Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 123.

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ट्रेक-१२३ (audio) (View topics)

समाधानः- .. एक ही है। एक ही करनेका है, गुरुदेवने कहा न कि, आत्माकी स्वानुभूति प्रगट करनी। स्वभाव है, अंतरमेंसे स्वानुभूति प्रगट करनी। गुरुदेवने बताया है, करना तो स्वयंको है। गुरुदेवकी हम सब पर बहुत कृपा थी। बरसों तक लाभ दिया। गुरुदेव जहाँ विराजते हो, वहाँ जीव जाय तो .. हो। जैसे भाव, स्वयं देव- गुरु-शास्त्रकी महिमाके और देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यकी भावना हो तो वह योग मिल जाता है। जीव जो अंतरमें भावना करता है, अंतरसे भावना (करता है) तो वह योग मिल जाता है।

समाधानः- .. संसारमें जन्म-मरण, जन्म-मरण तो चलते ही रहते हैं। इस भवमें भवका अभाव हो ऐसा मार्ग गुरुदेवने बताया है। उसका श्रवण मिले और वह ग्रहण हो, रुचि हो, सच्चा तो वह है। जीवनकी सफलता तो है। जीवने ऐसे जन्म-मरण कितने ही अनन्त किये हैं। कितने देवके भव किये, कितने मनुष्यके किये, तिर्यंचके, नर्कके अनन्त-अनन्त भव किये। इस भवमें इस पंचमकालमें ऐसे गुरुदेव मिले और ऐसा मार्ग मिला तो भवका अभाव हो, आत्माक स्वरूप समझमें आय, वह आनन्दकी बात है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- सब विचार बदल देना। संसारका स्वरूप ही ऐसा है। जन्म-मरण, जन्म-मरण.. जो कोई आता है, उसका देह परिवर्तन तो होता ही रहता है। आत्मा शाश्वत है। आत्मा जहाँ जाय वहाँ शाश्वत रहता है। आत्मा तो शाश्वत है। देहका परिवर्तन होता है। .. एक-एक आकाशके प्रदेशमें अनन्त बार जीवने जन्म-मरण किये हैं। कितने परावर्तन किये हैं, उसमें कुछ बाकी नहीं रखा है। कितने ही पुदगल जगतके ग्रहण करके छोड दिये। इस भवमें गुरुदेव मिले वह महाभाग्यकी बात है। सब प्राप्त हो गया है। ऐसे गुरुदेव, यह सम्यग्दर्शन यह सब अपूर्व है। सुनने मिलना मुश्किल है।

ऐसे देव-गुरु-शास्त्र मिलने, ऐसा सुनना, यह सम्यग्दर्शन, स्वानुभूति आदि सब अपूर्व है। वह करने जैसा है। .. देव-गुरु-शास्त्र, दूसरा सब हेय है। .. जीवको मिल गया है। .. कितने ज्ञानमें, कितने वैराग्यमें, कितनी महिमामें आगे बढे हैं। कितनी विरक्तिमें


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(आया है), यह सबको विचारने जैसा है।

समाधानः- .. केवली भगवानको उपयोग (नहीं रखना पडता), उनको सहज होता है। स्वको और परको एकसाथ जानते हैं। उनकी परिणति वैसी ही है। छद्मस्थको एक के बाद एक उपयोग रखना पडे, वैसे केवलज्ञानीको उपयोग नहीं रखना पडता। स्वयं स्वको जाननेमें पर ज्ञात हो जाता है, सहज ज्ञात हो जाता है। परिपूर्ण हो गये हैं, वीतराग दशा (पूर्ण हो गयी है)। स्वयं स्वभावमें लीन हो गये हैं। लीनतामें ज्ञानकी उतनी निर्मलता प्रगट हो गयी है कि उन्हें सहज ज्ञात होता है।

अनन्त शक्ति संपन्न ज्ञान है, ज्ञानमें कोई मर्यादा नहीं होती। ज्ञान परिपूर्ण जानता है। लेकिन उसे बाहर देखने नहीं जाना पडता। सहज परिणमते हैं। ज्ञानमें मर्यादा नहीं होती कि इतना ही जाने या इतना ही जाने, ऐसी मर्यादा ज्ञानमें नहीं होती। वह तो सहज जानते हैं। स्वको जाननेपर पर सहज ज्ञात होता है। स्वज्ञेय और परज्ञेय सबको केवलज्ञानी सहज जान लेते हैं। स्वपरप्रकाशक उसका स्वभाव है। परज्ञेयकमें एकत्व नहीं होते, फिर भी सहज जानते हैं।

मुमुक्षुः- ... पुरुषार्थकी धारा स्वकी ओर है, वैसे केवलज्ञान होनेके बाद वैसी ही रहती है?

समाधानः- .. स्वकी ओर धारा है वह तो साधकदशा है। केवलज्ञानीकी तो सहज दशा है। सातवेँ गुणस्थानके बाद तो श्रेणी चढे हैं। वह तो पुरुषार्थकी धारा है। केवली भगवान तो कृतकृत्य हो गये हैं। उन्हें .. सहज है। केवलज्ञानकी तो कृतकृत्य हो गये हैं। जो अंतरमें उपयोग गया सो गया, सहज स्वयं अपनेमें वीतरागदशारूप परिपूर्ण परिणमित हो गये। उन्हें अनन्त गुण-पर्याय जो सहज थे, वह सब प्रगट हो गये हैं, वेदनमें आ गये हैं।

सातवेँ गुणस्थानके बाद तो श्रेणी चढे हैं, वह तो साधकदशा है। उन्हें सातवेँ गुणस्थानमें भले बाहर उपयोग नहीं है, परन्तु वह तो साधकदशा है। उसमें कोइ परिपूर्ण वीतरागता प्रगट नहीं हुयी है। छद्मस्थ (दशा है)। उसमें लोकालोक ज्ञात नहीं होता है। स्वकी ओर अवलम्बन है।

.. धारा एकदम वीतरागदशाकी ओर उसकी परिणतिकी धारा शुरू हुयी है। अबी वीतरागदशा प्रगट नहीं हुयी है। ज्ञानकी परिपूर्णता नहीं है। केवलज्ञानीका वीतरागताका ज्ञान परिपूर्ण परिणमित हो गया है।

मुमुक्षुः- केवली भगवान.. ऐसा नहीं होता।

समाधानः- .. उन्हें करना नहीं पडता, उन्हें पुरुषार्थकी धारा शुरू हो गयी है। केवलज्ञानीको पुरुषार्थकी धारा नहीं है, वे तो कृतकृत्य हैं। जो करनेका था वह कर


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लिया है। कृतकृत्य वीर्य अनन्त प्रकाश जो। कृतकृत्यता हो गयी है।

मुमुक्षुः- .. शरीराकार ऐसा ख्यालमें लेना?

समाधानः- ऐसा कुछ नहीं है। शरीराकार ख्यालमें लेना पडे ऐसा नहीं है। उसका ज्ञायक स्वभाव ख्यालमें लेना है। स्वभावसे ख्यालमें लेना है, आकारसे ख्यालमें नहीं लेना है। आकार तो, उसका ज्ञान होता है कि असंख्य प्रदेशी आत्मा है। आकारसे ख्यालमें लेना (नहीं है)।

समाधानः- .. कोई भविष्यका वादा नहीं करता। जिसे धर्मकी रुचि हो भविष्यका वादा नहीं करता। और इस पंचमकालमें तो क्या भरोसा है? अतः अन्दर जो धर्मकी रुचि हो वही सत्य है। बाकी संसार तो चलता ही है।

मुमुक्षुः- बहिनश्री! आपने कहा कि बाहरके कार्य तो चलते ही रहते हैं, वह अपनेआप होते हैं?

समाधानः- वह स्वयंको राग है, रागके कारण हुए बिना रहते नहीं। राग कहाँ उसने तोडा नहीं है, रागके कारण होता ही रहता है। उसकी तीव्रता कम करके धर्मकी रुचि बढानी, वह सत्य है। मैं चैतन्यस्वरूप ज्ञायक आत्मा, कैसे प्रगट करुँ? वह करने जैसा है। राग है, उस रागके कारण सब होता रहता है। स्वयंने राग कहाँ तोडा है? अच्छे काम पहले करता है, वैसे धर्म पहले करना, ऐसा है। महापुरुष तो, गुरुदेव ऐसा ही कहते थे, धर्म पहले करना।

.. महिमा करनी, चैतन्य कैसे जाननेमें आये, वह सब जीवनमें करने जैसा है। भगवानको केवलज्ञान हुआ, उसकी वधामणी आती है। चक्ररत्न प्रगट हुआ, उसकी वधामणी आती है। तो प्रथम उत्सव भगवानके केवलज्ञानका करते हैं कि प्रथम मुझे धर्म है, बादमें मुझे यह है। ऐसा करते हैं।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- शास्त्रका अभ्यास करना और देव-गुरुकी महिमा हृदयमें रखनी। बाहरसे संयोग तो नहीं है, हृदयमें रखना। गुरु और देवको हृदयमें रखना, शास्त्रका अभ्यास करना। शास्त्रमें क्या मुक्तिका मार्ग बताया है, उसका विचार करना। .. वह तो अपनी शक्ति अनुसार सुलझाये दूर बैठे-बैठे। वहाँ तो एक शास्त्र होते हैं, देव-गुरु तो समीप नहीं है। .. हुआ हो तो वहीका वही, वहीका वही करता ही रहता है। ऐसे आत्माकी रुचि हो तो उसकी अपूर्वता लगे तो उसमें थके नहीं। गुरुदेवने कोई अपूर्वता बतायी है, उस अपूर्व मार्ग पर जाने जैसा है।

मुमुक्षुः- रात और दिन एक धुन।

समाधानः- बस, एक ही धुन यहाँ तो (है)। आत्मा स्वानुभूतिका मार्ग, भेदज्ञान


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और स्वानुभूति। आत्माकी दशा कोई अपूर्व... वह कैसे प्रगट हो, यही करने जैसा है। आत्माकी दुनिया कोई अलग ही है, वह प्रगट कर। गुरुदेव जहाँ बसे वहाँ सब अलग है तो आत्मा तो उससे भी अलग है।

मुमुक्षुः- .. वह क्षेत्र ऐसा अलग लगे तो..

समाधानः- वह बात तो उससे भी अलग है।

मुमुक्षुः- अपनी सुबहकी पूजा कोई देखे, एक पूजा देखे कि सोनगढमें कैसी पूजा होती है, तो भी ऐसा अहोभाव आये कि ऐसी पूजा किसीने देखी नहीं होगी। समूह पूजा होती है, वह भी ऐसी कोई...

समाधानः- भाववाही सबको होती है।

मुमुक्षुः- सबके हाथमें पुस्तक, अर्थसहित समझना..

समाधानः- अपूर्व मार्गकी लाईन बता दी है। कोई भूल न करे इतना स्पष्ट कर दिया है। जीवको अनादिकालसे पुण्यकी और शुभभावकी मीठास छूटनी मुश्किल है। वह मुश्किल है। गुरुदेवने तो कहाँ ऊडा दिया।

... भगवानके समवसरणमें जाता है, भगवानकी ध्वनि सुनने। पहले वह उत्सल करना है। भगवानको केवलज्ञान हुआ, बाकी सब बादमें। संसार मुख्य नहीं है, धर्म ुमुख्य है। इतना करनेके बाद धर्म बादमें, बुढापेमें करेंगे, वह सब तो वादे हैं। धर्म तो साथमें ही रहना चाहिये। संसारका तो होता रहता है, वह तो राग पडा है तो हुए बिना रहेगा नहीं। इसके बाद करुँगा, इसके बाद करुँगा, एकके बाद एक आते ही रहता है। पूरा ही नहीं होगा। इसलिये गुरुदेवने कहा न कि तुझे मकडीकी झाल लगेगी। ... यह काम करो और वह काम करो। ...

प्रवृत्तिके योगमेंसे निवृत्तिका योग खोज लेना। आत्मा निवृत्त स्वरूप है। आत्माकी ओर कैसे मुडना वह अन्दरसे खोजते ही रहना। देव-गुरु-शास्त्रके प्रसंगोंमें मुझे ज्ञायक मुख्य है। सब प्रसंगमें मुझे आत्मा मुख्य है, मुझे भेदज्ञानकी धारा और ज्ञायक, चैतन्यदेव मुख्य है। देव-गुरु-शास्त्रको मुख्यरूपसे रखकर बाकी सब बादमें।

... बाह्य संयोगमें तुने अन्दरको ज्ञाताको पहचाना होगा, कुछ आराधना की हो, कुछ समझ की हो, तत्त्वके विचार किये हो तो वह सब तुझे काम आयेगा। देव- गुरु-शास्त्रकी आराधना, ज्ञायककी आराधना तुझे काम आयेगी। यह बाहरका कुछ काम नहीं आयेगा। बाहरसे बहुत करता हो, परन्तु वह सब उस वक्त साथ नहीं देते। बाहरसे ऊपर-ऊपरसे करे, थोडा वांचन कर ले, थोडा त्याग कर ले, लेकिन वह क्या काम आये? अंतरसे हृदयका भेद होकर अन्दर रुचि हुयी हो कि अहा..! यह सब भिन्न है, यह आत्मा नहीं है। यह सब आकुलतारूप है। अन्दर ... सुख अन्दर है। ऐसे


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अन्दर हृदयका भेद होकर जो हुआ हो और सुख हो वह अलग होता है। यह कोई बाहरमें.. अभी लौकिकमें आता है न? लोग उपवास करते हैं, ... उसमें किसीका मरण होता है, ऐसा पेपरमें आता है।

.. अन्दरसे ज्ञायकको प्रगट करना, भेद करना है विभाव और स्वभावमें, ऐसा अंतरमें होकर हो वह अलग होता है। ज्ञायककी धारा प्रगट हो वह अलग प्रगट होती है। उसके सहित जो शुभ परिणाम आवे वह अलग बात है।

.. अपूर्व मार्ग बताया है। उस मार्ग पर जाय तो अंतरमेंसे ज्ञायक प्राप्त हो, भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो, शान्ति प्रगट हो, स्वानुभूति हो, सब उसी मार्गसे होता है। देशव्रत भी आये, उस मार्गपर मुनिपना आता है, सबकुछ उस मार्ग पर आता है। ज्ञायकको ग्रहण कर, भेदज्ञानकी धारा कर, स्वानुभूति प्रगट कर, सब उसी मार्ग पर प्रगट होता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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