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मुमुक्षुः- राग और ज्ञान भिन्न है, यह कैसे नक्की करना?
समाधानः- रागका स्वभाव भिन्न है और ज्ञानका स्वभाव भिन्न है। राग है वह आकुलतारूप है। राग कहीं शान्तिरूप नहीं है। वह तो आकुलतारूप है, विपरीत स्वभाव है। और आत्माका स्वभाव जाननेका है-ज्ञायक। वह ज्ञायक है वह शान्तिरूप है, आनन्दरूप है। और राग है वह आकुलतारूप है। इसलिये दोनोंके स्वभाव भिन्न है, अतः दोनों भिन्न हैं।
दो भिन्न-भिन्न स्वभाव हो, वह किसी भी प्रकारसे एक नहीं हो सकते। जैसे शीतलता पानीका स्वभाव, अग्निका उष्णता स्वभाव है। उष्णता और शीतलता दोनों विरूद्ध स्वभाव है। वैसे राग और ज्ञान दोनों विरूद्ध स्वभाव है। इसलिये दोनों भिन्न हैं। दोनोंके लक्षण भिन्न, जिनका स्वभाव भिन्न हैं, वह दोनों वस्तु ही अलग है। ज्ञान भिन्न है, राग भिन्न है, दोनों भिन्न हैं। इसलिये दोनोंको लक्षण पहिचानकर भिन्न करना कि आत्मा शान्ति, ज्ञायक-जाननेवाला है और राग है सो आकुलतारूप है। दोनोंको लक्षणसे भिन्न करना कि यह जाननेवाला मैं और ये राग मैं नहीं हूँ।
ज्ञायकमें लीनता करनी, ज्ञायकको ग्रहण करना, ज्ञायककी ओर दृष्टि करनी वही मुक्तिका मार्ग है। रागको अपना माना, राग-ओर दृष्टि करनेसे परिभ्रमण उत्पन्न होता है। उसीसे जन्म-मरण होते हैं। रागसे, यह शरीर आदि बन्धता है और अनेक जातके भव प्राप्त होते हैं। ज्ञायकको जाननेसे भवका अभाव होता है और चैतन्यकी स्वपर्याय शुद्ध पर्यायकी उत्पत्ति होती है। इसलिये ज्ञायकको जानना। उसमें ही आनन्द, शान्ति, सुख सब उसमें भरा है। दोनों वस्तु ही भिन्न-भिन्न हैं।
गुरुदेव कहते थे, भगवान आत्मा भिन्न है और ये भिन्न है। उतना ही आत्मा है (कि जितना यह ज्ञान है)। जितना राग है वह विभाव है। जहाँ-जहाँ राग दिखे, जो-जो परिणमनमें वह सब विभाव है। ज्ञान है वही आत्मा है, ज्ञायक है वही आत्मा है। वही सर्वस्व है और बाकी सब पर विभाव है। वस्तु है, कोई अलग वस्तु है। उसे ग्रहण करनेसे उसकी जो अदभूत पर्यायें हैं वह प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- आनन्द ज्ञायकभावमेंसे-स्वभावमेंसे ही आता है? या उसके गुणमेंसे आता
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है? पर्यायमें आता है?
समाधानः- वह गुणमेंसे प्रगट होता है। आनन्द..
मुमुक्षुः- आनन्दगुण कहाँसे प्रगट होता है?
समाधानः- आनन्दगुण है वह अपना स्वभाव है। स्वभावमेंसे पर्याय प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- वेदन पर्यायमें होता है?
समाधानः- वेदन पर्यायमें होता है, परन्तु वह प्रगट होता है, उसके आनन्दगुणमेंसे पर्याय प्रगट होती है। उसमेंसे प्रगट होता है। चैतन्य पूरा ज्ञायक है, ज्ञायकमें अनन्त गुण है। ज्ञान है, दर्शन, चारित्र, आनन्द, बल आदि अनन्त गुण हैं। आनन्द आनन्दगुणमेंसे प्रगट होता है। और वह ज्ञायक आत्माका गुण है। ज्ञान ज्ञानमेंसे प्रगट होता है, दर्शन दर्शनमेंसे, आनन्द आनन्दमेंसे, बल बलमेंसे प्रगट होता है। परन्तु वह अभेद आत्माके गुण अलग टूकडे नहीं है, वह आत्माका ही स्वभाव है। अनन्त गुणसे भरा आत्मा, उसमेंसे पर्याय प्रगट होती है। वेदन भले पर्यायका हो, परन्तु वह पर्याय प्रगट होती है, चैतन्यके गुणमेंसे प्रगट होती है। चैतन्यके गुणमेंसे प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- अनन्त गुण है तो अनन्त गुणका वेदन पर्यायमें हो सकता है?
समाधानः- पर्यायमें होता है।
मुमुक्षुः- पर्यायमें एक साथ होता है?
समाधानः- पर्यायमें एक साथ होता है। उसके ज्ञानमें जान सकता है कि ये अनन्त गुणकी पर्याय उसके वेदनमें आती है। उसके नाम भले नहीं आते हो, परन्तु उसे वेदनमें जान सकता है। चेतन-ओर दृष्टि रखनेसे विकल्प टूटकर जो स्वानुभूति होती है, उस स्वानुभूतिमें अनन्त गुणकी पर्यायका वेदन होता है। वेदन पर्यायका है। पर्यायमें वेदन होता है, परन्तु वह विकल्प टूटकर होता है। निर्विकल्प दशामें होता है। सविकल्पतामें तो उसे भेदज्ञानकी धारा प्रगट होती है। ज्ञायकता।
अनादिअनन्त है। शाश्वत तत्त्व है। उसे किसीने बनाया नहीं है। स्वयं शाश्वत है, अनादिअनन्त है। उस चैतन्यको पहिचाननेकी जरूरत है। आत्मा ज्ञानस्वभावसे भरा ज्ञायकतत्त्व है। जाननेवाला है। ये कुछ जानता नहीं है। अन्दर जाननेवाला चैतन्यतत्त्व भिन्न है। विकल्प हो वह भी अपना स्वभाव नहीं है। आत्मा चैतन्यतत्त्व अनादिअनन्त है। आत्मा स्वयं सर्वगुणसंपन्न अनन्त शक्तिओंसे भरा है। उसे किसीने बनाया नहीं है। कोई ईश्वर हो और उसे बनाये, वह तो स्वतःसिद्ध वस्तु है। स्वयं चैतन्यतत्त्वको पहचाने, अन्दर उसे लगन लगे तो पीछाने। देव-गुरु-शास्त्र उसे बताते हैं, जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र। गुरुकी प्रत्यक्ष वाणी बरसती थी, कोई अपूर्व मार्ग दर्शाते थे। उस मार्ग पर जाय तो वस्तु समझमें आये ऐसा है। कोई अलग ही मार्ग है अन्दर। दोनों तत्त्व ही भिन्न-
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भिन्न हैं।
सब भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं। चैतन्यतत्त्व भिन्न है। सबका आत्मा भिन्न, सब अपना- अपना पुरुषार्थ द्वारा कर सकते हैं। परन्तु अनादिसे भ्रमणा है कि शरीर सो मैं, ये सब मैं, बाहरमें सबमें एकत्वबुद्धि कर रहा है। चैतन्यकी ओर दृष्टि करे तो करना वह है। उसकी लगन लगानेकी जरूरत है। गुरुदेवने क्या कहा है, उसका विचार करनेकी जरूरत है। गुरुदेवने कोई अलग मार्ग बताया है। वस्तु-द्रव्य, गुण, पर्याय अनन्त शक्तिओंसे भरा तत्त्व है। उसे पहचाननेकी जरूरत है।
शास्त्रोंमेसे अपने आप समझे तो... गुरुदेवने जो कहा है, गुरुदेवके जो प्रवचन.. पहले शुरूआतमें तो गुरुदेवके प्रवचन पढे तो उसमेंसे समझमें आये। मूल शास्त्रमेंसे अभी कुछ समझमें नहीं आता हो उसे मुश्किल पडता है।
.. तो यथार्थ फुरुषार्थ हो। समझन ही सच्ची न हो तो यथार्थ पुरुषार्थ कहाँ- से हो? अभी पुरुषार्थ करनेकी पडी न हो, अन्दर लगन लगे, आत्माकी जरूरत लगे तो पुरुषार्थ हो न। रुचि सब बाहर पडी हो तो अन्दर जरूरत नहीं लगे तो पुरुषार्थ कहाँसे हो? अंतरमें जाय तो कोई अपूर्व आत्मा है, उसकी स्वानुभूति हो, उसका आनन्द आवे। परन्तु स्वयंको जरूरत लगनी चाहिये न।
स्वानुभूति कोई अपूर्व वस्तु गुरुदेवने बतायी है। सबकुछ अन्दर ही है। स्वयं नित्य है और पर्याय बदलती है। एक वस्तुमें है। बदलता कोई और है, नित्य कोई और है। एक नित्य वस्तु है, उसीमें परिणमन होता है। स्वभावरूप परिणमना अपने हाथकी बात है। स्वभाव तो अनादिअनन्त नित्य है।
मुमुक्षुः- अनुभूतिमें आनन्दका कुछ वर्णन हमें सुनाईये।
समाधानः- वह कोई कहनेकी बात है? आत्मा अनुपम है। उसका आनन्द अनुपम, उसका स्वभाव अनुपम। अनन्त गुणोंसे भरा आत्मा है। अनन्त गुण, जहाँ उसकी निर्मल पर्याय प्रगट हो, वह अनुपम है उसका आनन्द। उसे कोई उपमा लागू नहीं पडती। वह कोई अनुपम है। विकल्प टूटकर जो स्वानुभूतिका आनन्द आये वह अनुपम है। कोई उपमा नहीं है कि उसके साथ मेल आवे।
मुमुक्षुः- बहिनश्रीको लिपटकर रहेंगे उनका भी बेडा पार है। तत्त्व भले कम समझे।
समाधानः- गुरुदेवके चरण मिले वह सब भाग्यशाली है। पंचमकालमें गुरुदेवके चरण सबको लंबे समय तक मिले हैं। वाणी बरसायी है। ऐसे कालमें ऐसे महा सत्पुरुषका योग प्राप्त होना, बहुत मुश्किल दुर्लभ है।
मुमुक्षुः- ऐसी ताकत है कि नित्य निगोदमेंसे मनुष्य भवमें प्रथम बार आकर
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सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सके? पूर्व संस्कार कुछ भी नहीं हो तो भी।
समाधानः- मनुष्य होकर प्राप्त कर सकता है। आत्मा है न। उसे पूर्व संस्कार हो तो ही (प्राप्त हो ऐसा नहीं है)। वह जबसे करे तबसे संस्कार। जबसे करे तबसे शुरूआत होती है। मनुष्य भव प्राप्त कर तुरन्त प्राप्त कर सकता है। निगोदमेंसे निकलकर हुए हैं, फिर राजाके कुंवर हुए हैं, मुनि हो गये। उसे कोई लंबा काल नहीं चाहिये। आत्माका स्वभाव स्वयं स्वभावसे ही भरा है। स्वभावमेंसे स्वभाव प्रगट होता है। इसलिये उसे कालकी या लंबे संस्कारकी जरूरत नहीं पडती। जबसे करे तबसे संस्कार। स्वयं संस्कारसे ही भरा है। स्वयं स्वभाव ही ऐसा है कि उसमेंसे प्रगट हो।
.. लागू नहीं पडता। पानीका शीतल स्वभाव उसमेंसे प्रगट होता है। वह सिर्फ मलिन हो गया है। इसलिये उसमें अमुक औषधि डाले तो निर्मलता प्रगट होती है। वैसे यहाँ स्वयंमें भरा है, कुछ बाहरसे नहीं लाना पडता। बाहर वाणी मिले, गुरुका उपदेश मिले, देव मिले एकदम स्वयं पुरुषार्थ करे तो स्वयं अन्दरसे प्रगट होता है। वह स्वयं अपनेमेंसे उछलता है।
जैसे कहते हैं न, समुद्र मध्यबिन्दुमेंसे उछलता है। वैसे अपना स्वभाव स्वयं पुरुषार्थ करे तो अपनेमेंसे प्रगट होता है। अनादि कालसे उसका अभ्यास नहीं है इसलिये उसे देव-गुरु-शास्त्र आदि निमित्त मिलते हैं।
मुमुक्षुः- ऐसा शक्तिवान पदार्थ है, उसे ख्यालमें नहीं आया?
समाधानः- अज्ञानके कारण ही ख्यालमें नहीं आया। अनादिकालसे उसीमें जो प्रवाह है उस प्रवाहमें चला जाता है। अनादिसे वापस ही नहीं मुडता है। कोई दर्शानेवाले मिले तो उसे अन्दर रुचि हो तो वह समझता है, नहीं तो अपने प्रवाहमें अनादिसे चला जाता है। जो प्रवाह चला, शुभाशुभ भावका प्रवाह चला उसमें चला जाता है। शुभभाव करके स्वर्गमें गया। तो स्वर्गका भव अनन्त कालमेंं अनन्त बार मिले। तो भी उसीमें परिभ्रमण करता है। सब भव उसने अनन्त बार किये।
मुमुक्षुः- पर्याय जो शुद्धतारूप रहनी चाहिये वह क्यों नहीं टिकती?
समाधानः- उसका एक ही कारण है, स्वयंका ही कारण है, उसे दूसरा कोई कारण लागू नहीं पडता। अपनी मन्दता है, पुरुषार्थकी मन्दता है। दूसरा कोई उसे रोकता नहीं, कर्म रोकता नहीं, कोई रोकता नहीं है। अपनी मन्दताका कारण है। स्वयं बाहर दौडता है और अतंरमें जाना वह अपने हाथकी बात है। अनादि कालसे स्वयं ही स्वंयके कारण जन्म-मरण होते हैं और जीव मोक्ष जाता है तो अपने पुरुषार्थसे जाता है। स्वयं करे तो होता है। स्वयं परिणति बदले, मुक्तिकी पर्याय प्रगट करनी वह जीवकी अपने हाथकी बात है। और बाहर जो एकत्वबुद्धि करता है वह भी अपना कारण
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है, अन्य किसीका कारण नहीं है। ... मार्ग बताया, परन्तु पुरुषार्थ करना अपने हाथकी बात है। गुरुदेवने कहा है, तू स्वयं स्वतंत्र है। इसलिये तू कर तो होगा।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- करना तो स्वयंको ही है। पूरा बदलाव लाना है, तीव्र हो तो होता है। जैसा कारण अपना वैसा कार्य आवे। मन्द कारण हो तो मन्द कार्य आवे और तीव्र कारण हो तो तीव्र आवे। भेदज्ञान तो स्वयं स्व-परको दोनोंको भिन्न करना है। स्वभाव और स्वभावको। जोरदार कारण हो, तीव्र पुरुषार्थ हो तो हो सकता है। लगन और उतना पुरुषार्थ हो तो होता है। उसकी झंखना, क्षण-क्षणमें उसकी झंखना हो तो होता है।
.. भावना करते रहना, पुरुषार्थ करना अपने हाथकी बात है। न हो तब तक भावना करते रहना। शुद्धात्मा कैसे प्रगट हो, उसकी। पुरुषार्थका अभ्यास करना। न हो तो भावना करनी। उसका भेदज्ञानका अभ्यास क्षण-क्षणमें करे, भावना करता रहे, पुरुषार्थ हो तो करे, न हो तो भावना रखनी। ये चैतन्यका स्वभाव, यह विभाव स्वभाव है। विभाव आकुलतारूप है, चैतन्यका स्वभाव शान्तिरूप, आनन्दरूप, ज्ञाता स्वभाव ज्ञायक है। परको कर नहीं सकता, स्वयं अपने स्वभावका कर सकता है। विभाव परिणाम सब आकुलतारूप है। स्वयं शान्तिरूप और अपनेमें परिणमन करनेवाला है। पर पदार्थकी ओर उसकी एकत्वबुद्धि करता है, वह उसकी भूल और भ्रान्ति है। उसमेंसे कैसे छूटकर भेदज्ञानका अभ्यास करना, बस, उसका अभ्यास करना, उसकी भावना करनी। पुरुषार्थ जो हो सके वह करना। बाकी पुरुषार्थका कारण अपनी मन्दताका कारण है, नहीं होता है वह। तीव्रता हो तो होता है। परन्तु उसके लिये कोई आकुलता काम नहीं करती। उसकी भावना रखकर धैर्य रखकर शान्तिसे कार्य हो ऐसा है।
समाधानः- .. भावना रखनी। तीव्रता हो तो ... स्वभाव ही ऐसा है। गुरुदेवने भवका अभाव होनेका मार्ग बताया। जन्म-मरण कैसे टले? मुक्तिका मार्ग अंतरमें है। अंतरमेंसे खोजनेका प्रयत्न करना चाहिये। इस पंचमकालमें गुरुदेव मिले तो मुक्तिका मार्ग दर्शाया। .. दृष्टि करवायी, चैतन्यको कोई पहचानता नहीं था। बाहरसे क्रिया करे तो धर्म होता है, ऐसा मानते थे।
... अनन्त जन्म-मरण किये उसमें इस आत्माको पहचानना। आत्मा शाश्वत है। कोई अदभूत आत्मा है। ज्ञायकका रटन रखना। ज्ञायक कोई अलग (है)। उसमें आनन्द, उसमें अनन्त गुण, सब उसमें है। ये विभाव स्वभाव आत्मा नहीं। उसका भेदज्ञान क्षण- क्षणमें करना। विभावसे विरक्ति हो, स्वभावकी महिमा आवे। उसके लक्षणसे पहचानना कि यह .. ही है। जो जाननेवाला, जिसमें चेतनता है, जाननेवाला है वह आत्मा
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है। स्वमें एकत्व (करे)। मैं चैतन्य शाश्वत अनादिअनन्त हूँ। अनन्त जन्म-मरण किये तो भी चैतन्य तो वैसाका वैसा शाश्वत है। उसके अनन्त गुण या उसका स्वभाव नाश नहीं हुआ। वैसा का वैसा है। उसे पहचानना, वह उपाय है। उसे पीछाननेका प्रयत्न करना, उसका विचार करना, उसका अभ्यास करना। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और आत्माकी महिमा अंतरमें रखकर तत्त्वका विचार करना, यह उसका उपाय है।
अनन्त कालसे परपदार्थ.. स्व-परकी एकत्वबुद्धि हो रही है। एकत्वबुद्धि तोडनी। परके द्रव्य-गुण-पर्याय और स्व द्रव्य-गुण-पर्याय दोनों भिन्न हैं, उसे भिन्न करना। यह उसका उपाय है। आत्मा कोई अपूर्व अदभूत वस्तु है। उसे प्राप्त करनेके लिये उसके विचार, उसकी प्रतीत, उस जातकी लीनता वह सब करने जैसा है।
उसे लक्षणसे पहचानना। आत्मा स्वयं ज्ञानलक्षण है। कोई वस्तुको पीछाननी हो तो लक्षणसे पहचानते हैं न? भिन्न करना। शक्करका मीठा स्वभाव है, कालीजीरीका कडआ स्वभाव है। उसे स्वभावसे पीछाना जाता है। वैसे आत्माका जाननेका लक्षण है। ये पुदगल कुछ जानता नहीं। जो जानता है वह मैं हूँ। जिसमें आनन्द है, जो जानता है वह मैं हूँ। इस प्रकार लक्षणसे पहिचान। लक्षणको पीछाने बिना वह भिन्न कैसे होगा? इसलिये लक्षणसे पीछानना।
अनादिका अनजाना पहचाना नहीं जाता। लक्षणसे पहचान। और गुरुदेव मार्ग दर्शाते हैं कि तू भिन्न कोई अपूर्व है। ये जो अनादिका है वह अपूर्व नहीं है। वह सर्वस्व नहीं है, वह रखनेयोग्य नहीं है। आत्मा है वही रखनेयोग्य और आनन्दरूप है। ये सब तो दुःखरूप है। इतनी प्रतीत अंतरमेंसे आनी चाहिये। उसका ज्ञानलक्षण कभी नाश नहीं हुआ। वह जाननेवाला सदा जाननेवाला ही है। अंतरमेंसे शान्ति आवे, अंतरमेंसे ज्ञान आवे, अंंतरमेंसे अनन्त गुणकी पर्यायें अंतरमेंसे प्रगट होती है। बाहरसे कुछ नहीं आता है।
उसकी लगन लगाते रहना। उसका पुरुषार्थ करते रहना, उसका अभ्यास करते रहना। जब तक नहीं होता तब तक चैतन्य हूँ, मैं चैतन्य हूँ, मैं चैतन्य हूँ, उसकी भावना करता रहे, उसका प्रयास करते रहना, भेदज्ञान करनेका।