Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 129.

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ट्रेक-१२९ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- माताजी! मैं ज्ञानस्वभावी हूँ, तो हमारा यह विभाव परिणमन क्यों होता है?

समाधानः- अनादिका हो रहा है। ज्ञानस्वभाव तो है। अनादिका हो तो रहा है, विभावका वेदन तो होता है। और जब हो रहा है, उसे तोडना कैसे? यह करना है, वह उपाय करना है। हो तो रहा है अनादिका।

आत्मा शुद्ध स्वभाव द्रव्यसे है और पर्यायमें अनादिसे हो रहा है। जिसको उसकी आकुलता लगे, दुःख लगे तो तोडनेका उपाय करना। हो तो रहा है, क्यों हो रहा है क्या? हो रहा है। वह तो दिखनेमें आता है। पर्यायमें कर्म और आत्मा अनादिसे ऐसे ही चले आते हैं, अनादि सम्बन्धसे। द्रव्यमें तो शुद्धता है, पर्यायमें ऐसा हो रहा है।

मुमुक्षुः- भगवान कुन्दकुन्दस्वामी जब सीमंधर भगवानके पास गये, उस वक्त क्या आपकी आत्मा वहाँ थी?

समाधानः- सब लोग बहुत पूछने आते हैं तो मुझे बहुत प्रवृत्ति हो जाती है।

मुमुक्षुः- हमारा तो कभी.. बाहरसे आये हैं हम लोग।

समाधानः- गुरुदेवने बहुत बताया है, गुरुदेवने तो बहुत बताया है। गुरुदेव कहते थे, हम सब थे, ऐसा गुरुदेव कहते थे। गुरुदेव स्वयं कहते थे। हम सब थे, ऐसा कहते थे।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- ऐसा उसको राग था। सम्यग्दृष्टि थे, लेकिन उनको वीतरागता नहीं हुयी थी। वीतरागता पूर्ण नहीं हुयी। चारित्रदशा, स्वरूपमें लीनता ऐसी विशेष नहीं हुयी थी। राग था ना, राग था इसलिये रागके कारण ऐसा हुआ। रागके कारणसे ऐसा होता है। भीतरमें जानते हैं, भेदज्ञान है, यह सब भिन्न है। यह मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसा जानता है, तो भी राग ऐसा कार्य करता है कि रागके कारणसे लक्ष्मणका राग नहीं छूटता है, इसलिये उसको लेकर फिरते हैैं। मैं इसको छोड नहीं सकता। लक्ष्मणको मैं कैसे छोड दूँ? वह राग नहीं छोड सकते। भीतरमें मानते भी थे कि


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इसमें जीव नहीं है, तो भी उसका राग नहीं छूटता था, इसलिये फिरते थे।

बलभद्र थे ना, वासुदेव थे। इसलिये उसका राग, भाईके ऊपर ऐसा बहुत राग होता है, इसलिये छोड नहीं सकते थे। बादमें जब राग (खत्म) हो गया, बादमें होता है, बादमें पलट जाते हैं। राग नहीं छूटता है। भेदज्ञान होनेपर भी राग नहीं छूटता है। जानते हैं तो भी राग नहीं छूटता है। इसलिये फिरते हैं।

मुमुक्षुः- माताजी! क्रमबद्ध पर्याय जो निकलती है, वह शुद्ध-शुद्ध निकलती है या शुद्ध और अशुद्ध दोनों निकलती है?

समाधानः- शुद्ध और अशुद्ध दोनों क्रमबद्ध ही होती है, परन्तु अपने पुरुषार्थकी ओर दृष्टि रखनी चाहिये। पुरुषार्थ उसमें साथमें रहता है। अपनी कमजोरीसे अशुद्ध होता है, पुरुषार्थ करे तब शुद्धकी पर्याय होती है। वह साथमें क्रमबद्ध चलता है। पुरुषार्थके साथमें क्रमबद्ध लेना चाहिये।

मुमुक्षुः- हमारी जो पर्याय निकलती है, अन्दरसे जो पर्याय निकलती है, वह शुद्ध निकलती है या शुद्ध-अशुद्ध दोनों निकलती है? बाहर आकर अशुद्ध हो जाती है या अन्दरसे अशुद्ध आती है?

समाधानः- अन्दरसे अशुद्ध होती नहीं। अशुद्ध तो कर्मका निमित्त है, इसलिये उस ओर दृष्टि करता है, इसलिये अशुद्ध होती है। द्रव्य तो शुद्ध है। ... होता है, जब वह निमित्त होता है, तब उसका लाल-पीला परिणमन होता है। स्फटिकमें भीतरमेंसे लाल नहीं आता है।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- स्फटिकमें तो निर्मल पर्याय होती है। स्फटिक तो सफेद है। उसमें जब लाल दिखता है, वह निमित्तके कारण, उपादान अपना, लाल होता है वह स्फटिकका मूल स्वभाव नहीं है। वह मूल स्वभाव नहीं है। परिणमन स्फटिकका है, लाल जो होता है वह उसका मूल स्वभाव नहीं है, वह विभावपर्याय है। इसलिये उसका मूल स्वभाव नहीं है, भीतरमेंसे लाल रंग नहीं आता है। पर्यायका पलटन होता है। निमित्त साथमें रहता है।

मुमुक्षुः- .. भाव भी है, परन्तु टिकता नहीं है।

समाधानः- अपनी मन्दता है। नहीं टिकता है, उसमें भी अपना कारण है। अपने प्रमादके कारण टिकता नहीं है। स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है। नहीं टिकनेका कारण स्वयंका ही है। प्रमाद अपना है। भेदज्ञान नहीं होनेका कारण अपना है। अनादि कालसे नहीं करता है इसलिये नहीं होता है। स्वयं करे तो होता है। अपनी क्षति है। लक्ष्य हो तो भी पुरुषार्थ करनेका बाकी रहता है। यथार्थ लक्ष्य, यथार्थ ज्ञायककी प्रतिती,


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भेदज्ञान सबका पुरुषार्थ स्वयंको करनेका है। लक्ष्य हो, विचार किया कि सत्य यही है, परन्तु उस प्रकारका पुरुषार्थ करना उसकी क्षति होती है। वह क्षति है, वैसी स्वयंकी क्षति है। क्षति है।

मुमुक्षुः- ज्ञानलक्षण द्वारा दिखता है, ज्ञात होता है, वेदनमें आता है। तो उस वेदनमें यह जो ज्ञात होता है, उसका मैं जाननेवाला हूँ। इस प्रकारसे उसका अवलोकन करके उस ओर मोड लेना। यह जो चीज जाननेमें आती है, उस चीजको जाननेवाला मैं हूँ, इस प्रकार अपना अवलोकन शक्तिको उस ओर मोडनी पडती है कि उसके ख्यालमें सीधा आ जाता है?

समाधानः- यह जाननेमें आता है, उसे जाननेवाला मैं, ऐसे नहीं, मैं स्वयं जाननेवाला हूँ। स्वयं जाननेवाला ज्ञायक हूँ। यह बाहरका ज्ञात हो उसे जाननेवाला मैं, ऐसे नहीं। मैं स्वयं जाननेवाला हूँ। अब तक बचपनसे लेकर अभी तक जो-जो भाव आये, उसको स्वयं जाननेवाला (हूँ), वह जाननेवाला वैसा ही है। वह सब पर्यायें चली गयी, सब संकल्प-विकल्प चले गये तो भी जाननेवाला तो वैसा ही है। जाननेवाला स्वयं सब लक्ष्यमें ले सकता है।

गुरुदेवके पास क्या सुना? क्या जिज्ञासा, क्या भावना (थी)? वह सब जाननेवाला तो जाननेवाला ही है। स्वयं जो जाननेवाला है, वह जाननेवाला मैं हूँ। यह ज्ञात होता है वह मैं, ऐसे नहीं। स्वयं जाननेवाला स्वयं ज्ञायक स्वतःसिद्ध मेरी शक्ति जाननेकी अनादिअनन्त है। ज्ञेयको जानता हूँ, इसलिये जाननेवाला, ऐसे नहीं। मैं स्वयं जाननेवाला ही हूँ। स्वयं जाननेवाला चैतन्यशक्ति, मेरी स्वयं जाननेकी शक्ति है, स्वयं जाननेवाला हूँ। ऐसे ज्ञानलक्षणसे स्वयंको (पहचानना)। एक ज्ञानलक्षण द्वारा पूरा ज्ञायक पकड लेता है। ज्ञानलक्षणसे एक गुण जानता है, ऐसा नहीं, परन्तु स्वयं ज्ञायक हूँ। स्वयं पूर्ण जाननेवाला द्रव्य, मैं जाननेवाला ही हूँ।

मुमुक्षुः- वह स्वयं ज्ञानदशा परसे यह स्वयं मेरेमेंसे उत्पन्न हुयी है और मैं ऐसी वस्तु हूँ, वहाँ तक उसका ज्ञान चला जाता है?

समाधानः- वहाँ चला जाता है। मैं स्वयं ज्ञायक वस्तु ही हूँ। एक जाननेवाला अखण्ड ज्ञायक जाननेवाला ही हूँ।

मुमुक्षुः- ज्ञानलक्षणसे ज्ञात होता है, फिर दूसरे जो लक्षण कहनेमें आते हैं कि मैं आनन्दमय हूँ, मैं निर्विकल्प हूँ, अखण्ड हूँ, मैं ध्रुव हूँ, परिपूर्ण हूँ, तो यह सब लक्षण उसे कब प्रमाणरूपसे ख्यालमें आते हैं?

समाधानः- ज्ञायकलक्षण तत्त्व हूँ। जो तत्त्व हो, वह पूर्ण ही होता है। तत्त्व ऐसा कोई अधूरा नहीं होता। मैं परिपूर्ण हूँ। उसमें उसे सब साथमें समझमें आ जाता


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है। जो स्वयं सुखको इच्छता है, वह सुख कहीं बाहर नहीं है। सुखस्वरूप मैं हूँ। यह सब उसे आ जाता है। मैं सुखस्वरूप हूँ, शान्तिस्वरूप हूँ। यह विकल्प है वह सब आकुलता है। मैं निर्विकल्प तत्त्व हूँ।

जो शास्त्रमें कहा है, ऐसे नहीं, अपितु मैं स्वयं निर्विकल्प तत्त्व हूँ। विकल्प बिनाकी जो शान्ति हो, इस विकल्पकी जालमें आकुलता है, सब आकुलतासे भिन्न मैं ज्ञायक हूँ। आकुलता बिना निराकुलस्वरूप ऐसे नहीं, परन्तु मुझमें आनन्द गुण है। आनन्द गुण उसे दिखाई नहीं देता। वह तो उसे अमुक प्रकारसे नक्की करता है। ज्ञानलक्षण ऐसा है कि वह उसे ग्रहण हो सकता है। इसलिये आत्माको ज्ञानसे जानना, ऐसा कहनेका कारण वही है। आनन्द उसे दिखाई नहीं देता। आकुलता बिनाका मैं निराकुल, ऐसा उसे ग्रहण हो सकता है। परन्तु मैं आनन्द लक्षण हूँ, वह आनन्द उसे दिखता नहीं। तो भी वह अमुक प्रकारसे यथार्थ प्रमाणसे, यथार्थ ज्ञानसे जान सकता है। सच्चे ज्ञानसे नक्की कर सकता है। परन्तु ज्ञानलक्षण तो ऐसा है कि उसके अनुभवमें आ सके ऐसा है। अनुभव यानी स्वानुभूतिका अनुभव नहीं, परन्तु ज्ञानलक्षण उसे ज्ञात हो सकता है।

मुमुक्षुः- उसे प्रसिद्ध है। अपने वेदनमें..

समाधानः- ज्ञानलक्षण वेदनमें प्रसिद्ध है और आनन्द उसे वेदनमें उस वक्त अनुभवमें नहीं आता है। लेकिन अमुक प्रकारकी युक्तियोंसे नक्की (करता है)। लेकिन वह ऐसा नक्की कर सकता है कि उसमें फर्क नहीं पडता। ऐसा वह नक्की कर सकता है। मैं परिपूर्ण हूँ, वह सब युक्ति द्वारा, सर्व प्रकारसे नक्की कर सकता है। जो वस्तु हो, वह स्वतःसिद्ध (होती है), वह अधूरी होती नहीं। उसका कभी नाश हो तो उसे वस्तु ही नहीं कहते। वस्तु हो वह परिपूर्ण ज्ञानलक्षणसे भरपूर है। उसका कभी घात नहीं होता। तो उसे वस्तु कहें? यदि वस्तुका नाश होता हो तो। पूर्ण न हो वह वस्तु ही नहीं है। यथार्थ प्रकारसे नक्की कर सकता है।

मुमुक्षुः- जहाँ ज्ञानमय हूँ, ऐसा भाव ख्यालमें आये तो साथमें उसे अपनी अखण्डता, परिपूर्णता आदि सब..

समाधानः- वह सब युक्तिसे नक्की करे, सच्ची प्रतीत कर सकता है। लेकिन मुख्य उसमें ज्ञान है। वह उसे प्रसिद्धिमें आता है।

मुमुक्षुः- जिसे अनुभव हो गया, उसे भी जब-जब पुनः निर्विकल्पता उत्पन्न होती है, उस वक्त भी उसी लक्षणसे फिरसे होता होगा? या उसमेंसे कोई भी लक्षण द्वारा (अनुभव होता है)?

समाधानः- वह तो ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण किया, वह तो उसे सहज है। उसे कोई विचारकी कल्पना नहीं करनी पडती कि मैं आनन्द हूँ या अखण्ड हूँ। उसे


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तो जो अपना ज्ञायक अस्तित्व ग्रहण किया सो किया है। उसे सहज धारारूप है। उसे सहज भेदज्ञानकी धारामें सहज ज्ञाताकी धारा वर्तती है। उसमेंसे उसे निर्विकल्प स्वानुभूतिकी दशा सहज परिणतिरूप होती है। और उसकी ज्ञायककी धारा ऐसे ही सहज (चलती है)। उसे विकल्पसे रटना नहीं पडता कि मैं यह ज्ञायक हूँ या आनन्द हूँ या परिपूर्ण हूँ, वह तो उसे ज्ञायककी धारा वेदनरूप उसकी अमुक दशा अनुसार परिणमता है, उसमें सहज रहता है। उसे रटन नहीं करना पडता।

मुमुक्षुः- उसकी संवेदनशक्तिमें ही वह सब ज्ञात होने लगता है अथवा वेदन होने लगता है।

समाधानः- हाँ, वेदन होने लगता है। स्वानुभूतिका आनन्द वह एक अलग बात है, परन्तु उसकी बीचवाली दशामें सविकल्पतामें भी उसे वेदनमें ज्ञायकका वेदन अमुक अंशमें रहता है।

समाधानः- .. उन्हें तो श्रुतकी लब्धि (थी)। श्रुतकेवली कोई दूसरी अपेक्षासे गुरुदेवको कहा था।

मुमुक्षुः- श्रुतका भाव..

समाधानः- श्रुतका भाव प्रगट हुआ। सम्यग्दर्शनपूर्वक उन्हें श्रुतकी विशेषता थी। उस अपेक्षासे। .. श्रुतकेवली वह तो उन्हें अमुक प्रकारका श्रुत...

समाधानः- .. गुरुदेवका जितना करें उतना कम ही है। भक्तोंको जो भाव आते हैं, वह गुरुदेवको कहते हैं। उन्हें श्रुतकी लब्धि कोई अपूर्व थी। भावसे श्रुतकेवली कहते हैं। भद्रबाहू श्रुतकेवली थे वह दूसरी अपेक्षा है। गुरुदेवमें तो कोई अतिशयतायुक्त श्रुतज्ञान था। तीर्थंकरका द्रव्य था तो उनका प्रभावना उदय अलग था, उनकी वाणी अतिशयतायुक्त थी, उनका आत्मा अलग था, सब अलग था। गुरुदेवको जितनी उपमा दें, उतनी कम ही हैं। भद्रबाहुस्वामी..

मुमुक्षुः- नौंवी गाथामें परिभाषा करते हैं, श्रुतसे जो आत्माको जाने...

समाधानः- उनकी श्रुतज्ञानकी धारा... हजारों जीवोंको .. किया।

मुमुक्षुः- .. उसकी परिभाषा करते समय कहा था कि, जो भावश्रुतज्ञानसे केवल आत्माका अनुभव करे वह श्रुतकेवली है। ऐसा ऋषिश्वरो तथा तीर्थंकरोंने घोषणा की है। और ऐसे प्रवचनसारकी ३३वीं गाथा। इससे यह सिद्ध होता है कि स्वानुभूति परिणत परम पूज्य गुरुदेव तथा पूज्य बहिनश्री, स्वयंके भावश्रुतज्ञानसे केवल आत्मानुभवयुक्त होनेसे हम मुमुक्षु समाजके महान उपकारी दोनों महात्मा श्रुतकेवली हैं। क्योंकि ऋषिश्वरोंनें उन्हें श्रुतकेवली कहा है।

मुमुक्षुः- सोगानीजीके बाद प्रवाह कुछ मन्द हो गया है, ऐसा लगता है। कालका


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कारण होगा?

समाधानः- कोई प्रवाह मन्द नहीं पडा है। गुरुदेवके प्रतापसे प्रवाह चलता ही है। कुछ मन्द नहीं पडा। गुरुदेवका प्रभाव चारों ओर वर्तता है। आत्मा कैसे प्राप्त हो? आत्मा कैसे प्राप्त हो? पूरे हिन्दुस्तानमें हो गया है।

मुमुक्षुः- अभी तो और भी बढेगा।

समाधानः- कुछ मन्द नहीं हुआ है। गुरुदेवका प्रभाव चारों ओर गुँज रहा है। गुरुदेवने कितने जीवोंको जागृत कर दिये हैं।

मुमुक्षुः- .. मन्दता नहीं आयी है, परन्तु प्राप्तिमें मन्दता आ गयी। समाधानः- कुछ मन्दता नहीं आयी है। आत्माकी ओर ही कैसे प्राप्त हो? कैसे प्राप्त हो? कितने ही जीव जागृत हो गये हैं। क्रियामें धर्म मानते थे, तो अब आत्मा.. आत्मा.. चारों ओर हिन्दीभाषी क्षेत्रमें सब ओर हो गया है। अध्यात्मका प्रेम चारों ओर हो गया है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!