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समाधानः- ... सम्यग्दर्शन तो आत्माकी स्वानुभूति है, पुरुषार्थ करे तो होता है। भेदज्ञान करके आत्माको प्राप्त करे तो होता है, भेदज्ञान प्राप्त करे तो होता है। आत्मा चैतन्य शाश्वत द्रव्य है, उस पर दृष्टि करके, उसका ज्ञान करके, उसमें लीनता करके बारंबार करे तो होता है। बाहर जो उपयोग दौड जाता है, उपयोगको स्वसन्मुख करे। पहले दृष्टि करे। उपयोगको बारंबार चैतन्यकी ओर लाये तो विकल्प छूटकर स्वानुभूति होती है। उसकी जिज्ञासा, उसकी महिमा, बारंबार उसकी लगन लगे तो हो सकता है।
... यही है, मैं आत्मा ही हूँ। इन सबसे भिन्न चैतन्य है। यह शरीरादि परद्रव्य (है), विभावभाव आत्माका स्वभाव नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। अंतरमेंसे निश्चय-नक्की करके, उस ओर परिणति (करे), बारंबार भेदज्ञानका अभ्यास करे तो विकल्प टूटकर स्वानुभूति होती है।
मुमुक्षुः- यह नक्की करनेके लिये बाह्य पदाथाके आश्चर्यको बन्द करे और अन्दरमें चैतन्य है उसकी महिमा पहले तो बाहरसे ऊपर-ऊपरसे आये, ख्यालमें आये कि अन्दर ऐसी एक चीज है कि जो मेरे सुखके लिये अत्यंत उपयोगी है और वही मुझे प्राप्त करने योग्य है। ऐसा विचार, भावना होनेके बाद, मैं ज्ञान हूँ, यह उसे अंतर संवेदनमें पकडनेकी पद्धति कैसी है?
समाधानः- उसका स्वभाव पहचानकर पकडे। बाह्य दृष्टि जाती है। मैं चैतन्य हूँ, उसका स्वभाव पहचान ले कि मैं यह जो ज्ञान है-ज्ञायक मैं हूँ। बाहर जानता हूँ इसलिये नहीं, परन्तु मैं अंतर स्वयं ज्ञायक हूँ। ज्ञायक स्वभाव ही मेरा है, ऐसे स्वयं अपनेआपको अपने स्वभावसे पहचाने। उसका स्वभाव असाधारण ज्ञायक स्वभाव है, उसे स्वभावसे ग्रहण करे। स्वभाव ऐसा विशेष गुण है कि जो ग्रहण होता है। उस गुण द्वारा पूरा ज्ञायक ग्रहण कर ले। जो अपना स्वभाव हो, वह सुखरूप ही होता है। उसे स्वयं अपनी अंतर दृष्टिसे ग्रहण करे। अंतरकी ओर जाय। वह स्वयं ही है, कोई गुप्त नहीं है, अन्य नहीं है कि जिसे खोजने जाना पडे, स्वयं ही है, स्वयंको स्वभाव द्वारा पहचान ले।
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मुमुक्षुः- इसके पहले आपने कहा था, जब पूछा था कि पर दिखता है परन्तु स्वयं नहीं दिखाई नहीं देता, तब आपने कहा था कि वह स्वयं ही है। अर्थात जो देखना होता है, वह स्वयं ही होनेके बावजूद मानों अन्य दिखाई देता है, ऐसा उसे अभ्यास रहा करता है, इसलिये स्वयं स्वयंको देखता नहीं, ऐसी परिस्थिति वहाँ उत्पन्न हो जाती है। वहाँ उसे अवलोकन कालमें उसकी जागृति होनी चाहिये कि यह देखनेवाला मैं हूँ, इस तरह स्वयंको अपनेआप भासित होना चाहिये। तो उसमें उसका सत्त्व कैसा है? उसकी हयाती कैसी है? उसकी सातत्यता कैसी है? वह सब उसे ख्यालमें आने लगे। तो उस परसे स्वयंका अस्तित्व ग्रहण हो।
समाधानः- मैं देखनेवालेको ही देखता हूँ, शास्त्रमें आता है ना? देखनेवाला ही मैं हूँ, देखनेवाले द्वारा ही देखता हूँ। मैं स्वयं देखनेवाला ही हूँ, मैं स्वयं जाननेवाला ही हूँ। अन्यको देखनेवाला हूँ, ऐसे नहीं, मैं स्वयं देखनेवाला हूँ। मैं दर्शन स्वभावसे भरपूर हूँ, मैं ज्ञानस्वभावसे भरपूर हूँ। उष्णता, दूसरेको उष्ण करती है इसलिये अग्नि उष्ण है, ऐसा नहीं, स्वयं उष्णतासे भरी हुयी अग्नि ही है। बर्फ दूसरेको ठण्डा करे इसलिये बर्फ ठण्डा है ऐसा नहीं, स्वयं बर्फका स्वभाव ठण्डा है। ऐसे मैं स्वयं दूसरेको देखूँ और जानूँ इसलिये मैं जाननेवाला हूँ, ऐसा नहीं, परन्तु मैं स्वयं जाननेवाला ही हूँ। मैं जाननेवाला अनन्त शक्तिसे भरपूर जाननेवाला हूँ। उसमें कोई अंश ऐसा नहीं है कि जो नहीं जानता। स्वयं ज्ञायक शक्तिसे भरा हुआ, स्वयं देखनेकी शक्तिसे भरा हुआ, स्वयं वस्तु स्वतःसिद्ध अनादिअनन्त वस्तु हूँ। जिसे किसीने बनायी नहीं है, वह स्वयं है।
जैसे यह परपदार्थ जड आदि स्वयं पदार्थ है, वैसे मैं एक चैतन्य स्वयं जाननेवाला स्वयंसिद्ध वस्तु जाननतत्त्व, जाननगुणसे, जाननस्वभावसे भरा हूँ। जाननेवालेमें शान्ति, जाननेवालेमें आनन्द, जाननेवालेमें अनन्त गुण भरे हैं। एक उष्णता देखो तो जड पदार्थ (है), उसमें दूसरे अनन्त गुण हैं। वैसे एक स्वयं जाननेवालेमें दूसरे अनन्त गुण हैं। परन्तु वह जाननस्वभाव ऐसा है कि वह अनन्ततासे भरा स्वयं जाननेवाला है। वह स्वयं जाननेवालेको जान लेना। दूसरेको जाने इसलिये मैं जाननेवाला, दूसरेको देखता है इसलिये मैं देखनेवाला, ऐसा नहीं, मैं स्वयं जाननेवाला, स्वयं देखनेवाला हूँ।
मुमुक्षुः- अर्थात उसका स्वयंका अंतरंग ही ऐसी पुकार करता है कि मैं जाननेवाला हूँ, इस तरह स्वयं अपनेआपसे ख्यालमें आता है।
समाधानः- स्वयं अपनेआपसे अन्दर स्वयं जाननेवाला, स्वयं देखनेवाला (है)। स्वयंसिद्ध अस्तित्व अपना उस तरह ग्रहण कर लेता है।
मुमुक्षुः- गुरुका अवलम्बन तो चाहिये न? आत्माकी ... पहले गुरुका अवलम्बन
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तो चाहिये न?
समाधानः- देव-गुरु-शास्त्र मार्ग दर्शाते हैं। गुरुदेव मार्ग दर्शाये कि वस्तु यह है, तू उसे पहचान। फिर करना स्वयंको है। उपादान पुरुषार्थ स्वयंको करना है। गुरुदेव मार्ग बताये, परन्तु मार्ग (स्वयंको) ग्रहण करना है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा उसे साथमें होती है। परन्तु पुरुषार्थ स्वयंको करना पडता है। गुरुने क्या बताया है? गुरुने कैसा मार्ग बताया है? कि आत्मा सर्वसे भिन्न तू निर्विकल्प तत्त्व अनादिअनन्त है, ऐसा जो गुरुदेवने बताया, उसे ग्रहण स्वयंको करना पडता है।
अनादि कालका अनजाना मार्ग गुरुदेवने स्पष्ट करके बताया है। वह स्वयं ग्रहण करना है। इसलिये उसमें गुरुका अवलम्बन आ जाता है कि गुरुने जो मार्ग बताया वह यथार्थ है। परन्तु मुझे कैसे समझमें आये, ऐसे पुरुषार्थ करके स्वयं स्वयंसे जानता है। अनादि कालका अनजाना मार्ग है। अनादि कालसे या तो जिनेन्द्र देवका वाक्य या कोई गुरुका वाक्य साक्षात उसे श्रवण हो, तब उसे अंतरमें उपादान जागृत हो और देशनालब्धि प्रगट हो, ऐसा उपादान-निमित्तका सम्बन्ध है, लेकिन वह ग्रहण स्वयंसे होता है, कोई उसे कर नहीं देता, स्वयंसे होता है। उपादान-निमित्तका ऐसा सम्बन्ध है। परन्तु कोई कर नहीं देता, स्वयंके द्वारा होता है, उसमें निमित्त साथमें होता है। अभी यह मार्ग गुरुदेवके प्रतापसे, गुरुदेवने मार्ग बताया और यह मार्ग बहुत लोगोंको अंतरमें जिज्ञासावृत्ति, महिमा गुरुदेवके प्रतापसे हुआ है।
मुमुक्षुः- यह बात ही कहाँ थी।
समाधानः- बात ही कहाँ थी। ऐसा प्रकार है, उपादान-निमित्तका ऐसा स्वभाव है। साक्षात वाणी श्रवण होती है, अनादि काल हुआ। शास्त्रमें कहा है, लेकिन चैतन्य साक्षात गुरु एवं देव मिले, तब अंतर उपादान-निमित्तका सम्बन्ध होता है। कोई शास्त्रमेंसे स्वयं जाने कि शास्त्रमें... इसमें आता है न? गुरुने उसका रहस्य बताया है।
मुमुक्षुः- .. इसी प्रक्रियाका अभ्यास जैसे विशेष-विशेष गहराईसे हो, वैसा उसे सहजरूपसे..
समाधानः- अंतरमें अभ्यास करे, मैं स्वयं ज्ञायक हूँ। यह सब भाव दिखते हैं, वह मैं नहीं हूँ। मैं स्वयं ज्ञायक सबसे भिन्न तत्त्व, निराला तत्त्व हूँ, इस तरह बारंबार उसका अभ्यास करे, बारंबार अंतरसे अभ्यास करे। अपने अस्तित्वको (ग्रहण करे)। उसे शून्यतारूप मात्र नहीं, परन्तु महिमासे (ग्रहण करे)। मैं अनादिअनन्त सिर्फ निर्मूल्य तत्त्व हूँ, ऐसे नहीं। अनन्त शक्तिसे भरपूर ऐसी चैतन्यशक्ति, चैतन्य अस्तित्व सो मैं हूँ, ऐसे उसे महिमा आती है। परपदार्थकी महिमा छूट जाती है। इस प्रकार वह महिमापूर्वक अभ्यास करता है तो आगे बढता है। विकल्प छूटकर मैं शून्य हो जाता हूँ, ऐसे नहीं।
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मैं अनन्त शक्तिओंसे भरपूर हूँ। यह विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है। मैं निर्विकल्प तत्त्व हूँ, परन्तु अनन्ततासे भरपूर हूँ।
मुमुक्षुः- कुछ हूँ, परन्तु यही मैं हूँ, ऐसा उसे भासित होना चाहिये।
समाधानः- कुछ हूँ, ऐसा नहीं, यही हूँ। मैं यह ज्ञायक हूँ। अनन्त महिमासे भरपूर हूँ। ऐसी उसे अन्दरसे महिमा आती है।
मुमुक्षुः- स्वयंकी सत्ता, जैसे स्वतंत्ररूपसे रह सके ऐसी (सत्ता) स्वयंको मालूम पडे और उसके आधारसे उस रूप कायम जीवित रहनेवाला हो..
समाधानः- स्वयं अपनी चैतन्यसत्तासे जीनेवाला है। परसत्तासे मैं जीनेवाला नहीं हूँ। चैतन्यकी सत्ता, मेरी ज्ञायकसत्ता, ऐसी चैतन्यसत्तामें ही मेरा अस्तित्व, उसमें ही परिणति, उस रूप ही टिकनेवाला मैं अनादिअनन्त वस्तु हूँ। अनादिअनन्त शाश्वत वस्तु हूँ।
मुमुक्षुः- ज्ञान भिन्न और राग भिन्न, वह तो पहले रागकी प्रकृति पहचानमें आ जाती है, फिर तो ज्ञानकी प्रकृति (-स्वभाव)की पहचान होनेसे उस ओर ही उसका झुकाव रहता है। फिर उसे ज्ञान भिन्न और राग भिन्न, ऐसा करनेकी जरूरत पडती है?
समाधानः- ज्ञान भिन्न और राग भिन्न, दोनों साथमें ही पहचाने जाते हैं। जिसे यथार्थ पहचान होती है, उसे यह ज्ञान भिन्न और राग भिन्न, फिर तो उसे सहज होता है। जिसकी सहज दशा होती है, उसे ज्ञान भिन्न और राग भिन्न सहज उसे ज्ञाताधारा वर्तती रहती है। उदयधारा और ज्ञानधारा भिन्न है। जिसे स्वानुभूति होनेके बाद जो भेदज्ञानकी धारा वर्तती है, उसमें करनेकी जरूरत नहीं पडती, सहज भेदज्ञान चलता ही रहता है। जो-जो उदय, अभी अस्थिरता है तबतक जो विकल्प उत्पन्न हो, उसके साथ मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी ज्ञाताकी धारा उसे सहज रहती है। करनेकी जरूरत नहीं पडती। लेकिन उसे सहज रहता है कि यह भिन्न है और मैं भिन्न हूँ। मैं चैतन्यतत्त्व भिन्न हूँ, ज्ञायक भिन्न हूँ और यह भिन्न है। पुरुषार्थकी मन्दतासे उसमें अल्प जुडता है, नहीं जुडता हो तो वीतरागता हो जाय। अल्प जुडता है, परन्तु उसे एकदम ज्ञायककी दृढता रहती है कि मैं भिन्न हूँ। मैं चैतन्यतत्त्व भिन्न हूँ। यह तत्त्व मैं नहीं हूँ। यह तो विभावभाव है। ऐसी सहज धारा, भेदज्ञानकी धारा वर्तती ही रहती है। करनेकी जरूरत नहीं पडती। ऐसे उसे सहज भिन्न (रहती है)।
भेदज्ञानकी तीव्रता रहा करती है। जैसे-जैसे दशा बढती जाती है, मुनिदशा आती है तो अधिक तीव्रत होती जाती है। ज्ञायककी धारा, द्रव्य पर दृष्टि आदि सब बलवान होते-होते मुनिदशामें उग्रता होती जाती है। जब तक वीतरागता पूर्ण नहीं हो जाती,
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केवलज्ञान (नहीं हो जाता), तब तक रहा करती है। उसे भेदज्ञानकी धारा सम्यग्दर्शनमें अमुक प्रकारसे (होती है), बादमें आशिंक स्वरूप लीनता बढती जाय, वैसे-वैसे उसकी उग्रता बढती जाती है।
मुमुक्षुः- अर्थात स्वरूपका अहम भाव बढता जाय और रागादि अथवा विकल्पादिकी उपेक्षा उसे सहजपने रहे, ऐसी उसकी स्थिति (होती है)?
समाधानः- ज्ञायक ओरकी परिणतिकी दृढता, मैं ज्ञायक हूँ और यह भेदज्ञानकी उग्रता बढती जाती है। स्वरूप लीनताकी विशेषता और अस्थिरताकी अल्पता होती जाती है। मैं यह चैतन्य हूँ, अहम भाव यानी मैं यह चैतन्य हूँ, चैतन्यकी विशेष परिणति, चैतन्य ओरकी (उग्र होती है और) विभाव ओरकी परिणति अल्प होती जाती है। भेदज्ञानकी धारा (चलती है)। उसे स्वानुभूति भी मुनिदशामें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें बढती जाती है। ऐसा करते-करते जब वह श्रेणि लगाता है, तब केवलज्ञान प्राप्त होता है। तब तो अबुद्धिपूर्वक हो जाता है।
मुमुक्षुः- अस्तित्वकी खुमरी बहुत आ जाती होगी कि अब मैं किसी भी वस्तुके बिना रह सकूँ ऐसा पदार्थ हूँ। ऐसे भावका वेदन तो उसे होता होगा?
समाधानः- जहाँ तत्त्वकी दृष्टि हुयी, वहाँ किसी भावके बिना टिक सके, स्वतःसिद्ध वस्तु कोई पदार्थके बिना मैं टिकनेवाला हूँ, जहाँ उसे द्रव्यकी प्रतीत होती है, उस प्रतीतमें तो पूरा बल साथमें आता है। प्रतीत तो उसे दृढ ही है। कोई पदार्थके आश्रयसे मैं टिकूँ ऐसा तत्त्व नहीं हूँ, मैं स्वयं टिकनेवाला, स्वयं वस्तु ही हूँ। ऐसी प्रतीत तो उसे प्रथम सम्यग्दर्शनमें आ जाती है। बादमें तो उसे लीनता बढती जाती है, स्वरूपका वेदन बढता जाता है। स्वानुभूति बढती जाती है और बीचमें सविकल्प दशामें उसे आंशिक ज्ञायककी धारा, लीनता, शान्तिका वेदन वह सब बढता जाता है।
अपना अस्तित्व, मैं स्वयं टिकनेवाला हूँ, यह तो उसे प्रतीतमें आ गया है। परन्तु स्वरूपमें ही रहूँ, बाहर नहीं जाऊँ। स्वरूपमें ही आनन्द, स्वरूपमें ही शान्ति, स्वरूपसे बाहर जाना उसे मुश्किल लगे, ऐसी उसकी दशा बढती जाती है। अल्प अस्थिरताके कारण जाता है, परन्तु उसकी उग्रता होती जाती है। भेदज्ञानकी धारा, द्रव्यकी प्रतीतिका बल बढता जाता है। लीनता विशेष बढती जाती है।
मुमुक्षुः- निज स्वभावकी ओर मुडता हो उस प्रकारकी खटक कहनेका वहाँ आशय है?
समाधानः- स्वाध्याय, मनन, चिंतवन आदि सबका हेतु क्या है? मुझे आत्माका स्वरूप प्रगट करना है, मुझे आत्माको पहचानना है। स्वाध्यायके खातिर स्वाध्याय या मनन, चिंतवन नहीं, परन्तु इसका हेतु क्या है? ध्येय एक चैतन्य ओरका है। मुझे चैतन्य स्वभाव प्रगट करना है। सिर्फ एक शुभभावके लिये स्वाध्याय, मनन नहीं, परन्तु
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इसका हेतु मुझे चैतन्य कैसे प्राप्त हो, ऐसी खटक होनी चाहिये। मेरा स्वभाव कैसे पहचानूँ, मुझे भेदज्ञान कैसे प्रगट हो? मेरे चैतन्यद्रव्यका अस्तित्व, मैं चैतन्य हूँ, यह मुझे कैसे ग्रहण हो? ऐसी खटक होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- .. वह भाव प्रत्येक जीवोंको, प्रति समय उसकी दशामें होता है?
समाधानः- वह अनुभूति अर्थात स्वानुभूतिकी अपेक्षा नहीं है। वह तो आबालगोपालको स्वयंका वेदन हो रहा है अर्थात वह ज्ञानस्वभाव स्वयं उसे अनुभवमें आ रहा है। वह जाने तो चैतन्यद्रव्य स्वयं अपने ज्ञानस्वभावसे पहचानमें आये उस प्रकारसे अनुभवमें आ रहा है। क्योंकि वह जाननेवाला द्रव्य है। वह जाननेवाला द्रव्य ज्ञात हो रहा है, स्वयं देखे तो। यथार्थरूपसे ज्ञात हो रहा है, ऐसे नहीं, परन्तु उसका जाननस्वभाव सबको अनुभवमें आ सके ऐसा है, अनुभवमें आ रहा है। जडता अनुभवमें नहीं आती। जडतारूप आत्मा नहीं है, परन्तु चैतन्यरूप जाननेवाला सबको ज्ञात हो रहा है कि यह विकल्प है, यह पर है, यह यह है, यह है, ऐसा विचार करे तो जाननेवाला अनुभूतिमें सबको आ रहा है, परन्तु स्वयं लक्ष्य देकर यथार्थतया जानता नहीं है।
स्वयं अपने स्वभावमें ज्ञानरूपसे अनुभवमें आ रहा है। विशेष स्वभाव है ज्ञायक जाननस्वरूप। ... सबको उसकी चैतन्यता अनुभवमें आ रही है। जाननतत्त्व है वह अनुभवमें आये ऐसा है। आबालगोपाल सबको अनुभवमें आ रहा है। यथार्थपने नहीं, परन्तु उसके स्वभावरूपसे अनुभवमें आ रहा है। जैसे यह जड वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि जिसमें जडता दिखती है, वैसे उसमें चैतन्यता दिखती है।
मुमुक्षुः- चैतन्यता इतनी स्पष्ट है कि उसे पहचाननी हो तो पहचानी जाय इतनी स्पष्ट है।
समाधानः- पहचानी जाय ऐसी चैतन्यता स्पष्टरूपसे है। स्वयं पहचानता नहीं है। ऐसी चैतन्यता स्पष्ट है।
मुमुक्षुः- .. उसके लिये पुरुषार्थ क्या करना? पहचाननेके लिये पुरुषार्थ कैसे करना? क्या करना?
समाधानः- बारंबार विचार करना, उस प्रकारका स्वाध्याय, मनन करना। अंतरमें जिज्ञासा करनी, महिमा करनी कि आत्मा कैसा अपूर्व होगा? मुझे कैसे प्रगट हो? विभावकी महिमा गौण करके स्वभावकी महिमा प्रगट करनी। मैं चैतन्य हूँ, ऐसा अभ्यास बारंबार करना। चैतन्यस्वभावका आता है न? समता, रमता, ऊर्ध्वता, ज्ञायकता, सुखभास, वेदकता, चैतन्यता ये सब जीवविलास। ऐसे चैतन्य सबको ख्यालमें आ सके ऐसा है। ज्ञायकता, सुखभास। ज्ञायकता है, समता, रमता-रम्य स्वभाव है, वेदकता-वेदनमें आता
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हूँ, चैतन्यता ये सब जीवविलास। वह चैतन्यता ऐसी है कि सबको ग्रहण हो ऐसी है। परन्तु स्वयं ग्रहण नहीं करता है। पुरुषार्थ करे तो ग्रहण होता है। परन्तु अनादिसे परके अभ्यासमें पडा है इसलिये ग्रहण नहीं होता। स्वयंकी ओरका अभ्यास करे तो अपने समीप ही है, दूर नहीं है।
मुमुक्षुः- शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन स्वयं ज्योति सुखधाम, बीजुं कहीए केटलुं कर विचार तो पाम। विचार करनेका अभी भान नहीं है, बोल दिया।
समाधानः- शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन स्वयं ज्योति सुखधाम। शुद्धतासे, बुद्धतासे चैतन्यघन है। शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन स्वयं ज्योति सुखधाम-सुखका धाम है। स्वयं ज्योति सुखधाम, बीजुं कहीए केटलुं, कर विचार तो पाम। विचार कर तो प्राप्ति होगी। स्वयं विचार नहीं करता है।