन जिज्ञासाकी भूमिकामें होते हैं। ज्ञायकके ध्येयसे होता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! कहानगुरुनुं हार्द समजावनार भगवती

मातनो जय हो! जन्म जयंति मंगल महोत्सवनो जय हो!

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