Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 122.

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ट्रेक-१२२ (audio) (View topics)

समाधानः- ...अपनी उतनी लगन नहीं है, रुचि नहीं है तो नहीं करता है। लगन हो तो करता है। इतना विचार, वांचन करे तो भी पुरुषार्थ करना तो अलग चीज है। स्वाध्याय करे, विचार करे, देव-गुरु-शास्त्र आदि सब बीचमें होता है। परन्तु भीतरमें पुरुषार्थ करना कोई दूसरी चीज है। पुरुषार्थ करना अपने हाथकी बात है। उसे उतनी लगन लगे कि मैं आत्माको कैसे पहचानुँ और कैसे भेदज्ञान करुँ?ल ऐसा क्षण-क्षणमें मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा पुरुषार्थ करे तो होता है, नहीं करे तो नहीं होता है। लगन बाहर लगी है, उतनी लगन भीतरमें लगे, कहीं चैन नहीं पडे, मैं ज्ञायक, मैं ज्ञायक सबसे भिन्न हूँ। मैं चैतन्य अनादिअनन्त शाश्वत तत्त्व हूँ। ऐसे जो विकल्प उठता है वह विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है, वह तो आकुलतारूप है। मैं शान्त स्वभाव निराकुल ज्ञायक हूँ। ऐसा यदि बारंबार पुरुषार्थ करे, अभ्यास करे तो शुरू हो, रुचिकी तीव्रता हो तो शुरू हो। और रुचि उतनी नहीं हो तो शुरू नहीं होता। पुरुषार्थ करना अपने हाथकी बात है।

मुमुक्षुः- रुचिके कारण ही सब विचार करते हैं, चिंतवन करते है। रुचिकी कमी कैसे है? पकडमें तो आती नहीं।

समाधानः- पकडमें नहीं आती है। पुरुषार्थ नहीं होता है उसका कुछ कारण अपना ही है। दूसरे किसीका कारण नहीं है। बाहरमें अटक जाता है और भीतरमें नहीं जाता है तो अपना कारण है। बाहरमें रुचि लग जाती है और जिसको रुचि हो कि मैं अंतरमें कैसे जाऊँ? अंतरमें कैसे जाऊँ? उतनी लगन लगे, दिन-रात उसकी खटक, भेदज्ञान (करे)। मैं भिन्न हूँ, सबसे भिन्न हूँ। जो परिणाम आता है वह भी मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो चैतन्य निर्विकल्प तत्त्व ज्ञायक हूँ। इतना पुरुषार्थ करना अपने हाथकी बात है। दूसरा कोई कारण नहीं है।

भेदज्ञानकी धारा और निरंतर उसका अभ्यास करना। मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ। अनादिअनन्त शाश्वत तत्त्व, जो विकल्प है वह सब आकुलतारूप है। मेरेमेंं आनन्द, ज्ञान, सब मेरेमें है। बाहरमें आनन्द नहीं लगे, बाहरमें सुख नहीं लगे, बाहरमें परिणति टिके ही नहीं। अंतरमें जाये तो पुरुषार्थ शुरू हो। रुचिकी तीव्रता होनी चाहिये। रुचि


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मन्द होती है तो पुरुषार्थ शुरू नहीं होता। कारण नहीं होता है तो कार्य नहीं आता है। अपना ही कारण है, दूसरा कोई कारण नहीं है।

मुमुक्षुः- रुचिकी तीव्रता कैसे हो?

समाधानः- सबका एक ही कारण है। करे तो होता है, नहीं करे तो नहीं होता है। कारण अपना ही है। जो बाहरमें अटक जाता है वह नहीं अटके और भीतरमें जाये तो होता है। बाहरमें अटकनेसे नहीं होता है। एक ही कारण अपना है, दूसरे किसीका कारण नहीं है।

मुमुक्षुः- दिनभर विचार तो चलता है, दिनभर भेदज्ञानका विचार चलता है। वह टिकता नहीं है, बाहरमें प्रवृत्तिमें मन जाता है। दूसरेका विचार तो आता है, मन जाता है, उसमें .. कैसे आये?

समाधानः- बाहर तो भीतरमें अनादिका अभ्यास है तो बाहर जाता है। शुभ परिणाममें भी रहता है। परन्तु शुभ भी चैतन्यका मूल स्वभाव नहीं है। शुभ अपना स्वभाव नहीं है। जब भीतरमें शुद्धात्मा नहीं प्रगट होवे, तब तत्त्व विचार, देव-गुरु- शास्त्रकी महिमा आदि सब होता है। परन्तु ऐसी लगन तो होनी चाहिये कि जो- जो कार्य होवे उसमें मैं ज्ञायक हूँ, मैं चैतन्य हूँ। ऐसी भीतरमेंसे, ऊपर-ऊपरसे नहीं, अंतरमेंसे अपना पुरुषार्थ करना चाहिये।

जैसे स्फटिक निर्मल है, वैसे मैं निर्मल हूँ। ऊपर जो प्रतिबिंब दिखता है वह मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो निर्मल हूँ। ऐसा बारंबार, बारंबार, बारंबार उसका अभ्यास करना चाहिये। उस रूप जब परिणति होवे तब हो सकता है। अभ्यास करना चाहिये। बाहरका अभ्यास कैसे करता है? बाहरका तो अनादिका अभ्यास है तो ऐसे ही चलता रहता है। उतना अभ्यास भीतरमें करना चाहिये, जरासा करे फिर (छूट जाता है)। रुचिकी क्षति है। रुचि करना, अपना ही कारण है, दूसरा कोई कारण नहीं है।

अकारण पारिणामिक द्रव्यका कोई कारण नहीं है, अपना कारण है। अनादि कालसे परिभ्रमण किया तो अपने कारणसे। और नहीं होता है अपने कारणसे। जो होता है अपने कारणसे होता है। दूसरा कोई करता नहीं। देव-गुरु-शास्त्र निमित्त हैं। उपादान तो अपना है, अपनेको करना पडता है, दूसरा कोई करता नहीं।

मुमुक्षुः- अपना ... क्यों नहीं करना चाहता है?

समाधानः- .. नहीं करना चाहता है, लेकिन ऐसा बोलता रहे या ऐसा रटन करता रहे कि इसमें दुःख है, सुख नहीं है, ऐसा है, वैसा है। पुरुषार्थ नहीं करे तो कैसे होवे? चाहता नहीं है। सुख तो सब इच्छते हैं। बोलनेसे नहीं होता है। कार्य करनेसे होता है।


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मुमुक्षुः- रटन करना पुरुषार्थ नहीं है?

समाधानः- रटन करना पुरुषार्थ नहीं है। कार्य करना पुरुषार्थ है।

मुमुक्षुः- विचारनेका भी मना कर दिया आपने, ... उससे आगे कहाँ जाय?

समाधानः- रटन करनेसे नहीं होता है। भीतरमें अभ्यास करनेसे, स्वभाव पहचाननेसे होता है। किसीको अंतर्मुहूर्तमें होता है, वह अपने पुरुषार्थसे होता है। नहीं होता है वह अपने कारणसे नहीं होता है। परिणति पलटना, मात्र रटन करनेसे नहीं होता है।

शास्त्रमें आता है, मैं बन्धा हूँ, बन्धा हूँ, ऐसे बन्धनका विचार करनेसे बन्धनकी बेडी नहीं टूटती। तोडनेका कार्य करे तो बन्धन टूटे। प्रज्ञाछैनी जब प्रगट होवे तब कार्य होता है। मात्र विचार करे कि मैं बन्धा हूँ, मैं बन्धा हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं ऐसा हूँ, विभाव है, इतना रटन करनेमात्रसे नहीं होता है, कार्य करनेसे होता है।

मुमुक्षुः- कार्य करनेके लिये कैसे तैयार हो?

समाधानः- अपने आप तैयार होना चाहिये, स्वयं। आत्मा स्वतंत्र है। कोई रोकता नहीं है। उसे कोई रोकता नहीं है, अपने कारणसे स्वयं रुका है, पुरुषार्थ करे तो अपने आपसे होता है। किसीका कारण नहीं है। अनादि कालका कितना अभ्यास किया है। इतना सहज हो गया कि विचारना भी नहीं पडता। विभाव तो सहज चलता रहता है। ऐसे स्वभाव ओरका अपना अभ्यास तीव्र करना चाहिये।

मुमुक्षुः- आपने कैसे किया था? आप अपना बता दीजिये, हम तो वैसे ही करेंगे।

समाधानः- भीतरमेंसे इतनी तीव्रता होवे तब होता है। कहीं चैन न पडे। क्षण- क्षणमें रात-दिन उसकी लगन लगनी चाहिये। दिन-रात चैन नहीं पडे। रुकता है तो अपना प्रमाद है। कार्य नहीं करता है तो दरकार नहीं है। मात्र उससे नहीं होता है, कार्य करनेसे होता है।

(तोडनेका कार्य) करे तो बेडी टूटती है। बोलनेसे नहीं टूटती। कहीं चैन नहीं पडे। आश्रय नहीं लगे, अपने आश्रयसे सुख लगे। जब निरालम्बन हो जाय कि परका आलम्बन मुझे सुख नहीं देता है। चैतन्य द्रव्य पर दृष्टि करके, उसका ज्ञान करके, उसकी परिणति तीव्र करे तब होता है। अपने आश्रयको दृढ करे तो। और परसे छूट जाय तब। परका आलम्बन लेनेमें सुख लगता है तो नहीं होता है।

मुमुक्षुः- ऐसा वेदनका जोर आता है वह भी परालम्बन है?

समाधानः- परालम्बन है तो भी सब साथमें आता है। इसलिये परालम्बन है। परिणति ज्ञायक ओर करनी चाहिये। नहीं हुआ है तब तो ऐसा विकल्प बीचमें आता है। जब सहज परिणति नहीं हुयी, जब स्वानुभूति नहीं हुयी, सहज दशा नहीं हुयी तो विकल्प तो बीचमें आता है। परन्तु ज्ञायकका स्वभाव ग्रहण करके, उस ओर दृष्टि


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करके अभ्यास करना चाहिये। ... ऐसा भीतरमेंसे ज्ञायकको ग्रहण करके बारंबार उसका अभ्यास करना चाहिये। बीचमें विकल्प तो साथमें रहता है। जबतक निर्विकल्प दशा नहीं हुयी हो तबतक।

उस दिन कहा न? छाछ और मक्खनको बिलोते-बिलोते वह मक्खन भिन्न हो जाता है। ऐसे अभ्यास करनेसे होता है।

मुमुक्षुः- अभ्यासरूप वेदनकी अधिकता हो तो अन्दर परिणति ...?

समाधानः- अभ्यासकी तीव्रता होवे, उस ओर परिणति झुके तब उसकी तीव्रता होवे तो विकल्प टूटे। जब मन्दता रहे तब नहीं टूटती। तीव्रता होवे तब टूटती है। .. कारण अल्प है इसलिये कार्य नहीं होता है। कारण कम है तो कार्य नहीं आता है। कारण अपना पूरा होवे तब कार्य आता है। शिवभूति मुनिको एक क्षणमें हो गया और किसीको देर भी लगती है। पर सबमें कारण अपना ही है, दूसरा कोई कारण नहीं है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- .. पकड लेता है। ज्ञायकको पकडना चाहिये। उसमें पढनेकी कोई जरूरत नहीं है। शास्त्रका ज्ञान होवे तो बीचमें ठीक है, यह द्रव्य है, यह गुण है, पर्याय है, जाननेका बीचमें आता है, तो भी वह थोडा जानता है तो भी कर सकता है। आत्माका स्वभाव जाने। यह स्वभाव है, यह विभाव है। इतना जाने तो भी हो सकता है। मूल स्वभावको ग्रहण करे। शिवभूति मुनिने इतना ही ग्रहण किया-यह स्वभाव है, यह विभाव है। यह छिलका है, यह दाल है। यह स्वभाव है, यह विभाव है। इतना मूल प्रयोजनभूत ग्रहण करे तो (भी कार्य हो जाता है)।

ज्ञानके लिये भले पढे-लिखे तो उसमें कोई नुकसान नहीं है। लेकिन उससे हो सकता है ऐसा नहीं है। होता है अपने भीतरके पुरुषार्थसे होता है।

मुमुक्षुः- अन्दरका मार्ग नहीं मिलता?

समाधानः- अंतरका मार्ग नहीं मिलता। मात्र विचार करनेसे (नहीं होता)। विचार बीचमें आता है। जबतक नहीं होवे तबतक तत्त्वका विचार, शास्त्र अभ्यास, देव-गुरु- शास्त्रकी महिमा सब बीचमें होता है। परन्तु दृष्टि तो एक तत्त्व-ज्ञायकतत्त्व पर रखनी। मैं अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य हूँ। द्रव्य पर दृष्टि और ज्ञान सबका रखना। यह गुण है, पर्याय है, सबका ज्ञान करना। दृष्टि चैतन्य पर रखनी कि मैं चैतन्य अनादिअनन्त द्रव्य शुद्धात्मा हूँ। ऐसी दृष्टि करनेसे उसमें शुद्ध पर्याय प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- आपके वचनामृतमें आता है, ७० नंबरका बोल है। जैसे वृक्षका मूल पकडमें आनेसे सब हाथमें आ जाता है। वैसे जिसे, ज्ञायकभाव पकडा, उसे...


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समाधानः- परिचय तो नहीं है तो विभावका प्रेम है। स्वभाव तो अपना ज्ञानस्वभाव जो असाधारण है वह तो जाननेमें आ सकता है। देव-गुुरु-शास्त्र मार्ग बताते हैं कि यह तेरा ज्ञायक स्वभाव है। उसका परिचय कर, उसका अनुभव कर। वे तो बताते हैं, तो अपना विचार करके स्वभाव ग्रहण करे तो परिचयमें आ सकता है। कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, अपना है। इसलिये वह परिचयमें आ सकता है। उसका परिचय हो सकता है, ज्ञान हो सकता है, सब हो सकता है। अपना तत्त्व है न? कोई दूसरा नहीं है।

उसमें ज्ञान, आनन्द सब है। परिचय न होवे तो भी परिचयमें आ सकता है। आप ही है, दूसरा कोई नहीं है। अपनेको भूल गया है। इसलिये परिचय नहीं है। अपनेको आप भूलके हैरान हो गया। अपनेको भूलके हैरान हो गया। अब परिचय हो सकता है। परिचय दूसरा है तो भी उसको भूलकर अपनेको ग्रहण कर सकता है। वस्तुका स्वभाव है। देव-गुरु-शास्त्र मार्ग बताते हैं, उसका विचार करे। मूल तत्त्व क्या है? वह परिचयमें आ सकता है। नहीं परिचयमें होवे तो भी परिचयमें आ सकता है।

समाधानः- .. अनादिका है। अभ्यास परका हो गया है। अपना अभ्यास करना चाहिये। चैतन्यदेव ज्ञायकतत्त्व अनादिअनन्त शाश्वत हूँ, उसका बारंबार अभ्यास करना। क्योंकि दूसरी सब बात तो परिचयमें आ गयी है, यह ज्ञायक आत्मा परिचयमें नहीं आया है। गुरुदेवने बहुत सुनाया है, कहीं भूल न रहे ऐसा गुरुदेवने स्पष्ट किया है। लेकिन उसे परिणति करके उसका पुरुषार्थ करना स्वयंको बाकी रहता है। वह पुरुषार्थ अंतरमेंसे स्वयं करे। बारंबार उसका अभ्यास करता रहे। अपनेमें दृष्टि, अपनेमें ज्ञान, अपनेमें लीनता, भेदज्ञान करके करे।

एक ज्ञायकतत्त्व और शुभ परिणाममें देव-गुरु-शास्त्र। अनादिअनन्त चैतन्यदेव.. सब अधूरी पर्याय जितना भी आत्मा नहीं है। आत्मा तो पूर्ण स्वभाव है। पूर्णतासे भरा, उसमें ज्ञान पूर्ण, आनन्द पूर्ण, अनन्त गुण परिपूर्ण है। अनन्त काल गया तो भी उसमें कुछ कम नहीं हुआ है। ऐसा परिपूर्ण भगवान आत्मा है, उसे लक्ष्यमें लेना। मात्र पर्यायके कारण अपनी शक्ति,.. पर्यायमें प्रगटता नहीं है। पर्यायकी प्रगटता कैसे हो, उसके लिये स्वयंको परिणतिको पलटनेकी आवश्यकता है। परिणतिकी दिशा पलटनेकी जरूरत है। दिशा बाहर है उस दिशाको अंतर ओर देखनेकी जरूरत है। आत्माकी ओर। उसीका अभ्यास। यह जो अभ्यास है, उससे भी विशेष अभ्यास आत्माका करनेका है। तो वह प्रगट होता है। ऐसा आत्मा निर्विकल्प तत्त्व अनादिअनन्त स्वंय एक पारिणामिकभाव स्वरूप अनादिअनन्त है, उसे ग्रहण कर। दूसरे सब भाव है (क्षणिक हैं)। यह तो शाश्वत अनादिअनन्त भाव है, उसे ग्रहण कर। उसमें पारिणामिकभाव ज्ञायकभावमें


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सब आ जाता है। उसे ग्रहण कर।

तू स्थाप निजने मोक्षपंथे, ध्या अनुभव तेहने। आत्माको मोक्षपंथमें स्थापित कर दे। द्रव्यदृष्टि ग्रहण करके बस, उसीकी परिणति प्रगट कर। उसका अनुभव कर। दूसरेमें जो विहार करता है, (उसे छोडकर) चैतन्यमें विहार कर। एमां ज नित्य विहर, नहीं विहर परद्रव्यमें विहार करना छोडकर, स्वयंमें विहार कर। वही मोक्षका पंथ है। वह करनेका है।

उसके लिये भेदज्ञानका अभ्यास करना। क्षण-क्षणमें विभाव स्वभाव मेरा नहीं है, मेरा चैतन्य स्वभाव सो मैं हूँ, चैतन्य स्वभाव सो मैं, दूसरा कुछ मैं नहीं हूँ। चैतन्यका स्वभाव ज्ञायकतत्त्व सो मैं। बस, इस तरह परिणतिको दृढ करनी। ज्ञायकता, ज्ञायककतामें परिणतिको दृढ करनी। उसमेंसे शुद्ध निर्मल पर्यायें प्रगट होती है। उसकी प्रतीत, उसका ज्ञान, उसकी परिणति विशेष दृढता करनेसे उसमेंसे विशेष-विशेष सुख पर्याय प्रगट होती है। तो स्वानुभूति होती है। उसका अभ्यास करनेसे विकल्प टूटकर स्वानुभूति होती है। और वह स्वानुभूति बढते-बढते आत्मा .. पूर्ण ... उसका अभ्यास करनेसे, बारंबार उसमें विहार और लीनता करनेसे ... अनादिसे परकी कर्ताबुद्धि है। वह कर्ताबुद्धि छोडकर मैं ज्ञायक हूँ, परका मैं कर्ता नहीं हूँ। चैतन्यदेव, उसीका अभ्यास

समाधानः- ... दो तत्त्व भिन्न है। जड तो पर तत्त्व है। विभाव अपना स्वभाव नहीं है। और स्वभावका भेद करना। मैं चैतन्यस्वभाव हूँ और यह विभावस्वभाव है। उसका भेदज्ञान करके क्षण-क्षणमें ज्ञायकका अभ्यास करना। उसकी रुचि, उसकी महिमा, उसका ज्ञान, उसकी लीनता सब करना। बारंबार अभ्यास करना। उपाय तो एक है। उसके लिये वांचन, विचार, स्वाध्याय आदि उसके लिये है। एक चैतन्यतत्त्वको पहचानेनेकि लिये।

मुमुक्षुः- चैतन्यसत्ता तो त्रिकाली है और परिणति भी साथमें चालू है। अब इसीका भेदज्ञान करके परिणतिका झुकाव स्व ओर करना है। वही कार्य करना है तो करते हुए भी झुकाव अन्दर कैसे ढले?

समाधानः- वस्तु तो शाश्वत है। परिणति बाहर जाती है, उसकी दिशा पलट देना। स्वसन्मुख कर देना। पर सन्मुख जाती है, (उसे) स्वसन्मुख कर देना।

मुमुक्षुः- यह पुरुषार्थ भारी है।

समाधानः- भारी है। तो भी बारंबार करना, बारंबार करना। छूट जाय तो भी बारंबार करना।

मुमुक्षुः- मैं ज्ञायक हूँ।

समाधानः- मैं ज्ञायक हूँ। मैं निर्विकल्प तत्त्व ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ।


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मुमुक्षुः- जिसमेंसे ज्ञान परिणति बहती हो...

समाधानः- ज्ञान परिणति इसमेंसे आती है।

मुमुक्षुः- वह मैं हूँ।

समाधानः- हाँ। आनन्द परिणति उसमेंसे, ज्ञान परिणतिमेंसे सब उसमेंसे आती है। दिशा पलट दे, झुकाव पलट दे। पीछे तो अपना स्वभाव है। प्रथम भूमिका विकट है, फिर अपना पुरुषार्थ बारंबार अभ्यास करे तो सहज हो जाता है।

मुमुक्षुः- इसके लिये स्वाध्याय बहुत जरूरी है।

समाधानः- स्वाध्याय? जबतक नहीं होवे तबतक स्वाध्याय। दृष्टि आत्माको पहचाननेके लिये।

मुमुक्षुः- यह दृष्टिपूर्वक स्वाध्याय होवे तो कार्य जल्दी होवे।

समाधानः- हाँ, तो उसको मार्ग मिलता है। स्वाध्याय करे तो मार्ग मिलता है। गुरुदेवने जो मार्ग बताया, उस दृष्टिसे स्वाध्याय करना। तो स्वाध्याय करनेसे मार्ग मिलता है। लेकिन दृष्टि आत्मा पर रखना। बारंबार, बारंबार भेदज्ञानका अभ्यास करनेसे विकल्प टूटकर स्वानुभूति होती है।

मुमुक्षुः- इसी पुरुषार्थके लिये आपसे आशीर्वाद चाहते हैं।

समाधानः- गुरुदेवने कहा उस दृष्टिसे स्वाध्याय करना। गुरुदेवने जो मार्ग बताया, उस दृष्टिको ख्यालमें रखकर स्वाध्यायका अर्थ करना, शास्त्रका अर्थ (करना)। शास्त्रके अर्थको खोलना। गुरुदेवने खोला है उस दृष्टिसे उसका अर्थ खोलना।

मुमुक्षुः- हर समय निरंतर उपयोग तो वहीं जाना चाहिये कि मैं तो ज्ञायक हूँ। परिणति करे सो करने दो, मैं ज्ञायक हूँ। उस तरफका झुकाव..

समाधानः- मैं ज्ञायक हूँ। बारंबार उसका अभ्यास करना। ... गुरुदेवने कहा है, ज्ञायककी परिणति प्रगट करनी, करनेका वह एक ही है। ज्ञायक आत्माको भिन्न करके अंतरमें ज्ञायककी परिणति अन्दर ज्ञानमें लीनता करके स्वानुभूति प्रगट करनी। गुरुदेवने बताया है, वह करनेका है। सबने सुना है और गुरुदेवने मार्ग प्रगट किया है। आपने तो बरसों तक वही लढण किया है। अकेला शास्त्रका अभ्यास और गुुरुदेवने कहा वह सब दृढ किया है।

मुमुक्षुः- गुरुदेवकी कृपाकी बात है। समाधानः- गुरुदेवकी कृपा तो ... ग्रहण किया इसलिये ... एक तत्त्व दूसरे तत्त्वका... परद्रव्य है, कोई कहाँ किसीका है? गुरुदेवने बहुत कहा है। चैतन्यतत्त्व भी भिन्न और अन्दर यह शरीर भी परद्रव्य है तो दूसरा तो कहाँ अपना होगा?

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!